“अरी…रुक… छोड़…कहाँ भाग रही है… रुक..!”
“क्या हुआ…रेखा…?”
“माँजी… वो आज फिर मेरी साड़ी ले कर भाग गई…यहाँ तार पर ही डाली थी!”
“ले जाने दे…कोई बात नहीं।तुम अंदर जाओ।” सरोज ने बहू को कहा और खुद भी अंदर चली गई।
“पर माँ…कौन हैं वो…ऐसे साड़ियाँ  क्यों ले जाती है… मालती बता रही थी यह कभी भी किसी की भी साड़ी झपटकर छीन लेती है… ..।” रेखा ने आश्चर्य से पूछा।
“क्या करेगी जानकर… छोड़…।”
“बताओ न माँ…कौन हैं वो?…पागल है क्या…!”
“पागल नहीं है वो…बिंदो है।” सरोज ने तेज आवाज़ में कहा।
“फिर  ऐसी हरकतें… क्यों।”
“जब से ब्याह कर आई हूँ , तब से जानती हूँ उस अभागन को।उसे ब्याह कर लाया तो एक था;  लेकिन…।” बात अधूरी छोड़ दी सरोज ने।
“लेकिन क्या माँ…?”
“चार मरद थे उस घर में… भूख बहुत लगती थी चारों को…चूल्हे की आग कभी बुझती न थी उस घर की…।”
“अच्छा…तो क्या वह दिनभर सबका पेट ही भरने में लगी रहती थी !” रेखा ने कहा।
” हाँ…पर…चारों को देह की भूख भी तो बहुत थी …।” सरोज ने आँखों के पानी को साफ करते हुए कहा।
“मैं समझी नही…!” रेखा ने शंकित होकर कहा।
“चारों की भूख बिंदो से ही तो बुझती थी…। तन की  साड़ी कब कौन उतार ले,यह बिंदो भी न जानती थी। ” सरोज की आवाज़ में पीड़ा उभर आई।ऐसी पीड़ा जो स्त्री के हृदय को बींध दे।
सरोज तीस साल पीछे चली गई।
मुँह दिखाई में पहली बार बिंदो को देखा था सरोज ने…।
सरोज के घूँघट को उठाकर बिंदो  ने बलाएँ ली और पाँच का तुड़ा मुड़ा नोट आँचल से निकालकर उसकी हथेली में चुपके से रख दिया।
बिंदो की सास साथ थी…।कड़क मिजाज की वह महिला किसी रहस्यमयी किरदार जैसी लग रही थी।बिंदो  उनके व्यक्तित्व के सामने एक निरीह- हिरनी सी दिख रही थी।
ब्याह के बाद सरोज चाले के लिए मायके चली गई ।जेठ का महीना पूरा मायके में बीता,फिर वह भी ससुराल की बन गई।
नई नवेली बहू की हद बस आँगन में काम निपटाने भर निकलने की थी। बाकी समय अपनी कोठरी में सास के दिए अतिरिक्त कामों को पूरा करना होता…।
अषाढ़ की चिपचिपी गर्मी और बिजली की व्यवस्था नहीं… सरोज के बदन पर गर्मी ने अपनी छाप देनी शुरू कर दी।चुभते जलते दानों की शक्ल में।
सास की सख्ती भी उसकी हालत देख पिघल गई। बहू को इजाजत मिल गई घर के ऊपरी हिस्से में बने कमरे में बैठने -सोने की।
पर हिदायत थी कि घूँघट आधे सीने तक रहे…।
रूढ़ियों में बँधा यह गाँव कभी -कभी रहस्यमयी लगता।
उस दिन…सामने के घर से आती कुछ सिसकियों की आवाज से सरोज का ध्यान तो भटका…।
भरी धूप में जहाँ चारों तरफ सन्नाटा पसरा था वहाँ पर यह आवाज उसके कानों में गरम लू -सी समाने लगी।
उसने बगल में सोई सास पर नजर डाली और चौबारे से निकल चुपके से छत के कोने में खड़ी हो उन सिसकियों को सुनने लगी…।
“सरोज… सरोज…ऐ कित्त मर गई…!!” सास की आवाज़ सुनकर सरोज हड़बड़ा कर अंदर आ गई।
“कहाँ थी…?” सास ने भवें तनाकर पूछा।
“माँ…वो…किसी औरत के रोने की आवाज आ रही थी…।”
“तू ध्यान न दे…अपना काम कर…।”-सास ने दो टूक कहा।
बात आई गई हो गई लेकिन यह सिसकियों का  सिलसिला चलता रहता….।
पति से पूछने का जी करता, लेकर डर के कारण पूछ न पाती…।
“तो क्या पता चला? कौन रोता था!” रेखा की आवाज सुनकर सरोज अतीत से बाहर आ गई और रेखा के चेहरे से नजर हटाकर बोली,
“पता चला….उस दिन जब …।” सरोज के कानों में दरवाजा पीटने की आवाज़ आने लगी। वह बेचैन हो दरवाजे को पकड़ कर खड़ी हो गई। उसकी आँखों के सामने तीस साल पहले की वह घटना चलचित्र -सी चलनी लगी।
” जिज्जी दरवाजा खोल दो…बचा लो म्हारे को…खोल दे जिज्जी दरवाजा!” आधी रात को दरवाजे को पीटते हुए कोई बार-बार जोर-जोर से आवाज लगा रहा था।
मैं भागकर आँगन में आई तो देखा सासू माँ के गले से लिपटी बिंदो रो रही थी… तन पर बस ब्लाउज और पेटिकोट था…।
“क्या हुआ बिंदो…यूँ घर से कुकर निकल गई…के हुआ…?” तार पर पड़ी चद्दर उसके शरीर पर डालकर सरोज ने पूछा…। 
सरोज की सास को छोड़कर बिंदो उसके गले लग कर सिसकने लगी।
“बता तो बिंदो…! भूरे ने मारा क्या… तेरी धोती कहाँ है…?” सरोज ने उससे पूछा।
“धोती?…धोती ही तो कोई  पहनने न देता,  जब जिसका मन हो, मेरी धोती खींच…।” इतना कह वह फिर रोने लगी।
इससे पहले की सरोज कुछ पूछ पाती… भूरा अपनी माँ के साथ वहाँ आ धमका..।
“यहाँ के करन आई…शर्म नी तिझे…चल तू तिझे मैं देखूँगा…।” भूरे ने झपट्टा मारकर बिंदो का हाथ पकड़ा और खींचते हुए बाहर ले गया।
“ऐ …ज्यादा कुछ न कहियो… भूरे… जाकती है बिंदो….।” सरोज की सास पीछे से चिल्लाई…।
“जिज्जी थम अपना घर देखो… भूरा खुद सिमझा देगा अपनी लुगाई को…।”
झल्लाहट से भूरे की माँ ने कहा और वह भी चली गई।
“ये बुढ़िया… के कुकर्म करवा रही घर में… ऐ शर्म कोनी।” सास ने थूकते हुए कहा।
“माँ…ये बिंदो को मार न दे…डर लग रहा है….।” सरोज ने आशंका से कहा…।
“तू ज्यादा किसी के घर में दखल न दे…घण्णी रात हो गई है… तमाशा लगा दिया घर में…! लुगाई को अपने घर की इज्ज़त अपने घर में रखनी चाहिए… आ गई यूँ…।” -पीछे से सरोज के पति ने चिढ़ते हुए कहा।
सरोज को अपने पति मर्दानगी पर अजीब- सी घृणा हुई। मन किया कि फट के चिल्ला पड़े;  लेकिन बचपन की पिलाई घुट्टी ने जुबान सिल दी।
बात आई गई हो गई। बिंदो फिर कुँए पर भी नजर न आई…सरोज को उसके बारे में जानने की उत्सुकता बनी रही…।वह जानना चाहती थी कि बिंदो ठीक है की नहीं….।
“माँ..माँ…कहाँ खो गई?  आगे बताओ न ।” रेखा ने सरोज को झिंझोड़कर कहा।
“आ.हाँ…।” सरोज अचकचा कर वर्तमान में लौट आई। अपनी आँखों में आए पानी को साफ करके वह वहीं नीचे बैठ गई।
“माँ …मतलब बिंदो के साथ घर में!! इतनी निर्लज्जता!! क्या किसी को पता नहीं चला उसके साथ!…किसी ने कुछ कहा क्यों नहीं?”
रेखा गुस्से से बोली।
“कौन कहता! और क्यों कहता? अरे औरत तो मर्द के हिसाब से चले है न! जब उसका खसम ही उसे अपने भाईयों के नीचे…।” गुस्से और घृणा से सरोज का मुँह लाल हो गया।
“तो वह अपने पिता के घर वापस क्यों नहीं चली गई।” और उसकी सास? वह तो औरत थी…! उसे नहीं घर में चलते कुकर्मों पता नहीं था!! अरे शादी क्यों नहीं कर दी अपने कमीणे छोरो की।” रेखा ने कहा ने दाँत चबाते हुए कहा।
“पिता का घर!  हुउ…पिता ने तो रकम ली थी भूरे से…और सास! उसकी चलती कहाँ थी? जमीन का बँटवारा न हो इसलिए बिंदो सबके लिए।”
“तो गाँव भर की लुगाई क्यों चुप देखती रही! आप भी चुप रही!! क्यों माँ क्यों?” रेखा ने गुस्से से कहा।
रेखा की बात सुनकर सरोज फिर अतीत में चली गई।
चारदीवारी से बाहर निकलने की इजाजत तो सरोज को भी न थी’ लेकिन  सामने से आती  आवाज़ उसके कदम न रोक पायी।
बीच आँगन में बिंदो सिकुड़ी बैठी थी। उसका देवर सिर को पकड़े चिल्ला रहा था।
बिंदो के पास एक लाठी पड़ी थी।
देवर के सिर से बहता खून और बिंदो का फटा ब्लाउज सारी कहानी कह रहे थे।सरोज यह देखकर फट पड़ी,
“ऐ शर्म करो…राक्षस भी थारे कर्म देख डूब मरेंगे…।”
“और तू …चाची! तू तो लुगाई है तुझे बिंदो की पीड़ नी दिखती …थू है तुझ पर चाची! कैसी औलाद पैदा की!”
“सरोज… मुँह न फाड़! सीधी तरो अपने घर चली जा…इसा न हो तेरा बीर तेरी हड्डी तोड़ दे।”-बिंदो का देवर ऐंठता हुआ बोला।
“मेरे बीर की चिंता तू न कर हराम के जने! अर तू चाची…के मुँह दिखाएगी ऊपर जाके…? औरत को तेरी आँखों के सामने चार मरद नोंच रहे और तू!” सरोज का चेहरा गुस्से से लाल हो गया।
“ऐ के बकवास कर रही तू! के ऊटपटांग बोल रही है!! झूठी बात न फिला…तीन टैम की रोटी और घर के काम…बस इतना है करे है ये मोटी बुद्धि…की।.और तुझे शरम नी आई इतनी गंदी बात बोलते!” भूरा पीछे से आकर चिल्लाया।
बिंदो उसकी आवाज़ सुनकर सहम गई और अपनी टाँगों को और सिकोड़ लिया।
घुटनों में मुँह देखकर वह अपने को छिपाने की कोशिश करनी लगी।
“झूठी बात ! दिख रहा सब सच…अरे कमीण! “
सरोज बोली। गुस्से से उसका चेहरा लाल हो गया।
“जुबान सँभालके! रिश्ते का लिहाज रख?”भूरा गुर्राया।
” लिहाज! तूने कौन से रिश्ते का लिहाज रखा है देख रही हूँ…। तुझ जैसे हराम को तो मैं कुत्ता भी न समझूँ।”
” सरोज… यहाँ के कर रही है? सरोज की सास ने पीछे से आकर कहा।
” हमारे घर को फोड़ने आई है और के करेगी? अपनी बहू को भीतर दाब ले…वरना बता रहा हूँ मुँह काला कर देगी। ” भूरे ने दाँत पीसते हुए कहा।
“ओ…धौले मुँह के! अपनी फिकर कर…थोबड़ा जा देख शीशे में… कालिख तेरे मुँह पर नजर आयेंगी… कमीण कहीं का!…चल घर चल सरोज। ” भूरे के मुँह पर शब्दों का तमाचा मार सरोज की सास उसे अपने साथ ले आई।
दिन बीतते रहे… पति की गाँव से दूर शहर में बदली हो गई तो सरोज उसके साथ ही चली गई।बिंदो की खोज खबर तीज त्योहार पर आने पर मिल जाती।
अब उसके तीन बच्चे हो गए थे।…सुना था बेटो को पास न लगाती लेकिन बेटी को अपने से दूर न करती… घर की चारदीवारी ही उसका भाग्य बन गई।
“मतलब सब ठीक हो गया था! अब उसके देवर उसके साथ?” रेखा ने सरोज को फिर वर्तमान में ला दिया।
” ठीक…! ठीक शब्द किसी की जिंदगी में नहीं होता बेटे..।तेरे श्वसुर की बदली के बाद दोबारा यहाँ लौट आयी मैं।सच कहूँ तो मुझे यह वापसी अच्छी लगी…दिल में कहीं न कहीं बिंदो बैठी थी।”
“माँ…आप बिंदो से बहुत लगाव रखती हो न!” रेखा ने कहा।
” औरत अगर औरत से लगाव न रखें तो, कहाँ की औरत ….! पर मेरा लगाव उसे कौन सा बचा पाया।” सरोज ने आँखों में बहते पानी को आँचल से साफ किया और लौट   अपनी यादों में।
“ऐ…रुक…छोड़ मेरी साड़ी…।” किसी ने सरोज के ताँगे से उतरते ही उसके आँचल को जोर से खींचा…तो सरोज चिल्ला पड़ी।
अपने मुँह को नीचे किए एक औरत खड़ी थी, जिसने सरोज के पल्लू को कसकर पकड़ा हुआ था।
ब्लाउज और पेटीकोट में खड़ी वह अधेड़ औरत कुछ जानी पहचानी- सी लगी सरोज को।
“छोड़ …छोड़…पागल.. चल भाग यहाँ से।” ताँगेवाले ने उस औरत धकेलते हुए हटाया।
सरोज उस औरत को जाते देखती रही। फिर तेजी से घर के भीतर चली गई।
“माँ…माँ…।” सास को आवाज़ लगाती सरोज के दिमाग में वह पगली औरत ही थी।
“माँ को आवाज़ बाद में लगा लेना… पहले सामान तो रखवा देती!” पति ने पीछे से आकर उलाहना दिया।
इस बेखबर सरोज कहीं और ही थी।
सामने सास के देखते ही सरोज ने अपनी उत्सुकता सामने रख दी।
“माँ…वह औरत कौन थी? मेरी साड़ी खींच रही थी!!”
“साँस तो ले लो, दो घड़ी! आते ही जमाने की खबर लेने लगी! “सास ने बात बदलते हुए कहा।
“न माँ…जमाने की खबर नहीं। वो मुझे कुछ जानी पहचानी सी लगी…।”
“बिंदो है वो।” सास ने धीरे से कहा।
“बिंदो!! लेकिन माँ वो इस तरह!! ” सरोज का दिल धक से रह गया।
“माँ…माँ…! कहाँ खो गई आप?” रेखा ने सरोज को आवाज़ दी।
“कहीं नहीं रे…।चल अब संध्या बत्ती का समय हो गया है… तू जाकर खाने की तैयारी कर।”
“लेकिन माँ…बिंदो की हालत ऐसे कैसे हो गई? बताओ न!” 
“क्या करेगी जानकर? रहने दे…।” सरोज मंदिर की ओर मुड़ गई।
“पर माँ बताओ तो! कुछ नहीं तो आपके मन की पीड़ा ही निकल जायेगी… बताओ न माँ,भूरे का क्या हुआ? और उसके भाई!”
“मर मरा गया कम्बख्त… भाई पड़े हैं मुस्टंडे से..।” सरोज घृणा से बोली।
“लेकिन बिंदो की ऐसी हालत कबसे?”
“जब से उसकी धी मरी…। मर गई थी उसकी बेटी….।”
“कैसे लेकिन!!”
“यह न पता चला।…न पता चले तो अच्छा है।
धी मर गई लेकिन इसके होशोहवास ले गई…।इससें अच्छा इसे भी साथ ले जाती।पता नहीं कब इसे मुक्ति मिलेगी…।” सरोज ने बात को अधूरा छोड़ दिया।
“क्या उन्हें कुछ भी याद नहीं?” 
“याद तो है… बस अपनी लाज ढकने के लिए साड़ी … अपनी साड़ी..।”
सरोज की आँखों से बहता पानी बिंदो के दर्द की दास्तान सुना रहा था लेकिन क्या यह दर्द बस इतना था?
 “काश उसे बचाने भी कोई कृष्ण आ जाते।”
रेखा के मन में एक हूक सी उठी।
सड़क पर सहमी बैठी बिंदो आज भी अपनी साड़ी तलाश रही है… जाने कौन जन्म में उसकी तलाश पूरी हो…।

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