Saturday, July 27, 2024
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डॉ मुक्ति शर्मा की कहानी – बलि का बकरा नहीं बनूंगी!

बाहर तेज तूफान चल रहा था, अब्दुल हालात के हाथों मजबूर लकड़ियां इकट्ठी करने जंगल की ओर चल दिया उसको क्या पता था कि मौत बाहें फैलाकर उसका इंतजार कर रही थी, उसने जैसे ही लकड़ियां इकट्ठा करना शुरू की तो झाड़ियों के पीछे से आवाज आई उसने सोचा शायद कोई कुत्ता होगा? वे अपने काम में मस्त रहा, लकड़ियां इकट्ठी कर रहा था। उसके होश उड़ गए जब उसने अपने सामने रीछ को खड़ा पाया, रीछ ने ना आव देखा ना ताव सीधा उस पर झपट पड़ा उसने बुरी तरह से अब्दुल को नोच डाला, उसे मरा हुआ छोड़कर चला गया, जंगल में और भी लोग लकड़ियां चुनने के लिए गए हुए थे तब उनकी नजर अचानक अब्दुल पर पड़ी। अब्दुल को ऐसी अवस्था में देखकर वह घबरा जाते हैं। अरे भाई यह तो अब्दुल है। चलो चलो जल्दी करो इसको उठा कर घर ले जाते हैं। अब्दुल का चेहरा चादर से ढका हुआ था।
जब भी अब्दुल की लाश लेकर घर पहुंचते हैं तो अब्दुल की पत्नी हफीज बोलती है, “अरे भाई यह कौन है आप किस को लेकर हमारे घर आ गए, वह लाश को फर्श पर रखकर एक कोने में खड़े हो जाते हैं, हफीज जैसे ही लाश से चादर हटाती है तो वह जोर-जोर से चिल्लाना शुरू हो जाती है। इनको यह क्या हो गया, यह तो जंगल में गए थे लकड़िया लेने के लिए कुछ समय पहले, साइमा के अब्बू आप को क्या हो गया? आप कुछ बोलते क्यों नहीं?” स्थिति को संभालते हुए पास में खड़े उन लोगों ने कहा कि शायद हमें लगता है रीछ ने हमला कर दिया था। चेहरा बुरी तरह से लहूलुहान था।
साइमा उस समय दसवीं कक्षा में पढ़ती थी उसकी बहने जुड़वा थी जो 3 साल की थी। छोटी बहन ने अम्मी से सवाल कर रही थी यह अब्बू के चेहरे पर खून कैसा है? अब्बू बात क्यों नहीं कर रहे हैं? हफीज के पास मासूमों के सवाल का कोई जवाब नहीं था। उन मासूमों को क्या पता था  अब्बू कभी नहीं लौट कर आएंगे उनके तो सिर से साया ही उठ गया। उनको तो इस बात का अंदाजा भी ना था कि अब क्या होगा?
जनाजे की तैयारियां होने लगी, साइमा कोने में गुमसुम बैठी सब देख रही थी, उसकी आंखों में जैसे आंसू सूख चुके थे। निर्जीव प्राणी की तरह एक कोने में बैठी रही। जब आखरी रस्मों के लिए उसके अब्बू को ले जाया जा रहा था तभी अचानक से वे जोर-जोर से रो पड़ी, “मेरे अब्बू को कहां लेकर जा रहे हो? अब हमारा कौन है ?अब हमारी कौन देखरेख करेगा? मम्मी आप बोलो ना, यह क्यों नहीं बात कर रहे? अम्मी तुम बोलती क्यों नहीं?” हफीज के पास मासूम की बातों का कोई जवाब नहीं था।
हफीज को समझ नहीं आ रहा था बच्चों को कैसे समझाएं और अपने आप को कैसे हिम्मत दें दुखों का पहाड़ गिर पड़ा था उस पर, अब्दुल को दफन कर दिया गया उसके साथ ही साइमा की एवं उसकी अम्मी की खुशियां भी दफन हो चुकी थीं। पहाड़ जैसी जिंदगी कैसे गुजारेगी हाफिज?? बच्चों का पालन पोषण कैसे करेगी? एक और साइमा थी जिस पर पूरे घर का बोझ था अब, साइमा के हंसने खेलने के दिन थे कि अचानक तूफान ने उसकी जिंदगी में दस्तक दे दिया। अब्बू का असमय यू जाना उसके लिए बहुत बड़ी क्षति था। वह सोच रही थी कि अब क्या होगा? जिस उम्र में लड़कियां खेलती हैं, सहेलियों के साथ दुख-सुख बांटती हैं, उस उम्र में साइमा घर की परेशानियों को लेकर निरंतर उदास रहती। उसे यह गम भी अंदर से खाए जा रहा था कि कहीं अम्मी मेरा निकाह ना कर दें। हफीज इस बात से परेशान थी कि किस तरह तीन लड़कियों की परवरिश करेगी। उसने साइमा का दाखिला अनाथालय में कर दिया, बाकी दोनों लड़कियां छोटी थीं तो उन्हें अनाथालय में दाखिला नहीं मिला। हाफिज क्या करती, उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था, उसने अनाथालय के पास ही किराए पर कमरा ले लिया, लोगों के घरों से मांग कर कुछ अनाज लाया और लड़कियों को भी खिलाया और खुद भी खाया। परंतु मांगने से जिंदगी तो बसर नहीं होती?
साइमा ज्यादातर गुमसुम रहने लगी वह किसी से बात नहीं करती थी शायद उसे घर की परेशानी अंदर ही अंदर से कचोट रही थी समय ने उसे जरूरत से ज्यादा ही बड़ा बना दिया था नए बच्चों के साथ रहना बैठना ……..उसे अजीब सा लग रहा था। रोजाना स्कूल जाने लगी देखने में बहुत ही सुंदर थी अध्यापकों को भी उसके साथ बहुत सहानुभूति थी। अनाथालय में आकर स्कूल का सारा काम करती हंसना तो जैसे भूल ही गई थी शायद अंदर से परेशान थी अपनी परेशानी किसको बताती? वे दिन-रात यही सोचती अम्मी का मेरी छोटी बहनों का अब क्या होगा? इसी बीच एक मौलवी हफीज के घर आने जाने लगा। उसकी नजर साइमा पर थी साइयां….
उस दिन अनाथालय से मम्मी के पास आई थी उसने जब मौलवी को देखा तो उसने अम्मी से सवाल किया यह कौन है? यह यह मौलवी साहब है मैं सोच रही थी इससे तुम्हारा निकाह करवा दूं। तुम्हें कैसा लगा लड़का? अभी यह लड़का नहीं है आदमी है? जो भी है मुझे उस से मतलब नहीं है यह तुम्हारी बहनों के लिए जरूरत का सारा सामान लाता है घर का सामान लाता है। यहां तक कि इसने मालिक मकान को किराया भी दिया। बदले में अगर तुम इससे निकाह कर लोगी तो क्या हो जाएगा? कोई पहाड़ तो नहीं टूट जाएगा। आज कल की दुनिया में कौन किस की मदद करता है बदले में क्या मांग रहा है ?बदले तुमसे निकाह ही तो करना चाहता है। मैं इस बूढ़े आदमी से  शादी नहीं करूंगी……. मम्मी ने जोरदार तमाचा साइमा के मुंह पर झाड़ दिया। जो मुंह में आता है बोल देती हो शर्म नाम की तो तुम्हें कोई चीज ही नहीं है। तुम्हें तो बड़े छोटे का लिहाज ही नहीं है क्या यही हमारी परवरिश थी? सिर्फ जुबान चलाती रहती हो। उस रात साइमा बिस्तर में मुंह डालकर रोती रही।
फिर एक पल के लिए सोचने लगी कि चलो अगर मैं शादी कर लेती हूं तो उससेअगर मेरी अम्मी का मेरी बहनों का जीवन सुधर जाता है तो इसमें कौन सी बड़ी बात है। नहीं नहीं मैं ऐसा नहीं कर सकती मैं बलि का बकरा नहीं बन सकती।
हाफिज मौलवी का बड़ा आदर सत्कार करती। मौलवी की तो चांदी थी। दुनिया में मौलवी जैसे पाखंडी जब तक रहेंगे तब तक दुनिया भर का बंटाधार होता रहेगा।
उस मौलवी का मकसद साइमा का यौन शोषण करना था पर इसके लिए दोषी मौलवी क्यों ? क्या हालात कसूरवार नहीं थे ? साइमा की मां कसूरवार नहीं थी ? हाफीज जैसे लोग इन जानवरों को मौका देते हैं.. हाफीज रोज स्कूल जाती और अध्यापकों से कहती साइमा को समझाओ ताकि हमारे घर की स्थिति में सुधार आ सके। यह मौलवी से निकाह करने के लिए नहीं मानती है। अध्यापिका ने उस दिन कह भी दिया कि तुम्हें क्या हो गया है, लड़की अभी बहुत छोटी है।
“मैं क्या करूं मैं मौलवी साहब के एहसानों तले दबी हुई हूं।“
“उसके लिए तुम अपनी लड़की को बलि चढ़ा दोगी?……  तुम उसकी मां हो।“ हाफीज स्कूल से चली गई।
साईंमा  उस दिन मै हालातों के हाथों मजबूर हो गई करती तो क्या करती?……… फैसला कर लिया मौलवी से निकाह करने का.. अपने आप को समर्पित कर दिया और मौलवी से निकाह कर लिया।
अभी भी साइमा की जिंदगी से दुख कम नहीं हुए थे। असली इम्तिहान तो अब शुरू हुआ…… मौलवी को सुंदर  और छोटी सी लड़की मिल गई।
मौलवी की नीयत में खोट था।
निकाह के बाद उस दिन हम अम्मी के घर गए। अच्छे ढंग से खाना खाया।
अचानक मेरी आंख लग गई। जैसे ही मेरी नींद टूटी तो मैंने अम्मी को मौलवी साहब के साथ देखा। मेरे पैरों तले जमीन ही खिसक गई। यही समय था कि मैं बिना रुके, झट वहां से भाग गई। मैं भाग रही थी, घर-परिवार-अम्मी सबसे दूर… या कहूं कि नारकीय जीवन की जकड़न से दूर… मुझे नहीं पता था कि कहाँ जाऊंगी, मगर इतना तो एकदम साफ़ था कि जहां भी जाऊंगी, इससे बेहतर ही दुनिया होगी…।
डॉ. मुक्ति शर्मा
डॉ. मुक्ति शर्मा
संपर्क - 9797780901
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