आज तो सोच ही लिया था उसने “ये किट्टी पार्टी टाइप आयोजनों की रिपोर्टिंग करते करते थक गई हूँ, लाइफ इज़ बिकमिंग हेल यार,ये पेज थ्री को कवर करने को जर्नलिस्ट थोड़ी बनी थी | ठीक है पेंटिंग शौक है मेरा, रंगों से बात करना अच्छा लगता है, लेकिन क्या आर्ट एक्सहिबिशन को ही कवर करती रहूँ, आय नीड सम थ्रिल, इससे अच्छा तो यह हो कि मैं अपना आर्ट स्टूडियों खोल लूँ, कम से कम अपने मन लायक काम तो करूँगी, आज तो बात कर के रहूंगी बॉस से” , सोचते सोचते परा अपने ऑफिस में दाखिल हुई, पर्स डेस्क पर लगभग पटकते हुए सीधे बॉस के केबिन में, 60-65 साल के अधेड़ बॉस किसी नक्शे पर झुके हुए थे, उसे आया देख अपने चश्में को सीधा कर, फिर से नक्शे पर झुक गए|
“मुझे कुछ बात करनी है” , वह बोली |
“कहो”, उन्होंने सिर उठाये बिना कहा |
“मुझे अब यह काम नहीं करना” वह तमतमाई |
“ओ वाओ, मतलब अब इस डेली न्यूज़पेपर को तुमसे आज़ादी मिलने वाली है ,भगवान आज सूरज किधर से निकला इस आफत को तूने हमे बख्शने की अकल दे ही दी” वे नाटकीय भंगिमा बना कर बोले ।
“मैं सच कह रहीं हूँ इस बार मज़ाक नहीं कर रही” वह भुनभुनाई ।
“हाँ हाँ मैनें कब कहा कि आप मज़ाक कर रहीं हैं मोहतरमा, दरवाजा उधर है ,जाईए” , वे मुस्कुराते हुए बोले ।
लेकिन जाने के बजाए वह धम्म से सोफे पर बैठ गई, “आय नीड सम चेंज, आप तो मुझे जानते हैं ना, कितना एडवेंचर पसंद है मुझे कभी ऐसे बंधी बंधाई नौकरी की बात सोची ही नहीं, लगा था जर्नलिज्म में थ्रिल है, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में चार्म है, टी वी का अपना नशा है, लेकिन दो साल में बोर हो गई वही घर,वही स्टूडियों, वही राजनीति, मुझे कुछ एक्साइटिंग स्टोरी करनी है, एब्स्ट्रैक्ट, जिससे मन के दरवाजे खुले” । “क्या है ना बुद्धि के खुले दरवाज़े तो मैं लेकर पैदा हुई हूँ, मन की खिड़कियां भी हैं, झरोखे भी हैं लेकिन कुछ ऐसा करना जानना चाहती हूँ जो रुला दे, जो छीन ले नींद, जो करता रहे पीछा,कुछ ऐसा जो हांटिंग हो” ।
“तो किसी स्पिरिचुअल गुरु के पास चली जाओ, कुंडलिनी जगाओ, अघोरियों के बीच चली जाओ, हिमालय पर या किसी किले की गोथिक स्टोरी कवर कर लो, दुनिया में बड़े रहस्य हैं ढूंढों किसने रोका है”, वे बोले, जानते थे ये लड़की औरों की तरह नहीं है, अपनी चित्रकारी को आगे बढ़ाओ” |
वह वैसी ही अन्मयस्क सी बैठी खिड़की के बाहर ताकती रही , “नहीं सर उकता गई हूँ , अब तो ब्रश भी हाथ में लेने का मन नहीं करता”|
“एक ट्रस्ट है उसकी केयर टेकर बनोगी” उन्होंने पूछा |
“कलाकार हूँ समाजसेवक नहीं, मैं एब्स्ट्रेक्ट की बात कर रही आप मुझे समाजसेवी बना रहें हैं” थोड़े अभिमान से बोली वह |
वे हँसे “जाओ शादी कर लो किसी ऐसे से जो तुम्हें समझ सके” उन्होंने छेड़ा |
उसने ऐसा मुँह बनाया जैसे किसी ने कुनेन मुँह में डाल दी ,”शादी ,मरना पसंद करूँगी शादी माय फुट, और क्या कहा आपने ऐसे से जो मुझे समझ सके, औरत को कोई मर्द कभी समझ सका है भला, डिअर सर ऐसी शै है औरत जो खुद की समझ में भी आती है या नहीं कौन जाने” ।
उनके हाथ से कॉफी का मग गिरते गिरते बचा, कान में वो शब्द गूंजने लगे, बरसो पहले किसी ने यही तो कहा था, वो भी तो एक दोस्त था, वे उठे और परा की तरफ एक टक देखने लगे, उसकी आँखों में वही गहराई, वही चमक एक साथ दिखी जो बरसों पहले उनके दोस्त की आँखों में देखी थी ,शब्द भी तो वही थे , लेकिन चला गया एक चमकदार कॅरियर छोड़ कर, और और वह भी तो चित्रकार था, ये लड़की भी चित्रकार है बाते भी उस जैसी करती । वह भी तो अपने आर्टिस्टिक थ्रिल के लिए कहीं भी चला जाता था ।
ओह ! इतिहास या कोई संजोग या कोई संबंध, क्या कोई चमत्कार है जो आज इतने बरसो बाद इस लड़की में वह नज़र आ रहा है ।
लेकिन उसने, उसकी कला को तो उसने छोड़ दिया था, वह बड़बड़ाता जा रहा था “मेरी आँखें उसकी आँखों में क्यों नहीं देख पाई, क्यो नहीं, बस वही बनाना चाहता था, रंगों का ऐसा सेंस, ऐसे स्ट्रोक, ऐसी बारीकी कि देखने वाला दांतो तले उँगलियाँ दबा लेता । उस पर उसका सुदर्शन व्यक्तित्व, खोया हुआ दार्शनिक अंदाज़ और कला का विषद ज्ञान क्या नहीं था उसके पास | कला को मिलने वाली पहचान इंसान को जितनी रचनात्मक संतुष्टि देती है, उतनी ही उसकी लत भी लगा देती है | बोलने की जरूरत उसे कम पड़ती थी, उसका काम बोलता था | वह कहता था “मुझे मेरी रंगों में ही पा सकोगे, मेरी तस्वीरों में ही मिलूंगा मैं”, जैसे एक बार सुचित्रा सेन ने कहा था मुझे मेरे किरदारों में ही पायेंगें, उसके बाहर नहीं, ग्रेटा गार्बो भी तो ऐसी थी, वह भी तो यही कहती थी । यूँ जान बूझ कर रहस्य पैदा करना उसकी फितरत नहीं थी, कुछ स्वभाव ही ऐसा, शायद असाधारण प्रतिभा के साथ कुछ रहस्य अपने आप ही जुड़ जाते हैं ।
ये लड़की इस सेंस में उससे उलट है, शोर करती है ,लेकिन कहीं कहीं उसके जैसी लग जाती है, वे अनमने हो उठे।
“आप सुन रहें हैं, मैं क्या कह रही हूँ “, उन्होंने उड़ती सी नज़र डाली उस पर, और बोल उठे “थ्रिल चाहिए तुम्हें देता हूँ एक थ्रिल, अपनी तिजोरी में से एक कागज़ का टुकड़ा निकाल कर कुछ देखा उन्होंने और कहा एक नाम देता हूँ, केवल एक नाम इस आदमी को ढूंढों, और बनाओ इस पर एक स्टोरी, ढूंढ लाओ इसके मास्टर पीस और इसके गायब होने के कारण “, वे एक रहस्यमयी मुस्कुराहट फेंक उसकी तरफ देखते रहे ।
परा ने कागज़ हाथ में लिया, देखा तो पीले पड़ चुके कागज़ पर जगह जगह लगी स्याही से एक नाम लिखा था, नाम गौर से देखा तो लिखा था अद्वेत अवस्थी, नाम पढ़ते ही जैसे झुरझुरी सी दौड़ गई रीढ़ में ,ऐसा लगा जैसे यह नाम कहीं सुना हो , दिमाग पर बहुत जोर डाला लेकिन याद नहीं आया , वह झटके से पलटी “कौन है यह अद्वैत अवस्थी” ?
“वही तो तुम्हें पता करना है कौन है यह अद्वैत” वे फिर मुस्कुराये, “तुम तो परा हो, अद्वैत को तो तुम ही जान सकती हो” वे फिर रहस्यमयी तरीके से मुस्कुराये ।
“लेकिन कुछ तो हिंट दीजिए, कहाँ के हैं क्या करते हैं” । कागज़ देखते हुए वह बोली |
“लाइब्रेरी में ढूंढों क्या इसका नाम नहीं सुना तुमने, चलो केवल एक हिंट, यह भी चित्रकार था, या है” कहते कहते वे फिर खो गए ।
“ओह वह चौंकी तभी एक आर्ट क्लास में किसी ने यह नाम लिया था, और… और कहा था अचानक कहीं गायब हो गया यह आदमी तीस साल पहले, अपनी सारी पेंटिंग्स भी खत्म कर दी, कहाँ है कोई नहीं जानता, जब गायब हुआ तब 40 का था तो अब 70 का होना चाहिए |
“ ज़िंदा भी है कि आप मुझसे पिंड छुड़ाने के लिए कह रहे हैं, भटकती रहूंगी कहीं इस अद्वैत अवस्थी को ढूंढने” परा ने कहा |
“तभी तो कह रहा हूँ, तुम्हें थ्रिल चाहिए था ना तो दिया ना, जाओ ढूंढो, यूँ भी तुम्हें इस ऑफिस की चार दिवारी में कैद करना अब मुश्किल होता जा रहा है”।
यह कॉम्प्लिमेंट है या उलाहना? वह उनकी आँखों में झांकते हुए बोली |
वे उसकी आँखों में देख एकाएक सिहर उठे, इन आँखों ने ही तो अद्वैत को पागल कर दिया था, वे अचकचा उठे “तुम्हारी आँखें अजीब है परा”|
“…..डर गए आप”, वह खिलखिलाई ।
“आँख से ही तो सब पता चलता है सर, इन्ही से तो भाव पता चलते हैं, मैं …….मैं चाहती हूँ हर आँख के भाव को पढ़ सकूँ और उसे उकेर सकूँ, लेकिन कमब्ख्त जो भाव फोटो की पकड़ में आ जाते हैं उन्हें केनवास पर नहीं उतार पाती, उनके हाथ से कॉफी का मग छलक गया, “नहीं नहीं कभी कोशिश मत करना ऐसा करने की” वे चीख पड़े, वह अचानक धक रह गई समझ नहीं पाई क्या कह दिया ऐसा उसने, “जाओ जाओ तुम्हें दिया न प्रोजेक्ट वह पूरा करो, समय जितना तुम चाहो जाओ.. जाओ” वे चीखे |
वह हड़बड़ाती सी उनके सामने से हट गई ।
वे सोचने लगे कि “कहीं उनसे गलती तो नहीं हो गई, कहीं वे इस लड़की को भी तो नहीं खो देंगे, दूजा ख्याल आया कि कुछ नहीं, कुछ हाथ नहीं लगेगा तो लौट आएगी अपने आप, ” यह सोच वे निश्चिंत हुए |
लेकिन उन्हें नहीं पता था आज तीस साल बाद एक बार फिर वैसा ही जिद्दी इंसान उनके सामने था, परा के रूप में, जो अपने जुनून के लिए कुछ भी कर सकता है।
अब जो करना था परा को करना था, अगली सुबह उठी तो तरोताज़ा महसूस कर रही थी। उठते ही मानव को फोन लगाया, “और आदमी कैसे हो”?
उधर से मानव ने बुरा सा मुँह बनाते हुए कहा कि, “सीधे सीधे नाम नहीं ले सकती, हर बार अजीब नाम से पुकारती हो”|
“अजीब क्या है इसमें तुम्हारे माँ बाप ने ही तो यह नाम रखा है, अब मानव बोलूँ, इंसान बोलूँ या आदमी क्या फर्क पड़ता है”, उसने चिढ़ाते हुए कहा।
मानव झल्लाया “तो बताइये मोहतरमा कहाँ की खाक छाननी है इस बार, “देअर यू आर, तुम मुझे कितना समझते हो”।
“हाँ तुम्हारी खप्ति टाइप की चीजों के लिए मैं ही तो हूँ, और जब तुम ऐसे उत्साह से बोलती हो तो समझ आ जाता है कि कहीं फिर कोई फितूर उठा है, बताईये”।
“पहले मिलो फाइन आर्ट्स कॉलेज में, फिर बताती हूँ । मिलते ही सारी बाते एक साँस में बता गई, मानव ने उसकी आँख में आँख डाल कर कहा “तो चलना है उसे ढूंढने, लेकिन कहाँ कोई सिरा तो पकड़ में आये, यूँ तो तुम अकेले ही जा सकती हो लेकिन सोचता हूँ चल ही दूँ, कहीं किसी और ने तुम्हे फँसा लिया तो, वह शरारत से मुस्कुराया।
“अरे मर गए फँसाने वाले” चलो वह उसे लगभग खींचते हुए अंदर ले गई |
आज शहर के सबसे पुराने आर्ट्स एंड क्राफ्ट कॉलेज जाना था और लाइब्रेरी भी, उस अजीब से रहस्यमयी इंसान का पता जो लगाना था, शुरुवात तो करनी पड़ेगी ना । कला मंदिर, जिसके बारे में कहा जाता था कि उसका शुभारंभ स्वयं गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने किया था, जहाँ देश विदेश के कई महान चित्रकारों ने अपनी कला को नए आयाम दिये थे, हर कलाकार के चित्र उनके हस्ताक्षर के साथ वहाँ मौजूद थे, अमृता शेर गिल से लेकर हुसैन साहब तक, कब कब कौन कौन यहाँ आया किसने क्या क्या किया सबकी जानकारी एक बड़े रजिस्टर में थी | लेकिन उस बड़े चित्रकार की एक भी पेंटिंग वहाँ नहीं थी, क्यों भला, उस कला मंदिर के ट्रस्टी, घोष बाबू, जो अब 80 बरस के हो गये थे वहीं बैठते थे सेवानिवृत होने के बाद भी, उनके पास गई “दादा इस नाम के बारे में जानना था, उन्होंने कागज़ लिया और अपने मोटे चश्मे से झांकती आँखों से जब नाम देखा तो पल भर को आँख चमकी और फिर बुझ गई, उन्होंने कहा “कौन है यह”? पत्रकार थी परा, आँखों के भाव समझ गई कि कुछ छुपा रहें हैं, पीछे पड़ गई “बताईये न दादा, बूढ़े ने खीजते हुए एक रजिस्टर थमा दिया “मैं नहीं जानता इस रजिस्टर में देख लो अगर कुछ मिले तो” बड़ा सा रजिस्टर जिसमें सब कलाकारों के नाम जिन्होंने कभी यहाँ सेवा दी थी, ढूँढते ढूँढते शाम हो चली एक जगह वह ठहर गई कुछ पन्ने गायब थे 1979 का, 40 बरस पहले का, उसने “पूछा दादा यह पन्ना, ”
घोष बाबू फिर बिफरे “इतने बरस पुराने रजिस्टर में क्या बचा है, क्या नहीं, मुझे क्या मालूम जो है बस यही है, दीमक खा गए, या गल गया होगा,”।
पूरे रजिस्टर में कहीं वह नाम नहीं था, जाहिर है वह पन्ना जिस पर नाम था वह वहाँ से हटा दिया गया था ।
वह निराश हुई, और धीमे धीमे कदमों से वापस चल दी।
नेट पर सर्च करने पर केवल कुछ तस्वीरें मिलीं बहुत पुरानी “चलो चेहरा तो दिखा जनाब का, किसी पुराने हीरो की तरह कभी हिप्पी जैसे तो कभी बीटल्स के जॉर्ज हेरिसन की तरह बाल और मुँह, ओह तो जनाब रंगीन तबियत के मालूम होते हैं, साल पता किया और रोज लाइब्रेरी के चक्कर लगा लगा के उस साल के अखबार और पत्र पत्रिकायें छान मारी, ढेर लगा लिया, हर बार उसकी प्रदर्शनियों की खबर उभरता सितारा , देश भर में नाम होने लगा था उसका, उसकी पेंटिंग में से एक दो ही दिखी, लेकिन जो भी थीं माशा अल्लाह जैसे जादू उतर आया हो केनवस पर , क्या तो रंग, क्या तो स्ट्रोक, लेकिन एक बात कॉमन थी सबमें आँखें, आँखों के भाव क्या इस तरह केनवस पर उकेरे जा सकते हैं| उसने कितनी बार कोशिश की कि भाव उकेर सकूँ लेकिन ऐसे भाव तो असंभव, अजब सा विषाद किसी आँख में, किसी में गहरी निराशा, किसी में वासना का ऐसा चित्रण देख सहम गई, आँख से ही कैसी अश्लील भाव भंगीमा का प्रदर्शन कर दिया चित्रकार ने कि एक लहर सी दौड़ गई रीढ़ में, केवल आँखें और उनके भाव उफ्फ्फ, कहीं रुदन करती आंखे, आँसू नहीं दिखाए गए लेकिन देखते ही समझ में आ जाता कि रो चुकी आँखें हैं, यह कैसे बना पाया कोई, नकली हँसी वाली आँख, उन्मुक्त हँसी वाली आँख ऐसे कि केवल आँख भर देख लेने से पूरा चेहरा सामने आ जाए, उसका सर चकरा गया, वह वहीं बैठ गई, तभी मानव ने कहा “तो कोई पता नहीं”।
लगातार पंद्रह दिन तक शहर के सारे कला केन्द्र को छान लिया, कोई सुराग नहीं मिला, रोज घोष बाबू उन्हें देखते फिर एक दिन उनके पास आये और धीरे से बोले “मेरे साथ चलो” उन दोनों ने एक दूसरे को देखा उम्मीद की एक किरण दौड़ गई , तेजी से सामान समेट वे उनके पीछे चल दिए । लाइब्रेरी के पीछे वाले हिस्से में उनका निवास था, वहाँ ले जाकर वे धीरे से बोले “अद्वैत अवस्थी के बारे में क्यों जानना है” , उन्होंने परा की आँखों में झांकते हुए कहा ।
“उनके आर्ट के बारे में जानना था इतने बड़े चित्रकार और अब लापता, एक प्रोजेक्ट मिला है” परा ने उत्तर दिया | “अब तक कोई आया नहीं उसे ढूँढने यह दुनिया बहुत जल्दी भूल जाती है सब, चढ़ता सूरज ही दिखता है सबको, खैर तुम्हारी कोशिश देख लगा सच में तुम उसके आर्ट के बारे में जानना चाहते हो । एक सिरा देता हूँ शायद तुम्हारे काम आ जाये”, कहते हुए खांसते हुए दराज खोल एक कागज़ उन्हें पकड़ाते हुए कहा, “देखो शायद यहाँ वह मिले” |
कागज़ हाथ में लेते ही परा अचकचा गई , “यह तो इस शहर से 200 किलो मीटर दूर एक जगह है जो रेड लाइट एरिया कही जाती है, देह व्यापार में संलग्न जाति का ठिकाना”।
“यहाँ वह क्या ……..” परा ने पूछा ।
“पता नहीं” घोष बाबू बोले तीस बरस से एक गुमनाम ज़िन्दगी यही गुजार रहा है ,इसी शहर के पास में और इस शहर को खबर नहीं, अपनी कला को समेट जाने किसकी तलाश में वहाँ रहता है, किसी से मिलता नहीं। … अफवाह फैला दी कि मर गया ताकि कोई ढूँढने न आये। ….यह देखो। दरिया किनारे सामान मिला, लाश का पता नहीं चला यह खबर मैंने ही छपवाई थी, मुझसे वादा लिया था उसने …… किसी को न बताने का लेकिन तुम्हारी खोज देख, उत्सुकता देख लगा तुम्हे उससे नहीं उसकी कला से मतलब है” … उन्होंने एक ठंडी सांस भरकर कहा और पता दे दिया |
पता ले कर शुक्रिया कहकर वे दोनों बाहर निकल आये, मानव ने उसके हाथ से कागज़ ले कर कहा “चलो भाई एक्सक्लूसिव स्टोरी करते हैं, तुम्हारी तलाश शायद अब पूरी हो जाए”। ……….एक गुमनाम चित्रकार ……..जो कभी एक सेंसेशन था, क्यों गया एक ब्राइट कॅरियर छोड़कर……..क्यों अपने को मरा हुआ घोषित किया …………क्यों एक रेड लाइट एरिया में ज़िन्दगी गुजार रहा है …………वाओ एक फिल्म बन जाए इस पर तो” मानव बोला |
परा कहीं खोई थी “यूँही कोई गुम नहीं होता मानव …….न जाने क्या हुआ होगा जो इस दुनिया से विरक्त हो गया…………..एक कलाकार, कलाकार का विरक्त होना और अनुरक्त होना दोनों ही इस दुनिया के लिए ठीक नहीं ……., न जाने कैसी चोट खाई होगी………न जाने कौन सा दुःख उठाया होगा, न जाने क्या है ना मानव और फिर नाम अद्वैत, क्या साध लिया उसने ……….ओह बड़ा रहस्य है”, उसने मानव की और गौर से देखते हुए कहा । मानव ने उसकी आँखों में देखा अजीब सा भाव “अरे यार तुम भी ना बहुत बारीक नज़र है तुम्हारी , इस दुनिया में कई बार बहुत बारीक नज़र रखने वाले अपने आस पास की मोटी सच्चाई नहीं देख पाते, एक अधूरापन एक बैचेनी घेरे रहती है, हर कहीं बारीक नज़र अक्सर विषादी बना देती है “ ।
वह बोली “केवल मोटा मोटा देखने वाले भी कहाँ पूरे होते हैं, अधूरापन तो वहाँ भी होता है” |
“हाँ लेकिन फिर भी मोटा देखने वाले ज्यादा सुखी होते हैं, एक भक्त अपने ईश्वर को उपस्थित मान आनंद में रहता है, लेकिन उसे ज्ञान से पाने की बारीकी बताओगी तो वह उलझ जायेगा, जीवन की सरलता में उसे देखना कोई दोष नहीं है, हर कोई एब्स्ट्रेक्ट नहीं देख पाता, इसलिए एक तराजू मत बनाओं सबको एक तराजू पर मत तोलो, सबके नज़रिये को समझो, सबकी सीमाओं को भी, कला दम्भ का साधन बनने लगे कि देखो क्या बढिया रचा है हमने वहीँ कला ख़त्म हो जाती है समझी“, मानव ने कहा |
परा ने मुस्कुराते हुए कहा, “मेरी संगत में तुम भी सोचने लगे” |
“सोचने लगा….? सोचता तो पहले भी था लेकिन तुम्हारी तरह, तुम यहाँ की हो कहाँ ………परा हो , बियॉन्ड यूनिवर्स, बियॉन्ड बॉउंड्रीज़, और मैं मानव इसी धरती का तुच्छ प्राणी” , मानव ने नाटकीय अंदाज़ में कहा परा ने एक चपत जमाते हुए कहा “चलो अब मेरे साथ इस अद्वैत को ढूँढते हैं” |
“खतरनाक जगह है, ऐसे ही नहीं जा सकते” मानव ने कहा ।
दिए हुए पते तक पहुँचना आसान न था, खुले चेहरे से जाने में किसी की नज़र
पड़ने पर हल्ला मच जाता, उस बदनाम बस्ती में क्या कर रही थी, केमेरा और तमाम झंझट ले जाते तो कोई घुसने नहीं देता, मार पीट हो जाती , मुँह ढँक कर जाने में भी परेशानी, इस परेशानी का हल मानव ने निकाला, एक खबरी, दलाल था जिसे मानव ने न जाने कितनी बार इस धंधे को छोड़ने को कहा लेकिन वह बेशर्मी से हँस कर कहता “गंदा है पर धंधा है ये” ।
उसे फ़ोन किया तो कहा “आ जाओ लड़की लेने के इरादे से आना” ।
फिर दृश्य बदल गया और हिंदी फिल्म की तरह दलाल और उसकी माशूका का रोल मिला दोनों को करने को, वे उस बस्ती में घुस तो गए, लेकिन मानव के दोस्त ने उन्हें अपने घर में पनाह दी और नाम पता ले बस्ती की मालकिन सुगना बाई के पास पहुँच गया ,”अमा कौन अद्वैत हम किसी को नहीं जानते, हाँ एक बूढ़ा जरूर बस्ती के किनारे रहता है और इन सब नाज़ायज़ औलादों को पढ़ाता है, ये आजकल की लडकियाँ भी मानती नहीं, पढ़ने भेज देती हैं, पढ़ा कर जैसे शरीर बचा लेंगी । और वह बूढ़ा भी किसी को नाम पता नहीं बताता, बस बच्चों को पढ़ाता है, फीस लेता नहीं, दो जोड़ी कपड़े ईद, दिवाली पर जब सबके कपड़े बनते तो उसको भी दान दे देते हम लोग, और खाना जब इतनो का बनता है तो उस बूढ़े को भी भिजवा देते हैं, इसी बस्ती की लड़की के प्यार में पड़ गया था, फिर वह लड़की अचानक मर गई, और यह बुड्ढा पागल हो गया तब से यहीं रहता, अब कौन जाने कोई दरवेश है या कोई शैतान लेकिन शांत रहता है, कहता कुछ नहीं सबकी आँखों में न जाने क्या ढूँढता है” वह बोली |
परा और मानव गौर से सुनते रहे और कहा “क्या हम उस बूढ़े से मिल सकते हैं “?
“वो वैसे तो किसी से मिलता नहीं, लेकिन जा देखो कभी तुमपर मेहरबानी कर दे तो” उसने कहा ।
उस बस्ती को पार करने में परा को पसीने आ गये । हाथ पैर कांपने लगे रुलाई फूट पड़ी, इंसानी जीवन की ऐसी त्रासदी देख मन भारी हो गया, छोटे छोटे गन्दगी से भर दड़बों जैसे कमरे, खुली हुई नालियाँ , भिनभिनाती मक्खियाँ और आदमी की हवस की गवाही देते, उसकी पीड़ा झेलते यह नाजायज़ बच्चों का हुजूम । मासूमियत तो उनके चेहरे पर भी वैसी ही थी जैसे अपने माँ बाप की गोद में लाड़ से उठाए बच्चों में होती है, लेकिन ज़िन्दगी के भयावह सच ने इन चेहरों पर अजीब सी मायूसी फैला रखी थी | ये बस्तियाँ जो इस सभ्य समाज की वासना का बोझ उठाती हैं, क्यों नहीं बंद होता यह खेल शरीर बेचने खरीदने का ? क्यों क्यों किस मज़बूरी से करती हैं औरतें, कैसा भय कैसी त्रासदी उनके जीवन को ख़त्म कर देती है, हर कहीं पुरुष और महिलाएं भी तो बड़ी संख्या में लिप्त हैं, उन लड़कियों की आँखों में देखा तो लगा जैसे सबसे बड़ा अद्वैत तो इन्होने साध लिया है। कहीं फर्क नहीं पड़ता कौन आ रहा है, कौन खरीद रहा है, कौन बिक रहा है । ….. लेकिन लेकिन क्या सच में ऐसा है ? …….. क्या ऐसा हो सकता है कि आत्मा और शरीर का अद्वैत साध सकता है कोई । ……………किसी शरीर, किसी स्पर्श में भेद ही न रहे। ………..हर स्पर्श प्रेम का हो, स्नेह का हो, वात्सल्य का हो। ………. उबकाई आ गई ………..यहाँ कोई प्रेम और स्नेह से तो नहीं आता। ……………..कितने घिनोने स्पर्श से गुजरती इनकी आँखों के भाव कैसे कैसे हो गए हैं….. इनकी हँसी विद्रूप है जैसे इस समाज पर हँस रही हो। ………… नहीं नहीं हँसी नहीं विलाप है यह……….इनका विलाप असहनीय है, जैसे इस सभ्य समाज के चरित्र की मौत पर रुदाली बन रो रहीं हो यह सब । …. ओह ओह” सोचते सोचते उसे चक्कर आने लगे, उसने कस कर मानव का हाथ पकड़ लिया, मानव धीरे से बोला, “जो गन्दगी, जो पीड़ा, जो दुःख हमने देखे ही नहीं वो इस दुनिया में हैं ही नहीं ऐसा नहीं है, इसलिए हर कलाकार को अपनी रूमानी दुनिया से निकल इस दुनिया को भी देखना चाहिए” … कहते हुए वह परा को तेजी से उस गली, उस बस्ती से बाहर ले आया |
थोड़ी दूरी पर ही झोपड़ी दिखाई दी, वे तेज कदमों से चले और पहुँच गए । मानव के दोस्त ने आवाज लगाई, “बाबा देखिए कोई मिलने आया है” थोड़ी देर में दरवाज़ा खुला, एक सफ़ेद दाढ़ी वाले बूढ़े ने बाहर झांका और कहा, “भीतर आ जाओ” ।
उन्हें वहीँ छोड़ मानव का दोस्त बाहर बैठ गया | वे भीतर पहुँचे तो देखा एक छोटी चारपाई और पानी का घड़ा बस और कुछ नहीं, सामने बिछी दरी पर वह बूढ़ा बैठते हुए बोला “घोष बाबू ने भेजा है, मुझे पता है क्योंकि मैंने ही उनसे कहा था जब किसी की आँखों में मेरे लिए जिज्ञासा देखो तो ही भेजना, इतने बरस कोई नहीं आया, तुम आये, बोलो क्या जानना चाहते हो, एक शर्त पर किसी को मेरे जीते जी बताना मत, हाँ मेरे मरने के बाद जरूर ……”
“आपने अपनी कला क्यों छोड़ दी? परा ने अपनी उदासी से बाहर आते हुए पूछा।
“मैंने …………….? मैंने नहीं मेरी कला ने ही मेरा साथ छोड़ दिया ……मुझे आँखें बनाने का शौक था, केवल ऑंखें, मेरी पेंटिंग में किसी न किसी रुप में आँखें होती थीं, और उन आँखों के भाव के लिए मैं कहीं भी जा सकता था, प्रेम भरी आँखे, वात्सल्य, स्नेह, कामुक, विषाद, रोती हुई, उदास, सोचती सी, रोने को रोककर मुस्कुराती आँखें, घुटन भरी, गरीबी वाली, चिंता वाली, भूखे बच्चे की आँखे, अपनी माँ से बिछड़े बच्चे की आँखे, अपनी माँ की मौत का मातम मनाते बच्चे की आँख , उसे याद करती आँख, घुटती हँसी की आँख, ईर्ष्या, द्वेष जलन, पश्चाताप की आँख , दम्भ, अभिमान, अहंकारी आँखें, प्रशंसा, कामना, घृणा, दुःख, अवसाद, श्रृंगार, जुगुप्सा , विरह, किसी के प्रेम को आकुल, भय वाली आँख, आतंकवादी की आँख, हत्यारे की आँख, बलात्कारी की आँख, ऊर्जा उल्लास ख़ुशी तरंग वाली आँख, ओह न जाने कितनी कितनी आँखों के घेरे मेरे इर्द गिर्द रहते थे, मैं अपना केमेरा ले कर यायावरी करता रहता, जैसे ही कोई विचित्र अनजाना भाव मिलता खींच लेता तस्वीर, और उसकी पेंटिंग बनाने लगता मेरे हाथों में जादू उतर आया था जैसे, ऐसे ऐसे भाव गढ़े मैंने कि देखने वाले दांतो तले उंगलियाँ दबा लेते |
खजाना बहुत बड़ा था, कभी कभी सोचता हूँ इंसान किस दम्भ में अपने को ख़ुदा समझने की भूल करता है, मैं यह मानने लगा था कि मैं हर भाव को उकेर सकता हूँ, मैं ईश्वर हो गया हूँ, भूल गया था कि इतनी हज़ार आँखे, इतने हज़ार मन, इतने भाव पल पल बदलते हैं क्या उनकी ठीक तस्वीर वैसे ही कभी उकेर सकता हूँ, कभी नहीं, फिर फिर जिस दिन कलाकार अपने किए पर मुग्ध हो जाए, उसे लगने लगे कि उसने जो किया है वह न भूतो न भविष्यति, वह सर्वश्रेष्ठ है, एब्स्ट्रेक्ट है और अनजाने ही उसका दम्भ दूसरो की सरल तरल दृष्टी का उपहास करने लगता है, तो कला भी उसका उपहास करने लग जाती है |
मैं भी कुछ ऐसा ही होने लगा था, पुरस्कार सम्मान की कतार, प्रशंसा ने मुझे आत्म अनुरक्त कर दिया, मैं भूल गया था कि भाव अनंत हैं और उन सभी को इस स्थूल कूंची से रंग दे पाना संभव नहीं था । वह रंग तो केवल एक ही दे सकता है वो नीली छत्री वाला, और और मैं यह भी भूल गया था कि…………वह थोड़ा रूक कर बोले ” प्लेटो को पढ़ा है ना तुमने .. कहा था न उसने “एवरीथिंग इज़ जस्ट अ रेप्लिका हीअर, नथिंग इस ओरिजिनल”, जो कुछ तुम बना रहे हो, लिख रहे वो सब इस संसार में पहले से ही मौजूद है, बस उसकी मौजूदगी के तार जब तुम्हारे मन और दिमाग के तारों से जुड़ जाते हैं तुम उसे बना लेते हो, रच लेते हो और मानने लगते हो कि यह तुमने किया है, बहुत बाद में समझा कि उसकी कृपा न हो तो वह प्रतिबिम्ब भी मनुष्य के मन मष्तिष्क में नहीं बन सकता, हर खोज हर आविष्कार उसी की ही मर्जी से आकर लेते हैं । लेकिन मैं तो विधाता बन बैठा था । अपार शोहरत मिली थी मुझे, लेकिन एक मजबूर लड़की ने मेरे उस दम्भ को चकना चूर कर दिया” फिर गौर से परा के चेहरे को देखते हुए कहा “ऐसा क्यों होता है कि विध्वंस और सृजन दोनों की जड़ में कोई औरत ही होती है ?
उसके प्रेम उसकी मज़बूरी और फिर उसके एक झटके ने मेरे पूरे अहंकार को छिन्न भिन्न कर दिया | एक पेंटिंग एक्सहिबिशन में मुझे मिली थी । जाने कैसी तो आँखें थी उसकी क्या कहूँ, कैसे कहूँ , कैसे भाव थे । पल पल बदल जाती, कभी भीगती तो लगता जैसे समंदर लहरा जाता, कभी सूखी आँखों से देखती तो रेगिस्तान का विस्तार भी छोटा पड़ता, हँसती तो जैसे सारे जहाँ के फूल आँखों में खिल जाते, रहस्य गहरा लिए आँखों में जब देखती तो रोंगटे खड़े हो जाते और रीढ़ में ठंडी लहर सी दौड़ जाती । मेरी पेंटिंग्स की मुरीद थी तो अकसर मिलना हुआ, और फिर मैं गिरफ्त हो गया उसकी आँखों के जाल में लेकिन उसने मुझसे कोई विशेष नाता नहीं रखा, वह दूर ही रही । मेरी पेंटिग्स पर उसकी टिप्पणियां हैरान करने वाली होती थीं । जिन्हें मैं एब्स्ट्रेक्ट समझ उसे दिखाता उसकी वह ऐसी व्याख्या कर देती कि मैं हैरान रह जाता ।
मुझे धीरे धीरे उससे ईर्ष्या होने लगी, लगने लगा कहीं कहीं वह मुझे चुनौती देती है , उसकी हँसी में मेरे लिए खिल्ली सी सुनाई देने लगी, जिन चित्रों पर दुनिया वाह वाह करती, समझने में नाकाम होती उन्हें वह ऐसे सरल तरीके से समझ जाती जैसे कोई महान कलाकार हो | किसी कलाकार की कला को बहुत हलके में ले कोई , और ऐसा कलाकार जिसे अपने होने का अभिमान हो , उसके लिए यह सब तो असहनीय होगा न ।
उसका व्यवहार मुझे खिन्न करता, “दो कौड़ी की लड़की क्या जानती है आर्ट के बारे में, उस पर इतना ताब कि मुझे चैलेंज करती है” , एक दिन इसी तैश में बैठा था और वह आई | मुझे देखते ही व्यंग्य से मुस्कुराई मैं तिलमिला गया, अपनी कूंची फेंकते हुए कहा, “क्या है यह सब, क्या जानती हो आर्ट के बारे में उसकी बारीकियों के बारे में, तुम्हे पता भी है जो हर बार मेरी खिल्ली उड़ाती सी चली आती हो” ।
उसने गौर से मेरी तरफ देखा और धीरे से हाथ छुड़ाती हुई बोली “नहीं आर्ट के बारे में तो नहीं जानती, कुछ भी तो नहीं” वह बुदबुदाई ।
फिर मेरी तरफ अपनी पनीली आँखें घुमा बोली “लेकिन ज़िन्दगी के बारे में बहुत कुछ जानती हूँ “।
मैं एक दम चौंक गया वाकई एब्स्ट्रेक्ट जवाब था , मुझे एकदम कुछ सूझा नहीं ।
“अद्वैत साहब” उसने साहब पर जोर देते हुए कहा , “ज़िन्दगी से बड़ा कोई आर्ट है भला, ज़िन्दगी के झोले में कितने रंग हैं कितनी कूंचियाँ हैं, कितने स्ट्रोक हैं, किसे पता,…….अच्छी भली सुन्दर सी पेंटिंग पर वह कब काले रंग में कूंची भिगो केनवास पर छींट देती है और उसकी सुंदरता को खत्म कर देती है, कोई नहीं जानता, कब कैक्टस के पौधे पर फूल खिल जाते हैं, कोई नहीं बता सकता, ये ज़िन्दगी है, न उससे बड़ा आर्ट है, न उससे बड़ा कलाकार, अद्वैत साहेब“|
मैं बुरी तरह झल्ला गया “ऐसा नहीं है, यही ज़िन्दगी नैमते देती हैं, दृष्टी देती है और हुनर भी, उसे तराशने का काम कलाकार करता है, सब कुछ कोई देता नहीं कुछ बनाना भी पड़ता है”।
वह खिलखिलाई ऐसे जैसे रो रही हो “अच्छा, बना सकते हो, तुमने ये तस्वीरें ही बनाई है ना, क्या कभी कोई ज़िन्दगी बनाई है “।
मैं बुरी तरह चौंक गया, वह फिर बोली ऐसे जैसे गले में कहीं कुछ अटक गया हो , “तुम्हारे इस आर्ट ने तुम्हें आत्ममुग्ध बना दिया है, तुम अपने आप में खो गए हो , वह मेरा हाथ खींच कर मेरी तस्वीरों के पास ले गई, गौर से देखो इस भूखे बच्चे की आँखे बनाने में तुमने कितने दिन महीने लगाए, लेकिन क्या इसकी भूख मिटाने के लिए कुछ किया, इस घुटती औरत की आँख बनाने के तमाम जतन किये लेकिन इस औरत के दर्द को मिटाने की कोई कोशिश की, प्रेम….अपने आप को प्रेम का, भावों का चितेरा कहते हो ना, क्या कभी प्रेम समझा किसी का, माँ , पिता, प्रेमिका किसी का भी प्रेम समझ पाए, इतनी आँखे इतने भाव उतारे केवल इसलिए कि वाह वाही बटोर सको, इतरा सको अपने पर, अपने को बड़ा मान सको । इसको गिराया, उसको बढ़ाया, इसकी खिल्ली उड़ाई, किसी की संभावना को ख़त्म किया ,कभी अपने अंदर के भी तो भाव उकेर लेते अद्वैत साहब । नाम कितना अच्छा है आपका अद्वैत, लेकिन जितना द्वैत मैंने आप में देखा है किसी में नहीं , मैं अलग हूँ, श्रेष्ठ हूँ, दूसरे तुच्छ हैं, का भाव आपको सबसे अलग बनाता है । कला जब संतुष्टि के बजाय भूख बन जाये तो भी उसे कला कहते हो ? बोलो। … वह कहते कहते कांपने लगी।
याद आया ज़िन्दगी कहाँ बनाई, चित्र बनाये हैं, माता पिता को बिना बताये चला आया । कहाँ हैं, कैसे हैं पता नहीं उनकी ज़िन्दगी का हिस्सा काटकर अलग कर आया । मेहबूबा के नाम पर केवल शरीर हाथ लगे, वहाँ भी बैचेनी ने घेरा उनसे भी अलग हो गया, हाँ कोई ज़िन्दगी ……… तो नहीं बनाई………. । कितने लोग गिड़गिड़ाए मेरे सामने अपने प्रेम को लेकर लेकिन मेरा ध्येय तो कला था, किसी की पीड़ा से मुझे क्या, मुझे तो उस पीड़ा को उकेरना भर था और दुनिया के सामने यह जताना था कि वह कहे देखो देखो कैसी घनीभूत पीड़ा की अनुभूति है, कैसा संवेदनशील मन है, कैसी दृष्टी है, पीड़ा का कैसा अद्भुत चित्रण है वाह वाह वाह। ……. पीड़ा से अधिक महत्वपूर्ण उसका चित्रण हो गया, उस पीड़ा के निवारण का कोई उपाय नहीं। उनकी पीड़ा मेरा आर्ट, मेरा आर्ट मेरा नाम, मेरा नाम मेरा पुरस्कार, मेरा पुरस्कार मेरा सम्मान ओह कैसा चक्रव्यूह, आर्ट फॉर आर्ट्स सेक ओनली, नो सोशल रिस्पांसिबिलिटी , .. ………कोई दुःख बताओ, कोई नरक बताओ…….जहाँ दर्द का दरिया बहता हो उसे उतार सकूँ और कुछ इस तरह से कि महीनों उस दर्द से लोग बाहर न आ सके, यह कला है आह………… क्या यह कला है” मुझे घुटन होने लगी थी।
वह फिर बोली “भूखे बच्चे को पता है कि तुमने उसकी तस्वीर बनाई, उस औरत को पता है कि तुमने उसके दर्द को उकेरा , उस किसान को पता है कि तुमने उसे उतारा है कागज़ पर, किसी वैश्या को पता चला कि तुमने उसे देखा है, सबको देखा सबका दर्द देखा, लेकिन तुम्हारी कला दर्द के सौदागर से ज्यादा कुछ नहीं, तुमने दर्द बेचा है ….तुमने दर्द महसूस नहीं किया, किया होता तो उसे दूर करने की कोशिश करते, कितने कलाकार हैं दुनिया में ज्यादातर ने दर्द की सौदेबाज़ी की है, कैसे दर्द को और घनीभूत किया जाये, कैसे उसे और प्रभावी बनाने में तुमने ताकत झोंक दी, काश उसकी आधी भी उस दर्द को दूर करने में की होती तो तुम्हे एक सुन्दर दुनिया मिलती ।
लेकिन सुंदर दुनिया चाहिए किसे, वहाँ क्या मिलेगा…
“जहाँ तुम्हें दर्द नहीं मिलता वहाँ तुम दर्द पैदा करते हो, तुम विषादी हो, कोई खुश दिखे तो तुम्हें कष्ट होने लगता है, तुम चर्चा कर करके, विमर्श कर करके, पन्ने रंग रंग के लोगों को उनके दुःख याद दिलाते हो ……कला कला न होकर दर्द की सौदागर है, तुम सब बेचते हो दुःख ,पीड़ा, अवसाद सब” कहते कहते वह हांफने लगी |
आँखे शून्य में झांकती रही “प्रकृति के रंग, नहीं नहीं ज़िन्दगी के रंग जैसा वह कहती थी सच में अजीब होते है, समझ से परे । मुझे अपनी क्षुद्रता का आभास कराती सी वह अब भी संतुष्ट नहीं थी, उसका नाम यूँ तो अमृता था लेकिन मैं उसे विषकन्या कहता हूँ “, वह इस पूरी बात में पहली बार मुस्कुराया, “निगल गई मेरी कला को या फिर मेरा दम्भ । …… वह अपने अमृत रुपी विष से मेरी कला को भोथरा साबित कर चुकी थी, अब पता नहीं क्या इरादा था उसका, उसके बाद वह इस बस्ती में मुझे ले कर आई थी, तब यह इतनी बड़ी नहीं थी दो चार डेरे थे जिनकी औरतें देह व्यापार में धकेल दी जाती थीं, उसने एक बार फिर अपना विषभरा बाण चलाया।
“…… आँखे आँखे बहुत पसंद है ना तुम्हें, सब आँखों के भाव बनाते हो ना तुम, इधर देखो एक आँख का भाव बनाओं ना, तुम्हारी बड़ी मेहरबानी होगी” वह चिरोरी सी करती बोली। … मैंने बोझिल आँखों से उसे देखा।
“हे कलाकार श्रेष्ठ बना सको तो उस औरत की आँखों के भाव बनाओं जिसे उसकी मर्जी के बिना छुआ जाता है, बना सको तो रंग दो उन भावनाओं को जो किसी अजनबी स्पर्श से सिहर उठती है, चितेर सको तो चितेरो उस बच्ची की मासूम आँखे जिसे असमय कुचल दिया गया हो, अघाड़ सको तो उघाड़ों उन आँखों का दर्द , पीड़ा, असहायता जो बलात्कार के वक्त किसी औरत के रोम रोम में समा जाता है, उभार सको तो उभारो वह घिन, वह दुर्गन्ध, वह घृणा वह लिज़लिज़ा अहसास जो अनचाहे संबंधों के दौरान पैदा होता है, देखो गौर से देखो इन औरतों की आँखों में यह दर्द, यह पीड़ा जो तुम्हारे सभ्य समाज ने इन्हें दी है, मेरे हाथ में हुनर होता तो ऐसे आदमियों की आँख बनाती, वहशी, दरिंदे, भूखे इंसान, ऐसी आँख बनाती और इस दुनिया को दिखाती, दुनिया सह नहीं पाती उन आँखों के गंदे, लिज़लिज़े, गलीच भाव को” कहते उसने थूक दिया जोर से।
“कहते हैं कुछ और काम करो, कैसे करे एक बार किसी के हत्थे चड़ी औरत केवल इसी जगह के लिए बच जाती है जहाँ हर रोज उसे यातना झेलनी हैं , दर्द, अपमान, पीड़ा झेलना है, जैसे तुम्हारी आँखे रंग के सिवा कुछ और नहीं देख पाती, एक भक्त की आँख में सिवा भगवान के कुछ और नहीं होता ऐसे ही इन औरतों की आँखों में उस दर्द के अलावा अब किसी और भाव की जगह नहीं। फिर वह बोली, प्रीतम छवि नैनन बसी पर छवि कहाँ समाय । इनकी आँखों में अब दर्द ही प्रीतम बन कर ठहर गया है | यह पीड़ा उकेर सको तो मानूं तुम्हें” वह एक विद्रूप व्यंग्य मिश्रित करूँण हँसी हँस कर बोली।
“मेरा रोम रोम काँप रहा था, मैं अपने आप में नहीं था चक्कर खाकर वहीँ गिर पड़ा, उठा तो अपने को अस्पताल में पाया, तुम्हारे अफसर के पास, मेरी दिमाग की नसे झन्ना रही थी। …… मैं कुछ भी सोच नहीं पा रहा था मेरे दोस्त ने मेरा इलाज करवा कर मुझे घर पहुँचाया । लेकिन अब मेरी दुनिया बदल चुकी थी, मैंने बहुत कोशिश की उसके कहे भाव उकेरने की लेकिन रंग कूचियां मेरा साथ छोड़ चुके थे। …. मैं कुछ रच नहीं पा रहा था सोचा उससे ही मिल लूँ, गाड़ी ले कर जब उस बस्ती पहुँचा तो पता चला कि वह बीमार है, उसे देखने गया तो जैसे वह मेरा ही इंतज़ार कर रही थी मुझे देख मुस्कुराई और चल पड़ी।
……. सदा के लिए …… एक ठंडी सांस भर वह बोला, लेकिन आँखे खुली रह गई, मैंने फिर देखा उसकी आँखों में समंदर की लहरें, रेगिस्तान का सूनापन, रात का अँधेरा, और कुँए सी गहराई सब एक साथ थे, एक चिट्ठी छोड़ गई थी केवल इतना लिखा था “मेरी आँखें भी बनाना” ।
डेरे वाली बोली “ऐसी ही मौत लिखी है साहब हर डेरे वाली की किस्मत में, दर्द का, घिन का, इस दुनिया की गंदगी का रोज खेल देखते देखते आत्मा तो कब की मर जाती है साहब, बस शरीर बचता है, वो ऐसी ही किसी बीमारी के बाद लाईलाज हो खत्म हो जाता है” |
मैं…..मैं क्या हो गया था कुछ न समझ सका निकल आया केवल रंग केनवास, पेंटिंग्स उठाई और चला आया इस बस्ती में, अपनी गाड़ी दरिया में डुबो कह दिया तुम्हारे मालिक से कि “मर गया अद्वैत, अब न रच सकेगा कुछ, उस दिन से आज तक उसकी…..उसकी आँखे बनाने कोशिश करता हूँ । मुझे लगा था सभ्य होती दुनिया में यह बस्ती धीरे धीरे ख़त्म हो जाएगी लेकिन यह बस्ती बढ़ती जा रही है , और बढ़ती जा रही हैं वो आँखे जिनके बारे में अमृता ने मुझे बताया था | लेकिन इतनी दर्द भरी आँखों का दर्द कम नहीं कर पाया मैं, न आँखें बना पाया……अब भी रोज कोशिश करता हूँ। … रोज कोई न कोई दु:खी लड़की आकर अपना दुःख सुनाती है, मैं सुन लेता हूँ, सर पर हाथ फेर देता हूँ, इन नाज़ायज़ बच्चों को पढ़ा कर सोचता हूँ शायद कुछ काबिल बन जाएँ, अपनी सारी दौलत तुम्हारे मालिक के द्वारा ऐसी ही औरतों के लिए जगह बनवाने को दे आया था, वह बनी, वहाँ लड़कियाँ हैं, तुम्हारा अखबार मालिक ही उसकी देख रेख करता है और अपने प्रभाव का उपयोग कर यहाँ से बच्चों को निकलवाने की मुहिम चला रखी है। और कई बच्चों को निकाल चुका है।
परा को याद आया उन्होंने उसे संस्था की केयर टेकर हो जाने का कहा था।
तब उसने हँसते हुए कहा था “सर मैं कलाकार हूँ समाज सेवक नहीं, किसी बूढ़े इंसान को ढूँढिए, मेरी कला को मुझे निखारना है “ |
तब वे बोले थे “आर्ट शूड नॉट बी फॉर आर्ट्स सेक डियर, ईट मस्ट हैव सम ह्यूमन……….
मैंने बीच में टोका था “आई वांट टू बी एन आर्टिस्ट”|
वे चुप हो गए थे |
“ओह अब समझी मुझे ही क्यों एब्स्ट्रैक्ट की तलाश में यहाँ भेजा ओह…….ज़िन्दगी से ज्यादा एब्स्ट्रैक्ट और क्या होगा” समझ गई वह |
“लेकिन मैं वह आँखे नहीं बना पाया उन आँखों को बनाने की लिए तो उस पीड़ा से गुज़रना पड़ेगा और उस पीड़ा से गुज़रना संभव नहीं, अब मैं कोई शंकराचार्य तो नहीं जो परकाया प्रवेश कर के अनुभव ले सकूँ । इस अधूरे पन के साथ अब तक जी रहा हूँ” कहकर बूढ़े ने एक लम्बी सांस ली ।
“आपकी पेंटिंग्स”, मानव ने पूछा |
आओ दिखाता हूँ, घर के नीचे के वाले हिस्से में ले जाके उसने दिखाया हज़ारों केनवस, हज़ारों आँखें अलग अलग भाव की …..स्तब्ध हो गई आँखे फटी की फटी रह गई ………, वह बोला, “ले जाओ, इनसे जो मिले इस बस्ती की औरतों के लिए कुछ कर देना, और उस संस्था के लिए भी” |
परा और मानव स्तब्ध से खड़े रहे। परा और मानव बहुत देर तक खड़े रहे एक ठंडी साँस भरकर मुड़कर जब देखा तो वह कलाकार एक टक अपलक उन्हें देख रहा था…. वे धीरे धीरे उसके पास पहुँचे जैसे ही उसे हिलाया “सर सर कहते हुए”, वह एक तरफ लुढ़क गया। परा की रुलाई फूट पड़ी, हाथ में कूंची और उस पेंटिंग पर आखिरी स्ट्रोक ………………, वह मास्टर पीस बन गया, वे दोनों वहीं बैठ गए उस कलाकार के सम्मान में ।
उसकी मौत की खबर अख़बार मालिक और घोष बाबू को मिल गई । सब इन्तज़ाम हो गया, उसे विदा देने सैकड़ों दर्द भरी आँखें आई, परा होश में नहीं थी अजीब सी नज़रों से उन्हें देखते वह गाड़ी में बैठ गई।
अगले दिन उस कलाकार की मौत और उसकी ज़िन्दगी की कहानी अख़बारों में थी । मानव ने उसकी इच्छा से उसकी मौत के बाद उसे प्रकाशित करवा दिया, उसकी पेंटिंग लाखों में बिकी अख़बार मालिक, परा और मानव उस अनोखे घटना क्रम को देख रहे थे। परा और मानव के जीवन को वह कलाकार नया रंग दे गया था।
परा ने मानव का हाथ हाथ में लेकर अचानक कहा “सर हम अद्वैत अवस्थी की संस्था के लाइफ टाइम केअर टेकर बनना चाहते हैं। जीवन के दर्द को देख लेने के बाद किसी की आँख में दर्द ठहर जाता है सर, हमारी आँख में उस दर्द को दूर करने का सपना ठहर गया है , अब इन अखियन में पर छवि कहाँ समाय “।
अख़बार मालिक की आँखें नम हो आई और उन दोनों के सर पर हाथ रख उन्होंने उनके सामने संस्था के फॉर्म रख दिये।
वाह क्या बातहै… अद्वैत… अद्भुत….. अद्वितीय….. उत्तम लेखनशैली न भूतो न भविष्यति……
गहराई है आपके अन्वेषण में कला की सम्वेदनाओं की पकड़ भी, बहुत अच्छी, बधाई और शुभकामनाएं
एक बिल्कुल अलग सी कहानी। प्रस्तुतिकरण भी बहुत ही शानदार। सच है, आर्ट चाहे कोई भी हो और कलाकार कितना भी बड़ा हो जीवन से बड़ा कोई आर्ट नहीं होता। कलाकार दर्द को बेचता है उससे वाह वाही पाता है, गुरूर करता है। जहां दर्द नहीं है वहां पर दर्द की बात करता है लेकिन वास्तव में जिन्हें वह दर्द है उसे दूर करने के लिए क्या कर पाता है। बहुत कुछ सोचने को विवश करती कहानी के लिए लेखिका को हार्दिक बधाई।