जाने-माने कथाकार और फिल्म लेखक डॉक्टर संदीप अवस्थी से युवा लेखिका, प्राध्यापिका डॉक्टर ऋतु माथुर की बातचीत
डॉ ऋतु माथुर – यूँ तो सिनेमा, टीवी धारावाहिक मनोरंजन का सशक्त माध्यम है, जिसके द्वारा लेखक अपने मूल विचारों, जीवन से जुड़ी घटनाओं को जीवन्त स्वरूप प्रदान करता है, किंतु स्क्रिप्ट राइटिंग, कथा-पटकथा लेखन वास्तव में ऐसे कौशल का कार्य है,जो आर्थिक निर्भरता का क्षेत्र भी है। इसके अंतर्गत इच्छुक छात्र-छात्राओं अथवा नवागंतुक लेखकों को यह जानना अत्यावश्यक है कि नवीन विचारों  में सक्षम परिस्थिति के अनुसार उपयुक्त शब्दावली में अभिव्यक्ति की क्षमता, तार्किक मस्तिष्क और क्षमता के आधार पर एक साधारण कहानी को रोचक शैली में किस प्रकार लिखा जा सकता है, साथ ही उससे संबंधित अन्य आवश्यक कौशल, लाभ, शिक्षा प्रशिक्षण आदि इस क्षेत्र में बेहतर करियर किस प्रकार संभव हो सकता है, इन्हीं प्रश्नों के उत्तरों को जानने के लिए मेरी (ऋतु माथुर, रिसोर्स पर्सन सीएमएस,आईपीएस, इलाहाबाद विश्वविद्यालय),भारतीय सिनेमा व धारावाहिकों के पटकथा लेखक, जाने-माने कथाकार डॉक्टर संदीप अवस्थी जी से बातचीत।
डॉक्टर संदीप अवस्थी जी.. नमस्कार.. संदीप जी आपको हार्दिक बधाई, आप इस क्षेत्र में बहुत ही अच्छा कार्य कर रहे हैं।
डॉ. संदीप अवस्थी – नमस्कार! 
प्र. 1 – डॉ ऋतु माथुर- आदरणीय आप सन 2011 से ही फिल्म और सीरियल में संवाद और कथा पटकथा लेखन भी करते हैं। ‘देश में निकला होगा चांद’ में धारावाहिक में कहानी, क्रिस्टल फिल्म की आम्रपाली, फिल्म के कुछ दृश्य आगे उनके लिए एक स्पाई थ्रिलर, इंडो अमेरिका वेंचर की पूरी कहानी और पटकथा आपके द्वारा ही लिखी गई। आपको अनेक नाटकों के लेखन और अभिनय कार्यशालाओं का भी अनुभव प्राप्त है। आपके चार कथा संग्रह भी आ चुके है। जिनमे से तीन राज्य साहित्य अकादमी से पुरस्कृत है। आदरणीय आपको देश-विदेश के अनेक सम्मानों से भी पुरस्कृत किया जा चुका है, जिनमे हिंदी सचिवालय मॉरीसियस से साहित्य भूषण, फिलीपींस से डी.लिट, कैलिफोर्निया अमेरिका से कथा सम्मान, हंस कथा सम्मान दिल्ली से, मुंबई से कथाबिंब कहानी सम्मान, केंद्रीय विश्वविद्यालय राजस्थान से साहित्य भारतीय सम्मान, टैगोर सम्मान और गोपालराम गेहेमरी कथा सम्मान वाराणसी आदि अनेक सम्मानों से विभूषित किया गया है। हम सभी इस तथ्य से अवगत है की सिनेमा मनुष्य की भावनाओ को, स्वप्नलोक को संपूर्णता में दिखाने और मानवीय संवेगो को चित्रित करने का सर्वोत्तम मध्यम है और जो सशक्त लेखन से संभव होता है। इसी संदर्भ में मैं आपसे पूछना चाहूंगी कि जो आज की युवा पीढ़ी है वो लेखन के क्षेत्र में करियर बनाना चाहती है तो इसके लिए आधारभूत तत्व या एसेंशियल एलिमेंट्स क्या होने चाहिए? 
डॉ. संदीप अवस्थी – एजुकेशन समिट के आयोजकों को धन्यवाद कि उन्होंने इतने अनूठे विषय पर युवाओं के लिए व्याख्यान रक्खा। मेरा ये मानना है,कि कॅरियर बनाने के लिए क्रिएटिव राइटिंग से बेहतर दूसरा ऑप्शन आपके पास नहीं है,लेकिन इसके जो आधारभूत (फंडामेंटल एलिमेंट्स) हैं, वो हम स्कूल या कॉलेज में नहीं सीखते-पढ़ते। हिंदी लिटरेचर या कैसा भी लिटरेचर होना जरूरी नहीं है, लेकिन एक अच्छे राइटर के लिए जिंदगी का अनुभव,जिंदगी के पाठ, इंसानों की रीडिंग करना, फेस रीडिंग करना और उसे साइकोलॉजिकल स्टडी करना ये बहुत जरूरी है। दूसरा अभी-अभी चार पांच साल पहले सीबीएसई में बारहवीं के सिलेबस में स्क्रिप्ट राइटिंग, एक्टिंग, आदि सिलेबस में शामिल किया गया हैं। आप सीबीएसई वेबसाइट पर जाकर देख सकते है। मैं उन दिनों दिल्ली में किसी नाटक के लिए लिख रहा था,मैंने सीबीएसई के अधिकारी से पूछा कि आपने स्कूलों में बारहवीं में अभी से अभिनय या पटकथा लेखन क्यों डाल दिया ? हर बच्चा एक्टिंग करे जरूरी थोड़ी है। उनका जवाब था, चाहे वो एक्टिंग में करियर बनाए या न बनाए लेकिन बच्चों में एक्सप्रेशन पावर, अपने आपको अभिव्यक्त करना आना चाहिए। इसके लिए राइटिंग और कोई भी क्रिएटिव आर्ट एसेंशियल है। चाहे वो युवा हो या चाहे एजेड हों,खूब पढ़िए और इंसानों को पढ़िए और फिर अपनी राइटिंग को स्टार्ट कीजिए।
प्र. 2 – डॉ.ऋतु माथुर– लेखन में भाव और शब्दों की ताकत ही मानव मन पर अधिकार प्राप्त करती है और सामाजिक परिवर्तन में भी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। हम जानना चाहेंगे की सपनों के शहर मुंबई की आपकी यात्रा कब और किस प्रकार आरंभ हुई? 
डॉ. संदीप अवस्थी– 2011 में मेरी एक कहानी “सितारा” बंबई की एक पत्रिका “कथाबिंब” में आई थी। वह बहुत चर्चित हुई। वह बंबई के कई सिनेमा के हल्फ़ों में जाती है। मेरे पास कई फ़ोन आए,कि वो इसपर कई सीरियल या फिल्म बनाना चाहते है। मैं फिल्मों में गया, लेकिन उससे पहले से मैं लगभग 12 साल लगातार 1998-2000 से लिख रहा हूँ। मैं फ़ेक फ़ोन समझता था और फ़ेक फोन के झांसे में नहीं आता था,लेकिन प्रोड्यूसर में महिला प्रोड्यूसर थी, उन्होंने बकायदा फ़ोन किया, बम्बई इनवाइट किया, मेरे ठहरने का इंतजाम किया, मैं मुंबई गया। वो पहली कहानी 2011 में जो मात्र ₹25,000 में  मुझसे ले ली गई। बाद में उसके कम से कम 400 एपिसोड का धारावाहिक बना, लेकिन क्योंकि मैंने मात्र 25,000 में साइन कर दिया था, तो मुझे 25,000 ही मिले। दूसरी किश्त मुझे नहीं मिली। तो यहाँ से मेरी जर्नी शुरू हुई। उसके बाद गैप आ गया पांच-छह साल का। 2017-18 में मुकेश खन्ना जी,जो भीष्म पितामह बनते हैं, उनका उस वक्त धारावाहिक शक्तिमान बहुत छा रहा था।  मैं उनके स्टूडियो में गया और अंदर जहां मुकेश जी बैठते है,वहां बहुत बड़ी भव्य शिव प्रतिमा है। जिससे 24 घंटे गंगा के रूप में पानी प्रवाहित होता रहता है। वहाँ उनसे मुलाकात हुई, बहस हुई, चर्चा हुई। उन्होंने दो एक संपर्क बताए, वहाँ से फिर मेरी शुरुआत हुई और आम्रपाली फ़िल्म के कुछ दृश्य सुने, समझे जो मैंने बताए थे,उनको अच्छे भी लगे। 
प्र. 3 – डॉ.ऋतु माथुर– वास्तव में आपकी यात्रा का वृतांत बहुत ही रोचक रहा। ये फिल्में जीवन को मनोरंजित करने के अलावा तत्कालीन जीवन को भी दर्शाती है, जिसका प्रभाव जीवन जगत पर हमारे ऊपर उचित अनुचित दोनों प्रकार से पड़ता है। आप की बहुचर्चित कहानी फ़ेसबुक फ़ेकबुक जो वर्तमान समाज के समक्ष फेसबुक या संस्कृति द्वारा सृजित आभासीय जगत की चकाचौंध में युवा पीढ़ी को वास्तविकता के धरातल पर लाकर भयावह सत्य का उद्घाटन करती है। इस कहानी को पढ़ते हुए ऐसा प्रतीत होता है,कि हम कोई चलचित्र देख रहे। क्योंकि फ़िल्म में ओटीटी, टीवी ये सब हमारे आसपास से ही कहानियाँ लेते हैं, किंतु उनका जो ग्लैमराइज़ेशन हो जाता है, उस चकाचौंध में यथार्थ या सच जो है वो कही छुप-सा जाता है, इस पर आप क्या कहेंगे?
डॉ. संदीप अवस्थी–  पहले स्पष्ट कर दूँ, कथा होती है, उसके आधार पर दृष्य लिखे जाते हैं, जिसे पटकथा कहते हैं और फिर उन दृश्यों के आधार पर संवाद लिखे जाते हैं और यह मिलकर जब संवाद लिखे जाते हैं तो वो स्क्रिप्ट कहलाती है। मैं इसको एक उदाहरण के साथ बताना चाहूंगा-मैं उदाहरण दूंगा, बुद्ध और आम्रपाली का। बुद्ध के समय केवल दो लाइन का सीन था,कि बुद्ध,राजकुमार सिद्धार्थ संन्यास के बाद अपने होमटाउन में लुंबनी में जो वैशाली के पास है,लौटते है और भिक्षा लेकर वहाँ से चले जाते हैं। ये एक सिंपल सी दो-चार लाइन केवल किताब में मिल जाती है। अब जब मैंने इसकी पटकथा और दृश्य लिखा और उसको  जब सुनाया बम्बई में, आप देखिए, गौर कीजिए कैसे सामान्य दो लाइनें बदलती है पटकथा में। एक उदाहरण दे रहा हूँ यही बुद्ध वाला,कि मैंने इसमें बताया कि बुद्ध जो है उस वक्त बुद्ध का औरा जो है,आज के अमिताभ बच्चन या आरआरआर फ़िल्म के जैसा था, अभी तक विशाल औरा है, पूरे भारत में था। शायद पहली बार एक राजकुमार राजपाट छोड़ कर फटे-पुराने, बोरी-टाट वस्तुओं में नंगे पांव घूम रहा था। बुद्ध जब भी शहर में जाते हैं तो बहुत बड़ी भीड़ उनका स्वागत करती और बड़े-बड़े नगर सेठ, महामंत्री उनके आदर सत्कार में आ जाते। उस वक्त जब बुद्ध अपने होम टाउन पहुंचे, सैकड़ों हजारों की भीड़ के साथ बुध चलते हुए अपने राजमहल के विशाल द्वार के सामने पहुँच जाते हैं। अब बुद्ध ने घर का दरवाज़ा खटखटाया और पूरे राजमहल में ये हलचल दौड़ गई, कि इस राजमहल का वारिस राजकुमार किस रूप में सामने आया है। बुद्ध की पत्नी राजकुमारी यशोधरा बुद्ध को भिक्षा देने के लिए दौड़ी-दौड़ी आई। सीन ये था दरवाजा खुल रहा है, सामने उनके पति भिक्षु के रूप में खड़े हुए हैं गंजा सिर, टाट की बोरी और पाँव खुरदुरे काँटे चुभे हुए और सामने से राजकुमारी यशोधरा बुद्ध की पत्नी का सामना होता है और यशोधरा के साथ उनके पुत्र राहुल भी आ रहे हैं। राजकुमारी जब अपने पति को देखती है, वो कहती हैं कि तुम तो अपने संन्यास में, अपने अध्यात्म में बुद्ध बन गए। तुमने एक पल को भी सोचा,कि मैं तुम्हारी पत्नी राजकुमारी, मेरा कसूर क्या था? मुझे तुमने जीवन भर का संताप ये दुख क्यों दे दिया? यशोधरा साफ कहती हैं, कि मैं तुम्हें भिक्षा के रूप में हमारा पुत्र राहुल ही दान करती हूं,ताकि आगे जाकर बच्चे के मन में भी संन्यास की भावना आए, तो फिर किसी लड़की का, किसी राजकुमारी का जीवन बर्बाद ना हो इसलिए हे बुद्ध! हे अमिताभ! मैं तुम्हें तुम्हारा पुत्र ही दान में देती हूं। ये सीन जब मैं सुना रहा था, वहाँ पूरा सन्नाटा छा गया था। तो इस तरह से कथा-पटकथा आगे बढ़ती है और दर्शकों से, शब्दों के माध्यम से एक अच्छा लेखक, एक अच्छा पटकथाकार दृश्यों को पाठकों के मन में दृश्य को जीवंत कर देता है।
प्र. 4 – डॉ.ऋतु माथुर– सिनेमा कहीं ना कहीं जीवन से जुड़ा होता है या यों कहें, कि जीवन कहीं ना कहीं इस सिनेमा से ही जुड़ जाता है। इसलिए जरूरी है,कि सिनेमा की कथा, पटकथा, संवाद, समाज को नए रास्ते दिखाए, जहाँ उत्पादकता ही प्रमुख ना हो बल्कि समाज का यथार्थ भी उसमें मौजूद हो। इस दृष्टि से यदि देखा जाए,तो आपके द्वारा लिखी गई कुछ प्रमुख कहानियाँ जिनमें ‘और अल्लाह दिखे तो’ जिसमें अशिक्षा, बेरोजगारी, बदहाली से जूझते आम आदमी की व्यथा और भारतीय हिंदू-मुस्लिम संस्कृति के संरक्षण की आस तो है ही, साथ ही ‘हाइवे’, ‘हॉकर’, ‘सात पुरुष और एक स्त्री’ जैसी सशक्त कहानियाँ, जिनमें समाज के अनछुए पहलुओं को आपने उजागर किया है। ये ऐसी कहानियाँ हैं जिन पर कोई ना कोई धारावाहिक या फ़िल्में जरूर बननी चाहिए। संदीप जी की कहानियाँ पढ़ते हुए मानो दृश्य आँखों के सामने साकार होते हैं और यही अनुभव पाठकों को जोड़ते भी हैं। तो इस प्रकार कथा, पटकथा और संवाद तीनो में आपको महारत हासिल है। मैं आप के माध्यम से यह जानना चाहूंगी,कि इस क्षेत्र में किस प्रकार अन्य लोग भी आ सकते हैं। वे स्वयं को प्रशिक्षित कहाँ से करे। क्या कोई इस प्रकार की संस्था है जो उन्हें प्रशिक्षण प्रदान करती है?
डॉ. संदीप अवस्थी– आपने बहुत अच्छा सवाल पूछा।कहानियों में जो भी रचनाकार है यदि वो अपने आस-पास की घटना को ऐसे के ऐसा लिख रहा है , इससे अच्छा है वो ना लिखें। कहानियाँ उन घटनाओं के पीछे के दृश्यों को, उनकी संगुंफन पर यानी उनका जो बैकग्राउंड है उसको उभारने वाली हो और साथ में यदि आप पहले से ही सोच लेंगे हमें ये मैसेज देना है या कुछ चीजें करनी है, तो आप अच्छी कहानियां, अच्छा दृश्य नहीं लिख पाएंगे। एक अच्छी स्टोरी,अच्छी पटकथा अपने आप को खुद-ब-खुद लिखा ले जाती है। मुझे याद है 2019–18 की बात है, 15 दिन के अंदर हमने आधी फ़िल्म के लगभग 15 से 18 सीन लिखे थे। मेरे मित्र साथ में थे उन्होंने वहाँ सहयोग किया था और उस समय जेएनयू का कुछ कांड हुआ था और उधर सीरिया में धमाके हो रहे थे। पाकिस्तान से उन्हीं दिनों में आतंकवादियों के द्वारा एक स्कूल से 300 लड़कियों का किडनैप कर लिया गया था। आप कल्पना करें और 300 स्त्रियाँ, लड़कियां जो 12 साल से 18 की उम्र की थी, आज तक वापस नहीं लौटी। तो एक राइटर, एक क्रियेटिव पर्सन, इन सब बातों को देखता है और इन पर लिखता है। मेरी एक नई स्क्रिप्ट चल रही है, ओटीटी पर आएगी। ईरान में जो प्रदर्शन हो रहा है महिलाएं घरों से बाहर आकर प्रदर्शन कर रही है, अपने बालों को काट रही है, हिजाब के खिलाफ़ प्रदर्शन कर रही है उसके ऊपर मैं हैरान हूँ भारतवर्ष के अंदर। और अभी-अभी जेएलएफ चल रहा है। इस मुद्दे पर जयपुर में कोई भी एक पर्सन, एक राइटर, एक लेखक एक पॉलिटिशियन बोलना नहीं चाहता। ऐसे आंख मूंदे बैठे हैं जैसे ईरान की स्त्रियां, ईरान के लोग भगवान ने नहीं बनाया, किसी और ने बनाए है। क्या वो हिस्सा हमारी पृथ्वी का हिस्सा नहीं? मैं इतना जानता हूँ कि हम इसे दिखाने जा रहे हैं। इन दिनों मैं इस पर राइटिंग कर रहा हूं।और बड़ी सशक्त बात है आप कल्पना करें संगीनों, राइफलों, मशीनगनों के सामने कॉलेज में पढ़ने वाली लड़कियां,पत्रकार,महिलाएं,हाउस वाइफ, ईरान की महिलाएं उसके सामने आ रही है,विरोध में खड़ी हुई है और मुझे कहने में दुख होता है,अफसोस होता है हम भारत के लोग या पूरी दुनिया ज्यादातर लोग मौन बैठे है। अभी-अभी देखा जाए फेसबुक पे या उसपे सुबह से रात तक हजारों कविताएं आ जाएंगी। एक भी कविता में उन स्त्रियों की वाणी नहीं है। एक भी कहानी में उन स्त्रियों की आवाज नहीं है। तो कथा,पटकथा,फ़िल्म में साहित्य वर्तमान को साथ लेकर चलता है। युवाओं के लिए या किसी भी व्यक्ति के लिए इसमें कैरिअर के अवसर है लेकिन सिखाने के लिए संस्थाएँ बहुत कम है,बहुत ज्यादा जरूरत है कि कम से कम राजस्थान में तो तीन या चार जगह तीन-तीन महीनों के क्रियेटिव राइटिंग के कथा,पटकथा लेखन के पाठ्यक्रम,डिप्लोमा या सर्टिफिकेट चलाए जाने चाहिए। जब वे लोन ऑथर और समाज से जुड़े हुए लोग आकर बारीकियां सिखाएं। मैं जोड़ना चाहूंगा नोर्मल्ली अगर आप स्टोरी ठीक-ठाक लिख लेते हैं और तीन 4 साल के अनुभवी है एक कहानी के मुंबई में ₹3,00,000 मिलते हैं,उसकी पटकथा है जिसमे आप दृश्य लिखते हैं जो लगभग 70-80 पेज की होती है उसके अलग से ₹3,00,000 होते हैं और फिर संवाद लेखन के अलग से ₹3,00,000 ये न्यूनतम है,मिनिमम है। जब आपका एक-दो काम हिट हो जाते है, फिर आप अपनी शर्तों पे आप 10 से 15,00,000 तक ले सकते हैं। मुझे याद है मेरी कहानी का हाइएस्ट पेमेंट ₹1,11,000 मुझे दूसरी बार मिला था। पहली बार तो मात्र 25,000 ही मिला था। मैंने आज भी 1,00,011 तक का एग्रीमेंट मेरे पास रखा हुआ है। इसमें आप आये लेकिन ये सोचकर ना आये कि हम केवल और केवल लिखने-पढ़ने में ही, राइटिंग में ही कॅरिअर बनाएंगे। यदि आप क्वालिफाइड हुए है,अपनी डिग्री लीजिये,जिसके लिए आपके माता-पिता पढ़ाते है,ग्रैजुएट होइए और उसके साथ-साथ इस हॉबी को कैरिअर में डेवलप कीजिये और जब सही वक्त आ जाए तो इस ओर करियर आपका है। चाहे टीचिंग का हो,स्पोर्ट्स पर्सन का हो,चाहे कंप्यूटर ऑपरेटर। न हो तब वहाँ से आप जंप कर जाए। क्रिएटिव टीम में मुंबई की ये जरूरी ऑप्शन होना चाहिए अन्यथा फिर भूल-भुलैया में भटक जायेंगे। जब मैं 2017-18 में दूसरी बार मुंबई गया तो अंधेरी ईस्ट में महालक्ष्मी मिल कंपाउंड है वहाँ सभी फ़िल्म वालों के दफ्तर हैं। बिहार में मोतिहारी के प्रकाश झा हैं। एक हमारे मित्र वहाँ मोतिहारी में थे पांडे जी उन्होंने प्रकाश झा जी से मेरी मुलाकात करवाई थी। उनका इनविटेशन था और यहाँ से अपने राजस्थान के पाली के मूल निवासी चंद्रप्रकाश द्विवेदी। क्योंकि अभी-अभी आपने पृथ्वीराज चौहान फ्लॉप देखी है। उससे मैं परिचित था। मैंने एक कथा संग्रह का लोकार्पण मुंबई में चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने अपने दफ्तर में किया था। तो मैंने बताया था, एक ही दिन में मेरी मुलाकात प्रकाश झा से मुंबई में होती है। उसके बाद मैं दिवेदी जी से शाम के 4:00 बजे से शाम के 6:00 बजे तक मैं बैठा होता हूँ विशाल भारद्वाज के दफ्तर में।लेकिन एसेंशियल शर्त यह होती है कि वहाँ आपको अपना मुकाम,अपना ठिकाना और स्ट्रगल करने का धैर्य होना चाहिए। मुझे लोगों ने राय दी थी कि फ़िल्म राइटर असोसिएशन में आप पंजीकरण करवा लीजिये, मैंने कहा मुझे इसका खतरा नहीं, मेरी सारी कहानियाँ पब्लिश्ड है, किताबों में छपी हुई है। जब ऑलरेडी ऑन रेकोर्ड है तो कौन चोरी करेगा? तो इस तरह से ये जमीं चलती है और मैं अनुरोध करूँगा युवा पीढ़ी से अनुभवों को एनरिच करें, अपने अंदर क्रिएटिविटी को स्थान दें और तब आगे बढ़े। मुझे गोरकी याद आते हैं उनकी किताब है, मेरे विश्वविद्यालय,माई यूनिवर्सिटीज़। आपको आश्चर्य होगा कि गोर्की आठवीं से ज्यादा नहीं पढ़े, वह अनपढ़ थे। उनके विश्वविद्यालय कौन हैं ? कुम्हार, शू मेकर, गार्डनर माली, एक रोटी बनाने वाली घर की बाईं। वो इनसे जीवन का पाठ, जीवन की सच्चाई सीखते हैं।
उनके विश्वविद्यालय कौन थे? शू मेकर, गार्डनर माली, एक रोटी बनाने वाली घर की बाईं। ये इनसे वो सीखते है जीवन का पाठ, जीवन की सच्चाई। तो ‘मेरे विश्वविद्यालय’ मुझे बहुत कई बातें सिखाती हुई है प्रेरणा देती है और महाभारत, रामायण देखिये आप देखिए हर पात्र बेजोड़ हैं। मंत्रा तक को लोग अभी तक नहीं भूले। वो पात्र ऐसा अमर हुआ है जो भी औरत चुगली वगैरह करती हुई दिखती है उसे मंत्रा कह दिया जाए तो बुरा मान जाती है। तो इस तरह से हम जीवन से, अपने आसपास की संस्कृति से भी कुछ नई बातें निकालें तो वह बात मानी जाएगी। और दोस्तों मैं दोहराना चाहूंगा हिंदी सिनेमा में ओटीटी में स्वर्णिम दौर चल रहा है। हर एक के लिए वहाँ जगह है, स्कोप है, चाहे आप एक्टिंग में जा रहे हो, अभिनय में रुचि हो आपकी, निर्देशन में हो, चाहे फोटोग्राफी में, चाहे डान्सिंग में। यकीन जानिए इंडस्ट्री बहुत साफ सुथरी है। इतना खतरा है जितना अंदर लाइनों में होता है यदि अवेयर है सावधान हैं, वहाँ आपका स्वागत है।
प्र.5 – डॉ.ऋतु माथुर– मैं जानना चाहूंगी आपसे कि अच्छा अभिनेता, अभिनेत्री बनने के लिए एक कहानी दृश्य को आत्मसात करना आवश्यक है? आप क्या समझते है?
डॉ. संदीप अवस्थी– केवल राइटर बनने के लिए आप कहानियाँ ये पटकथाएं ना पढ़िए। अगर आप अभिनय भी करना चाहते हैं तो आपको भी कहानी की समझ होनी चाहिए। उदयप्रकाश की एक कहानी ले लीजिए, चाहे राजस्थान के बिज्जी की कहानियां ले लीजिए। उनकी कहानी जब पढ़ते है आप उसमें संवाद भी होते हैं, दृश्य भी होते हैं और एक अच्छी कहानी में कथा भी होती है,पटकथा भी होती है, संवाद भी होता है और वो अलग हिस्सों में इसी तरह से अभिनय की पारी कइयों के लिए कब किस शब्द पर ज़ोर देना है और कब कहां छोड़ देना है ये आपको मालूम होना चाहिए और बेधड़क अपने अपने घरों में कहिए सीबीएससी की वेबसाइट देखें। 12 क्लास के सिलेबस में अभिनय है। राइटिंग है सब जोड़ दिया गया है। आप पाठ्यक्रम में हैं तो बेहिचक जब भी आपको मौका मिले जयपुर में, बम्बई में कहीं भी दो महीने या एक महीने की एक्टिंग वर्कशॉप शुरू कीजिये ज्वाइन कीजिये। मैं बहुत जल्दी जब जयपुर आऊंगा मुंबई से तब मैं यहाँ 15-20 दिन की एक्टिंग वर्कशॉप शुरू करना चाहूंगा। इसमें हम तीन या चार शॉर्ट फ़िल्में भी बन जाएंगे। अभी लगभग इन दिनों 15 शॉर्ट फिल्में मेरी कहानियों पर बन रही है। अलग अलग शहरों में मैं उस टाइम थोड़ा बिज़ी हूँ उसके बाद में जयपुर आऊंगा।
प्र. 6 डॉ.ऋतु माथुर– मैं अपने पाठकों के लिए और सच कहूं तो अपने लिए भी अगले प्रश्न के रूप में आपसे पूछना चाहूंगी कि एक अच्छी कहानी कैसे लिखी जाती हैं? मुझे याद आ रही है आप की बहुचर्चित कहानी कलेक्टर साहब, जो भारतीय ज्ञानपीठ दान पीठ की पत्रिका नया ज्ञानोदय में वर्षों पहले आई थी। फिर हंस में आर्टिस्ट कहानी छपी जिसमें एक पेशेवर हत्यारे की कथा थी और फिर हस्बैंड स्वैपिंग, चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएं उम्र के ढलान पर लिखी कहानी। मैं जानना चाहती हूँ कि इन सब में आप यानी लेखक स्वयं कितना है और इसमें कितना गल्प है? 
डॉ. संदीप अवस्थी – मैं बता दू कथा या पटकथा या कहानियों में लेखक हर पात्र को अलग अलग जी रहा होता है।और साथ ही वो उनमें से कहीं नहीं भी होता है। यानी हम डिटैच है, इन्वॉल्व भी है और अगले ही पल हम उससे बाहर भी। इन्वॉल्वमेंट ऐसा जैसे कभी चलो एक बार फिर अजनबी बन जाये मेरी बहुत चर्चित कहानी रही है जो लगभग 15 बार अलग अलग जगह छपी है। कई जगह तो ऐसी है मुझे ही पता नहीं है कहानी दुबारा छपने गई है। आजकल आप देखते हैं फेसबुक वगैरह पे एक ने कविता लिखी वो कविता उसी के नाम से कई छप गई तो गुस्सा हो जाता/जाती है की मेरी कविता आप ने क्यों ली? हम ऐसे नहीं है जो एक बार पब्लिक डोमेन में लिख दिया तो करार हो गया वो सबका है। बस खाली कर्सेटी है की आप एक बार इनफॉर्म कर दें एक बार। दूसरी बार ‘चलो एक बार फिर से अजनबी हो जाए’ वृद्धाश्रम में लोगों पर लिखी कहानी थी और मैंने नैचुरली 3 साल तक ओल्ड एज होम में हर हफ्ते मैं गया। वहाँ लोगों से मिला,संवेदनाएं बाँटीं, दो कहानियाँ लिखी थी एक ये वाली और एक थीं सितारा करके। या मैं उल्लेख करूँगा कलेक्टर साहब वाली कहानी का राजस्थान की घटना थी जिसमें कोई जाति का चक्कर था और स्त्री आत्महत्या कर लेती है। ये सच्ची घटना थी। कहानी लिखी थी तो मैंने उसमें ये दिखाया कि मेरे पात्र हार नहीं मानते है। वह स्त्री अपने को पति धोखा देने की वजह से मार देती है। पर हकीकत में ये हुआ था पति ने धोखा दिया था जाति के मामले में और स्त्री ने आत्महत्या कर दी थी। कहानी को मैंने उल्टा कर दिया और जब मैंने कहानी का पहला पाठ किया, भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक रवींद्र कालिया जी के समक्ष उनकी पत्नी ममता कालिया थी। बहुत अच्छी कथाकर है वो। उन्होंने सुझाव दिया कि जो भारत के अंदर ये कहानी मकबूल इसलिए नहीं होगी, इसमें पत्नी पति को मार रही है, यह आसानी से बात हजम नहीं होती। अगर तुम इसका एंड बदल सको तो इस कहानी को हम भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित कर सकते है। मैंनेछह महीने मेहनत की उस कहानी का अंत मैंने बदला। दोनों को समझाइश की, मिलाया, जुलाया और अंत में उपजाति बड़ा हिस्सा सुधर गया और वो कहानी भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हुईं और सैकड़ों लोगों ने उस पे मुझ को चिट्ठियां लिखीं। अव कहने का तात्पर्य ये है की कहानियाँ बिना संवेदनाओं के, बिना पात्रों में उतरे नहीं लिख सकते,लेकिन कोई यह कहे कि अमुक पात्र वो लेखक ही है, ऐसा बिल्कुल नहीं होता है। स्पाई थ्रिलर जो मैंने लिखी इंडो अमेरिकन वाला वो सीरिया अमेरिका बॉर्डर का है। उस बॉर्डर पर मैं कभी नहीं गया, लेकिन जब मैंने वो लिखा तो वो सीन समझ में आ गया। ऐसे जेएनयू में देखा, मैंने सर्च किया अंदर उसमें दो सीन जेएनयू के भी हैं। सीरिया, ईरान, अमेरिका बॉर्डर से वो टेररिस्ट स्टूडेंट बनकर उस विद्यालय में आ जाता है। वो सब चलता रहता है और यह सीखा जाता है,कि किस तरह से आप चीज़ को इंटरप्रेट करते हैं और लोगों तक पहुंचाते हैं। 
प्र. 7 – डॉ.ऋतु माथुर– आपसे मेरा अगला प्रश्न है कि एक लेखक होने के नाते आपके मनपसंद लिखने का स्थान या फिर यूं कहें कि आपका मूड लिखने के लिए कैसे बनता है? क्योंकि ये एक क्रिएटिव वर्क है। स्विच ऑन ऑफ करने की प्रक्रिया तो है नहीं तो किस प्रकार अपने लेखन के लिए आप से मूड बनाते हैं ? 
डॉ. संदीप अवस्थी– देखिए मूड होना तो बहुत जरूरी है लेकिन उसके लिए अगर आप विशेष माहौल चाहे तो वो चलेगा नहीं। बम्बई की मेरे डायरेक्टर ने मुझे कहा था संदीप जी,अगले सीन के लिए हम खंडाला चलते हैं। मैंने कहा इसकी जरूरत नहीं है। मुझे यहाँ एकांत दीजिये मुझे, मेरा रूम अलग से है वो काफी हैं, मैं यही लिफ्ट का सीन आपको दे दूंगा। बात ऐसी हुई तो काम हो गया, लेकिन उसने मेरे कुछ पैसे कम कर लिए। ये तो बहुत सीधे-सादे आदमी हैं, कोई बाहर जाना नहीं चाहते, जो चाहे काम पर देते हैं। जब मुझे एहसास हुआ कि थोड़ा सा नाम हो जाता है, थोड़ा सा आपको जो सुविधा मिल रही है उसको लेना चाहिए। बाकी मूड तो ऐसा है यदि आप शांत स्वभाव के हैं, शांत किस्म से बैठे हैं तो आप नहीं लिख सकते। जब मन में उथल पुथल चल रही हो जब आसपास या दुनिया में देश में हंगामा चल रहा हो, देश दुनिया में तब ही एक अच्छे क्रियेटिव पर्सन को लिखना चाहिए और आगे बढ़ना चाहिए। 
प्र. 8 – डॉ ऋतु माथुर– मैं आपसे पूछना चाहती हूँ की मुंबई में आप किन-किन प्रोडक्शन हाउस से जुड़े और मिले और आपके आगामी प्रोजेक्ट्स क्या है? इस संदर्भ में आप से साझा करें। 
डॉ. संदीप अवस्थी– अभी दो तीन जगह बात चल रही है एक जैसे कश्मीर फाइल्स वाले निर्देशक हैं, उनसे कुछ बात चल रही है। एक हमारे राजश्री फ़िल्म में, याद रखिये राजश्री प्रोडक्शन हाउस ऐसा है जो आज भी भारतीय मूल्यों को लेकर चल रहा है, सफलता प्राप्त कर रहा है। ऊंचाई फ़िल्म अभी आयी है देखी होगी आपने। मैं राजश्री के लिए भी कुछ  काम भविष्य में कर सकता हूँ। ये बड़े अच्छे व्यक्ति हैं और कविता बड़जात्या जी अक्सर जयपुर आती रहती है। तो कहने का तात्पर्य ये है की इसके अलावा स्पाई थ्रिलर मैं एक और लिखने जा रहा हूँ,एक प्रोडक्शन हाउस हैं, उनके लिए और गृहलक्ष्मी फ़िल्म के दो पार्ट बन चुके हैं जल्दी उसका तीसरा पार्ट शुरू होने वाला है। उसमें भी मेरी एक भूमिका राइटिंग की रहेगी। मेरे कई प्रोजेक्ट्स हैं आप सबकी शुभकामनाएँ रहीं,तो आप सभी साथियों को, जयपुर के लोगों को जल्दी ही पर्दे पर मेरे कई प्रोजेक्ट दिखाई देंगे। 
प्र. 9 – डॉ.ऋतु माथुर – आपको मेरी बहुत-बहुत शुभकामनाएँ, क्योंकि लेखन एक रुचि ही नहीं है, बल्कि उस जुनून की तरह है,जिसे पैशन भी आप कह सकते हैं और जिसके माध्यम से जीवन के विभिन्न पहलुओं को उजागर किया ही जाता है, साथ ही जो वास्तविक परिस्थितियां हैं, उन्हें भी प्रश्नों को उभारने और उनके निराकरण करने के लिए भी निरंतर ये परिश्रम है। जिसमे आदरणीय संदीप जी जैसे कथाकार खरे उतरते हैं। दोस्तों, आज आदरणीय संदीप जी ने अपने विचार हमसे साझा किए और बहुत कुछ उनसे सीखने को मिला कि कोई भी कार्य असंभव नहीं है। अगर हम संदीप जी की बातों पर गौर करें तो विषम परिस्थितियों में भी कैसे हम लेखन कर सकते हैं, इसकी प्रेरणा हमें मिली। संदीप जी, मैं आपका हृदय से धन्यवाद और आभार व्यक्त करती हूँ। आपने अपना बहुमूल्य समय मुझे दिया और भारतीय सिनेमा में पटकथा लेखन विषय पर प्रेरणादायी बातों से हमें अवगत कराया। आप बुलंदियों पर पहुंचे, आप के उज्ज्वल भविष्य की कामना करते हुए आपको पुनः धन्यवाद और आभार प्रकट करती हूं धन्यवाद।
डॉ. संदीप अवस्थी– धन्यवाद आपको भी और मैं कहना चाहूंगा युवाओं से, सभी दोस्तों से, साथियों से, आप गंभीरतापूर्वक जो भी आप में रुचि है पढ़ने की यदि आप जिंदगी पढ़ सकते हैं, राइटिंग में कम से कम 100 पेज पढ़ने के बाद एक पेज लिखना चाहिए। इस पॉलिसी के है तो आपका स्वागत है, बहुत सारी कहानियों की, लोगों की जरूरत है,लेकिन प्रशिक्षित होकर के आइये, ट्रेन्ड होकर के आइए और ऑप्शनल दूसरा कॅरिअर बना करके फिर यहां आइए। धन्यवाद।

डॉ. ऋतु माथुर
युवा आलोचिका व प्राध्यापिका
सी एम एस,आई पी एस, इलाहाबाद
विश्वविद्यालय, प्रयागराज।
anujritu01@gmail.com

4 टिप्पणी

  1. नमस्ते सर
    आपका साक्षात्कार पढ़ा। बहुत सारी बातें सीखने को मिलीं। जैसा आपने कहा है कि क्रिएटिव राइटिंग अभिव्यक्ति का अच्छा माध्यम है। मैं भी लेखन के क्षेत्र में हूँ। इसके माध्यम से अपनी पहचान बनाने की कोशिश है। आपकी बात से मैं सहमत हूँ। मेरे लिए अपने भीतर उपज रही भावनाओं को अभिव्यक्त करने का सबसे अच्छा माध्यम लेखन है। आपके आसपास हो रही घटनाएं आपके मन पर असर करती हैं। कई भावनाओं को जन्म देती हैं। यही भावनाएं कहानियों और उसके चरित्रों के माध्यम से बाहर आती हैं।

  2. डॉ. संदीप सर से हमेशा ही कुछ सीखने को मिलता है. उनका व्यक्तित्व इतना सरल है कि इनसे बात करने में कभी दुविधा का आभास नहीं होता, धन्य है हम की ऐसी महान अनुभव व्यक्तित्व के संपर्क में आए…. सदैव हम पर अपना आशिर्वाद बनाए रखे

  3. मुझे बहुत खुशी है कि मैं संदीप भैया को जानती हूं।उनसे बहुत कुछ सीखना भी चाहती हू। मैं हिंदी के विकास में अपना सहयोग देना चाहती हूं।उनकी सोच पर मुझे बहुत गर्व है। जब भी मुझे उनके सहयोग की आवश्यकता हुए, भैया ने मेरा मार्गदर्शन किया है।

  4. बहुत अच्छा लेख. ऐसे जिम्मेदार लेखकों को देखना अच्छा लगता है जो वह परिवर्तन ला सकते हैं जिसकी हमारे साहित्यिक जगत को आवश्यकता है!

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