शहर के पास एक पशु-पक्षी विहार था जिसकी बहुत तारीफ सुना करते थे। भारत से एक मित्र का आगमन हुआ तो सोचा उन्हें घुमाने ले जाने की शुरुआत यहीं से की जाए। सुबह का नाश्ता करके जब हम वहाँ पहुँचे तो गेट पर एक बड़े-से बोर्ड पर यह नियम लिखा हुआ नज़र आया कि “पशु-पक्षियों को कुछ भी न खिलाया जाए। प्रवेश के लिये कोई टिकट नहीं है। अगर आप स्वयं दान के इच्छुक हैं तो करिए मगर इस पशु-पक्षी विहार की कहानी पढ़िए या सुन लीजिए।” 
हम गेट से अंदर दाखिल होकर आगे बढ़ने लगे। बीच में बने लंबे गोलाकार रास्तों से गुजरते हुए कई जीवों की एक अलग दुनिया दिखी। दायीं ओर तारों के अंदर की तरफ़ विचरते कई अलग-अलग तरह के पशु दिखाई दिए। अपने-अपने समूहों में अपनी-अपनी सीमाओं में। रास्ते के बायीं ओर कई पेड़ों पर बैठे अनगिनत परिंदे थे जो अपने लिये बनाए गए उस जंगल में प्राकृतिक जीवन जी रहे थे। इन पंछियों की चहचहाहट के साथ ही तमाम अलग-अलग तरह की आवाजों से माहौल प्रतिध्वनित हो रहा था।
पशु-पक्षियों की मस्ती देखकर लग रहा था कि उनकी यहाँ पर बहुत देखभाल की जाती है। हर तरह के पशुगृह थे। बिल्लियों के लिये अलग घर था, कुत्तों के लिये अलग और रैकून के लिये अलग। इस अनुपम प्राकृतिक स्थल पर अलग-अलग प्रजाति के इतने जानवरों को एक साथ देखना एक अलग ही तरह का अनुभव था। 
थके-हारे एक जगह बैठे और अपने साथ लाए नाश्ते के सामान को खत्म किया। हालाँकि यहाँ विचरना बहुत ही खुशनुमा अनुभव था लेकिन घूमते-घामते अब थकने लगे थे। यह पहले ही निश्चित कर लिया था कि वह कहानी पढ़ने के बाद ही वहाँ से निकलना है। कुछ लोग ऑडियो सुनने में व्यस्त थे तो कुछ लोग बैठकर पढ़ते हुए बातें भी कर रहे थे। मेरे मित्र ने ऑडियो सुनना शुरू किया और मैं पढ़ने लगी।  
***
कुमुडी कहते थे सब उसे। सुनने में तो कुमुडी बड़ा अजीब सा लगता है पर नाम किस तरह बिगड़ कर नया रूप ले लेते हैं इसका यह अच्छा उदाहरण था। यह कुमुडी श्रीलंका में पैदा हुई, बचपन में ही माता-पिता के साथ न्यूज़ीलैंड में बस गयी थी और नौकरी मिलने पर आ पहुँची थी कैनेडा के टोरंटो शहर में।
कहाँ से निकला बीज, कहाँ जाकर उगा और फिर कहाँ जाकर इसका विस्तार हुआ! 
देशों की विविधता के अनुरूप ही उसके नाम ने भी विविध रूप लिए। कौमुदी से कोमुडी, कुमुड़ी और फिर कुमुडी। उसकी जड़ें श्रीलंका से जुड़ी थीं अत: यह जानना आसान था कि उसके घर में तमिल बोली जाती होगी। यह नाम तमिल, संस्कृत या फिर हिन्दी से आया, यह तो भाषा विज्ञान जाने पर उसका परिवार मूलत: तमिल भाषी ही था। कई भाषाओं और संस्कृतियों के मेलजोल से बने इस प्यारे-से नाम ने अनेक देशों की सीमाओं को पार करते हुए नया आयाम ले लिया था। हिन्दी-तमिल भाषियों की अंग्रेजी बोलने की शैली थोड़ी अलग होती है जिसे सुनकर कुछ लोग हँसते हैं, कुछ उसका मजाक बनाते हैं लेकिन ऐसे नामों का कचरा करने में अंग्रेजी भाषियों का कोई सानी नहीं। कौमुदी का नाम अब कुमुडी था। 
खैर इस बात से कुमुडी को कोई आपत्ति नहीं थी क्योंकि स्कूल से लेकर अब तक, कैरियर की उच्च पायदान तक उसे कुछ इसी तरह अलग-अलग नाम से बुलाया जाता रहा। नाम में रखा भी क्या था! वह तो हमेशा अपने काम से जानी जाती रही। उसका व्यक्तित्व कौमुदी नाम को सार्थक करता था। बेहद शालीन, सौम्य, सहज, सरल होने के साथ ही, बहुत ही समर्पित, निष्ठावान डॉक्टर। जो भी करती पूरे मन से। अपनी खास शैली में दस मिनट के काम में तीस मिनट तक खर्च कर देती। फिर अगला काम, फिर अगला काम, इस तरह उसके कई काम उसकी प्रतीक्षा करते रहते। एक के बाद एक पेंडिंग कामों की सूची बढ़ती जाती। 
इसमें उसकी कोई गलती नहीं मानी जाती थी क्योंकि जब वह काम खत्म होता तो परिपूर्ण होता था। उसके सारे मरीज बहुत खुश रहते। वह सदैव अपना सर्वश्रेष्ठ देती और इस प्रक्रिया में उसे जो तृप्ति मिलती वह अमूल्य थी। समय की इस मारामारी से निपटने में देर रात तक जाग कर काम करना पड़ता। शरीर थक जाता, दिमाग सोचने की क्षमता गँवाने लगता तब कहीं जाकर वह सोती। तिस पर उसकी तबीयत, शरीर का अंग-अंग विद्रोह कर देता, लेकिन उसके काम पूरे नहीं हो पाते थे। उसके अपने विभाग में “आज कुमुडी नहीं आयी”, “फिर से नहीं आयी” “अजीब बात है, इतनी बीमार कैसे हो जाती है” “बीमार है, बताया तो था” जैसे जुमले प्राय: सुनाई पड़ते।  
अस्पताल के स्टाफ वाले एक समर्पित डॉक्टर के लिये “यह हर रोज कैसे बीमार हो जाती है” जैसे सवाल उठाते तो ये सवाल ही रह जाते क्योंकि जवाब सबको मालूम था। सब उसके प्रशंसक ही थे। उसके काम करने की धीमी गति सहकर्मियों को चुभती जरूर किन्तु इसके बावजूद वे उसे पसंद करते थे। उसका समर्पण स्वयं बोलता था, एकदम नि:स्वार्थ एवं निश्छल। सब उससे प्यार करते। वे मदद का एक हाथ उसकी ओर बढ़ाते तो वह दोनों हाथों से उनकी मदद में लग जाती। तकनीक तेजी से बदल रही थी। उसे कई बार अपने युवा मातहतों से बहुत कुछ पूछना पड़ता परन्तु सीखने में कभी उसे संकोच नहीं हुआ। 
उसके स्टाफ को एक ही दु:ख था कि वह कभी कुछ कहती नहीं थी, जबकि नितांत अकेली थी। जीवन के लगभग पच्चीसवें बसंत से पचासवें बसंत तक अपने कंधों पर सबका बोझ उठाए चलती रही। घर में बड़ी होने से घर का सारा दायित्व उसने अपने ऊपर ले लिया था। बूढ़े माता-पिता के साथ-साथ युवा होते भाई-बहनों की भी चिन्ता थी। टोरंटो से न्यूज़ीलैंड की उड़ान कई दफा महीने में दो बार हो जाती। वह चाहती तो उसे न्यूज़ीलैंड में भी नौकरी मिल जाती किन्तु उसे कैनेडा से, कैनेडियन सिस्टम से बहुत लगाव हो गया था। इतनी जुड़ गयी थी इस जमीन से कि इसे जीवन भर के लिये अपनी कर्मभूमि स्वीकार कर लिया था। यह देश उसके लिये जैसे सुविधाओं की बरसात लेकर आया था। वह इसे छोड़ना नहीं चाहती थी। परिवार के प्रति उसकी चिंता देखकर सब हैरान होते। एक पैर टोरंटो में और दूसरा पैर ऑकलैंड में। एक वरिष्ठ डॉक्टर होने के नाते अच्छी कमाई के बावजूद उसके पास पैसों की कमी ही रहती क्योंकि उसके वेतन का एक बड़ा हिस्सा कैनेडा से न्यूज़ीलैंड की उड़ान में जाया हो जाता। कई बार उसके कंधे इस शारीरिक और आर्थिक बोझ को उठा पाते, कई बार न उठा पाते। कंधों की क्षमता से बेखबर वह एक के बाद एक तमाम जिम्मेदारियाँ उठाती गई और हर कदम के साथ शरीर को भार से बोझिल होते देखकर भी उपेक्षा करती रही। माता-पिता की मृत्यु के बाद दोनों भाई बहनों को सैटल करने में पाँच साल तक लगे। अब भाई-बहन अपने-अपने बच्चों के साथ अपने परिवार में व्यस्त हैं। 
इसी सब में वह कब पचपन के पड़ाव तक आ पहुँची, पता ही न चला। पचपन साल की उम्र में ही पैंसठ के ऊपर की दिखने लगी है। युवावस्था में अच्छे रिश्ते आते रहे। लड़के डेट पर बुलाते पर उन दिनों जिम्मेदारियों की लंबी फेहरिस्त होती थी उसके पास। उसकी दुनिया में माता-पिता, भाई-बहन के अलावा कोई और अपनी जगह ही न बना पाया। माता-पिता अब रहे नहीं, भाई-बहन अपनी जिंदगी में आगे बढ़ गए। सच पूछा जाए तो आज भी वह उनकी छोटी से छोटी परेशानी को अपने माथे लेने में नहीं हिचकती और कई घंटों का सफर करके उनके पास पहुँच जाती। वे चाहें, न चाहें उनकी मदद करती, शारीरिक-मानसिक के साथ आर्थिक भी। बहन से हमेशा मिलने वाली मदद के कारण भाई-बहन हर छोटी बात पर उसकी सलाह लेते और वह उस समस्या को स्वयं ही हल कर देती। नेकी और पूछ-पूछ! भाई-बहन को फायदा उठाना आता था, सो उठाते रहे। यह सब करते-करते कितने बरस बीत चले।
दुनिया आगे की तरफ़ दौड़ती रही और उस दौड़ में वह बिल्कुल अकेली पड़ती गयी। अपने बारे में सोचने का समय नहीं मिला कभी। इधर स्वास्थ्य ने भी संकेत देने शुरू कर दिए। वह अपने शहर टोरंटो में ही काम करती रही। अस्पताल के कई विभागों से संबद्ध थी। नौकरी के दौरान जितनी व्यस्त लोगों के साथ रहती घर में उतना ही अकेलापन होता। सिर्फ वह और घर की दीवारें। अब वह उम्र के उस मोड़ पर थी जहाँ उसकी मदद के लिए किसी को होना चाहिए था। लेकिन कौन करता मदद? जिनकी मदद वह करती रही, वे सब बहुत दूर थे। वे यूँ भी कभी आए नहीं उसके पास। वही मदद का हाथ बढ़ाए दौड़ी चली जाती थी। वे कभी फोन भी नहीं करते। अमूमन इस उम्मीद से वही फोन करती कि उसके अकेलेपन को समझकर शायद कभी वे कहें कि– “दी, यहीं आ जाओ।” 
“आ जाओ दी अब, आपकी बहुत याद आती है।” 
“अब आपको इतनी दूर रहकर नौकरी करने की जरूरत ही नहीं।”  
मगर ऐसा कभी हुआ ही नहीं। भाई-बहनों में किसी को भी उसने इस बात का अहसास नहीं होने दिया कि उसके मन में क्या चल रहा था। यह भी नहीं कि अब उसे भी किसी की मदद की जरूरत है। अंदर ही अंदर मन मसोस कर रह जाती। उनसे बात करने के बहाने ढूँढती लेकिन “कैसे हैं”, “क्या चल रहा है” जैसी बातों से आगे कोई बात ही न हो पाती। फोन रखने के बाद देर तक वह फोन को घूरती रहती। मानो फोन ने साजिश की हो कि जो वह सुनना चाहती है, न सुन पाए।
दिन बीतते रहे, तबीयत कुछ ज़्यादा ही खराब हुई तो लंबी छुट्टी ले ली लेकिन किसी को बताया नहीं कि वह इस कदर बीमार है। अब धीरे-धीरे उसके घुटने जवाब देने लगे। कंधों में लगातार दर्द रहने लगा। लंबी छुट्टी के बाद भी ठीक होने के आसार नजर नहीं आ रहे थे। अब उसे सिक लीव लेकर घर पर रहना अपनी गैरजिम्मेदारी लगने लगी थी। वह जानती थी कि काम पर उसकी अनुपस्थिति से और लोगों को कितनी तकलीफ हो रही होगी। जब तक वह छुट्टी पर रहेगी तब तक वे किसी को उसकी जगह भी नहीं दे सकते। सोच-विचार के बाद उसे अपनी कर्तव्यपरायणता इसी में दिखी कि कंपलसरी रिटायरमेंट ले ले। इससे उसे अच्छी-खासी पेंशन तो मिलेगी ही व एक पैकेज भी मिलेगा जो उसकी आगे की जिंदगी के लिये पर्याप्त होगा। इस फैसले के क्रियान्वित होने में कोई परेशानी नहीं हुई। सब कुछ आसानी से हो गया। उसके अपने भीतरी दरवाजे तो बंद ही थे। अब दरवाजे से बाहर की दुनिया के तमाम लोगों के दरवाजे भी उसके लिये बंद होते गए। एकाकीपन में खुद अपने लिये अजनबी-सी हो गयी थी वह। जैसे जानती ही न हो कि वह कौन है और कहाँ है। सर्वत्र मौन पसरा रहता। बोलता भी कौन! टीवी जरूर चिल्लाता रहता। पर उसे सुनने का जी नहीं करता। चुप्पियों में रहना अब एक अनिवार्यता थी। 
जल्दी ही उसे लगने लगा कि अब उसकी दुनिया शून्य हो चुकी है। सिर्फ वह है और उसके भीतर एक खाली घेरा है जिसमें सिर्फ शून्य ही शून्य भरे पड़े हैं। एक के बाद एक, एक दूसरे को लीलते हुए।   
एक सहकर्मी ने कुछ सालों पहले सुझाया था कि उसे एक बच्चा गोद ले लेना चाहिए। तब वह अपने भाई-बहन के परिवारों को बसाने में इतनी व्यस्त थी कि उसे ऐसा कुछ सोचने की जरूरत भी नहीं पड़ी। आज जब जरूरत है तो बच्चा पालने की उम्र नहीं रही। बहुत सोच-विचार के बाद उसने एक बिल्ली पालने का निर्णय लिया। प्यारी सी चितकबरी बिल्ली जल्द ही उसके ध्यान का केंद्र बिन्दु बन गयी। अब वह बिल्ली की चिंता में घुली रहती। सुबह-शाम एक ही ख्याल रहता कि “बिल्ली ठीक तो है।” यह मूक जानवर उसके अकेलेपन का साथी तो था मगर उसे मदद भी तो चाहिए थी। वह बिल्ली भला कुमुडी की क्या मदद कर सकती थी
“बिल्ली ने ठीक से खाया नहीं।”
“वह रात में ठीक से सोयी नहीं।” 
“उसे डॉक्टर के पास ले जाना है।” 
बस इन्हीं चिंताओं में अब वह स्वयं को व्यस्त रखने लगी। कई रातों तक बिल्ली के टहलने पर वह उठ जाती, कुछ खिलाती, थर्मामीटर लगाकर चैक करती कि कहीं उसे बुखार तो नहीं। रात में न सोने के कारण कई बार दिन में झपकी लग जाती और उसी समय फोन की घंटी घनघनाती। सोचती शायद भाई या बहन ने फोन किया होगा। बड़ी आशा से फोन उठाती तो वह कॉल मेडिकल चेकअप के लिये होता या फिर कोई प्रमोशन कॉल होता।  
ऐसा नहीं था कि भाई-बहन की उदासीनता से वह बेखबर थी। कभी-कभी उसे ये लगता कि काश, अपने बारे में भी कभी सोचा होता! ये सारी बातें मन में आतीं किन्तु इन्हीं के साथ यह ख़याल भी विचारों में चला आता कि भाई-बहन खुश हैं। उन्हें कोई परेशानी नहीं है इसीलिये उसे भी खुश ही रहना चाहिए। अपने लिखे को मिटाने में असमर्थ पाती। उसकी सोच अब पूरी तरह बिल्ली के साथ थी। इस तनहाई में बिल्ली से बातें करती। अपनी सुनाती, उसकी भी सुनती। दोनों का खाने का समय एक था, सोने का भी। बिल्ली तो बिल्ली ठहरी। बीच-बीच में उठकर चल देती, वह बेचैन हो जाती। सोचती, कुछ गलत तो नहीं हो रहा जो बिल्ली भी मेरा साथ नहीं दे रही! बहरहाल, कहीं तो किसी की उपस्थिति थी जो उसे कुछ करने के लिये ऊर्जा दे जाती। 
एक दिन सुबह का नाश्ता प्लेट में था पर खाने का मन नहीं था। फेंकने के बजाय ब्रेड के टुकड़े बाहर डाल आयी ताकि भूखे प्राणियों को कुछ खाना मिल सके। पलट कर दो कदम ही चली थी कि कुछ चिल्लपों सुनायी दी। देखा तो सामने से एक फुर्तीली गिलहरी किलकते हुए उस तरफ आ रही थी जहाँ ब्रेड के टुकड़े रखे थे। चौड़ी-सी मुस्कान आ गयी कुमुडी के चेहरे पर। यह ऐसी खुशी थी कि अंदर तक उस गिलहरी की किलकारी गूँज रही थी। वह अपनी चोंच में जितने ब्रेड के टुकड़े दबा सकती थी, दबा कर भागी। फिर लौट कर आयी और अपनी चोंच में कुछ टुकड़े दबा कर भागी। जब तक वह वापस आती, एक छोटा-सा, सहमा-सा रैकून का बच्चा आया डरते-डरते। बड़े रैकून लोगों को डराते थे, डरते नहीं थे। यह बच्चा रैकून था। किसी को डराने की कला अभी इसने सीखी नहीं थी। कुमुडी ने अंदर आकर फ्रिज में पड़े चावल निकाले और एक प्लास्टिक के कटोरे में डाल दिए उसके लिये। वह मुंडेर पर आकर बैठा और खाकर चला गया। 
अगले दिन वे दोनों ठीक उसी समय आए। कुमुडी को लगा कि दिन में एक बार खाना देना, यह तो न्याय नहीं है उनके साथ। अब, जब भी वह कुछ खाती उनके लिये वहाँ डाल देती। वे कहीं से सहसा ऐसे प्रकट हो जाते मानो उसके दरवाजा खोल कर बाहर आने की प्रतीक्षा ही कर रहे हों। यह सिलसिला अब दिन में तीन बार बिना नागा चलता। अब खाने के लिए उससे कुछ पाने की उम्मीद लगाए तीन ऐसे प्राणी थे जो प्यार से उसे एकटक निहारते थे। कुछ इस तरह चले आते थे जैसे आमंत्रित अतिथि हों और खाकर उछलते हुए वापस लौट जाते। वह बिल्ली को अपने साथ ले आती और उनके साथ खेलने की कोशिश करती। बातें करती, इतना ध्यान देती कि इनकी दूसरी माँ बन जाती। इन दो दिनों में उसे बहुत अच्छे से नींद आयी। तीसरे दिन उसकी अपनी खिड़की से झाँकता हुआ एक प्यारा-सा पपी दिखा। शायद अपने घर से भटक कर उसके पिछवाड़े से अंदर चला आया था। 
वह उसे नहीं देखना चाहती थी पर वह खिसका नहीं वहाँ से, भूखा जो था।  
“तुम जाओ। मैं तुमसे प्यार नहीं कर सकती। तुम मुझे छोड़ कर चले जाओगे जब तुम्हारे घर वाले आ जाएँगे।” 
लेकिन वह वहीं अड़ियल की तरह डटा रहा। हिला ही नहीं। 
“वादा करो कि तुम नहीं जाओगे, दस्तखत करते हो तो आ जाओ।”
सचमुच कुमुडी ने दरवाजा खोलकर एक पेपर रख दिया पपी के सामने। वह जल्दी से अंदर आया और उस पेपर पर अपना पैर रख दिया। वह खुश हो गयी, मानो किसी ने उसकी आत्मीयता को स्वीकार कर लिया हो। यह पपी घर से बाहर नहीं जाना चाहता था। शायद जिस घर से बिछड़ा था वह कुछ ऐसा ही दिखता होगा। बिल्ली को अच्छा नहीं लगा उसका आना। वह दौड़-दौड़ कर कुमुडी से चिपट रही थी। लेकिन कुमुडी उसे समझाती जा रही थी- “तुम उसके साथ खेलना, वह तुम्हारा दोस्त बनेगा।” वह गेंद उछालती तो पपी दौड़ कर ले आता। बिल्ली भी धीरे-धीरे खेलने लगी। 
अब कुमुडी थी और ये चारों प्राणी थे। गिलहरी रोज दिन में तीन बार उसी समय आ जाती। पहला समय वही था जब उसने पहली बार वहाँ ब्रेड के टुकड़े फेंके थे और घूमते-घामते उसने आकर उन्हें खाया था। कैसी घड़ी फिट होगी उसके मस्तिष्क में। रैकून वैसे तो कचरों के डिब्बों से खाना खाता था पर ठीक उसी समय आता जिस समय पहली बार कटोरे में चावल डाले थे उसके लिये। न तो उन्हें घड़ी के काँटों की पहचान थी, न समय की, लेकिन खाना देने वाले की पहचान उन्हें थी। मनुष्यों से अधिक वफादार जानवर होते हैं, सुना तो था, उन चारों के अपनेपन के कारण देख भी लिया। 
वे अपने-अपने समय पर आते, उससे आँखें मिलाते, अपना तोहफा लेते और आवाजें निकालते हुए लौट जाते। मानो उसे दुआ दे रहे हों। कम से कम एहसान फरामोश हरगिज नहीं थे वे। वह सोच रही थी कि जब कभी उसकी मृत्यु होगी, कम से कम ये चार आँसू तो उसे कंधा दे ही देंगे। बिल्ली, रैकून, गिलहरी और पपी इन सबका एक परिवार बन गया था यह। दो घर में रहते थे, दो मेहमान की तरह आते व चले जाते।  
अब न्यूज़ीलैंड की यात्रा बंद थी। पेंशन के पैसों से गुजारा हो रहा था लेकिन फिर भी बचत काफी थी। उसके मन में इस परिवार की चिंता थी कि अगर उसे कुछ हो गया तो इनका क्या होगा। वह वसीयत बनाना चाहती थी कि जब वह न रहे तो उसका जमा पैसा, इतना बड़ा घर, गाड़ी सब कुछ इनके पालन-पोषण के लिये खर्च हो। उन्हें एक घर देना चाहती थी, ठीक वैसा ही जैसा अपने भाई-बहन को दिया था। ये कम से कम उसकी अनुपस्थिति को महसूस करेंगे तो उसका अपना जीवन सफल हो जाएगा। उन सबकी आँखों में एक दूसरे के लिये प्यार ही प्यार था। कुमुडी में उन बेजुबानों के लिये और उन बेजुबानों में कुमुडी के लिये। 
प्रथम पशु-पक्षी विहार की शुरुआत हुई तो इस कहानी को सुनकर बहुत डोनेशन मिलने लगा। आज “कुमुडी” नाम से ऐसे कई पशु-पक्षी गृह खोले जा चुके हैं जिनमें कई जीवों को शरण मिली है। इन अपनों से बतियाती कुमुडी अब बेजुबान है। तस्वीरों में कैद, मगर इन सबके लिये आज भी वह बोलती है, उन्हीं की अपनी भाषा में। उसका अपना शून्य का घेरा अब बहुत बड़ा हो चुका है। शायद कह रहा है कि शून्य का घेरा हमेशा शून्य नहीं होता, भीतर से फैलता है तो एक नयी दुनिया बसा लेता है। 
कहानी खत्म होते ही मेरे अंदर कुछ कुलबुलाने लगा। मेरे हाथ बरबस सामने रखे डोनेशन बॉक्स की ओर बढ़ गए। सामने बैठे मेरे मित्र का ऑडियो भी खत्म हो चुका था और हाथ अपने वालेट को ढूँढ रहे थे।

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