Friday, October 4, 2024
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डॉ. आरती स्मित की कहानी – विकल्प

कॉलबेल की आवाज़ ने आख़िर कुर्सी छोड़ने पर मज़बूर कर दिया| विचार तितर-बितर होने से बचाने की कोशिश करती हुई वह कलम हाथ में लिए ही उठ खड़ी हुई और कमरे से निकलकर दरवाज़े की तरफ बढ़ी| फ़्लैट का मुख्य दरवाज़ा इस खुली रसोई में ही खुलता था|
 “, काम कर रहे थे| सॉरी-सॉरी! ओ एक बात बोलना था… मतलब पूछना था तो …. “ मि. चटर्जी दरवाज़े पर ठिठक गए और झिझकते हुए बोले|
 “ये….?” अपरिचित लड़के को साथ देखकर  आयशा ने जानना चाहा|
इसी का बारे में आपसे बात करना था|”
     वह ज़रा हैरान हुई| उसकी हैरान निगाहें अपने चटर्जी दा पर टिक गईं
  “आज भीतोर आने को नइ बोलोगे क्या?”
अरे, अं… आइए-आइए न दादा!… आओ बेटेप्लीज़!” वह झेंप गई|  
  कमरे में घुसते ही दादा की नज़र  मेज़ पर खुली कॉपी पर जा टिकी|
क्या लिख रहे हो? कोई नया उपन्यास? … मैंने डिस्टर्ब कर दिया|”
कोई बात नहीं|” उसने मुस्कुराने की कोशिश की
चाय लेंगे?”
अरे, दोपहर का दो बजने वाला है| खाना का टाइम पे चा पिएगा तो भूक इ मर जाएगा| तुम लेखक लोग का तो कोई टाइम इ नइ होता| न खाने का, न सोने का| …. और जब से सुशांत गया है, तुम तो …..” कुर्सी पर बैठते हुए मि. चटर्जी बोले
सो तो है| लिखने-पढ़ने में भूल ही जाती हूँ| सुशांत था तो…”
ओइ तो! इसी बात का चिंता तुमारा बोदि को बी रेहता है| ओ इ बोला|”
??
देखो! असली बात बोलना तो भूल इ गया| इ अमारा घौर का बच्चा जैसा है| दोस्त का बेटा अमारा बेटा इ हुआ न! बहन के लिए एक कमरा ढूढ़ रहा था तो तुमारा बोदि तुमारे पास भेजा कि तुमारा दूसरा कमरा अगर तुम किराया पर दे दो तो उसको बी गार्जियन मिल जाएगा और तुमको बी अकेला नइ रेहना पड़ेगा|” 
अकेली? अकेली कहाँ दादा! मुझे तो समय का पता ही नहीं चलता|” 
किताबों में माथा घुसाए रहता है, कहाँ से पता चलेगा! हेल्थ का भी चीनता (चिंता) नइ|… आदमी रिटायर होकर घूमता-फिरता है, मौज-मस्ती करता है, मगर तुम तो अलादा है| बैंक का खाता से सिर बाहर निकाला …  किताब का ढेर में घुसा दिया|” 
अब तो समय मिला है दादा!” वह मुस्कुराई|
तुमारा बात तुमि जानो| तुमारा बोदि अबी आ रहा रूपा को लेकर| उसका साथ बात करके देखना, ठीक लगे तो ठीक| नइ तो कोई जबरदस्ती थोड़े इ राख (रख) देगा| हमको दोकान (दुकान) निकलना है अबी|” मि. चटर्जी उठ खड़े हुए
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देखो! दरबाजा भी खोला छोड़ रखा है|” 
अरे! आओ-आओ, बैठो|” आयशा की कलम फिर रुक गईपहिए वाली कुर्सी पर बैठे-बैठे ही उसने ख़ुद को दूसरी दिशा में मोड़ लिया | कलम अब भी उँगलियों के बीच फँसी चलने को कसमसा रही थी
अकेला कैसा मन लगता है!”
आप परेशान न हों| मैं मज़े में हूँ|” उसने हँसते हुए कहा
फीर बी…” बोदि ने आयशा के चेहरे पर नज़र धँसा दी| क्षण भर को सन्नाटा पसरा| वह लड़की रूपा वहाँ होकर भी मानो नहीं थी| अपने आप में खोई-उलझी हुई| उसकी कातर निगाहें पूरे फ़्लैट को वहीं से बैठे-बैठे देखकर पक्का कर लेना चाहती थी कि वह वहाँ रह भी सकेगी या नहीं| हर दीवार सामान से मुँह छिपाए थी| घुसते-घुसते ही उसने रसोई का मुआयना कर लिया था| एक दीवार से लगकर निकले स्लैप और कबर्ड  पर टिकी जगह को रसोईघर कहना उसे मुश्किल जान पड़ा| शेष दीवारें और उससे लगी फ़र्श  फ्रिज, बड़ी-छोटी अलमारी, बरतन के खाँचे, वाशिंग मशीन से लगभग छिपी थींएक छोटा टेबल भी पड़ा था| उदास-सा| कमरे के बाहरी हिस्से की दीवार भी एक काठ अलमारी के कब्ज़े में थी| उसके ऊपर छोटा मंदिर| शिलिंग भी परदे से ढँका हुआ
कोई भी कोना खाली नहीं| मैं रहूँगी भी तो कहाँ?’ सोचकर ही दिमाग झन्ना गया|
रूपा! … ओ रूपा! बैठे-बैठे सो गया क्या?”
अंss, नइ तो!”
ओ सामने दरबाजा देख रहे हो न, जाओ कमरा देख आओ|”
मैं लिए चलती हूँ|” आयशा ने टोका और कुर्सी से उठ खड़ी हुईबोदि ने उसका चेहरा पढ़ना चाहा, मगर असफल रही| इतनी देर की बातचीत के बाद भी वह समझ नहीं पाई कि आयशा की ‘हाँ’ में उसकी ‘ना!’ कितनी शामिल है| आयशा का चेहरा निर्भाव था| उसने कभी उसे ऐसे नहीं देखा था| उसे लगा, आयशा नहीं, वह आँधियों से घिर गई है| कल को वह भी तो ….| उसने सिर को झटका दिया और खड़ी हो गई|  
चलो, मैं भी चलती हूँ|” उसने कहा|
रूपा! यह है हमारा कमरा| सुशांत और मेरा मिला-जुला कमरा| अलमारी में दोनों के कपड़े हैं और भी बहुत कुछ| बहुत कुछ साथ ले गया, उससे अधिक छोड़ गया| कहता है, ‘घर तो वही होगा न, जहाँ तुम होगी| बाहर तो मैं ऐसे ही कमरा लेकर रहूँगा’| तुम देख लो, रह पाओगी यहाँ|”
      वह मुस्कुराई| उसकी नम आँखें बोदि से छिप न सकी| वह मुड़ी और अपने कमरे में आ गई| पीछे-पीछे बोदि भी निकल आई| रूपा उस कमरे की दर-ओ-दीवार निहारती, वहाँ उससे चिपके अतीत की आहट को सुनती देर तक खड़ी रह गई
     ‘मेरा कमरा भी तो ऐसे ही पड़ा रहेगा| बिस्तर खाली, मगर सामान से भरा कमरा| माँ सामान लेने-रखने के बहाने इसी तरह बार-बार आती-जाती होगी| पिताजी को दफ़्तर और दोस्तों से फुरसत कहाँ| समय मिलता भी है तो टीवी में घुसे रहते हैं| बेकार की बहसे! तनाव भरी! माँ भी जॉब में होती तो पिताजी को समझ आता| मुझे यहाँ भेजने के लिए कितना जो पाँव पड़ी होगी, उफ़! निभा पाऊँगी न मैं जो भरोसा माँ ने पिताजी को दिलाया है, वरना पिताजी माँ का जीना मुहाल कर देंगे| नहीं, नहीं! मेरे कारण माँ और तकलीफ नहीं सहेगी…..’
रूपा!……” बोदि की आवाज़ आकर गुज़र गई| वह वैसी ही खड़ीं रही…. जैसे हो ही नहीं|”
आपका सामान उस कमरे में है तो आपको…. “
हाँ, वही तो मैं भी बोदि से कह रही थी कि मैं सामान नहीं हटा सकती | देख ही रही हो, जगह कहाँ है|” रूपा की बात पूरी होने से पहले आयशा जल्दी-जल्दी कह गई|
जी, मैं ये कहना चाह रही थी कि मुझे तो कोई दिक्कत नहीं होगी, अगर आपको दिक्कत न हो|”
तो तुम कमरे का दरवाज़ा खुला छोड़ सकोगी?”
रात को?”
अरे, नहीं! दिन भर| कुछ न कुछ काम तो पड़ता ही है| तुम डिस्टर्ब होती रहोगी, सोच लो|”
रूपा को सोच में पड़ी देखकर बोदि से न रहा गया
आयशा! रूपा हामारा घौर का बच्चा जैसा है| इसका माँ हामारा चाइल्डहुड फ्रेंड है और तुम भी हामारा अपना जैसा है| कबी किरायादार समझा क्या? तुमारे जैसा और कोन है जिसको एतना भरोसा का साथ बोल सकता है| इसको पीजी में रहने से आच्छा यहाँ रहेगा…. तुम जब तक चाहेगा, तबी तक …. सुशांत का आने में तो टाइम है| बाकी बात का फिकर मत करो |”
    बोदि ने दोनों के बीच से गुज़रते और कमज़ोर पड़ते संवाद की कड़ी पकड़ ली | दोनों चुपचाप उसको देखती रहीं|
ऐ रूपा, सुन! आयशा को शिकायत का मौका मत देना| किचन-बाथरूम शेयर होगा तो ओसका साफाई का बी ध्यान रखना| एई नइ की टाका थमा दिया तो बस हो गया| समझी!” बोदि एक साँस में बोल गई| कुछ क्षण रुकी, फिर कहना शुरू आया| आवाज़ में दर्द उभर आया
तुमारा दादा का उमर का तो इसका बेटा  है | बहोत ख्याल रखता था| अब बी रोज फोन करता है| तुम भी माँ को रोज फोन करना| मेरा घौर भी तो अब….” 
   ख़ुद को भविष्य की आहट से बचाती हुई बोदि  उठ खड़ी हुई जल्दी जल्दी बोलती हुई दरवाज़े से बाहर निकल गई, “ मैं जाती हूँ, मेसो के आने का टाइम हो गया| आ जाना नीचे|
       बोदि चली गई| आयशा और रूपा के बीच खड़ी झिझक की दीवार ज्यों के त्यों खड़ी रही| दोनों सोचती रहीं, ‘कितना किराया देना/लेना चाहिए… गैस, पानी, बिजली, फ्रिज, गीज़र … सब तो यूज़ होगा!’ 
मैम! मुझे कितना किराया देना होगा?” रूपा ने चुप्पी तोड़ी|
पाँच हज़ार! अगर दे सको तो…” आयशा दीवार ताकती हुई बोली| शब्द उसके गले में फँस-फँस जाते| वह अब तक सोच नहीं पा रही थी, कैसे साझा करेगी सब… बाथरूम,रसोई…. बेटे की यादों की सुगंध से भरा वह कमरा …. |
मैं फ्रिज यूज़ कर सकती हूँ?”
फ्रिज़, गैस चूल्हा, बरतन…. सब कुछ| बस काम के बाद साफ़ कर देना|…. और अगर तुम चाहो तो मैं अलमारी का एक हिस्सा खाली कर दूँगी, नए कपड़े उसमें रख लेना| बैग से रोज़-रोज़ निकालने में दिक्कत होगी| घर के कपड़े यहाँ…. और गीले कपड़े यहाँ….” आयशा मन को संयत करती हुई एक-एक चीज़ दिखाती- बताती चली|   
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हाय! गुड मॉर्निंग बेटा!”
कोई आया है क्या? आवाज़ आ रही है|”
आया नहीं, आई है| प्यारी-सी बेटी… किराएदार |”
तुमने मेरा कमरा किराए पर दे दिया? पैसे की दिक्कत थी तो मुझे कहा होता!” सुशांत की आवाज़ में दर्द उभर आया|
अभी इतनी कमज़ोर नहीं हुई कि अपना बोझ अपने काँधे न उठा सकूँ| पैसे की बात ही नहीं|”
फिर?… और … और तुमने मुझसे पूछना भी ज़रूरी नहीं समझा| तुम्हें क्या लगता है, मैं वापस नहीं आऊँगा?”
तुम्हें क्या लगता है?”
मुझे क्या लगेगा! घर है तो आना ही है| वैसे भी एक बार यहाँ का कॉन्ट्रैक्ट पूरा होने पर आऊँगा ही|”
हाँ, मगर कितने दिनों की छुट्टी पर या कि जब तक नई वर्क परमिट नहीं बन जाती! यही न?”
जॉब छोड़ दूँ? इसलिए भेजा तुमने?”
मैंने ऐसा कब कहा? न कहूँगी, न चाहूँगी कि मेरी वजह से तू अपने सपने के पंख काट दे|”
फिर क्यों?”
क्यों क्या? तुम साल-दो साल पर महीने-दो महीने के लिए आओगे| तुम्हें नहीं लगता, धीरे-धीरे उस कमरे की दीवारें अतीत जीते-जीते खंडहर हो जाएँगी| कोई नई इबारत नहीं लिखी जाएगी वहाँ, न ही कोई सपना पलेगा| मैं जानती हूँ| पिछले आठ महीनों से सुनती रही हूँ सिसकियाँ उदास फ़र्श, दीवारों और छत की| तुम्हारे कमरे में सोने की कोशिश की, मगर नींद नहीं आई| अकेलापन ज़्यादा कचोटने लगा| कई बार कोशिश की मगर लगातार  तुम्हारी यादों के पल झरते रहे| कभी तोअच्छा लगा, कभी वे पल भी उदास लगे मानो थक गए हों| उन्हें जीवन चाहिए था| हँसता-थिरकता-मचलता  जीवन| शायद मेरे अकेलेपन से शापित ही होता रहता अगर तुम्हारे चटर्जी अंकल और आंटी ज़िद न करते| और जब रूपा  बिना तुम्हारे किसी सामान को हटाए रहने को तैयार हो गई तब मैंने हाँ कर दी| यों भी रात को कई बार जी घबराता था| बोल, मैंने गलती की?”
……
बोलता क्यों नहीं?”
अब क्या बोलूँ? बिना मुझसे पूछे मेरे कमरे का डिसीजन ले लिया| फोन रखता हूँ, बाद में बात करूँगा|”
आज तो संडे है|”
माँ, शनिवार की रात है यहाँ| भारत से साधे दस घंटे पीछे का समय ….तुम्हारी रूपा के आते ही यह भी भूल गई?”  
सॉरी बेटे!”
रखता हूँ|”
सुन तो! कल ज़रूर कॉल करना|”
हम्म ! बाय!”
फोन कट गया| आयशा हाथ में मोबाइल लिए परेशान-सी बैठी टकटकी लगाए शून्य निहारती रही… 
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फोन की घंटी सुनकर आयशा की तंद्रा टूटी| दिन बीत गया| शाम ढल चुकी| उसकी बेचैनी उसे स्थिर नहीं होने देती थी| रूपा ने कोशिश की कि कुछ खा ले, मगर वह तो होंठों पर ख़ामोशी जड़, अपने स्टडी टेबल से चिपकी रही| मन कहीं और उड़ता रहा थाउसने मोबाइल उठाकर देखा| होंठों पर मुस्कान लौटी| थरथराते स्वर फूटे, “तू अब भी नाराज़ है मुझसे?”
क्या माँ! छोड़ो न! अब रख ही लिया तो दिमाग क्यों लगा रही हो?”
तुमलोगों के साथ दिमाग कहाँ लगा पाती हूँ!” स्वर काँप उठे|
ओहो! अब रोना मत शुरू करो| मेरा मूड ख़राब हो जाएगा तो पूरा संडे बेकार हो जाएगा|”
नहीं रोती, मगर सुन तो ! तू वहाँ है| वह भी माँ से छूटकर आई है| अकेली है| तेरी तरह केयरिंग है| कभी-कभी डाँट भी सुन लेती है और कभी-कभी रात का खाना हम इकट्ठे भी खा लेते हैं| रात का खाना तो मैंने बंद ही कर दिया था|” 
मम्मी! मैं भी तो अकेला हूँ यहाँ! और तुमसे तो कहा कि जब लिखने-पढ़ने से ऊब जाओ तो कहीं घूमने निकल जाया करो| कितने तो दोस्त हैं तुम्हारे… पहले तुम्हारे पास मिलने-जुलने का समय नहीं होता था, अब है तो एन्जॉय करो|”
हाहाहा! 28 की नहीं हूँ तेरी तरह! यों भी तीस साल तक घड़ी की सूई के इशारे पर घर-बाहर क़दम दौड़ते रहे हैं,अब जी नहीं करता| तू अभी नहीं समझेगा|”
???
घर से बाहर की रोशनी घर के भीतर के अँधेरे को कम नहीं करती| उसके लिए घर के भीतर उजाला भरना होता है|”
छोड़ो, तुम से कुछ कहना ही बेकार है| फिर रोने लगोगी| तुमने भी मेरी वापसी का रास्ता बंद कर दिया, जैसा कि पापा ने किया था| याद है ?…. या भूल गई वह भी?” 
सुशांत की आवाज़ आयशा कलेजे को बेधती चली गई|
पापा को जीवनसंगिनी नहीं , बिस्तर की चादर चाहिए थी|चाँदी की चादर…”
तुम लेखक लोग न, अपने बच्चे से भी शब्दों का खेल खेलने लगते हो| बंद करो| मान क्यों नहीं लेती कि तुमने मेरा विकल्प ढूढ़ लिया है| पूरा कमरा तो मेरा नहीं ही था| अब मेरा बेड भी मेरा नहीं|”
पगले तुम्हें सचमुच लगता है, तुम्हारा कोई विकल्प हो सकता है?… घर को मकान बनाने से बचा लिया| अकेला आदमी मकान में रहता है| घर तो मकान में बसे अपनेपन की खुशबू से भरे संबंधों से बनता है| पिछले आठ महीने से तेरा यह घर मोबाइल पर सिमटकर रह गया था| उसे फिर से विस्तार दे रही हूँ ताकि बीच के दिनों में जो सन्नाटा और उससे उपजे शोर को ख़त्म कर सकूँ |”
तुम्हारी बातें कभी-कभी समझ नहीं आतीं|”
इतना ही समझ लो, बड़ी मुश्किल से मैं यह विकल्प चुन पाई और इसमें चटर्जी दा की मर्ज़ी शामिल है| जानते ही हो, मुझसे अधिक उन दोनों को मेरे अकेलेपन की चिंता रहती है| अब मुझे भी लगता है, घर को मकान बनाने की जगह घर को घर बनाए रखने के लिए यह विकल्प बुरा नहीं, ताकि जब तुम आओ तो इस घर को वैसा ही हँसता-मुस्कुराता पाओ, जैसा छोड़ गए थे|”
   “कोई और मेरे कमरे में रहे तब भी वह मेरा कमरा… क्या मजाक है!” 
   “सुशांत ! बिस्तर बदला जा सकता है| मकान भी बदले जा सकते हैं| घर नहीं बदला जा सकता| घर बदलने का अर्थ है – उस घर में पलते रिश्तों का मर जाना| दो पीढ़ी के दो अलग-अलग व्यक्ति एक मकान की एक छत के नीचे अपने-अपने घर को बचाने में लगे हैं| जब तू आएगा, सब समझ जाएगा|”
  “अभी फोन रखता हूँ|” उलझी आवाज़ उभरी और फोन कट गया|
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ह’लो!… कैसी हो?”
बढ़िया! तुम बताओ|”
नया प्रोजेक्ट शुरू किया है| उसी में सारा समय निकल जाता है| यहाँ –वहाँ के समय का भी चक्कर है| मैं जब तक जगता हूँ, तुम्हारे सोने का वक़्त हो चुका होता है| इसलिए…”
मैं तुझसे कोई शिकायत नहीं कर रही| पहले की तरह हर रोज़ फोन का इंतज़ार रहता है| पर कोई बात नहीं! तेरा गुडमॉर्निंग का मैसेज मेरी रात सोने लायक बना देता है| जब समय मिले या जब मन करे, फोन कर लेना| तुम्हारे लिए कोई समय की कोई पाबंदी थोड़े ही है|” 
   आयशा ने आवाज़ में संयत बरती| वह जानती थी, जब से रूपा आई है, सुशांत ने फोन करना कम कर दिया है| बस गुड मॉर्निंग का मैसेज भेज देता है, ताकि वह चिंतित न हो|
तुम्हारा भी मन करे तो कर लेना|” 
मेरा तो हमेशा मन करता है| हाहाहा…!” आयशा हँस पड़ी, फिर बोली “माँ-बाप अपने मन की सुनने लगें तो दिन में पाँच बार नंबर डायल कर दें| मैं तो मम्मी-पापा दोनों हूँ| दिल भी दोगुना धड़कता है|” 
तो किसने रोका है, डायल कर लिया करो| मीटिंग में रहूँगा तो नहीं उठाऊँगा| फ्री रहूँगा तो उठा ही लूँगा|”
    “मैं तुझे डिस्टर्ब नहीं करना चाहती| इसलिए ख़ुद को रोके रहती हूँ|”
और सब?…..”
…..
आंटी चाय!”
थैंक यू बेटे!”
अब किस बात के लिए थैंक यू?”
रूपा को कहा| पता नहीं, इसे कैसे पता चल जाता है कि मुझे चाय की तलब हो रही हैकिसी जनम में मेरी माँ ही रही होगी!”
तो माँ समझ जाती है सब कुछ?”
हाँ!”
तुम्हें लगता है ऐसा?”
मैं अच्छी माँ होने का दावा नहीं कर सकती|”
नानी ने तुम्हें समझा था?”
अपनी समझ से जितना समझा होगा, ठीक ही समझा होगा!”
आजकल पहेली अधिक बुझाने लगी हो मम्मी! कोई नॉवेल लिख रही हो क्या? डायलॉग पर डायलॉग मारी जा रही हो|”
तुझसे बात करती हुई मम्मी होती हूँ, सिर्फ़ मम्मी| तुझे नहीं लगता?”
कभी-कभी नहीं भी | एनी वे, तुम अपनी रूपा के हाथ की चाय के मज़े लो| मैं बस ऑफिस पहुँचने वाला हूँ| फिर कॉल करता हूँ ….”
रुकिए, फोन मत काटिएबस, एक मिनट! प्लीज!” पीछे से रूपा की आवाज़ गूँजी| “वीडियो ऑन कीजिए|”
मम्मी, मुझे देर हो रही है| ये क्या नया नाटक है?” सुशांत झल्लाया|
बस, एक मिनट के लिए प्लीज!” रूपा ने मिन्नत की और आयशा से फोन लेकर कमरे की ओर दौड़ पड़ी| उसने पीछे का कैमरा ऑन कर दिया|
देखिए अपना कमरा|”
मेरा कहाँ?”
देखिए तो सही| बस देखते जाइए…|”
   रूपा तेज़ी से कमरे का हर एक कोना, कुर्सी, मेज़, दीवार पर टंगी उसकी बनाई तस्वीर, सामने टंगा उसका बोर्ड और बोर्ड पर लिखे गए उसके शब्द और अंत में अलमारी और बिस्तर दिखाती चली
मैंने आपके कमरे को आपका ही रहने दिया है| जैसा था, बिलकुल वैसा ही|” रूपा की आवाज़ में गंभीरता थी| अब आप वीडियो ऑफ़ कर सकते हैं| चाहें तो फोन भी| आंटी को फोन दे रही हूँ|”
रुको, रुको!”
‘??’
तो फिर आप रहते कैसे हो? …. मेरा मतलब, आप पे कर रहे हो और एक ऐसे कमरे में रह रहे हो जहाँ दूसरे का सामान बिखरा पड़ा हो? ऐसे में तो वह कमरा अपना लग ही नहीं सकता! मैंने ख़ुद ऐसे कई कमरे देखकर छोड़े हैं|”
मुझे कमरा नहीं, घर चाहिए था| अच्छा कमरा तो पीजी में भी मिल जाता, मगर न मुझे इतना अपनापन मिलता, न ही मेरी माँ को तसल्ली होती|”
मगर फिर भी…”
मैं तो पूरे घर में मर्ज हो गई हूँ | हिंदी में क्या कहते हैं– समा जाना, हाँ समा गई हूँ| कहीं नहीं हूँ और हर जगह हूँ| आंटी आपको समझा नहीं पा रही थी| मैं उनको लगातार परेशान देखकर परेशान थी,समझ रही थी कि अपना कमरा देखे बिना आप समझ नहीं पाएँगे, इसलिए समय माँगा| आप जब भी आएँ, आपका कमरा आपको वैसा ही मिलेगा,जैसा छोड़ गए थे|”
आप कहीं और शिफ्ट हो रहे हो?”
पहले सोचा था, जब आपसे बातचीत के बाद आंटी को हर समय उदास देखती थी तो बुरा लगता था| ख़ुद में डूबी रहतीं, कुछ कहती भी नहीं थीं| …. मगर, अब नहीं सोच रही| मगर आप मेरे रहने की फ़िक्र मत कीजिए| वर्किंग डे में वैसे भी दिन भर बाहर ही रहती हूँ और रात को सोना मेरे लिए कोई समस्या नहीं| मासी के पास नीचे सो जाऊँगी या फिर आंटी के पास ही|”
मगर….”
अगर-मगर कुछ नहीं| समझ लीजिए आंटी ने केयर टेकर रखा हुआ है, जिसे बदले में ढेर सारा प्यार और आशीर्वाद चाहिए| महीने में एक बार नहीं, हर रोज़…” वह हँस पड़ी|    
अब आपको देर नहीं हो रही? एक मिनट बात करने को तैयार नहीं थे| आंटी को फोन दे रही हूँ|” उसने फिर चुटकी ली| सुशांत को बुरा नहीं लगा|  
मम्मी! ये रूपा क्या चीज़ है?”
चीज़ नहीं है| जीती-जागती गुड़िया है| तूने देखा न, जो बात मैं तुझे कई दिनों से समझा नहीं पा रही रही, इसने एक मिनट में समझा दिया| अब ये मत कहना, मेरा घर नहीं रहा|”
हम्म! अब तो लगता है, मेरी मम्मी ही गायब हो रही है|” वह हँसा| खुलकर हँसा
      बेटे की हँसी सुनकर आयशा की पलकें ख़ुशी से नम हो आईं
कितने दिनों बाद तेरी हँसी सुनी है!”
अरे वो तो बस …. लेकिन मम्मी! वह तुम्हारे कमरे में कैसे सो सकती है! तुमने तो डबल बेड भी हटवा दिया|” उसने बात बदली|
तू उसकी चिंता मत कर| उसे कोई परेशानी नहीं होती| न छोटी जगह से, न ही नाक बंद होने के कारण बजते खर्राटे से और न ही रात को उठ-उठकर बाथरूम जाने और नल चलाने से| मेरे मना करने पर भी उस रात साथ ही सोई जब अचानक…. “ अचानक आयशा रुकी| उसने बात बदलनी चाही|
जब.. जब क्या मम्मी? तुम ठीक तो हो?”
हाँ, हाँ! बिलकुल फिट!”
तो तुम्हारी रूपा ने झूठ बोलना भी सिखा दिया|”
तुम जानते हो न, मैं झूठ नहीं बोलती| और क्या बात है, हर बात में रूपा का नाम जपा जा रहा है!”
अरे, तुम तो मेरी ही टांग खींचने लगी| सच बताओ, क्या हुआ था?रूपा को तुम्हारे पास क्यों सोना पड़ा था|?”
वो पुरानी बात हो गई| छोड़ न!”
अरे हुआ क्या था? और जो भी हुआ, बताना तो चाहिए था|”
तू मुझसे नाराज़ न हुआ कर, फिर  कुछ नहीं होगा होगा मुझे|” आयशा की आवाज़ काँपी|
मम्मी! कोई चिंता की बात तो नहीं? प्लीज बताओ|”
नहीं रे, जब ऐसी कोई बात होगी तो ज़रूर बताऊँगी| ज़रा-ज़रा सी बात क्या बताना! कहने को १८-२० घंटे का सफ़र है ,मगर तुरंत आना आसान है क्या? उस पर, सिर्फ़ टिकट में इतने रुपये लग जाते हैं| तू मेहनत से कमाए और मैं एक झटके में खर्च करवा दूँ?”
कमाता किसलिए हूँ?” वह नाराज़ हुआ|
उसका जी चाहा कि कह दे, ‘सुशांत! एक बार, दो बार, तीन बार मेरी बीमारी सुनकर आ जाएगा तू, मगर उसके बाद …. उसके बाद क्या होता है, यह बड़े नज़दीक से  देखा-समझा है| ख़ास करअपना घर बसाने के बाद पुराने घर में सँजोए संबंध को कौन –सा दीमक कैसे चाट जाता है, यह तो बदलता वक़्त ही जाने! मीयाद से पहले खँडहर होते संबंध के भीतर रेशा-रेशा टूटते-बिखरते घर को पिछले बीस वर्षों से देखती ही तो आ रही हूँ| कुकुरमुत्ते  की तरह वृद्धाश्रम की बढ़ती संख्या ! और जहाँ वृद्धाश्रम नहीं, वहाँ….ओह!’ उसने सिर को झटका दिया| भाव बदलती हुई बोली,
 “तेरा घर है| आकर कुछ दिन रह! साथ घूम| मम्मी के हाथ का बना खाना खा| दोस्तों के साथ मज़े कर| घर आने के लिए किसी इमरजेंसी का इंतज़ार क्यों करना?…. तू सड़क पर चल रहा है शायद! चलते हुए फोन पर बात मत कर| संभलकर पार करना|”
फुटपाथ पर चल रहा था| अब बिल्डिंग के अंदर आ गया हूँअब तुम सो जाओ|”
    फोन कट गया| आयशा बाहर बालकोनी में निकल आई| आज आसमान ज़्यादा सुंदर नज़र आया| चाँद पर टिकी उसकी आँखों में चाँदनी भरने लगी| बड़े दिनों बाद वह गुनगुना रही थी| आँखों में सुशांत का बचपन हिलोरे ले रहा था|
    ‘अब भी नहीं बदला पगला कहीं का| माँ किसी और को प्यार करे तो कैसे चिढ़ जाता है! छोटे बच्चे की तरह…कहता है, बताया क्यों नहीं? क्या बताती कि  दिल पर ठेस लगने से भी दिल को झटका लगता हैजान जाता तो क्या परेशान न हो जाता!’
    उसने एक बार फिर पूनम के चाँद को देखा और बुदबुदाई, “रूपा जैसे बच्चे  घर को मकान होने से बचा ही लेते हैं| घर घर ही रहे तो अच्छा! संबंध की ख़ुशबू फैलती रहेगी और ढलता जीवन खंडहर होने से बचा रहेगा….’ 
      सोच में डूबती-उतराती, मुस्कुराती, चाँदनी के छींटे महसूस करती वह देर तक खड़ी रही| भीतर उठे ज्वार का वेग शांत हो चला …..   
आरती स्मित
आरती स्मित
तीन कविता संग्रह, दो कहानी संग्रह, दो बाल साहित्य, दो आलोचना संग्रह, 40 से अधिक पुस्तक अनुवाद, धारावाहिक ध्वनि रूपक एवं नाटक, रंगमंच नाटक लेखन, 20 से अधिक चुनिंदा पुस्तकों में संकलित रचनाएँ, बतौर रेडियो नाटक कलाकार कई नाटकों में भूमिका. विभिन्न उच्चस्तरीय पत्रिकाओं में सतत लेखन. सत्यवती कॉलेज,दिल्ली में अध्यापन. सम्पर्क - [email protected]
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2 टिप्पणी

  1. एक शानदार बुनावट में आरती स्मित जी ने अनेक प्रश्न उठाए हैं।
    क्या प्रतिभा प्रवास भारत को वृद्धों का देश बना देगा ॽ
    नित्य प्रगति के गीत गाने वाली सरकारें मौन क्यों हैं ॽ
    क्या कबूतर के आंखें बंद कर लेने से बिल्ली उसे छोड़ देगी ॽ
    क्या वृद्धों को ने सिरे से अपनों की, संरक्षकों की तलाश करनी होगी ॽ

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