’’ माँ कैसी लगीं ?’’ सगाई की रस्म के बाद रेवती को मैं अपने साथ बाहर ले आया ।
’’उन्हें लेकर मेरे मन में अभी उत्सुकता है । उन्हें मैं अभी और जानना चाहूँगी,’’ रेवती मेरी पकड़ से बच निकली ।
’’क्यों ?’’ अपने परिचितों की व्याख्या और विश्लेषण के लिए सदैव तत्पर रहनेवाली रेवती की टाल-मटोल मुझे खल गयी, ’’तुम्हें वे पसन्द नहीं आयीं क्या ?’’
’’मैं उन्हें पसन्द हूँ क्या ?’’ रेवती ने जवाबी हमला दाग दिया, ’’उन्होंने भी तो अपने व्यवहार में कुछ भी स्पष्ट नहीं किया है ।’’
यह सही था । पापा, दादी, बुआ और फूफा लोग की भाँति माँ ने रेवती पर स्नेह उँड़ेला न था ।
’’उनका व्यवहार अलग जरूर था, ’’मैंने सफाई देनी चाही, ’’पर तुम भूल रही हो कि सगाई की तुम्हारी इस अँगूठी का बिल उन्हीं ने दिया था ।’’
’’लेकिन इसे पसन्द किसने किया था ?’’ रेवती ने हीरों-जड़ी अपनी अँगूठी अपनी उँगली में घुमायी और अँगूठीवाला हाथ हवा में लहराया ।
’’दुनिया की सबसे मीठी लड़की ने, ’’मैंने उसका हाथ अपने हाथ में सँभाल लेना चाहा। रेवती का आग्रह था अपनी अँगूठी वह स्वयं पसन्द करेगी ।
’’मुझे अपनी माँ जैसा न समझना, ’’रेवती ने परिहास किया, ’’जो प्रशंसा के बिना जी नहीं सकतीं !’’
’’मतलब ?’’ मैं चौंका ।
’’प्रशंसा का ऐसा लोभ मैंने आज तक किसी में नहीं देखा । मानो प्रशंसा ही उनकी खुराक हो और आप सब लोग भी कैसे लोग हो ? उनकी प्रशंसा शुरू करते हो तो बस प्रशंसा ही किये जाते हो । वे क्या इतनी विरली हैं ?’’
’’हाँ ! विरली हैं वे ! उन्होंने पापा के परिवार के लिए बहुत किया है । मेरे दादा की मृत्यु बहुत पहले हो गयी थी और मेरी तीनों बुआ लोग की शादी उन्होंने ही की । अपनी तनख्वाह का एक-एक पैसा उन पर लगा दिया ।’’
’’कितनी तनख्वाह मिलती है उन्हें ?’’
’’ग्यारह हजार ! वे अपनी शादी से पहले से इस सरकारी स्कूल में पढ़ा रही हैं-’’
’’कुल जमा ग्यारह हजार ?’’ रेवती ने ठीठी छोड़ी, ’’और पापा की तनख्वाह कितनी है?’’
’’अट्ठाइस हजार ।’’
’’फिर ऊपर से सरकारी बँगला है, टेलीफोन है, वाहन-वाहक है । तुम हिसाब लगाकर देखो तुम्हारे पापा की जीविका की तुलना में उनका वेतन निर्वाह-योग्य भी नहीं ।’’
’’तुम भटक रही हो, ’’मैं हँस पड़ा, ’’सीधी-सी बात है तुम्हें माँ पसन्द नहीं आयीं ।’’
’’तुम जानते हो मुझे खुली किताब जैसे पारदर्शी लोग ज्यादा पसन्द हैं और वे विपरीत स्वभाव की हैं । वे जटिल हैं, बहुत ही जटिल ।’’
’’और मेरे पापा ?’’
’’उन्हें समझना सुगम है । वे पारदर्शी हैं और सरल भी । सच पूछो तो मैंने हूबहू उन्हें वैसा ही पाया जैसा मैंने सोच रखा था । अपने सौभाग्य एवं वैभव के गुलाबी नशे में आश्वस्त, सन्तुलित एवं प्रसन्नचित्त । जबकि माँ में ऐसा कुछ भी नहीं है-न पापा जैसा ठाठ, न उन जैसी सुरभि । बल्कि परिवार की दूसरी महिलाओं की तुलना में भी वे गहना बहुत कम पहने हैं और अपने कपड़े-लत्ते भी बहुत फीके और शुष्क रखे हैं ।’’
’’मेरे नाना-नानी स्वयं भी गाँधीवादी रहे और अपने तीनों बच्चों को भी उन्होंने उसी ढंग से रहने की शिक्षा दी, ’’मैंने कहा । मैंने बताया नहीं सन् पचास के दशक में बिताये अपने बचपन के अन्तर्गत माँ ने खुशहाली कम और संघर्ष अधिक देखा था । लाहौर में रहने वाले मेरे नाना पाकिस्तान बन जाने पर ही कस्बापुर आये रहे और साधनविहीनता के उस समय में मेरी नानी के सारे गहने क्या बिके, घर में फिर गहनों को प्रवेश पाने में कई साल गये । जब मेरे मामा लोग ब्याहे गये । माँ नहीं । असल में जिस स्कूल में माँ को दाखिला दिलाया गया था, वहाँ गहना पहनने की मनाही रही थी और माँ के कान भी छिदवाये न गये थे । फिर नानी ने अपने हाथ में कभी सोने की एक चूड़ी भी जब नहीं पहनी थी तो माँ ने भी सादगी को अपना धर्म मान लिया था और गहनों का मोह सदैव के लिए त्याग दिया था ।
’’माँ को बता दो उनका गाँधीवाद मेरे साथ नहीं चलने वाला, ’’ रेवती ने बनावटी रोष जतलाया । 
’’कह दूँगा, ’’मैंने उसकी पीठ घेर ली, ’’आज ही कह दूँगा ।’’
’’बल्कि मेरे लिए तो माँ कुछ खरीदें ही नहीं । मुझी को रूपया पकड़ा दें और मैं अपना देख लूँगी ।’’
रात में जब परिवार की सभी महिलाएँ बैठक में एकजुट हुईं तो मैं 
फूफा लोग और पापा के पास जा बैठा, लेकिन जैसे ही रेवती के लिए खरीदे जानेवाले सामान की बात मेरे कानों ने पकड़ी, मैं बैठक में लपक लिया । 
’’मैं तो उसक सात साड़ी दूँगी और चार सलवार सूट,’’ माँ कह रही थी ।
’’रेवती की पसन्द भी पूछनी चाहिए, माँ,’’ मैंने माँ को टोक दिया, ’’बल्कि मैं तो कहता हूँ आप सारा रूपया मुझे पकड़ा दीजिए, मैं सब देख लूँगा ।’’
’’लड़का सही कह रहा है, ’’छोटी बुआ हर्षित हुई, ’’बल्कि हम तो कहेंगी हमारी साड़ी का रूपया भी हमीं को पकड़ा दिया जाए ।’’
’’रूपया क्यों पकड़ा दिया जाए ?’’
मँझली बुआ ने छोटी बुआ को चिकोटी काटी, ’’हम बजार जाएँगी और अपनी-अपनी साड़ी पर हाथ रखेंगी और भाभी हमें वही खरीद देंगी ।’’
’’बल्कि मैं तो कहती हूँ’’ दादी उल्लसित हुईं, ’’घर में तमाम काम है । तुम तीनों बहनें ही क्यों न सब ले-लिवा आओ ? रेवती के लिए, अपने लिए, अपने-अपने पति के लिए, अपने-अपने बच्चों के लिए ।
’’बहुत अच्छा सोचा, अम्मा,’’ बड़ी बुआ हुलस लीं, ’’और इस बार तुम्हारी साड़ी भी हमी लाएँगी, भाभी नहीं । भाभी की पसन्द तुमने बहुत पहन ली, इस बार, हमारी पहनना ।’’
अपनी शादी से लेकर अब तक माँ ही दादी के लिए खरीदारी करती रही थी । 
’’बढिया, ’’ दादी हँसी, ’’बहुत बढ़िया । इकलौते तोते की शादी है । इस बार, तो खूब बढ़िया पहनना ही चाहिए ।
’’ऐसा करेंगे, ’’ बड़ी बुआ ने कहा । ’’एक ही कीमत की पाँच साड़ी लाएँगी । अपने तीनों के लिए शोख और चमकदार रंगों में और भाभी के और तुम्हारे लिए हल्के और नीरस रंगों में ।’’ और कहते-कहते हँ पड़ीं ।
दूसरी दोनों बुआ के साथ दादी ने भी बड़ी बुआ की हँसी का पीछा किया ।
माँ अपने गाल चबाने लगी ।
उनके माथे पर त्यौरियाँ चढ़ आयीं और वे लगभग चीख उठीं, ’’अपनी साड़ी की कीमत और बनावट मैं भी आप लोग की तरह अपने आप ही पसन्द करूँगी । आप लोग की तरह अपने मन की खरीदूँगी, मन की पहनूँगी ।’’
’’क्या हुआ ?’’ पापा बैठक में चले आये ।
विरले ही माँ की आवाज में ऐसी तेजी हमने पहले कभी सुनी थी ।
’’माँ को अपनी खुराक नहीं मिल रही थी, ’’मैंने कहा ।
’’खुराक ?’’ पापा अचम्भित हुए, ’’कैसी खुराक ?’’
’’रेवती ने आज माँ का एक भेद मुझसे खोल डाला । बोली, माँ अपनी प्रशंसा की भूखी हैं, प्रशंसा ही माँ की खुराक है और अपनी प्रशंसा सुनती वे अघातीं नहीं ।’’
’’ऐसा कहा उसने ?’’ माँ का रंग सफेद पड़ गया ।
दादी और तीनों बुआ लोग एक-दूसरे को चिकोटी काटने लगीं ।
’’ईर्ष्या से ऐसे बोली वह, ’’ पापा माँ की बगल में आ बैठे, ’’हमीं जानते हैं तुम्हारी माँ की जितनी भी प्रशंसा की जाए वह कम है । कम रहेगी । और मेरा दावा है वह लड़की जब इस घर में आएगी और तुम्हारी माँ का धीर देखेगी, तुम्हारी माँ का त्याग देखेगी, तुम्हारी माँ का संयम देखेगी तो वह भी तुम्हारी माँ को सलामी देने लगेगी, मेरी तरह, तुम्हारी तरह, हम सबकी तरह ।’’
माँ के माथे की त्यौरियाँ लोप होने लगीं । दाँत, गालों से हटकर तालू में आ जमे और आँखें बरस पड़ीं ।
बिना चेतावनी दिये ।
’’हम तो मजाक कर रही थीं, भाभी, ’’ बड़ी बुआ ने माँ को अपने अंक में ले लिया, ’’वरना आपके बिना भला हम क्यों बाजार जाने लगीं ?’’
’’असम्भव, एकदम असम्भव, ’’मँझली बुआ भी माँ के पास आन खड़ी हुईं, ’’बाजार जाएँगी तो भाभी ही के साथ, वरना कतई नहीं ।’’
हिंसाभास, दुर्ग-भेद, रण-मार्ग, आपद-धर्म, रथ-क्षोभ, तल-घर, परख-काल, उत्तर-जीवी, घोड़ा एक पैर, बवंडर, दूसरे दौर में, लचीले फीते, आतिशी शीशा, चाबुक सवार, अनचीता, ऊँची बोली, बाँकी, स्पर्श रेखाएँ आदि कहानी-संग्रह प्रकाशित. संपर्क - dpksh691946@gmail.com

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