पत्रिका: वाङ्गमय(त्रैमासिक) 
अंक: अप्रैल-सितंबर 2022 
संपादक: डॉ. एम फ़ीरोज़ अहमद
पृष्ठ: 248 
मूल्य: रु. 175
‘वाङ्गमय’ पत्रिका का अप्रैल-सितंबर 2022 अंक सन् 2014 से 2022 तक की समयावधि में प्रकाशित उपन्यासों पर आधारित समीक्षात्मक आलेखों का प्रस्तुतीकरण करता है। ज्ञातव्य है कि ये सभी उपन्यास आदिवासी विमर्श पर आधारित हैं। ये सभी अट्ठाइस समीक्षात्मक आलेख अट्ठाइस अलग-अलग उपन्यासों को आधार बनाकर लिखे गए हैं। इन सभी उपन्यासों और उन पर आधारित समीक्षात्मक आलेखों में आदिवासी भू-भाग की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक चेतना के साथ-साथ आदिवासियों की सांस्कृतिक चेतना भी स्पष्ट रूप से परिलक्षित की जा सकती है। आदिवासी किसी भी भौगोलिक क्षेत्र के सबसे पुराने निवासी माने जाते हैं।आदिवासी समूहों में रहते हैं। इनके सदस्य सामान्य बोली का प्रयोग करते हैं और युद्ध जैसे सामान्य उद्देश्यों के लिए, शत्रु का सामना करने के लिए, अपनी अस्मिता की रक्षा करने के लिए, तेजी से बढ़ते हुए नगरीकरण से अपने को बचाने के लिए; ये सब साथ मिलकर कार्य करते हैं। इनकी अपनी विशिष्ट भाषा, विशिष्ट 
संस्कृति, विशिष्ट सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक व्यवस्थाएँ और परम्पराएँ होती हैं।आदिवासियों के प्रत्येक समाज में सांस्कृतिक विभिन्नताएँ मिलती हैं। इन विभिन्न व्यवस्थाओं और परम्पराओं के प्रति प्रत्येक आदिवासी की प्रतिबद्धता भी स्पष्ट रूप से होती है। आदिवासी जीवन पर आधारित चाहे उपन्यास हों अथवा कहानियाँ हों, सबमें आदिवासी समुदाय की इन्हीं  व्यवस्थाओं और परम्पराओं की रक्षा के लिए प्रतिबद्धता और प्रतिरोध के चित्र विभिन्न लेखकों द्वारा प्रस्तुत किए गए हैं। आदिवासी समुदायों में विभिन्न प्रकार की जनजातियाँ होती हैं। उनकी अपनी अलग-अलग बोली-भाषा, त्यौहार, रहन-सहन के साथ-साथ उस क्षेत्र विशेष की समस्याएँ भी इन उपन्यासों में सामने आई हैं।
विनोद कुमार के उपन्यास रेड ज़ोन पर डॉ. श्रद्धा सिंह का विचार है कि हिंसक आंदोलन के स्थल के रूप में ही लेखक ने झारखंड को रेड ज़ोन की संज्ञा से अभिहित किया है। ग्रीन ज़ोन का रेड ज़ोन में तब्दील होना, माओ के उद्धरणों के ज़रिए माओ की विचारधारा का निषेध करते माओवादी,समझौते,सहयोग और प्रतिरोध की राजनीति के निहितार्थ,आदिवासियों का विस्थापन जैसे सवालों के ज़वाब प्रस्तुत उपन्यास के माध्यम से प्रो. श्रद्धा सिंह अपने आलेख में ढूँढती हैं। डॉ. शिवचन्द प्रसाद ‘छत्तीस का खेल और बस्तर के आदिवासी’ आलेख में लोकाबाबू के ‘बस्तर बस्तर’ उपन्यास की हिड़मा-इरमा स्त्री पात्रों के जीवन यापन के लिए किए गए संघर्षों को दर्शाते हैं। बस्तर में चलने वाली संघर्षमयी गाथाओं के प्रति डॉ. शिवचन्द प्रसाद मानवता का पहलू सर्वोपरि रखते हैं। अरुणाचल प्रदेश की प्रमुख जनजाति निशी से सम्बंधित जोराम यालाम का उपन्यास ‘जंगली फूल’ प्रसिद्ध पुरखे ‘आबोतानी’ अर्थात तानी वंश के पिता को केंद्र में रखकर अपनी बात कहता है। डॉ. जसविंदर कौर बिंद्रा ने लोक-कथाओं के आलोक में प्रस्तुत उपन्यास  को देखा है। 
राकेश कुमार सिंह के उपन्यास ‘महाअरण्य में गिद्ध’ उपन्यास पर आधारित आलेख में डॉ. रमेश कुमार दर्शाते हैं कि किस तरह बहुराष्ट्रीय कंपनियों और पूँजीवादी उद्योगों ने आदिवासीबहुल क्षेत्रों की जमीनों पर एकाधिकार कर लिया है जिसके कारण एक बड़ी आबादी को समय-समय पर विस्थापित होना पड़ा है। आदिवासी क्षेत्रों में प्रचुर मात्रा में खनिज सम्पदा, वन सम्पदा, प्राकृतिक संसाधन और मानवीय श्रम उपलब्ध हैं लेकिन इनका अंधाधुंध दोहन और विनाश किया जा रहा है। आदिवासी समाज इनके विरुद्ध अनेक जन आंदोलन करते आए हैं और उलगुलान (विद्रोह) का सहारा लेते हैं। कुछ ऐसा ही प्रतिरोध राकेश कुमार सिंह के उपन्यास ‘ऑपरेशन महिषासुर’ पर आधारित आलेख में डॉ. जिन्दर सिंह मुण्डा भी दर्शाते हैं। रणेन्द्र के प्रख्यात् उपन्यास ‘ग्लोबल गांव के देवता’ के बाद असुर जनजाति को केंद्र में रखकर लिखा गया यह दूसरा उपन्यास है जिसमें राकेश कुमार सिंह ने पलामू और रांची के आसपास के क्षेत्रों के माध्यम से पूरे झारखंड एवं संपूर्ण विश्व में प्रकृति एवं अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए संघर्ष कर रहे आदिम जनजाति एवं आदिवासियों की संघर्ष गाथा को दर्शाया है।
सुधा जुगरान ने लेखिका मोर्जुम लोयी के उपन्यास ‘मिनाम’ के माध्यम से गालो जनजाति की आदिवासी स्त्रियों की संघर्ष गाथा पर अपनी कलम चलाई है। वीरेंद्र सारंग का उपन्यास ‘आर्यगाथा’ देवों और राक्षसों को मानवीय धरातल पर लाकर खड़ा करता है और उन्हें लौकिक मानव के रूप में प्रतिष्ठित करता है। डॉ. प्रज्ञा गुप्ता का निष्कर्ष उल्लेखनीय है,“इस उपन्यास में वीरेंद्र सारंग ने आर्य-अनार्य जातियों की संस्कृति की व्याख्या करते हुए कई मिथकों का उल्लेख किया है। साथ ही अपनी वैज्ञानिक दृष्टि प्रस्तुत की है। राक्षसों के सींग नहीं होते थे बल्कि ये राक्षस मूलवासी आदिवासी थे जिनके पास अपना एक समृद्ध कर्म कौशल था। साथ ही पूरे भारत में जितनी भी अनार्य जातियाँ रही हैं, सभी अपने कर्म में भरोसा करती थीं।” लेखिका ने आदिवासी जातियों को आरंभिक काल से ही कर्मरत दर्शाया है जो आदिवासी विमर्श को एक नया आयाम देता है। इसी क्रम में शंकर लाल मीणा के उपन्यास ‘मानव अभयारण्यों में स्त्री आखेट’ पर डॉ. कुलभूषण मौर्य ने पौराणिक आख्यानों के छद्म से वर्तमान व्यवस्था पर व्यंग्यपरक दृष्टिकोण से प्रकाश डाला है।
पत्रिका के प्रस्तुत अंक में कुछ ऐसी कृतियों पर भी आलोचनात्मक दृष्टि डाली गई है जो आदिवासी विमर्श की ऐतिहासिकता पर प्रकाश डालती हैं। उल्लेखनीय है कि आदिवासी संघर्ष की शौर्यगाथा तो सदियों पुरानी है परंतु इतिहास में इनकी किसी भी वीरता का वर्णन आसानी से नहीं मिलता। आदिवासियों का संघर्ष चाहे अपनी जड़ को बचाने के लिए हो, चाहे अपनी जमीन को बचाने के लिए हो; इतिहासकारों ने सामान्यतः उनके इन संघर्षों पर बहुत अधिक ध्यान नहीं दिया। भारत के स्वाधीनता संग्राम में भी आदिवासी अंचल का योगदान कम नहीं है परंतु बहुत अफ़सोस की बात है कि यह अभी तक अंजाना और अनचीन्हा ही रहा है। डॉ. प्रीति सिंह का आलेख राजीव रंजन प्रसाद की पुस्तक ‘बस्तर 1857’ पर आधारित है जिसमें अंग्रेजों के विरुद्ध बस्तर क्षेत्र के आदिवासियों द्वारा किए गए सन् 1857 के विद्रोह का क्रमवार विवरण प्रस्तुत किया गया है। सुभाष चंद्र कुशवाहा की पुस्तक ‘टंट्या भील’ (द ग्रेट इंडियन मूनलाइटर) में सन् 1842 में बिराड़ा नामक ग्राम में जन्मे प्रख्यात् भील आदिवासी योद्धा टंट्या का विवरण मिलता है। अपने आलेख ‘जब जबलपुर का न्यायालय भील लड़ाकों से घिर गया था’ में जनार्दन ने टंट्या भील की वीरता से सम्बंधित कई महत्त्वपूर्ण जानकारियाँ दी हैं।
प्रवीण दुबे के उपन्यास ‘मैं तुम्हारी कोशी’ को डॉ. भगवान गव्हाडे कहानी-उपन्यास के साथ-साथ जीवनी, साक्षात्कार, आत्मकथा, इतिहास  और एक पत्रकार की खोजी नज़र पर आधारित कृति स्वीकार करते हैं। डॉ. विजेंद्र प्रताप सिंह ने श्रीप्रकाश मिश्र के वृहदाकार उपन्यास ‘नदी की टूट रही देह की आवाज़’ पर आधारित आलेख में बहिरागातों की समस्या, धरती और जमीन पर कब्जे की समस्या, जाति विभाजन, धर्म परिवर्तन की समस्या, सांस्कृतिक दबावों की समस्या, सामाजिक एवं राजनीतिक विसंगतियाँ, पहचान और अस्मिता का संकट, जीवन और जिजीविषा आदि को गहराई से इंगित किया है। साथ ही जंगली पशुओं का आतंक, न्यायालय और न्याय की पहचान का संकट, धार्मिक रीति-रिवाज़, विद्रोह एवं दमन जैसी बातों को भी उठाया है। झारखंड के पलामू क्षेत्र के हाशिए के समाज पर केंद्रित राकेश कुमार सिंह के उपन्यास ‘ठहरिए! आगे जंगल है’ पर आधारित आलेख में डॉ. भरत ने प्राकृतिक सम्पदा का दोहन, स्त्री की सामाजिक स्थिति के साथ-साथ प्रेम तत्त्व को भी व्याख्यायित किया है। प्रोफेसर अनुसुइया अग्रवाल संजीव बख्शी के उपन्यास ‘भूलनकांदा’ में आदिवासी और किसानों के संघर्षों तथा सुनहले सपनों की यथार्थ झलक देखती हैं। ‘प्रार्थना में पहाड़’, ‘आदिवासी बेड़ियाँ’, ‘गायब होता देश’,‘मताई’, ‘लोकतंत्र के पहरुए’,‘माटी-माटी अरकाटी’,‘काले अध्याय’, ‘आठवाँ रंग@पहाड़ गाथा’, ‘पुरवाई’ उपन्यासों पर आधारित आलेख भी विश्लेषणपरक और उपयोगी हैं। पत्रिका के खंड दो में रोहिणी अग्रवाल की आलोचना परम्परा, नारी अस्मिता और बेजगह कविता, जयशंकर प्रसाद और उनका काव्यानुशीलन जैसे आलेख महत्त्वपूर्ण हैं।
इन आलेखों में हम आदिवासी जीवन के चित्र बहुतायत से और बहुत करीब से देखते हैं। नक्सलवाद, अपराधीकरण, गरीब और निरीह आदिवासियों का शोषण, नये-नये एन.जी.ओ. का आना और सेवा के नाम पर क्षेत्र में उपलब्ध संसाधनों की अंधी लूट आदि का चित्रण प्रत्येक उपन्यास में देखा जा सकता है। आदिवासियों का मोह अपनी भाषा, अपनी जनजातीय संस्कृति, अपनी ज़मीन और अपने रहन-सहन के प्रति सदैव रहा है। बहिरागतों के आने से वे भयभीत रहते हैं और अपनी पुरातन संस्कृति के सुव्यवस्थित साम्राज्य को और अधिक सुगठित रूप से संवारने का उपक्रम करते हैं।अपनी संस्कृति को संवारने और संभालने के इन्हीं उपक्रमों और बाहरी उपनिवेशवादी और वर्चस्ववादी शक्तियों के टकराहट से अनेक ऐसी जानी-अनजानी घटनाएँ जन्म लेती हैं जो आदिवासी विमर्श का मार्ग प्रशस्त करती हैं। हिंदी साहित्य में इन्हीं घटनाओं को आधार बनाकर कथा साहित्य ने नवीन दिशाएँ प्राप्त की हैं। ‘वाङ्गमय’ पत्रिका ने इससे पूर्व किन्नर विमर्श, वृद्ध विमर्श,विकलांग विमर्श पर आधारित विशेषांकों के साथ-साथ आदिवासी कहानियों पर आधारित विशेषांक भी प्रकाशित किए हैं। आदिवासी उपन्यासों पर आधारित प्रस्तुत विशेषांक भी इसी क्रम में पाठकों और शोधार्थियों के लिए अत्यधिक उपयोगी है। पत्रिका का मुखपृष्ठ आदिवासी संस्कृति का बहुआयामी चित्र प्रस्तुत करता है। पत्रिका के संपादक डॉ. एम. फ़ीरोज़ अहमद की संपादकीय दृष्टि और परिश्रम प्रस्तुत विशेषांक में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।हाल के समय में आदिवासी उपन्यासों पर केन्द्रित इतने सारे मूल्यपरक समीक्षात्मक आलेख किसी भी पत्रिका के विशेषांक में शायद ही देखने को मिले हैं। ये आलेख ‘वाङ्गमय’ पत्रिका के इस अंक की विशिष्टता को स्वयं ही परिभाषित कर देते हैं।
डॉ. नितिन सेठी 
सी-231,शाहदाना कॉलोनी 
बरेली (243005)
 मो. 9027422306

65 टिप्पणी

  1. आदिवासी उपन्यासों पर केंद्रित वाङ्गमय का यह अंक बहुत ही उपयोगी तथा शोध छात्रों के लिए बहुत मूल्यवान है।किसी विशेषांक का विषय केन्द्रित होना उसकी गुणवत्ता का स्वयं प्रमाण है।संपादक को बहुत-बहुत बधाई।

  2. हिदी साहित्य जगत के लिए वाङ्गमय पत्रिका का यह अंक बहुत ही महत्वपूर्ण उपलब्धि है। सम्पादक महोदय को बहुत- बहुत बधाई…

      • वांग्मय पत्रिका अनछुए पहलुओं को जन-जन तक पहुंचाने का एक अच्छा माध्यम है और आदिवासी विमर्श को समझने के लिए यह एक श्रेयस्कर लेख है|

  3. शानदार। डॉ फिरोज़ अहमद हिंदी में हाशिया के विषय पर बहुत शानदार काम कर रहे हैं। उन्हें बधाई।

  4. शानदार। डॉ फिरोज़ लगातार हाशिया के विषय लेकर महत्त्वपूर्ण काम करते रहते हैं। उन्हें बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं।

  5. ये एक सार्थक और उपयोगी अंक है, इसे हर पुस्तकालय में अवश्य रखा जाना चाहिए। संपादक की समझ और विषय की मांग इसे और भी लाभान्वित बनाती है।

  6. वांग्मय का आदिवासी उपन्यासों पर केंद्रित यह विशेषांक बहुत ही अच्छा बन पड़ा है। संपादक डाॅ. फ़िरोज अहमद जी की व लेखकों की अतुलनीय मेहनत इसमें दिखाई देती है। डाॅ. नितिन सेठी जी की समीक्षा ने विशेषांक को और भी निखार कर सामने ला दिया। शोध छात्रों के लिए यह विशेषांक बेहद उपयोगी है। एक साथ अनेक पुस्तकों व अनेक स्थलों के आदिवासियों के बारे में जानकारी मिलना संभव नहीं रहता है। यह वांग्मय पत्रिका का अद्भुत प्रयास है। संपादक जी को हार्दिक बधाई।

  7. यह अंक उपयोगी ही नहीं बल्कि सार्थक है। हर पुस्तकालय में इस अंक को रखना चाहिए आने वाले समय के लिए यह दिशा निर्देश देने के साथ सामग्री उपलब्ध कराएगा संपादक की सोच समझ और विषय की सार्थकता और उपयोगिता काबिले तारीफ है।

  8. यह अंक उपयोगी, सार्थक है। संपादक में इसमें भरपूर प्रयास किया हे कि अंक में उपयोगी सामग्री आए और वास्तव में यह कार्य सिद्ध कर दिखाया है।

  9. वांग्मय का आदिवासी उपन्यासों पर केंद्रित यह अंक बहुत ही सुंदर है ।संपादक डॉ . फिरोज अहमद और लेखकों की मेहनत इस अंक में स्पष्ट दिखाई देती है ।डॉ. नितिन सेठी जी ने इस अंक की बहुत ही सुंदर समीक्षा की है ।इस समीक्षा को पढ़कर इस अंक की समृद्धि का अंदाजा हो जाता है। अच्छी समीक्षा के लिए उन्हें बहुत-बहुत बधाई ।साथ ही इस अच्छे अंक के लिए वांग्मय के संपादक महोदय को भी हार्दिक बधाई।

  10. वाङमय पत्रिका ने स्थापित और उभरते अस्मितावादी विमर्शों को सामान्य पाठक तक पहुँचाकर एक आवश्यक कार्य का संपादन किया है।आदिवासी संदर्भ के लेखन को मुख्य धारा मे लाने का परिश्रमसाध्य कार्य फिरोज जी ने किया है।इस बहाने से हिन्दी मे रचित न केवल आदिवासी विमर्श के कथा साहित्य वरन् विकलांग, वृद्ध और प्रवासी तथा किन्नर विमर्श के कथा साहित्य का सम्यक मूल्यांकन भी संभव किया गया है।इस तरह वाङमय हिन्दी के प्राध्यापकों, शोधार्थियों के साथ रुचिधर्मी पाठकों के लिए एक आवश्यक पत्रिका बन गयी है।संपादक और उनकी टीम के साथ नितिन सेठी जैसे समीक्षक इस कारवाँ को अग्रसर कर रहे हैं।मेरी शुभकामनाएं तो साथ रही ही हैं।

  11. वाङमय, अब अधुनातन विमर्शों को अभिव्यक्त करने वाली एक आवश्यक पत्रिका है।

  12. वर्तमान विमर्शों के दौर में वांग्मय पत्रिका निरन्तर अपनी सक्रिय भागीदारी उपस्थित कराती है । साहित्य की नई दखल में हमेशा यह अग्रणी रही है । डॉ फिरोज अहमद नई दृष्टि से सम्पन्न युवा संपादक हैं, जो न केवल अपनी सामाजिक और साहित्यिक प्रतिबद्धताओं के प्रति जागरूक हैं बल्कि वह इसमें अपनी भूमिका भी जानते और समझते हैं । हमेशा की तरह पत्रिका का अप्रैल-सितंबर 2022 अंक अध्येताओं/शोधार्थियों के लिए बहुत सहायक है । सम्पादक और उनकी पत्रिका को शुभकामनाएं ।

  13. वर्तमान विमर्शों के दौर में वांग्मय पत्रिका निरन्तर अपनी सक्रिय भागीदारी उपस्थित कराती है । साहित्य की नई दखल में हमेशा यह अग्रणी रही है । डॉ फिरोज अहमद नई दृष्टि से सम्पन्न युवा संपादक हैं, जो न केवल अपनी सामाजिक और साहित्यिक प्रतिबद्धताओं के प्रति जागरूक हैं बल्कि वह इसमें अपनी भूमिका भी जानते और समझते हैं । हमेशा की तरह पत्रिका का अप्रैल-सितंबर 2022 अंक अध्येताओं/शोधार्थियों के लिए बहुत सहायक है । सम्पादक और उनकी पत्रिका को शुभकामनाएं

  14. प्रायः नए विमर्शों और मुद्दों को लेकर गंभीर और विचारपूर्ण प्रस्तुतियों के साथ हिंदी साहित्य जगत में एक नई पहचान बनाने वाली पत्रिका ‘वाङ्गमय’ अपने-आप में संपूर्ण ‘वाङ्गमय’ ही है। हालिया आदिवासी उपन्यासों पर केंद्रित यह अंक वह टॉर्चलाइट है जो आदिवासी उपन्यासों के रहस्यों पर पड़े पर्दे को हटाकर उसे शानदार रूप से प्रकाशवान बना रहा है।
    संपादक डॉ. एम. फिरोज की सुचिंतित सोच का ही प्रतिफलन है कि हिंदी साहित्य के पाठकों को पत्रिका के नए अंक का हमेशा इंतजार रहता है।
    धन्यवाद संपादक जी को और पत्रिका की पूरी टीम को।

  15. आपने बहुत उचित समीक्षा की है। आदिवासी उपन्यासों पर केंद्रित यह अंक बहुत शानदार है एवं साहित्य के अध्येताओं और शोधार्थियों के लिए बहुत उपयोगी है। डॉ फिरोज वांग्मय और अनुसंधान के माध्यम से समकालीन विमर्शों पर बहुत महत्त्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं। उनके द्वारा आजकल किन्नर विमर्श, वृद्ध विमर्श और आदिवासी विमर्श पर जो कार्य हो रहा है वह हिंदी साहित्य के अकादमिक जगत की महत्त्वपूर्ण उपलब्द्धि है। उन्हें हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं

  16. आदिवासी वर्ग की राजनैतिक-सामाजिक समस्याओं को लेकर प्रस्तुत अंक अति प्रासंगिक व सारगर्भित दृष्टिगोचर है। इसके सफलतम कार्य के लिये संपादक डॉ. फिरोज सर को हार्दिक बधाई।

  17. वाङ्मय पत्रिका हिन्दी साहित्य के समकाल में महत्त्वपूर्ण दख़ल देकर शोधपरक दृष्टि विकसित करने का प्रयास अनुसंधान कर्ताओं में कर रही है साथ ही यह दस्तावेज़ीकरण का भी महत्वपूर्ण प्रयास है । आदिवाली कथा आलोचना पर केंद्रित यह अंक भी संग्रहणीय और ज़रूरी है ।

    संपादकीय श्रम और समर्पण के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करती हूँ ।

  18. आदिवासी समाज और संस्कृति को अत्यंत गहराई से समझने और उनके दर्द के मर्म को अनुभूत कराने वाला यह अंक अपने व्यापक रूप मे अत्यंत विशिष्ट है, और इस सन्दर्भ मे हमारे गुरुवर डॉ. फिरोज खान सर का योगदान अतुलनीय है, उनके कार्य और व्यक्तित्व की जितना भी प्रशंसा की जाय कम है, उनके लेखनी के कारण आज विभिन्न विमर्श लोगों के बीच अपनी पूरी जीवंतता के उपस्थित हो रहा है, सर को बहुत बहुत धन्यवाद

  19. बहुत बहुत बधाई आदिवास अंक अपने आप मे एक आईना है उस समाज को गहराई से अवलोकन करने का

  20. समाज के विभिन्न हाशिए के लोगों को केंद्र में लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के विषय में सर का योगदान महत्वपूर्ण है और कभी न बुलाने वाला है। सर हमेशा उसके लिए याद किए जाएंगे। उसी दिशा में वांग्मय पत्रिका का यह महत्वपूर्ण कदम है जो समाज के एक महत्वपूर्ण वर्ग के यथार्थ को हमारे सामने रखता है।

  21. सर ने हमेशा वांग्मय के माध्यम से हाशिए के वर्गों को समाज की मुख्यधारा में लाने के लिए अथक प्रयास किया है और उनका यह प्रयास लगातार जारी है इस संदर्भ में आदिवासी समाज पर वांग्मय के इस अंक को देख और समझ सकते हैं सर का यह प्रयास हमेशा याद रखा जाएगा।

  22. नए विमर्शों और मुद्दों के दौर में वांग्मय पत्रिका अपनी एक मुकबल वजूद रखती है। साहित्य को नई सोच और दिशा देने में डॉक्टर फिरोज अहमद युवा संपादक एवं उनके सहयोगियों ने सामाजिक और साहित्यिक प्रतिबद्धताओं के प्रति अपनी भूमिका निभाते हुए उन्हें प्रतिफलित करने एवं जागरुक कराने में अपनी अहम योगदान दिया है तथा या प्रस्तुत अंक शोधार्थियों एवं पाठकों के लिए ज्ञानवर्धक है। आगामी अंक के लिए संपादक और उनकी पत्रिका को शुभकामनाएं।

  23. नए विमर्शों और मुद्दों के दौर में वांग्मय पत्रिका अपनी एक मुकबल वजूद रखती है। साहित्य को नई सोच और दिशा देने में डॉक्टर फिरोज अहमद युवा संपादक एवं उनके सहयोगियों ने सामाजिक और साहित्यिक प्रतिबद्धताओं के प्रति अपनी भूमिका निभाते हुए उन्हें प्रतिफलित करने एवं जागरुक कराने में अपनी अहम योगदान दिया है ।प्रस्तुत अंक शोधार्थियों एवं पाठकों के लिए ज्ञानवर है । आगामी अंक के लिए संपादक और उनकी पत्रिका को शुभकामनाएं।

  24. नए विमर्शों और मुद्दों के दौर में वांग्मय पत्रिका अपनी एक मुकबल वजूद रखती है। साहित्य को नई सोच और दिशा देने में डॉक्टर फिरोज अहमद युवा संपादक एवं उनके सहयोगियों ने सामाजिक और साहित्यिक प्रतिबद्धताओं के प्रति अपनी भूमिका निभाते हुए उन्हें प्रतिफलित करने एवं जागरुक कराने में अपनी अहम योगदान दिया है ।प्रस्तुतअंक शोधार्थियों एवं पाठकों के लिए ज्ञानवर्धक है। आगामी अंक के लिए संपादक और उनकी पत्रिका को शुभकामनाएं।

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  26. वांङ्मय पत्रिका का आदिवासी उपन्यासों की समीक्षा पर आधारित यह अंक पाठकगण एवं शोधकर्ताओं के लिए अत्यंत उपयोगी सिद्ध होगा।इस अंक में संकलित प्रत्येक समीक्षा प्रासंगिक व सारगर्भित रूप में प्रस्तुत की गई है। वांङ् मय पत्रिका के संपादक महोदय को बहुत बहुत बधाई।

  27. वाङ्गमय का आदिवासी कथा विशेषांक बहुत ही पठनीय और संग्रहणीय अंक है। इस अंक के लिए डॉ . फ़ीरोज़ सर को बहुत-बहुत धन्यवाद……

  28. वांङ्मय पत्रिका का आदिवासी उपन्यासों की समीक्षा पर आधारित यह अंक पाठकगण एवं शोधकर्ताओं के लिए अत्यंत उपयोगी सिद्ध होगा।इस अंक में संकलित प्रत्येक समीक्षा प्रासंगिक व सारगर्भित रूप में प्रस्तुत की गई है। वांङ् मय पत्रिका के संपादक महोदय को आदिवासी विमर्श अंक हेतु बहुत बहुत बधाई।

  29. नए विमर्शों और मुद्दों के दौर में वांग्मय पत्रिका अपनी एक मुकबल वजूद रखती है। साहित्य को नई सोच और दिशा देने में डॉक्टर फिरोज अहमद युवा संपादक एवं उनके सहयोगियों ने सामाजिक और साहित्यिक प्रतिबद्धताओं के प्रति अपनी भूमिका निभाते हुए उन्हें प्रतिफलित करने एवं जागरुक कराने में अपनी अहम योगदान दिया है ।प्रस्तुत अंक शोधार्थियों एवं पाठकों के लिए ज्ञानवर्धक है। आगामी अंक के लिए संपादक और उनकी पत्रिका को शुभकामनाएं।

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