“मैं अपना नाम बदलूँगा,” मैंने माँ से कहा| 
अगले दिन मुझे अपना हाईस्कूल का फॉर्म भरना था और मेरे अध्यापकगण ने मुझे बताया था कि अपना जो भी नाम और अपनी जो भी जन्मतिथि मैं उस फॉर्म में दर्ज करूँगा फिर ज़िन्दगी भर उन दोनों को मुझे अपने साथ रखना होगा|
“क्यों?” माँ ने पूछा|
“अपने हेमन्त के साथ मुझे रंजन नहीं चाहिए|”
“तो क्या शांडिल्य चाहिए?”
शांडिल्य माँ के पिता का जातिनाम था, जिसे उन्होंने अभी भी अपने साथ रखा हुआ था| तीस साल पहले जब मेरे नानाजी की मृत्यु हुई थी, तब बी.एस-सी. के तीसरे साल में पढ़ रही मेरी माँ को उनकी इकलौती सन्तान होने के नाते उनकी मृतक-आश्रित की हैसियत से उसी वैज्ञानिक संस्थान में उन्हीं का पद तथा वही सरकारी क्वार्टर अलॉट कर दिया गया था जहां वह रहते रहे थे। और हमारे घर के बोर्ड पर माँ ही का नाम था- करुणा शांडिल्य, लैबोरेटरी असिस्टेंट|
“नहीं, आपका नाम भी नहीं चाहिए,” मेरे दायें हाथ की उँगलियाँ अपनी हथेली पर एक घूसे की ताक़त संगठित करने लगीं और मेरा कलेजा मेरे कंठ में एक चीत्कार का नाद| माँ को मैं दुनिया की सबसे बड़ी मूर्खा मानता था जो अपनी सरकारी नौकरी के पन्द्रहवें साल में, पैंतीस वर्ष की अपनी पकी उम्र में, सैंतालीस वर्षीय बाबा को अपने क्वार्टर पर ले आयी थीं| मुझे पैदा करने| यह जानने के बावजूद कि उधर कस्बापुर में बाबा की पुरानी ब्याहता रहीं, तीन बेटे रहे| पहला, गिरीश रंजन| दूसरा, सतीश रंजन| तीसरा, राजीव रंजन|
“फिर क्या चाहिए?” माँ का स्वर चढ़ आया|
“क्या बात है?” नानी अपने कमरे से हमारे पास चली आयीं| जब से अपनी रिटायरमेंट के बाद बाबा स्थायी रूप से अपने पुराने पते पर लौट गये थे, नानी अब माँ को अपनी ओट में लेने लगी थीं| माँ के छिपने की जगह बन गयी थीं| मुझसे छिपने की| मेरे गुस्से से छिपने की|
“मुझे अपनी मौत चाहिए,” मेरा घूँसा मेरे माथे पर आ बहका और मेरी चीत्कार ने हवा में उछाल ली, “सबकी मौत चाहिए!”
“न बच्चे न!” नानी कातर आवाज़ में भुनभुनायीं, “अपनी माँ पर रहम कर…..”
“तू अपना दिल क्यों दुखाती है अम्मा?” माँ के प्राण अब नानी में बसते और तथैव नानी के माँ में, “तू हमें ईश्वर की दया पर छोड़ दे|”
“ईश्वर की दया मुझे नहीं चाहिए| आप दोनों को चाहिए| इन्हें अपनी ग़लत गृहस्थी जमाने के लिए और माँ को अपनी बेटी को गुमराह होने देने के लिए,”..मैं चिल्लाया।
“ख़बरदार!” माँ दहाड़ीं, “ख़बरदार जो अम्मा से कुछ भी अनापशनाप कहा…..”
“कहूँगा,” मैं फिर चिल्लाया, “ज़रूर कहूँगा! तुमने मुझे ग़लत ढंग से पैदा किया और उन्होंने तुम्हें ग़लत दिशा में जाने से रोका नहीं…..!”
माँ अपनी चप्पल उतारकर मुझे पीटने लगीं| उनकी चप्पल उनके हाथ से अलग करने में मुझे ज़रा भी दिक़्क़त नहीं हुई| अपने हाथों में फिर से संगठित हो आये घूँसे मैंने उन पर बरसाने शुरू कर दिये| कुछ उनके सिर पर लगे, कुछ गाल पर, कुछ पीठ पर और जब वे ज़मीन पर लोटने लगीं तो मैंने अपने घूँसे लौटा लिये|
“यह कुछ भी नहीं है|” मैं गरजा, “अब अगर धौंस दिखाई तो मैं तुम दोनों की गर्दन नाप दूँगा!”
जभी दरवाज़े पर ज़ोर की थाप हुई|
       माँ तत्काल अपने को सँभालने लगीं| रो रही नानी को सँभालने लगीं| 
         दरवाज़ा मैंने खोला| 
        बाहर गिरीश रंजन और सतीश रंजन खड़े थे| 
        एक साथ वे पहले कभी नहीं आये थे| आये भी थे तो अकेले-अकेले| वास्तव में उन तीनों भाइयों ने अपनी इंटरमीडिएट की परीक्षा यहीं हमारे शहर से दी थी| कस्बापुर में उसका परीक्षा केन्द्र न रहने के कारण|
“आंटी कहाँ हैं?” दोनों समवेत स्वर में चिल्लाये|
“क्या हुआ?” माँ भी दरवाज़े पर चली आयीं|
दोनों रोने लगे, “बाबा के दोनों गुर्दे जवाब दे चुके हैं| हम उन्हें इधर अस्पताल में दाखिल कराये हैं|”
“अन्दर आ जाओ,” माँ ने दोनों के हाथ थाम लिये और उन्हें अन्दर ले आयीं|
 कहने को इस सरकारी क्वार्टर में दो कमरे थे, लेकिन हम एक ही कमरे को ज़्यादा इस्तेमाल में लाते थे| बैठने-बिठाने को| उसी में तख़्त लगा था, टी.वी. था, फ्रिज़ था और थीं दो आरामकुर्सियाँ और एक छोटी गोल मेज़| जब तक बाबा यहाँ रहे, यह कमरा उन्हीं के नाम चिन्हित रहा| उनके जाने के बाद इसे मैंने अपना ठिकाना बना लिया था| दूसरे कमरे में फोल्डिंग चारपाइयाँ थीं, जिन्हें ज़रुरत पड़ने पर खोल दिया जाता था| वरना वे कोने में पड़ी रहतीं| लकड़ी के दो सन्दूकों के साथ| जिनमें आज से पचास साल पहले नानी के मायकेवालों ने उनके दहेज का सामान नाना के इस सरकारी क्वार्टर में भेजा था|
“बाबा को डायलिसिस देना ज़रूरी है,” कमरे में पहुँचकर गिरीश रंजन और सतीश रंजन फिर बिसूरने लगे, “डायलिसिस के लिए डॉक्टर एडवांस माँग रहे हैं| गारंटी माँग रहे हैं| बाबा कहते हैं आप बहुत कृपालु हैं| बहुत उपकारी| आप ज़रूर उन्हें बचा लेंगी|”
“कैसा उपकार? कैसी कृपा?” बहककर माँ ने उन्हें बारी-बारी से गले लगाया, “वे क्या केवल तुम लोगों के पापा हैं? हेमन्त के नहीं?”
माँ के आचार-व्यवहार में न कभी प्रेम निश्चित रहा करता और न कभी दुर्व्यवहार| सामनेवाले का तत्क्षण संवेग यदि उनके अनुकूल रहता तो वे उस पर लट्टू हो जाया करतीं और यदि प्रतिकूल तो सामनेवाले को बड़ी-से-बड़ी चोट लगाने से भी न चूकतीं| अपने इस सरकारी क्वार्टर में इन्हीं भाइयों की टिकानों के दौरान माँ को कई छोटे-बड़े दौरे पड़ते रहे थे : कुछ विशुद्ध उदारता के तो कुछ अकूत क्रूरता के|
नानी को छोड़कर अस्पताल हम सब साथ पहुँचे| माँ का एक एफ.डी. तुड़वाकर|
जनरल एमर्जेंसी वार्ड के एक बेड पर बाबा लेटे थे| उनका चेहरा ज़र्द पीला था और दाढ़ी के बाल तिल चावली| दाढ़ी की हजामत बनाये हुए उन्हें कई दिन हो गये होंगे|
“आंटी आ गयी हैं,” बेड के पास रखे स्टूल पर बैठा राजीव रंजन उठ खड़ा हुआ |
“करुणा…..” बाबा क्षीण स्वर में फुसफुसाये, “मुझे बचा लो…..”
माँ रोने लगीं|
“हेमन्त!” बाबा ने मुझे पुकारा, “इधर मेरे पास बैठो|”
राजीव रंजन की जगह मेरे ग्रहण करते ही बाबा फिर बोल उठे, “इस बीमारी की वजह से इस साल तुम्हारा जन्मदिन ख़ाली निकल गया|”
पिछले मेरे हर जन्मदिन पर मेरे बदल रहे चेहरे का नया खाका वे नये काग़ज़ पर उतारते रहे थे| लकीरों का जादू वे बख़ूबी जानते थे| किसी से भी जब उन्हें अपना मैत्री भाव अथवा स्नेह प्रकट करना होता, उसके लिए वे स्केच ज़रूर बनाया करते| माँ के पास तो उनके बनाये स्केचों का भंडार ही रहा|
आधे घंटे के अन्दर बाबा की एक बाँह मशीन से सम्बद्ध कर दी गयी| दो ट्यूबों द्वारा| बाद में मुझे बताया गया एक ट्यूब द्वारा उनकी धमनी का ख़ून मशीन में पहुँचाया जा रहा था ताकि वह ख़ून में जमा हो चुके अवशिष्ट पदार्थ निकाल दे और दूसरी ट्यूब द्वारा साफ़ किया गया ख़ून शिरा में भेज दे|
“एक्यूट किडनी फेलियर का केस होने के कारण हम उन्हें डायलिसिस पर ले आये हैं,” जनरल एमर्जेंसी वार्ड से बाहर जब हम डॉक्टर से मिले तो उसने हमें पूरी स्थिति की जानकारी दी, “लेकिन यह उनके रोग के उपचार का पहला चरण है| अस्थायी चरण| हम केवल समय ख़रीद रहे हैं| अच्छा तो यही रहेगा कि उनके शरीर में एक नया गुर्दा ट्रांसप्लांट कर दिया जाए| यों तो किसी कैडवर (शव) के गुर्दे का प्रबन्ध भी किया जा सकता है, लेकिन कैडवर गुर्दे को दो साल तक बने रहने का संयोग केवल ७५ फीसदी होता है, जबकि किसी नज़दीकी के गुर्दे का ९० फीसदी|”
“दो साल के बाद क्या फिर से दूसरा गुर्दा चाहिए होगा?” गिरीश रंजन ने पूछा|
“हाँ…..” डॉक्टर ने कहा|
“उनके चार बेटे हैं” माँ ने कहा, “आठ साल तो आराम से कट ही जाएँगे|”
“ठीक है| चारों के टिश्यू और ख़ून के नमूने हम लिये लेते हैं| सबसे पहले उसी बेटे का गुर्दा लेंगे जिसका मेल सबसे ज़्यादा क्लोज़, ज़्यादा नज़दीक रहेगा|”
“हेमन्त रंजन को अभी न छेड़िए,” माँ ने कहा, “यह अभी उठती जवानी में है| कच्ची तरुणाई में| इसे अभी पक जाने दीजिए| इससे लाभ उठाने के अवसर जब आएँगे, यह भी सुलभ रहेगा| उपलब्ध रहेगा|”
किस कौशल से माँ ने मुझे आस्था की परीक्षा देने से बचा लिया था!
“लेकिन आंटी…..” गिरीश रंजन ने कहा, “एक दुकान में मैंने अभी हाल में ही एक सेल्समैन की नौकरी पकड़ी है| मेरी ग़ैरहाज़िरी में मालिक किसी और को रख लेंगे| ऐसे में मैं सोचता हूँ अपना गुर्दा मैं भी अभी न दूँ| अगली कोई बारी ले लूँ|”
“वही तो मैं भी सोचता हूँ|” सतीश रंजन ने कहा, “इन दिनों कम्प्यूटर के जिस कोर्स में मैंने दाख़िला ले रखा है, उस कोर्स के इम्तिहान अगले सप्ताह पड़ रहे हैं| इम्तिहान अगर मैं नहीं देता तो मेरे कोर्स की पूरी फ़ीस बेकार चली जाएगी| गुर्दा तो मैं भी इस समय नहीं ही देना चाहूंगा।”
मैं चुपचाप वहाँ से खिसक आया| बाबा के पास| जहाँ राजीव रंजन बैठा था| डॉक्टरों का निर्देश था, परिवार के किसी-न-किसी सदस्य का डायलिसिस के समय बाबा के पास बने रहना अनिवार्य है| डायलिसिस की दोनों ट्यूबों के यथास्थान संचालन के अवलोकन हेतु| किसी भी ट्यूब के अपने स्थान से खिसकने पर रोगी की जान जोखिम में पड़ सकती थी|
“राजीव रंजन…..” माँ ने उसे पुकारा–वह मेरे पीछे पीछे चली आईं थीं– “तुम्हें डॉक्टर उधर बुला रहे हैं| चलो उठो…..देखो क्या कह रहें हैं….”   
माँ ने उसकी पीठ पर थपकी दी|
क्या वे उसे तैयार कर रही थीं? बाबा को गुर्दा देने के लिए? 
थपकी क्या उसी को लेनी होगी?
“आजकल क्या कर रहे हो?” रास्ते में मैंने राजीव रंजन से पूछा| उसका उत्तर जान लेने की मेरे अन्दर तीव्र जिज्ञासा थी|
“कुछ ख़ास नहीं,” बिना किसी शब्दाडम्बर के उसने पूरे भोलेपन के साथ अपना उत्तर दिया|
“क्या कहीं पढ़ते नहीं?” उन तीन भाइयों में हमारे घर पर वही सबसे कम बार आया था| उससे मिले हुए मुझे लगभग तीन साल हो रहे थे| जब उसे हमारे घर से अपने इंटरमीडिएट का इम्तिहान देना था|
“बी.ए. के दूसरे साल में हूँ, लेकिन सब बेकार है| अकेले बी.ए. से कुछ हासिल नहीं होने वाला…..”
“तुम कुछ हासिल करना चाहते हो?”
“हाँ…..|”
“क्या?”
“बाबा की तरह मैं भी अच्छे स्केच बना लेता हूँ| उन से खूब अच्छा सीखा भी हूं ,” सहज ही अपने भरोसे को उसने मेरे सुपुर्द कर दिया, “लेकिन बाबा की तरह अपने पीछे मैं गुमनाम काग़ज़ छोड़कर नहीं जाना चाहता| नाम कमाना चाहता हूँ| नाम भुनाना चाहता हूँ|”
“आंटी ने तुम्हें तैयार कर लिया?” गिरीश रंजन और सतीश रंजन हमें देखते ही हमारी ओर बढ़ आये|
“किस बात के लिए?” राजीव रंजन ने पूछा|
        “इधर भेजते समय तुम्हें कुछ नहीं बताया?”
“क्या नहीं बताया?”राजीव रंजन आशंकित हो उठा।
“तुमने भी नहीं बताया?” दोनों मेरी ओर मुड़ लिये|
“नहीं,” मैंने कहा|
“फ़िलहाल कैडेवर गुर्दा ही ले लेते हैं,” स्थिति की जानकारी मिलते ही राजीव रंजन ने कहा, “तुम जानते हो आर्ट्स कॉलेज के उस आनन्द स्पॉट कम्पटीशन में भाग लेने के लिए कितनी भागदौड़ मुझे अभी से करनी होगी| अपना नाम समय से भरना होगा। फ़ीस का प्रबन्ध करना होगा।”
लेकिन किसी भी गुर्दे के प्रतिरोपण से पहले ही बाबा चल बसे| बल्कि उसी रात|
“फौरन अस्पताल चले आओ,” सुबह के तीन बजे गिरीश रंजन ने मेरे मोबाइल पर सूचना दी , “बाबा का बेड इन लोगों ने नये एमर्जेंसी केस को दे दिया है|”
भाइयों में सतीश रंजन ही माँ के आग्रह पर हमारे साथ क्वार्टर पर सोने आया था| मेरे तख़्त पर| मेरी बगल में| गिरीश रंजन और राजीव रंजन तो बाबा की पहरेदारी के लिए वहीं अस्पताल में रुक गये थे| 
भौंचक अवस्था में सतीश रंजन ने माँ और नानी का दरवाज़ा खटखटाया |
“मुझे बताओ,” माँ की जगह नानी बाहर आयीं, “करुणा को इस समय जगाना ठीक नहीं| बेचारी की अभी अभी आँख लगी है| वह भी उसकी नींद की गोली से…..”
माँ की नींद की गोली की तरंग से सभी परिचित थे| बाबा समेत सभी सुबह के पंछी रहे, लेकिन इसी गोली के बूते पर माँ सुबह देर तक सोया करतीं| पूरी बेपरवाही के साथ| अपने संस्थान पर उन्हें दस बजे से पहले जाना भी न रहता|
“बाबा को यहाँ लाना होगा,” सतीश रंजन रोने लगा|
“मेरी मानो तो पौ फट लेने दो,” नानी ने कहा, “दिसम्बर की इस कड़ाकेदार सर्दी की रात में तुम्हें अस्पताल के लिए कोई सवारी नहीं मिलने वाली…..”
हमारे क्वार्टर से अस्पताल चालीस किलोमीटर की दूरी पर तो रहा ही रहा| नानी द्वारा दरवाज़ा बन्द कर देने की आवाज़ उसके साथ मैंने सुनी, अपनी रज़ाई से| सतीश रंजन मेरी रज़ाई में न लौटा| आरामकुर्सी पर बैठकर मेरे मोबाइल से गिरीश रंजन का मोबाइल नम्बर मिलाने लगा|
“आंटी सो रही हैं…..हाँ, नींद की गोली लेकर…..उनकी अम्मा सवारी की दिक़्क़त बता रही हैं…..हाँ, गेट पर चौकीदार तो मदद कर ही देगा…..मैं आता हूँ फिर…..|”
“तुम्हारे साथ मैं भी चलूँगा|” अपनी रज़ाई मैंने छोड़ दी|
“मेरा बटुआ एकदम ख़ाली है,” सतीश रंजन ने कहा, “तुम्हारे पास कुछ रूपया है?”
“हाँ, है तो,” उसके शोकातुर चेहरे की चिन्ता मुझसे देखी न गयी, “मेरे परीक्षा-फॉर्म की फ़ीस मेरे पास पूरी-की-पूरी धरी है| एक सौ पचास रुपये|”
उसने मेरे रुपये अपने बटुए में भर लिये|
“हम अस्पताल जा रहे हैं,” माँ और नानी का दरवाज़ा इस बार मैंने थपथपाया| उधर से कोई जवाब नहीं आया|
संस्थान के चौकीदार ने हमारे संकट काल को तूल दिया और एक टैम्पो सौ रुपये के भाड़े पर ले दिया|
अस्पताल में गिरीश रंजन और राजीव रंजन हमें एमर्जेंसी वार्ड के बाहरवाले बरामदे में बैठे मिले| बाबा की गर्म लोई के अन्दर| बाबा का शरीर फर्श पर बिछा था- सर्वतः निस्सहाय और निराश्रय| उनके शरीर से न केवल अस्पताल की चादर नदारद थी, बल्कि उनका मफ़लर और पूरी बाजू का स्वेटर भी| उनका ऊपरी भाग इस समय केवल बिना बाजू की एक मैली बनियान का अवलम्ब लिये था और निचला भाग बदरंग एक सूती लुंगी का| उनके पैर पूरे नंगे थे| मोज़े और जूते सब ग़ायब थे|
“घर चलें?” मैंने पूछा| बाबा को कुछ पहना देने की मुझे जल्दी थी|
“ऐसे कैसे जाएँगे?” गिरीश रंजन उठ खड़ा हुआ| बाबा का मफ़लर उसने ओढ़ रखा था, “डॉक्टर से डेथ सर्टिफिकेट बनवाना होगा|”
“किसलिए?” सतीश रंजन ने पूछा|
“माँ को फैमिली पेंशन दिलाने के लिए,” गिरीश रंजन ने सतीश रंजन की तरफ देखकर आँख मिचकायी|
“दाह कर्म यहीं हो जाने देंगे या फिर उधर कस्बापुर ले जाएँगे?” सतीश रंजन ने फिर पूछा|
“उधर क्या है?” गिरीश रंजन घुड़का|
“माँ तो वहीं हैं,” सतीश रंजन ने कहा|
“वे क्या कहेंगी?” गिरीश रंजन फिर घुड़का, “कुछ नहीं कहेंगी| कुछ कहा कभी उन्होंने? बीच के उन चौदह सालों में? या फिर अब?”
यकबयक मुझे ध्यान आया, बाबा हमारे पास कुल जमा चौदह साल ही तो रहे थे–वही चौदह साल, जब उनकी सरकारी स्कूल की नौकरी उनकी बदली हो जाने के कारण उन्हें हमारे शहर लाई रही थी और जिससे निवृत्त होते ही वह अपने कस्बापुर लौट लिये थे| अपनी पेंशन भी वह कस्बापुर ही से सीधे पाते रहे थे|
“और मालूम है?” राजीव रंजन भी बाबा की लोई से बाहर आ लिया, बाबा की पूरी बाजू का स्वेटर वह पहने था, “यहाँ का दाह कर्म कितना आसान रहेगा? एक वार्ड ब्वॉय बता रहा था कि यहीं थोड़ी-सी दूरी पर एक विद्युत् शवदाह-गृह है| सौ रुपये लेते हैं और दस मिनट के अन्दर अस्थियाँ मिल जाती हैं|”
“मुझे अभी-अभी पता चला है,” मेरे मोबाइल से माँ की आवाज़ उन भाइयों के मोबाइल ने आठ बजे ग्रहण की| 
इधर अस्पताल आते समय अपना मोबाइल मैं वहीं बड़े कमरे की गोल मेज़ पर छोड़ आया था|
” मैं वहाँ पहुँच रही हूँ|”
“आप विद्युत् शवदाह-गृह पर पहुँचिए,” गिरीश रंजन ने उत्तर दिया, “हम वहीं जा रहे हैं|”
“ठीक है| वहीं पहुँच जाऊँगी,” माँ ने तनिक विरोध न किया|
बाबा के उत्तरजीवी थे हम? यह अनुदान था हमारा? हमारा प्रतिशोध? हमारा पंच निर्णय?
माँ के आने से पहले बाबा अन्दर पहुँच चुके थे|
 लेकिन माँ ने तनिक निराशा नहीं जतायी| एक बार भी नहीं कहा कि मेरे आने तक उन्हें रोक रखते| मुझे उनके अन्तिम दर्शन करने थे|
आयीं और निःशब्द उस परिसर में आन खड़ी हुईं जहाँ जड़ अवस्था में हम चारों चुप्पी साधे खड़े थे|
अल्पकालिक उस दाह के निष्पादन के बाद दाहगृह के कर्मचारी ने बाबा का अस्थि कलश जब आगे बढ़ाया भी तो गिरीश रंजन ही ने उसे पकड़ने की उत्सुकता दिखायी, माँ ने नहीं| उन्होंने केवल मुझे वहाँ से चलने का संकेत किया| 
हमें विदा देते समय किसी भी भाई ने पहले की तरह माँ के पैर न छुए, न मुझे गले ही लगाया|
क्वार्टर पर पहुँचते ही माँ नानी की बाँहों में धम्म से गिर पड़ीं| ज़ोर-ज़ोर से बिलखने के लिए|
मेरे अन्दर चक्कर लगा रही मेरी बेआरामी फूटी अगले दिन| अपना परीक्षा-फॉर्म भरते समय| नाम वाले कॉलम में अपना नाम ‘हेमन्त रंजन’ भरते समय| मेरी आँखों को बेध रहे ऐसे आँसुओं के साथ, जिन्हें पोंछना मुश्किल था|
बहुत मुश्किल|        
हिंसाभास, दुर्ग-भेद, रण-मार्ग, आपद-धर्म, रथ-क्षोभ, तल-घर, परख-काल, उत्तर-जीवी, घोड़ा एक पैर, बवंडर, दूसरे दौर में, लचीले फीते, आतिशी शीशा, चाबुक सवार, अनचीता, ऊँची बोली, बाँकी, स्पर्श रेखाएँ आदि कहानी-संग्रह प्रकाशित. संपर्क - dpksh691946@gmail.com

3 टिप्पणी

  1. आपको पढ़ कर हमेशा ही कहीं खो सी जाती हूँ। देर तक अनमनापन सा छाया रहता है। अद्भुत सृजन होता है आपका

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.