Friday, October 4, 2024
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डॉ. जया आनंद की कहानी – अनिर्णित आख्यान

मोबाइल पर हाथ जाते ही सीधे फेसबुक पर उंगलियां चहलकदमी करना शुरू कर देती हैं। फेसबुक पर नए मित्रों की,कुछ पुराने मित्रों की फोटो  पोस्ट दिख रही है। लाइक  कमेंट का खेल चल रहा है। कुछ पोस्ट पूरी पढी, कुछ आधी- अधूरी पढ़कर कमेंट कर दिया। कहां तक सबको पूरा पढ़े, पर कुछ लोग बहुत अच्छा लिखते हैं और कुछ एक ही तरह की रचनाएं लिखते रहते हैंबोरियत होने लगती है कि अचानक एक पोस्ट पर नजर पड़ी, कुछ अजीब सी तस्वीर लगायी  थी  उन्होंने, बड़े सारे प्रबुद्ध वर्ग उस के समर्थन में टिप्पणियां कर रहे हैं ।सोचा, मैं भी अपने विचार व्यक्त कर दूं  यहां…. पर होगा क्या!! वहीं पर शब्दों के बाण चलने लग जाएंगे,… नहीं छोड़ देना ही उचित है। पर मन बेचैन है, विचार कुलबुला रहे हैं। व्यक्त तो करना ही पड़ेगा । क्या करूं ?सोचती हूं कहानी लिख डालूँ उस फेसबुक  की पोस्ट  पर…शांति मिलेगी मन को शायद! ।
अब कहानी के लिए किरदार ढूंढना होगा ! तो मैं खुद ही कहानी का किरदार बन जाती हूं। मैं और वह फेसबुक फ्रेंड तो है ही। कहानी  की शुरुआत   में  सोचा कि उनसे मिला जाए । बिना मिले कहानी कैसे बनेगी तो उनके घर जाऊं !नहीं-नहीं इतनी अच्छी मित्र तो हैं नहीं.. फिर किताबों की दुकान में मिला जाए। हां, हम दोनों किताबों के शौकीन हैं तो मैं चुनती हूँ  मुंबई  के एक मॉल में ‘ क्रॉसवर्ड ‘किताबों की बड़ी दुकान । मैंने  वहां प्रवेश किया और देखती हूँ उन  फेसबुक मित्र को ।
‘हेलो ! पहचाना मुझे ??’  मैंने उन्हें पहचान लिया था। उन्हें ध्यान नहीं आ रहा वह अचकचा गयीं।
“मैं श्यामली ….फेसबुक पर हम ..”
“हां -हां याद आ गया…. आप वो रेडियो की कहानियां..” उनकी भाव भंगिमा से  अजनबीयत  का  भाव  जाता रहा  
“हां-हां मैं  वही  …” मैंने उन्हें  ध्यान  से देखा , नीले रंग की जींस और कट स्लीव  टाॅप में  खासी खूबसूरत लग रही थी वह।
“हिंदी की किताबें तो बहुत कम रहती हैं यहां  ”  उन्होंने क्रॉस वर्ड के हिंदी सेक्शन को टटोलते हुए कहा 
“जी..”  मैं स्वीकृति की मुद्रा में  थी ,पूरा वाक्य बोलकर अपनी ऊर्जा नष्ट नहीं करना चाहती ।
“एयरपोर्ट में भी देखा है, हिंदी किताबे दिखती ही नहीं..” 
” हाँ  ,सच में …” मेरा जवाब संक्षिप्त ही रहा 
“हिंदी साहित्य का प्रचार – प्रसार बहुत जरूरी है ।” वह एक नए उपन्यास के पन्ने पलटते हुए बोलीं।
“हाँ, सहमत हूं..” मैं सचमुच पूरी तरह सहमत थी उनके इन विचारों से….. पर उस उस दिन फेसबुक पर जो उन्होंने तस्वीर …. उससे पूरी तरह असहमति  थी  मेरी ‘तो उस दिन ….’ सोचा बोलूं पर नहीं बोल पाई। क्या करना मुझे, वह कुछ भी करें…. पर कहना भी चाहती हूं।
“हेलो मैडम ! आपकी वह पत्रिका है न!” मैंने उनसे कहा 
“हां, मैं पत्रिका निकालती हूं..” अब भी उनकी नजर उपन्यास पर ही थी।
“…. दरअसल मैं कहानी भेजना चाहती हूं आपको ” मैं फेसबुक की बात तो कह नहीं पा रही थी तो सोचा कहानी के जरिए अपनी बात कहूंगी। 
“जरूर, आप भेजिए ” उन्होंने  अपनी मुस्कान बिखेर दी। 
मैं उनसे  विदा ले कर मॉल की चकाचौंध से गुजरते हुए घर वापस आ गई ।घर का काम शुरू हो गया पर मस्तिष्क अपनी गतिविधि में लगा रहा, विचारों की कुलबुलाहट  जारी थी पर किसी पर विचार थोपा तो नहीं जा सकता लेकिन अभिव्यक्त तो किया ही जा सकता है। 
” मां !गरम रोटी..” मेरी बिटिया की आवाज जो अभी सत्रह की है
“सुनो !पापड़ भी दे देना” मेरे पति का आदेश
“बहू! पानी ले आना ” …(.पात्र बढ़ते जा रहे हैं नहीं-नहीं मुझे कहानी के पात्र नहीं बढ़ाने ,दो तीन पात्र में ही काम चल जाएगा इसलिए रात के खाने तक ही इनकी भूमिका )….फिर आगे…. आगे क्या बिस्तर पर लेटे- लेटे उस फ़ेसबुक  पोस्ट पर सोच रही हूं और कहानी बुन रही हूँ। पलके कब झपक गयीं पता ही नहीं चला…।
सुबह हो  गयी ।बेटी को स्कूल जाना है ।अभी ग्यारहवीं में  है।। बेटी स्कूल की ड्रेस  स्कर्ट शर्ट  पहन कर जा रही है।  मैंने लंच बना दिया है। सुबह- सुबह यह तो लगभग हर दिन का काम है ।नया क्या …..नहीं कुछ नया नहीं बस हर सुबह नए दिन के साथ नवीनता की खोज कर ही लेती हूं। आज मेरी नजर बेटी की ड्रेस पर है।स्कूल में यूनिफार्म होती है। मेरी बेटी के स्कूल में ही नहीं  हर स्कूल में  यूनीफॉर्म  होती है और स्कूल में ही क्यों  आर्मी में, पुलिस वालों की, वकीलों की सबकी ही तो एक विशेष  वेषभूषा  होती है  । खैर छोड़ो…. शाम को शादी में जाना है पहले उनके कपड़े निकाल लिए जाएं। 
कहीं भी जाना हो तो कपड़े कौन से पहने जाएं यह यक्ष  प्रश्न सबसे पहले  खड़ा हो जाता है ।मैंने नीले रंग की साउथ सिल्क साड़ी निकाल ली। बेटी के लिए क्या निकालूं वह खुद ही तय कर लेगी। ऐसे भी कपड़ों के मामले में सुनती तो है नहीं ।पतिदेव के पास तीन सूट हैं तो वह भी खुद ही सोच लेंगे कि क्या पहनना है(पति फिर चले आए कहानी में।)
थोड़ा समाचार देखूं टीवी पर ! समाचार प्रस्तोता की वेशभूषा पर दृष्टि चली गई ।कुछ चैनल पर प्रस्तोता कॉर्पोरेट सूट में थी ,कुछ चैनल्स पर साड़ी में  ,सलवार सूट में। अच्छी लग रही है सभी पर तब तक दूसरा चैनल चलाया, संसद की गतिविधि देखना अच्छा लगता है ।सभी पुरुष जैकेट, धोती-कुर्ता ,पजामा -कुर्ते में थे। महिला सांसद अधिकांशतः साड़ी में थीं। टीवी देखते-देखते आग झपकने लगी।
शाम हो गई थी, कुछ भी लिखा नहीं आज…. कभी-कभी मन ही नहीं करता लिखने का ।बेटी स्कूल से आ गई थी। उधर से पतिदेव का घर पर पदार्पण हो चुका था ।चाय पानी की व्यवस्था में मैं जुट गई ।
“आज वर्मा जी के यहां शादी में जाना है तैयार हो जाओ सब ” मैंने  चाय  बनाते हुए  आवाज  लगायी। 
“मां मैं पिंक जींस टॉप पहन लूं !” बेटी ने हाथ मुँह धोते हुए बोली। 
“तुम सोचो मैं क्या बोलूं ….बात तो तुम्हें मानना नहीं “
“मां! तुम भी न! बेटी भुनभुनाई और अंदर चली गई । मैं चाय बिस्कुट ले आई थी। 
“सुनो ! मैं भी टीशर्ट और शॉर्ट्स में चलना चाहता हूं बहुत गर्मी है” पतिदेव चाय पीते हुए बोले। 
” जैसी तुम्हारी मर्जी मैं क्या कहूं..”  मैं बस चाय का आनंद ले रही थी ।
“कुछ तो कहो ..!”पति खींझ गए थे
 मैंने कहा ” तुम्हारी मर्जी मैं तो साड़ी में ही जाऊंगी ।पारंपरिक अवसर है। बाकी आप अपनी जानो ।”
थोड़ी देर बाद सब तैयार हो गए थे ।बेटी ने नीले रंग का फुल गाउन पहना था ।पतिदेव ने भी सूट पहन लिया था और मेरा तो तय था नीली साउथ सिल्क साड़ी। मैं खुश थी बात जो बन गई थी बिना समझाए ।कभी-कभी परिस्थितियों को छोड़ देना ही   बेहतर होता है ,कुछ समय बाद स्वयं ही अनुकूलता ग्रहण कर लेती हैं। 
शादी में बड़ी रौनक है। दूल्हा-दुल्हन पारंपरिक वेशभूषा में खूब जंच रहे हैं ।हाँ जिसकी शादी है वह बैडमिंटन की स्टेट चैंपियन है पर आज तो नई नवेली भारतीय संस्कृति से रची- बसी दुल्हनिया लग रही है। स्थान काल का यही तो अंतर होता है ।आजकल बैंक में भी तो सभी लड़कियों का एक जैसा ट्राउजर -शर्ट और पुरुषों की फार्मल पैंट -शर्ट वेशभूषा होती है ,खैर….।हमने शादी की दावत खाई और फिर आ गए। घड़ी  ने साढ़े  दस  बजा दिए थे। कपड़े बदल कर मैं डायरी कलम लेकर लिखने में बैठ गई ।आज तो कहानी पूरी  कर  ही डालूंगी उस फ़ेसबुक  वाली पोस्ट पर और उन्हें भेज भी दूंगी ।
हां, कहानी लिख ली थी मैंने पर वो अपनी पत्रिका में चयन करेंगी  या  नहीं   या मेरी  कहानी पढ़कर किसी  निर्णय  तक  पहुँचेंगी …पता  नहीं …..ऐसे भी जीवन भी तो एक अनिर्णित आख्यान ही है !! 
डॉ जया आनंद 
सम्प्रति-  अन्तरराष्ट्रीय, राष्ट्रीय प्रतिष्ठित  पत्र-पत्रिकाओं  में ,विविध भारती, मुंबई, दिल्ली  आकाशवाणी  में स्वतंत्र  लेखन एवं स्नातक स्तर पर अध्यापन  
विधा- कहानी, कविता, व्यंग्य, संस्मरण,  समीक्षा, आलेख 
संग्रह- कहानी संग्रह ‘पाती प्रेम की’,  काव्य संग्रह – गोमती किनारे  ,  साझा  उपन्यास-  ‘हाशिये  का  हक़ ‘ ,साझा कहानी संग्रह-  ऑरेंज बार पिघलती रही , विविधा ,The Soup 1-2,साझा  काव्य संग्रह ‘ पल-पल  दिल के पास  , शैली (हिन्दी नेपाली) आदि. 
अनुवाद- तथास्तु ‘ गांधीवाद से समृद्धि 
सम्मान- ‘कथा रंग साहित्यिक वार्षिकी 2022 ‘में  समकालीन वरिष्ठ साहित्यकारों के साथ मेरी कहानी ‘ चुनौती ‘ का प्रकाशन. 
*हास्य व्यंग्य वार्षिकी 2022 जयपुर में  स्वरचित व्यंग्य प्रकाशित 
*कहानियों का पंजाबी, मराठी भाषा में अनुवाद 
सम्मान- *महाराष्ट्र  सेवा  संघ (मुम्बई)द्वारा  स्वरचित  कविता  पाठ  में  प्रथम  पुरस्कार  से पुरस्कृत
*तृतीय पुरस्कार (लघुकथा आयोजन समिति)
*श्री हिंद प्रकाशन द्वारा आयोजित राष्ट्र  व्यापी कहानी लेखन प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार आदि अन्य पुरस्कारों से सम्मानित 
**प्रतिष्ठित  पत्रिका साहित्य समर्था द्वारा आयोजित  ‘डॉ कुमुद टिक्कू कहानी प्रतियोगिता में श्रेष्ठ कहानी का पुरस्कार 
संपर्क- 97696 43984 
C- 204 इनटाॅप हाइट्स
सेक्टर- 19 ,ऐरोली, मुंबई 
ईमेल – [email protected]
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2 टिप्पणी

  1. जीवन एक अनिर्णित आख्यान है और हम सब अपनी कहानी के नायक l दिन भर चलता फिरता जीवन एक कहानी है l जिसे कोई साहित्यकार अपने शब्दों और कल्पना के स्पर्श से दृष्टि दे देता है l जीवन के इस छोटे से अनिर्णीत आख्यान के लिए बधाई जया जी

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