सोने से पहले मैं रम्भा का मोबाइल ज़रूर मिलाता हूँ| दस और ग्यारह के बीच| ‘सब्सक्राइबर नाट अवेलेबल’ सुनने के वास्ते|
लेकिन उस दिन वह उपलब्ध रही- “इस वक़्त कैसे फ़ोन किया, सर?”
“रेणु ने अभी फ़ोन पर बताया, कविता की शादी तय हो गयी है,” अपनी ख़ुशी को तत्काल काबू कर लेने में मुझे पल दो पल लग गए|
रेणु मेरी बहन है और कविता उसकी बेटी| रम्भा को मेरे पास रेणु ही लाई थी- “भाई, यह तुम्हारा सारा काम देखेगी| फ़ोन, ई-मेल और डाक…..!”
“हरीश पाठक से?” रम्भा हँसने लगी|
“तुम्हें कैसे मालूम?”
“उनके दफ़्तर में सभी जानते थे,” रम्भा ने कुछ महीने कविता की निगरानी में क्लर्की की थी| रम्भा हमेशा ही कोई न कोई नौकरी पकड़े रखती थी, कभी किसी प्राइवेट दफ़्तर में रिसेप्शनिस्ट की तो कभी किसी नए खुले स्कूल में अध्यापिका की तो कभी किसी बड़ी दूकान में सेल्सगर्ल की| रेणु को रम्भा कविता की मार्फत मिली थी|
“तुमने मुझे कभी बताया नहीं?”
मैंने बातचीत जारी रखनी चाही| रम्भा की आवाज़ मुझे मरहम लगाया करती|
“कैसे बताती, सर? बताती तो वह चुगली नहीं हो जाती क्या?”
“ओह!” मैं अंदर तक गुदगुदा गया| उसकी दुनिया बड़ी संकीर्ण थी| उसे मेरी दुनिया का ज्ञान केवल सतही स्तर पर रहा|
“अच्छा, बताओ,” मैंने पूछा- “कविता की शादी पर मेरे साथ चलोगी?”
मेरी पत्नी मेरे परिवार में मेरी बहनों के बच्चों की शादी में नहीं जाती थी- ‘यही क्या कम है जो आपकी तीन-तीन बहनों का आपकी बगल में बैठकर कन्यादान कर चुकी हूँ?’ कुल जमा तीस वर्ष की उम्र में पिता को खो देने के बाद अपने परिवार में मुझे ‘मुखिया’ की भूमिका तो निभानी ही पड़ती थी|
“क्यों नहीं चलूँगी, सर?” रम्भा उत्साहित हुई- “कविता जीजी का मुझ पर बहुत अहसान है| उन्हीं के कारण ही तो आपसे भेंट हुई…..|”
“तुम्हारे परिवार वाले तो हल्ला नहीं करेंगे?” मैंने पूछा|
वह विवाहिता थी| सात साल पहले उसके हेडक्लर्क पिता ने उसका विवाह अपने ही दफ़्तर में नए आए एक क्लर्क से कर दिया था और अब छह साल की उम्र की उसकी एक बेटी भी थी| तिस पर उसके सास-ससुर भी उसके साथ ही रहते थे|
“बिलकुल नहीं, सर! वे जानते हैं आपकी नौकरी मुझे शहर के बाहर भी ले जा सकती है…..”
“और तुम भी यही समझती हो, मेरे साथ कविता की शादी में जाना तुम्हारी नौकरी का हिस्सा है?” मैंने उसे टटोला!
“नहीं, सर! मैं जानती हूँ, सर! मैं समझती हूँ, सर! आप मुझ पर कृपा रखते हैं|”
मेरे डॉक्टर ने मुझे सख्त मना कर रखा था, रम्भा को कभी यह मालूम न होने पाए, उसके संसर्ग में रहने के कारण मेरी दवा की ख़ुराक पचास एम. जी. (मिलीग्राम) से पाँच एम. जी. तक आ पहुँची थी| वह नहीं जानती थी, कृपा करने वाली वह थी, मैं नहीं|
“अच्छा बताओ, इस समय तुम क्या कर रही हो?”
“मैं कपड़े धो रही हूँ, सर!”
“इस सर्दी की रात में?”
“इस समय पानी का प्रेशर अच्छा रहता है, सर, और मेरी सास तो रोज़ ही इस समय कपड़े धोती हैं| आज उनकी तबीयत अच्छी नहीं थी, सो मैं धो रही हूँ|”
“तुम्हारे पति कहाँ हैं?”
“वे सो रहे हैं, सर| दफ़्तर में आज ओवर टाइम लगाया था| सो खाना खाते ही सो गए…..!”
शुरू में रम्भा का पति उसे मेरी फैक्टरी में छोड़ते समय लगभग रोज़ ही मुझे सलाम करने मेरे कमरे में आ धमकता था| फिर जल्दी ही मैंने रम्भा से कह डाला था- ‘अपने पति को बता दो, बिना मेरे दरबान की अनुमति लिए उसका मेरे कमरे में आना मेरे कर्मचारियों को ग़लत सिगनल दे सकता है…..!’
वह यों भी मुझे खासा नापसंद था| शोचनीय सीमा तक निम्नवर्गीय और चापलूस| वैसे तो रम्भा का दिखाव-बनाव भी निम्नवर्गीय था- अटपटे, छापेदार सलवार सूट, टेढ़ी-मेढ़ी पट्टियों वाली सस्ती सैंडिल और मनके जड़ा कैनवस का बटुआ| मेरी पत्नी अकसर कहा करती थी-स्त्री की कीमत उसकी एकसेसरीज़ (उपसाधन) परिभाषित करती हैं, और उनमें भी उसका बटुआ और जूता|
“तुम कब सोओगी?” मैंने पूछा|
लेकिन उसका उत्तर सुनने से पहले मेरे कमरे का दरवाज़ा खुल गया|
सामने बेटी खड़ी थी|
“मालूम है?” वह चिल्लाई- “उधर ममा किस हाल में हैं?”
“क्या हुआ?” मैंने अपना मोबाइल ऑफ़ कर दिया और उसे मेज पर रखकर बगल वाले कमरे की ओर लपक लिया|
रात में मेरी पत्नी दूसरे कमरे में सोया करती और बेटी तीसरे में| नौकर की संभावित शैतानी के भय से रात में हम तीनों ही के कमरों के दरवाजे अपने-अपने ऑटोमेटिक ताले के अंतर्गत अंदर से बंद रहा करते| लेकिन हमारे पास एक-दूसरे के कमरे की चाभी ज़रूर रहा करती| जिस किसी को दूसरे के पास जाना रहता, बिना दरवाजा खटखटाए ताले में चाभी लगा दी जाती और कमरे में प्रवेश हो जाता|
पत्नी के कमरे का दरवाजा पूरा खुला था और वह अपने बिस्तर पर निश्चल पड़ी थी|
“क्या हुआ?” मैं उसके पास जा खड़ा हुआ|
उत्तर में उसने अपनी आँखें छलका दीं| यह उसकी पुरानी आदत थी| जब भी मुझे खूब बुरा-भला बोलती, उसके कुछ ही घंटे बाद अपने आप को रुग्णावस्था में ले जाया करती|
उस दिन शाम को उसने मुझसे खूब झगड़ा किया था| बेटी के साथ मिलकर| मेरी दूसरी बहन इंदु की टिकान को लेकर| इधर कुछ वर्षों से जब भी मेरी बहनें या उनके परिवारों के सदस्य मेरे शहर आया करते, मैं उन्हें अपने घर लाने की बजाय अपने क्लब के गेस्ट हाउस में ठहरा दिया करता|
“आज इंदु जीजी को बाज़ार में देखा!” पत्नी गुस्से से लाल-पीली हुई जा रही थी- “तुम्हारे ड्राइवर के साथ|”
हम पति-पत्नी के पास ही नहीं, हमारी बेटी के पास भी अपनी निजी मोटरकार रही| बेशक उसकी वह मोटरकार मेरी ही ख़रीदी हुई थी-उसके दहेज़ के एक अंश के रूप में| हमारी इकलौती संतान होने के कारण उसके लिए हमने ऊँची ससुराल चुनी थी| किंतु उसने छठे महीने ही अपने पति से तलाक लेने का निर्णय कर लिया था और हमारे पास अपनी इसी मोटरकार में चली आई थी|
“स्टॉप!” मैं चिल्लाया था| मेरे मनोचिकित्सक ने मुझे कह रखा था कि जब भी कोई नकारात्मक भावना मेरे मन को कचोटे, मुझे उस पर फ़ौरन स्टॉप लगा देना चाहिए|
“नहीं, मैं स्टॉप नहीं करूँगी| बोलूँगी, ज़रूर बोलूँगी| तुम्हारी बहन शहर में हो और मुझे ख़बर तक न मिले…..!”
“क्योंकि मैं उसे तुम्हारे विकराल रूप से बचाना चाहता था|” मैं मुकाबले के लिए तैयार हो गया| मेरे ‘सेशंस’ के दौरान मुझे यह भी बताया गया था- ‘जब गुस्सा आए, तो उसे बाहर आने दो- उसे दबाओ नहीं|’ बल्कि मेरे मनोचिकित्सक का मानना था कि मुझे डिप्रेशन (अवसाद) का रोग ही अपने गुस्से को लगातार वर्षों दबाए रखने के कारण हुआ है|
“मैं विकराल हूँ?” पत्नी चीख़ पड़ी थी- “और वह इंदु जीजी, नन्ही रेड राइडिंग हुड?”
“पपा!” बेटी भी पत्नी के साथ ऐंठ ली थी- “आपने अंधे कुएँ में छलाँग लगा रखी है| उन बहनों को आप अपने परिवार के ऊपर रख रहे हैं जिन्होंने बुरा वक़्त आने पर आपके किसी काम नहीं आना|”
मुझसे तथा मेरे परिवार के सदस्यों के संग मेरी पत्नी और बेटी का व्यवहार लज्जाजनक था|
“बुरा वक़्त तुम किसे कहती हो?” मैं आपे से बाहर हो लिया था- “मुझ पर जो वक़्त आज बीत रहा है, उससे ज़्यादा बुरा और क्या होगा? क्या हो सकता है? अपना नाश्ता मैं नौकर से माँगता हूँ| दोपहर का खाना फैक्ट्री में खाता हूँ और रात का क्लब में…..!”
“वह इसलिए क्योंकि आप एक बुरे कारखानेदार हैं, एक बुरे पति हैं, एक बुरे पिता हैं…..!” बेटी ने जोड़ा था|
“स्टॉप!” मैं फिर चिल्लाया था| उसने मुझे याद दिला दिया था, इधर कुछ वर्षों से मेरी फैक्टरी दोबारा घाटे में चल रही थी| सन् १९७० में मेरे पिता ने अपने कस्बापुर की पुश्तैनी ज़मीन बेचकर इधर लखनऊ में एक साबुन बनाने वाला पुराना कारखाना खरीदा था और उसे नया नाम दे दिया था- न्यू सोप फैक्टरी| जो ‘ओवर हौलिंग’ (पूरी मरम्मत) के बावजूद सन् १९८० के आते-आते गच्चा खाने लगी थी और नौबत यहाँ तक पहुँच ली थी कि लोग-बाग उसकी नीलामी तक की बात करने लगे थे| ऐसे में मेरे भावी ससुर ने मेरे पिता को ऋण दिया था ताकि हम नई बौएलर केतली, नया क्रच्चर, नया प्लौडर, नया कटर खरीद सकें| बेशक वह ऋण उन्हें फिर कभी नहीं लौटाया गया था| उन्हीं के आग्रह पर| अपनी इस हठधर्मी बेटी को १९८१ में मुझसे ब्याहने की अग्रभूमि तैयार करने हेतु|
“ममा का दिल डूब रहा है!” बेटी की घबराहट उसकी आवाज़ में चली आई- “मैंने डॉक्टर मल्होत्रा को बुलवा लिया है|”
सहसा मुझे लगा, मेरा दिल भी डूब रहा था और अब मैं और देर खड़ा नहीं रह पाऊँगा|
मैं पत्नी के बिस्तर पर बैठ गया|
वह निश्चल पड़ी रही|
झल्लाकर दूर नहीं खिसकी|
डॉ. मल्होत्रा के आने तक मैं चुपचाप वहीं बैठा रहा| कमरे में उष्णता की तेज लहरें छोड़ रहे हीटर के बावजूद एक असह्य शीत झेलता हुआ|
बेटी ज़रूर अपनी माँ से बात करने का प्रयास करती रही|
“ममा, आपको कुछ नहीं हुआ!”
“ममा, आपको कुछ नहीं होगा…..!”
“ममा, मैं दुर्गा सप्तशती का अर्गला स्तोत्र पढ़ती हूँ-
ओऽम् जयंती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी
दुर्गा रमा शिवा धात्री स्वाहा स्वाहा नमोऽस्तुते|”
“ममा, मैं हनुमान चालीसा से पाठ करती हूँ-
जाके बल से गिरिवर काँपे
रोग-दोष जाके निकट न झाँके|”
बेटी के बोल पत्नी को ज़रूर छू रहे थे| उसकी आँखों के आँसू उसके गालों पर लंबी धारियाँ बनाते रहे थे|
डॉ. मल्होत्रा ने आते ही मेरी पत्नी की नब्ज़ टटोली और फिर उसका ई.सी.जी. लिया|
“इन्हें अभी अस्पताल ले जाना होगा| नब्ज़ बहुत धीमी है और दिल की हालत ठीक नहीं| इनके ऑपरेशन की नौबत भी आ सकती है…..|”
“कितना रूपया लेते चलें?” बेटी ने मेरी तरफ़ देखा|
इधर कुछ वर्षों से पत्नी अपने निजी खर्चे अपने घर में खुले बुटीक की आय से करने लगी थी| उसकी तैयार की गई पोशाकें अच्छी बिक जाया करतीं- उसे अच्छी-खासी आय प्रदान करने के लिए|
“क्रेडिट कार्ड नहीं चलेगा क्या?” मैंने डॉ. मल्होत्रा की दिशा में देखना शुरू कर दिया|
“क्यों नहीं? आप चलिए तो| हमें इस समय एक पल भी नहीं गँवाना चाहिए|”
मोटरगाड़ियों में मेरी मोटर सबसे बड़ी थी|
पत्नी को उसी की पिछली सीट पर लिटा दिया गया| बेटी की गोदी में उसका सिर टिकाकर|
बेटी के आग्रह पर डॉ. मल्होत्रा ने अपनी मोटर हमारे ही घर पर छोड़ दी और मेरे साथ अगली सीट पर बैठ गए|
मोटर मैंने चलाई|
लेकिन अभी हम रास्ते ही में थे कि बेटी, चीखने लगी- “रुकिए पपा! डॉ. साहब को ममा की नब्ज़ फिर से देखने दीजिए| उन्हें बहुत पसीना आ रहा है…..!”
डॉ. मल्होत्रा ने पहले अपने हाथ से मेरी पत्नी की नब्ज़ देखी, फिर अपने बैग में से टॉर्च निकाली और उसकी रोशनी मेरी पत्नी की आँखों पर फेंकी|
उसकी पलकें निश्चल रहीं| झपकीं नहीं|
“मुझे खेद है!” डॉ. मल्होत्रा ने अपना सिर हिला दिया|
“ममा, मेरी ममा…..!” अपने रुमाल में मुँह छिपाकर बेटी सिसकियाँ भरने लगी|
मैंने मोटर घर की दिशा में वापस ले ली|
घर पहुँचने पर अवसर मिलते ही मैं अपने बाथरूम में बंद हो गया|
सर्दी के मौसम में ठंड का दाब सबसे ज्यादा मेरे पेट को झेलना पड़ता| अतिसार के रूप में|
बाथरूम से निकलते ही मेरी नज़र अपने मोबाइल पर जा पड़ी|
मैंने उसे उठा लिया| रम्भा का नंबर डिलीट करने के इरादे से|
किंतु मेरे हाथ ने मोबाइल को कमांड दिया- ‘कॉल’|
“यस, सर!” रम्भा ने अपना मोबाइल पहली ही घंटी पर उठा लिया- “आप ही के फोन के इंतजार में मैं जब से बैठी हूँ, सर! वरना मेरे कपड़े सभी धुल चुके हैं…..!”
रम्भा के हाथ में वह मोबाइल पकड़ाते समय मैंने उसे आदेश दिए थे- पहला, इसके बजने पर वही इसे सुनेगी, और कोई नहीं और न सुन पाने की स्थिति में वह इसे ‘स्विच ऑफ’ के मोड पर रखा करेगी| दूसरा, वह इस मोबाइल से मुझे कभी कॉल नहीं करेगी| फोन यदि बीच में कट जाएगा तो उस स्थिति में वह मेरे दोबारा फोन करने की प्रतीक्षा करेगी| ज़रूर|
“वह मर गई है!” मैंने कहा|
“आप फिर मजाक कर रहे हैं, सर!” उसने हीं-हीं छोड़ी|
एक धक्के के साथ मुझे याद आया मैं उसे पहले भी ऐसा कहता रहा था|
“और अगर यह मजाक नहीं है, सर, तो कल मैं अपनी नौकरी बदल लूँगी| फैक्टरी छोड़ दूँगी और बुटीक पकड़ लूँगी|”
मैंने अपना मोबाइल काट दिया|
हिंसाभास, दुर्ग-भेद, रण-मार्ग, आपद-धर्म, रथ-क्षोभ, तल-घर, परख-काल, उत्तर-जीवी, घोड़ा एक पैर, बवंडर, दूसरे दौर में, लचीले फीते, आतिशी शीशा, चाबुक सवार, अनचीता, ऊँची बोली, बाँकी, स्पर्श रेखाएँ आदि कहानी-संग्रह प्रकाशित. संपर्क - dpksh691946@gmail.com

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