Monday, May 20, 2024
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सत्या शर्मा ‘ कीर्ति’ की कहानी – कहाँ था मैं…!

मैं अंगुलियों के बीच सिगरेट फँसाये जाने कब से खड़ा था।
सहसा थोड़ी जलन महसूस हुई, देखा  आग की हल्की चिंगारी मेरी अंगुलियों पर रख सिगरेट  लगा रही थी । शायद अपने अकेलेपन और  मौजूदगी का एहसास करवाने का उसका अपना यह अनूठा तरीका हो।
पर! उसकी यह हठता मुझे जरा भी विचलित नहीं कर सकी क्योंकि पिछले दो दिनों से मेरे अंदर वेदना की जो आग लगी थी उसकी तुलना में तो यह कुछ भी नहीं था।
प्रणाली यानी मेरी पत्नी को  साहित्य के क्षेत्र में विशेष उपलब्धि हेतु सम्मानित करने के लिए दिल्ली बुलाया गया था।
आप सोच रहे होंगे शायद पत्नी की उपलब्धि मुझे बेचैन कर रही है। किंतु मैं स्पष्ट कर दूँ ऐसा तो बिल्कुल भी नहीं है।प्रणाली तो मेरे लिए पूरी उम्र लाईफ लाइन के जैसी रही ।जब शादी हुई थी तभी मैं समझ गया था कुछ तो बात है इसमें । एक दिन जरुर कुछ अलग करेगी इसलिए मैं कभी किसी भी बात के लिए उसे मना नहीं  करता ।पढ़ी -लिखी प्रणाली की हर इच्छा को पूरी करने की कोशिश करता । वह कभी पेंटिंग सीखती , कभी म्यूजिक ।अलग- अलग चीजें सीखने की उसकी कला का मैं सदा दीवाना बना रहा।
धीरे-धीरे ईश्वर के आशीर्वाद स्वरुप दो बच्चे हमारे जीवन में आये और वो पूरी तन्मयता से घर- गृहस्थी से जुड़ गई। सारा दिन बच्चे ,घर, और मेरा भी  इस तरह ख्याल रखती जैसे हम सभी की माँ हो ।
मैं  उसे हर वक्त इस तरह उलझे देख कहता  ” अरे यार , क्या सारा दिन किचेन में लगी रहती हो ,एक फुल टाइम मेड रख लो, इतनी पढ़ी- लिखी हो,  कोई जॉब ही कर लो। जीवन जो एक ढर्रे पर चल रहा है  ,कुछ तो चेंज आएगा।”
तब वो हंस कर कहती – ” तुम भी न , ये हमारे ही बच्चे हैं , मेड के नहीं। अगर मैं इनका ध्यान नहीं रखूंगी तो क्या मेड रखेगी? राम जाने क्या अनाप- शनाप बना कर खिला देगी या भूखा ही रखेगी क्या पता, और सच कहूं तो मुझे इन पर भरोसा भी नहीं। आए दिन कुछ न कुछ तो न्यूज में आता ही रहता है । “तब मैं उसे प्यार से समझाता -” सभी ऐसे थोड़े ही होते हैं , हाँ मानता हूँ कुछ गलत होते हैं तो कुछ अच्छे लोग भी तो होते हैं। और सुनो क्राइम पेट्रोल और सावधान इंडिया ” थोड़ा कम ही देखा करो । जीवन में सबसे जरुरी है विश्वास करना । यही हमारे रिश्ते को मजबूत बनाता है।”
पर उसकी तो अपनी ही दुनिया थी जिसमें वो पूरे दिन बच्चों की पढ़ाई,उनकी फरमाइश,उनका कैरियर ,उनकी अन्य गतिविधियों में डूबी रहती। सच कहूँ तो  उसकी यही बात मुझे बहुत अच्छी  लगती थी क्योंकि जहाँ आज औरतें अपने कैरियर को ज्यादा महत्व देती हैं वहीं प्रणाली घर- गृहस्थी को ही अपनी उपलब्धि मानती। फिर भी कहीं न कहीं मैं चाहता था वो अपने हुनर ,अपनी पढ़ाई को यूँ ज़ाया न करे।
इसलिए जब बच्चे कुछ बड़े हुए तो कहा -” अब तो बच्चे बड़े हो गए हैं कहीं ज्वाइन कर लो।” तब तुनक कर कहती -” जाओ नहीं करूंगी जॉब , पति की कमाई पर ऐश करूँगी।”  फिर  थोड़ा गम्भीर हो कहती -” तुम तो मार्केटिंग में हो , हमेशा बाहर रहते हो अगर मैं भी दिन भर बाहर रहूँ और शाम को थकी लौटूं तो बच्चे कितने अकेले हो जाएंगे। वैसे भी जब तक पास हैं तभी तक न ,एक बार पँख फैला उड़ना शुरु किया फिर कहां लौट कर आएंगे। फिर तो हम महीनों तरस जाएंगे इनके चेहरे देखने को। ” कहते- कहते उसकी आंखें भर जाती।
फिर मैं भी उसके ममत्व के बीच कभी न आया। हाँ ,उसे पास ही एक लायब्रेरी का मेंबर बना दिया, ताकि कम से कम वह किताबों से जुड़ी रहे।क्योंकि मैं देख रहा था  बच्चे अब अपनी दुनिया में व्यस्त होने लगे थे और प्रणाली अकेली। मेरा जॉब भी ऐसा था कि मैं चाह कर भी हप्ते में दो दिन से ज्यादा रह नहीं पाता।  चाहे वो मुझसे कुछ न कहती पर उसकी आंखें बहुत कुछ कह जाती।
लाइब्रेरी का साथ प्रणाली को बहुत पसंद आया ।अब वो खुद के लिए भी समय निकालने लगी। इस तरह धीरे- धीरे वो साहित्य से जुड़ती गयी और आज देश के एक प्रतिष्ठित पुरस्कार के लिए चुनी गई है।
तभी मेड ने आकर पूछा-” साहब शाम हो गयी है चाय बना दूँ ? मन तो भरभरा रहा था इच्छा हुई मना कर दूं लेकिन मन को भटकाने के ख्याल से कहा -” हाँ बना लो, फिर घर चली जाना, खाना मत बनाना । रात मैं बाहर खाऊंगा। ” मैं जानता था मैं झूठ बोल रहा हूँ।पर भूख- प्यास कहाँ सुहा रहा था मुझे।
     घर की जरूरतों के कारण मात्र 23 साल की उम्र में मार्केटिंग लाइन से जुड़ा।फिर शहर- दर -शहर भटकता ही रहा।कभी किसी के क्लिनिक , कभी कोई हॉस्पिटल। कभी कोई झिड़क कर बोलता,तो कभी कोई घण्टों बैठा कर भी नहीं मिलता। चाहे रिटेलर हो या  स्टॉकिस्ट सभी के अलग- अलग चोंचले थे।  कम्पनी और उसकी पॉलिसी में मेरा कोई भी योगदान न होने के बावजूद भी कभी बॉस से,  तो कभी किसी डॉ0 से मैं झिड़कियाँ सुनता रहता।
      जीवन की इसी अनचाही खींचतान के बीच मेरा प्रमोशन होता गया। शहर की जगह अब राज्य की जिम्मेदारी भी आ गयी।सेल्स मैनेजर बनने के बाद तो कई स्टेट महीने भर में कवर करने होते ,ऐसे में पत्नी – बच्चे मेरे साथ के लिए तरसते रहते और मैं उनके सानिध्य के लिए तड़पता रहता।
      पर कहते हैं न भूख किसी की दोस्त नहीं होती । उसे मिटाने के लिए एक पति को, पिता को, पुत्र को , संक्षेप में कहूँ तो पुरुष को इंतजाम करने ही पड़ते हैं। भूख ही क्यों आज की स्मार्ट लाईफ के लिए  खाने के साथ – साथ,अच्छे स्कूल , अच्छे कपड़े, एक्स्ट्रा क्लासेज एक  लंबी लिस्ट होती है, जिसे पूरा करते -करते उम्र निकल जाती है।  कई बार जब भागते-दौड़ते और झिड़कियाँ सुनते थक जाता तो सोचता क्या पुरुष होने का मतलब इतना ही रह जाता है कि घर की जिम्मेदारी के लिए पूरी उम्र भटकते रहो ?
      खैर अपनी भाग-दौड़ की जिंदगी में एक सुकून हमेशा बना रहा कि पत्नी – बच्चों को एक लैविश लाइफ  दे रहा हूं।
      फिर एक दिन प्रणाली का फोन आया – ” एक बात बताऊँ ?”
 ” हाँ, बोलो  ” आवाज़ की चहक ही बता रही थी कुछ स्पेशल है।
 ” आज प्रभात खबर में मेरी कहानी छपी है।”
 “अरे वाह … ” खुशी से उछल पड़ा मैं। लगा वो नहीं बल्कि मैं ही अखबार में छपा हूँ। सच में एक आम आदमी के लिए अखबार में छपना कितनी बड़ी बात होती है।अपने सभी दोस्तों  – रिश्तेदारों से शेयर किया । साथ ही प्रणाली को एक बड़ी पार्टी का प्रॉमिस करते हुए कहा -” अगली बार रायपुर आने पर तुम्हारी पसंद के होटल में ले चलूंगा।
      धीरे- धीरे प्रणाली साहित्य के क्षेत्र में स्थापित होती गयी। और मैं ट्रेन,बाइक और बसों में भटकता जीवन की  कहानियों में उलझा  रहा।
   खैर जीवन अपने ढर्रे पर चलता रहता है बस रास्ते में काफी कुछ बदल जाता है।कुछ हमसे छूट जाता है तो कई बार कुछ अनजाना सा जीवन में जुड़ जाता है
      बच्चे अब आगे की पढ़ाई के लिए बाहर जा चुके थे और प्रणाली भी  व्यस्त रहने लगी थी। अक्सर फोन पर बताती आज कहानियों पर गोष्ठी है तो कभी  कहती आज काव्य प्रतियोगिता  में जज बनी । कभी ऑनलाइन कार्यक्रम से जुड़ती ,  तो कभी पत्रिकाओं का भी संपादन करती । मैं उसकी व्यस्तता एवं उपलब्धि देख खुश होता रहता। सच में  प्रणाली में कुछ बात तो है। मुझे उसके पति होने पर बहुत फक्र होता।
      चाय रख मेड ने कहा -” साहब गेट बंद कर लीजिए मैं जाती हूँ।” मैं भी गेट बंद कर चाय के साथ बालकनी में आ गया । बच्चे नीचे पार्क में खेल रहे थे। हँसते ,मुस्कुराते, खिलखिलाते बच्चे कितने अच्छे लगते हैं। जीवन के दाँव- पेंच से मुक्त । उम्र का सबसे सुखद दौर  तो यही होता है फिर तो तमाम उम्र बस अनगिनत उलझने।
      यही तो उलझन थी जो मेरे अंदर की बेचैनी को कम नहीं होने दे रही थी फिर उदास सा मैं अपने कमरे में आ कर लेट गया।
      कुछ दिनों पहले प्रणाली ने बहुत ही खुश हो बताया सुनो , मेरे नए कहानी संग्रह को प्रतिष्ठित पुरस्कार के लिए चुना गया है ।”
   मैंने कहा -” मैं जानता था तुम  एक दिन कुछ बड़ा जरुर करोगी। खुशी से मेरी आँखें छलक आई थीं। इस खुशी को हमने लंबी ड्राइव कर सेलिब्रेट किया। जीवन का सुख इससे ज्यादा क्या होगा जब आप अपने पार्टनर के साथ खुशी-खुशी वक्त बिताते हैं। मैं कुछ दिनों की छुट्टी ले कर आ गया  और प्रणाली को सरप्राइज देते हुए कहा -” देखो मैं आ गया अब तुम्हारे साथ मैं भी चलूंगा।आखिर पत्नी को सम्मानित होते हुए मैं भी देखूंगा भाई किन्तु प्रणाली ने कहा ” मेरी तो रमा के साथ टिकट बन गयी है और लेखकों की भीड़ में तुम बोर भी तो हो जाओगे । मैं तुम्हें लाइव कार्यक्रम भी दिखाउंगी और वीडियो भी भेज दूंगी।”
   थोड़ा अटपटा तो लगा ।आखिर दस दिन की छुट्टी ले कर आया था ।सोचा था कार्यक्रम में रहूंगा तो प्रणाली भी खुश हो जाएगी फिर काफी दिनों से कहीं घूमना भी नहीं हुआ है वो भी हो जाएगा खैर।
   फिर लगा ठीक ही तो कह रही है साहित्यकारों के बीच मैं करूंगा भी क्या? साहित्य के ” स” से भी मेरा कोई नाता नहीं , शायद प्रणाली को भी अपने ग्रुप में अटपटा लगे।
     अगले दिन सुबह की फ्लाईट से प्रणाली दिल्ली चली गयी तो अकेलापन काटने लगा तब पहली बार मेरे भी मन में ख्याल आया देखूँ श्रीमती जी ऐसा क्या लिखती हैं कि पूरी दुनिया उनके लेखन की दीवानी हो रही है ?शायद मुझे साहित्य में मन लगने लगे।
     दरअसल मुझे साहित्य में कोई विशेष रूचि नहीं थी दूसरी भागम- भाग वाली जिंदगी के कारण पढ़ने की फुर्सत ही नहीं मिली ।जॉब में इतने तनाव होते थे कि मैं चाह कर भी किसी अन्य बातों पर फोकस नहीं कर पाता था। किंतु अभी तो दस दिन मेरे पास वक्त ही वक्त है ऐसे में उनकी लिखी किताबों को पढ़ने का सुख ही उठा लेता हूँ। और फिर बड़े मन से उनकी सबसे चर्चित कहानी संग्रह पढ़ना शुरू किया। संग्रह में कुल पन्द्रह कहानियां थी जिसे मैं जैसे-जैसे पढ़ता गया, मेरा सारा गुरूर चूर होने लगा ।तमाम उम्र मैं सिर्फ पत्नी -बच्चों के लिए जीता रहा। उनके सुख, उनकी अच्छी परवरिश के लिए  घर- परिवार से दूर बंजारों सा जीवन बिताता रहा पर इन कहानियों में मैं कहीं नहीं था ।इनके पुरुष पात्र में, मैं और मेरी सोच कहीं नहीं थी। मैं संग्रह के पन्ने पलट रहा था और एक नई प्रणाली से मेरी मुलाकात हो रही थी। सारी कहानियां पुरुषों के अत्याचार से भरी थी ।शोषित स्त्रियों की दिल दहला देने वाली कहानियां । सभी के केंद्र बिंदु में संघर्ष करती, मार खाती, पुरुषों की दया पर जीवन गुजारती स्त्रियां थीं ।कुछ स्त्री पात्र  पति की बेवफाई की शिकार थी तो कुछ घर के सभी पुरुषों की लोलुपता से भयभीत। ज्यादातर स्त्री अपनी इच्छाओं को दबाकर पुरुषवादी सोच के अधीन घर- परिवार के बीच संघर्ष कर बड़ी मुश्किल , मश्क्कत से अपने लिए जगह बना पा रही थी। मैं किताब हाथ में ले सोचने लगा आखिर प्रणाली ने सिर्फ उन स्त्रियों के बारे में ही क्यों लिखा है ? उसे खुद की जैसी स्त्रियों के बारे में भी तो लिखना चाहिए था। उसे तो हमेशा ही पूरी आजादी थी। मैं हर महीने के तीन तारीख को वेतन का एक बड़ा भाग उसे दे देता था क्योंकि मैं जानता था  खर्च तो उसे ही करने हैं। कभी नहीं पूछा पैसे  कहां खर्च हुए ,कहां गए ,मेरे पीछे कोई आता तो नहीं ? फिर प्रणाली की कलम ने पुरुषों के लिए इतना जहर क्यों निकाला है। लोग तो यही सोचते होंगे इसके घर के पुरुष भी ऐसे ही हैं ।
      बचपन से ही मैं दादा जी और पिता जी को घर की औरतों को इज्जत , सम्मान देते देख बड़ा हुआ हूँ। यहाँ तक कि मुझमें, मेरी बहनों में कभी कोई फर्क नहीं किया जाता बल्कि बहनों को ही ज्यादा सुविधाएं दी जाती थीं। ऐसे ही संस्कारों में पला- बढ़ा मैनें भी प्रणाली को कभी किसी तरह से रोका नहीं,  कभी कोई बंधन नहीं लगाया। फिर भी वो अपनी कलम से केवल पुरुषों के लिए जहर निकाल रही है ।मैं बिस्तर से उठ  अलमारी से निकाल कर उसके लिखे सारे लेख, कविताएं , कहानियां पढ़ने लगा ।सभी एक ही विषय पर , एक ही मुद्दा पर थीं कि कैसे पुरुष वर्चस्व को तोड़ना है? कैसे उनके जुल्म को खत्म करना है? कैसे स्त्रियों को आजादी  दिलानी है ? मैं उन कहानियों , लेखों , कविताओं में खुद को ढूंढने लगा। कहां था मैं ?क्या यही हूं  मैं? और अगर मैं यह नहीं हूं तो किसे लिख रही है प्रणाली ?  पिता जी तो पूरी उम्र उसे एक बेटी की तरह प्यार करते रहे। बेटे माँ को हमेशा दोस्त मानते हैं। फिर वह कौन पुरुष है जो उसे इतनी पीड़ा दे रहा है? किसने उसके सारे पंख नोच लिए हैं?  किससे वह संघर्ष कर  बड़ी मुश्किल से अपने लिए मुट्ठी भर आकाश खोज रही है ? मैं ज्यों – ज्यों  उसे पढ़ता जा रहा था त्यों- त्यों खुद को बौना महसूस करता जा रहा था । दो दिनों में मेरी ऐसी हालत हो गई  जैसे मैं कहीं खो गया हूं।  मेरा खुद पर का गर्व चूर हो गया। मुझे आपने आपसे घृणा होने लगी। आत्मग्लानि से भर गया मैं। कभी खुद को रेपिस्ट महसूस करता , तो कभी हंटर से पत्नी को मारते देखता ,तो कभी दोस्तों के साथ मिल शराब के नशे में पत्नी के साथ अमानवीय सलूक करते महसूस करता ।मेरे मन मस्तिष्क सुन्न होने लगे । पढ़ते- पढ़ते मैं अवसाद की स्थिति में पहुंच गया। मैं समझ नहीं पा  रहा था यह मेरी प्रणाली है या मैं ही कभी प्रणाली को जान नहीं पाया ? जब लगा कि सारी नसें फट जाएंगी तब नींद की कुछ गोलियां ले सो गया ।
      दूसरे दिन दिल्ली से बड़ी सी ट्रॉफी, सर्टिफिकेट, शॉल और कैश लेकर प्रणाली आई। बड़ी खुश थी पर मेरी हालत देख थोड़ी चिंतित हो पूछा – ” क्या हुआ कुछ अस्वस्थ लग रहे हो। मैंने हल्की सी हंसी के साथ सिर्फ कहा, ” नहीं,  ठीक हूं।”
       प्रणाली पूरे उत्साह के साथ दो दिन के एक-एक पल की कहानियां सुनाती रही , चहकती रही। ये वही दो दिन थे जिसमें मेरे पुरुष के होने पर ही प्रश्न चिन्ह लग गया था ।
       जब दोपहर तक  कुछ शांत हुई तो मैंने पूछा -” प्रणाली एक बात पूछूं ?” वह गले में हाथ डालकर झूलते हुए बोली -” पूछो “
   “मैं कैसा हूं ?”
   वह चौंक गयी। ” अरे! कैसा प्रश्न है यह?”
 ” बताओ ना “
” अरे, बहुत अच्छे हो “
“फिर वह कौन है ?”
अब प्रणाली के चौकने की बारी थी ।
” कौन वह ” मुझसे अलग होते हुए बोली।
 “वही जो तुम्हारी कहानियों में  , कविताओं में,  लेखों में है।”
 “वह बिफर पड़ी ” कौन है मेरे लेखों  में ?”
 “वही जो तुम्हें सताता है, तुम्हारे पंख काट डाले थे,  तुम्हारे सपनों को तोड़ डाला था, जिसके कारण तुमने खुद को भुला दिया था।अब तुम बड़ी मुश्किल से  अपने लिए रास्ते बना रही हो ।”
 ठठाकर हंस पड़ी प्रणाली-” अरे,  यार तुमने तो मुझे भी डरा दिया था।”
“बोलो ना कौन है वह ? क्या मैं वैसा ही हूं ? ” मेरा स्वर भर आया था। प्रणाली मेरे हाथों को हाथ में लेकर बिल्कुल प्रोफेशनल अंदाज में बोली ” देखो साहित्य में संवेदनाएं ही बिकती है, जो जितना दर्द  लिखता है , उतना ही पढ़ा जाता है। और अगर औरत हो कर औरत के हक के लिए नहीं लिखूंगी तो कौन लिखेगा ? “
मैंने पूछा -” क्या तुम्हें नहीं लगता , लोग क्या सोचेंगे? उन्हें तो यही लगेगा तुम्हारा परिवार , तुम्हारा पति भी ऐसा ही होगा।”
 “अरे !छोड़ो यार इतना कौन सोचता है और तुम्हें पहचानता ही कौन है ?”
 मैं हतप्रभ सा उसे देख रहा था सामने टेबल पर रखा उसका बड़ा सा मेडल , कमरे में सजे उसके सारे सर्टिफिकेट , अनगिनत ट्रॉफियां  जैसे मुझे चिढ़ाने लगीं ” तुम्हें जानता ही कौन है ? “
   अब मेरे अंदर की सहन – शक्ति जवाब देने लगी थी । प्रणाली के शब्द तीर से चुभ रहे थे मेरे सीने में।
   मैं लगभग चीखते हुई पूछा ”  मेरा वजूद ही कुछ नहीं , मुझे कोई जानता ही नहीं है इसलिए तुम अपनी रचनाओं में मुझे विलेन बना रही हो?”
 नहीं, इसलिए कि जब मैं कभी तुमसे अलग हो जाऊं तो लोगों को आश्चर्य न हो ।उन्हें लगे अच्छा ही हुआ जो अलग हो गयी। ऐसे पुरुष के साथ कोई रह भी कैसे सकता है ।
 “मतलब ” लगा किसी ने झन्नाटेदार थप्पड़ मारा हो मेरे गालों पर। पूरा शरीर ही कांप गया।
 “मतलब यह कि तुम पूरी उम्र बाहर घूमते रहे। तुम्हें लगा  एक स्त्री को सिर्फ  पैसे चाहिए । पर उसकी भी तो  शारीरिक , मानसिक जरूरतें होती हैं। मुझमें भी थी। ”  बेपरवाह सी कह प्रणाली फेसबुक पर आए लोगों के कमेंट  का रिप्लाई देने लगी।
      मैं बेचैन हुआ जा रहा था मैंने पूछा” पर मुझे तो कोई शारीरिक , मानसिक साथ की जरुरत महसूस नहीं हुई । मैं भी तो अकेला ही रहता हूँ।”
     अगर तुममें पुरुषत्व की ही कमी है तो मैं क्या कहूँ ?” कह प्रणाली मुझे ऐसी नजरों से देखने लगी कि क्षण भर को यह सोच कर मैं डर गया कि कहीं बच्चे किसी और के तो नहीं हैं।
     पिछले दो दिनों से मैं इतने अधिक तनाव में था कि बहस करने की या इन बातों को और आगे बढ़ाने की मुझमें हिम्मत ही नहीं बची थी। इसलिए बात को खत्म करने के लिए पूछा -” तुम्हारी जिंदगी में कोई है क्या ?”
“हाँ ” संक्षिप्त सा उत्तर दिया प्रणाली ने।
“क्या इसलिए तुम मेरे साथ दिल्ली नहीं गयी ।”
उसने सिर्फ हाँ में सर हिलाया।
मैंने कहा ”  एक बार तुम कह कर तो देखती । इतने खेल खेलने की क्या जरुरत थी ? “
“क्या सब कुछ कह कर ही समझाया जा सकता है ?” प्रणाली अब बिल्कुल ही पराई लग रही थी।
मैं टुकड़ों में बिखर रहा था। कहाँ तो मैं सोचता था कि लोग जब प्रणाली से पूछेंगे ” तुम्हारी सफलता का राज क्या है ?तब वो कहेगी मेरे पति का प्यार और साथ।” और प्रणाली अपने नाजायज सुख को हासिल करने के लिए मुझे ही यूज़ कर रही है।  मुझे ही मोहरा बना विक्टिम कार्ड खेल रही थी।
         कई बार टूटने की कोई आवाज़ नहीं होती , आज भी नहीं हुई जबकि मेरे अंदर सब कुछ टूट कर बिखर गया था।
 मैं चाह कर भी अब एक पल प्रणाली के साथ नहीं रह सकता था इसलिए उसी पल घर छोड़ अपनी उसी बनजारे की लाइफ में लौट गया जिसमें रहकर खूबसूरत घर और प्यारी पत्नी के साथ वक्त गुजारने के सपने देखता था।
–0–
सत्या शर्मा ‘कीर्ति’
रांची, झारखण्ड
प्रकाशित-
तीस पार की नदियां ( काव्य संग्रह )
वक्त कहाँ लौट पाता है ( लघुकथा संग्रह)
ईमेल- satyaranchi732@gmail.com
मोबाइल – 7717765690
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1 टिप्पणी

  1. सत्या शर्मा जी कि यह कहानी कई स्तर पर खुलती है l यहाँ पुरुष बेचारा है और स्त्री तथाकथित “स्त्री विमर्श” का लाभ ले रही है l यहाँ पुरुष उदारवादी पुरुष है l जो अपनी पत्नी के सपनों का ध्यान रखता है l वो चाहता है कि उसकी शिक्षित पत्नी कहीं घर के कामों में ही ना फँसी रह जाए l बाद में साहित्य की ओर मुड़ने पर वह न सिर्फ खुश होता है बल्कि उसे पूरा समर्थन देता है l पत्नी का तर्क ये है कि पति ने अपनी टूर वाली नौकरी के पीछे उसे अकेला छोड़ा है l उसकी शारीरिक और भावनात्मक जरूरतों का ख्याल नहीं रखा है l इस कहानी में स्त्री और पुरुष दोनों अपने -अपने सच के साथ खड़े हैं l मूलतः ये कहानी बदले हुए पुरुष की दस्तक है l जिसका फायदा स्त्री उठा रही है l क्या सम कहीं नहीं है l एक अच्छा होगा तो दूसरा बुरा हो जाएगा l समाधान हमें ही तलाशने होंगे l

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