बादलों से ढकी दोपहर, सड़कों पर एक बोझिल सा सन्नाटा। इस चुप को तोड़ते हुए एक चीख अचानक वायुमण्डल में गूंज उठी। ‘हाय रे दैया हमें छोड़कर कहां चलेंगे’’ हाय हम अब का करी, कहां जाई? एक औरत का करुण क्रन्दन उसके साथ ही छोटे बच्चों की चीखें भी इस चीत्कार में शामिल हो गई। चीत्कार का केन्द्र थी वह लाश जो बर्फ की सिल्ली पर सड़क के बीचों-बीच रखी थी। एक मजदूर की लाश। क्रान्ति के अगुआ, सर्वहारा वर्ग का दस्तावेज जो अब खत्म हो चुका था। चारों ओर खड़े पुलिसवालों के चेहरे पर छाई परेशानी भी इस क्रन्दन को अपना मौन समर्थन दे रही थी। क्यों नहीं, वे भी तो मनुष्य हैं। अपनी ही श्रेणी के ऐसे जीव की मौत उन्हें भी तो हिला सकती है। ये मौत है रामचेलवा की।
रामचेलवा, पिछले कुछ समय तक मस्त ठहाके लगाने वाला जिन्दादिल व्यक्तित्व लेकिन इधर कुछ दिनों से वक्त की मार ने उसके चेहरे से हंसी छीन ली थी।
रामचेलवा चार बच्चों का बाप एक अदद बीबी का पति लेकिन इस सड़क के लिए एक अदद लाश। इस व्यवस्था और सरकार के लिए नारे लगाती एक आवाज जो अब खामोश है।
रामचेलवा की लाश के दोनों अंगूठे लाल कपड़े से बांध दिये गये हैं। अकड़ गये हाथों को जबरन पैंट की जेब में खोंस दिया गया है। मानो उसमें कोई बड़ी रकम पड़ी हो। वाह री किस्मत, कम से कम जिन्दगी में न सही मौत में ही जेब भरी होने का भरम तो रहा। रामचेलवा की बीबी फुलदेई झिर झिराते पानी में अपना क्रन्दन धो रही है। तभी फोटोग्राफर को आते देख एक मजदूर ने लाश के मुंह से कपड़ा हटा दिया। फ्लैश बल्ब चमके। लाश के जबड़े भिंचे हैं, मानों दातों से जकड़कर उसने जिन्दगी को रोकने की चेष्टा की हो। लाश का मुंह खुलते ही फुलदेई का क्रन्दन और तीव्र हो गया। मुंह फिर ढांक दिया गया।
तभी शोर मच गया, ‘‘नेता जी आ रहे हैं।’’ नेता जी क्षेत्रीय दल के विधायक अपने तामझाम के साथ शोक प्रकट करने अवतरित हुए। फुलदेई उनकी उजली टोपी देखकर और जोर से रोने लगी।
‘‘अरे रोओ नहीं। तुम्हारी बेटियों का बाप आज से मैं हूं, मैं सबका कन्यादान करुँगा। तुम बेसहारा अबला नहीं हो, तुम्हारे साथ जनता है’’ नेता जी बोले। इस सहानुभूति की वर्षा में फुलदेई का जवान और कसा शरीर भी उत्प्रेरक था। नेता जी बातें कर रहे थे मजदूरों से और देख रहे थे फुलदेई को।
एक बूढ़े मजदूर का धैर्य छूट गया। ‘‘हां-हां यहां हम लोग पांच रोज से भूखे मर रहे हैं। सब भाषण दे-दे कर चले जा रहे हैं। हमारी किसे परवाह है।’’
‘‘अरे-अरे इनको हलवा-पूड़ी खिलाओ बेचारा कई दिन का भूखा है।’’एक नौजवान मजदूर ने मसखरी की। ‘‘अरे गुरु तुम भूखे रहो या प्यासे। लोगों के घरों में तो चूल्हे जल रहे हैं। फिर तुम्हारे पेट की आग इनके मन को कैसे जलाये।’’ एक मजदूर ने कहा।
‘‘इतने दिन से हम भूख हड़ताल पर हैं क्या नेता, क्या जनता किसी के कान पर जूं रेंगी। शायद हम मजदूरों की समस्याओं को आम जनता से जोड़ ही नहीं पाये।’’ एक मजदूर नेता बोला।
अचानक बारिश तेज हो गयी। सब उठकर भागे। ‘‘लाश यहां पड़ी है और तुम लोग उठकर भाग रहे हो। शर्म नहीं आती, तुम्हारे हित की आवाज उठाने में ही इसके प्राण गये हैं।’’ एक मजदूर की आवाज गूंजी। जो जहां था वहीं ठिठक गया। किसी ने लाश पर बरसाती तान दी।
‘‘अरे रामचेलवा गुरु तुम तो गये, अब पानी पड़े चाहे पत्थर तुमको कउन फरक।’’
तभी पत्रकारों की भीड़ ने उन्हें घेर लिया।
‘‘क्या सरकार की तरफ से कोई नहीं आया।’’ एक सवाल पूछा गया।
जिस मजदूर से सवाल पूछा गया था उसकी आंखे अस्वाभाविक रुप से जल उठीं, ‘‘यहां कोई सरकार बनके आयेगा तो हाथ गोड़ सलामत लेकर वापस जायेगा क्या?’’
ये आक्रोश अन्दर जल रही इस अग्नि की अभिव्यक्ति है जो कई दिनों से चल रही हड़ताल पर सरकार द्वारा की जा रही अवज्ञा से जन्मी है। हड़ताल से भूख हड़ताल पर उतर आये कुछ मजबूरीवश भी लेकिन नतीजा कुछ न निकला।
रामचेलवा की लाश जहां पड़ी थी वहां से चालीस कदम दूर ‘अंकुर गेस्ट हाउस’ है। गेस्ट हाउस के बाहर चमचमाती गाड़ियां और खाकी की दुग्ध धवल टोपियां बता रही हैं कि इसके अन्दर सत्तारुढ़ दल का कोई आयोजन चल रहा है। अन्दर जाकर बायीं तरफ मुड़ते ही एक बड़ा सा हाल है जहां से वाह-वाह की आवाजें आ रही हैं। यहां पार्टी चल रही है, पार्टी अध्यक्ष के चुनाव जीतने की खुशी में मुख्यमंत्री आये हुए हैं। खाना खा रहे हैं। कव्वाली चल रही है। गायिका की मीठी तान मुख्यमंत्री के प्रशस्ति गायन में ही सजी है। तरह-तरह से वो उन्हें अपना बनाना चाहती है। आगे सोफों पर बड़े नेता विराजमान हैं और गायिका पर पांच-पांच सौ के नोटों की बारिश हो रही है। होगी क्यों नहीं चालीस रु0 किलो टमाटर, दस रुपये किलो आलू से जनता के जीवन में समृद्धि की बाढ़ लाने वाले अपनी समृद्धि को क्यों न उछालें?
हर इनाम पर गायिका अदा से एक लचकता हुआ शेर सुनाती है। बड़े नेता जी फरमाइश कर रहे हैं कि अगले शेर में उनका नाम जोड़कर पढ़ा जाये। गायिका मुस्कुराती, बलखाती इस फरमाइश को पूरा कर रही है।
पीछे की तरफ बैठे पत्रकारों में कोई फुसफुसाता है, ‘‘इस कैजुएलिटी से सरकार मुश्किल में फंस जायेगी।
‘‘सरकार क्या कद्दू फंसेगी?’’ पास आकर नेता जी बोले। ‘‘सब मामला सेट हो गया है। यूनियनों से समझौता हो चुका है। मजदूर की बॉडी पोस्टमार्टम के लिए जा चुकी है। विपक्षी बड़ा मुद्दा बना रहे थे, सब टांय-टांय फिस्स।’’
इस गुलजार से गेस्ट हाउस से फिर आ जाते हैं घटना स्थल पर। रात्रि की सुनसान बेला में झीनी-झीनी वर्षा हो रही है। एक तरफ टेन्ट गाड़कर क्षेत्रीय विधायक आमरण-अनशन पर बैठ चुके हैं। वे अगल-बगल बैठे मजदूरों को बता रहे हैं कि पुलिस कैसे घेराबंदी करके चालाकी से लाश उठा ले गई। एक मजदूर लाश पर लेट गया, लेकिन पुलिस ने उसे घसीटकर दूर फेंक दिया। नेताजी कह रहे हैं कि समझौता करने की बजाय मजदूर लड़े तो जरुर जीतेंगे।
भीगी सड़क के किनारे बर्फ की अधगली सिल्ली पड़ी है। जिससे भाप सी निकल रही है। वहीं बगल में दो जूते पड़े हैं। फटे चकतीदार। ये चकतियां रामचेलवा के जीवन संघर्ष का सर्टिफिकेट हें जो किसी गुमनाम मोची ने उसे दिया था। इस सारी भीड़ से अलग फुलदेई सूनी आखों से उन जूतों की तरफ देख रही है। शायद अपने सामने पड़े जीवन के लम्बे संघर्ष से जूझने का पाथेय खोजने ?
हृदयस्पर्शी उत्तम कहानी है।