थककर चूर हो गए भाटे वकील आज/ शरीर की थकान के तो वे कब के आदी हो गए थे| सुबह से शाम तक कोर्ट के चक्कर/ कई बार तो उस बड़े से पीपल के नीचे, चबूतरे पर सब ऐसे आ जुटते कि उनके काले कोटों की आवाजें ऊपर पेड़ पर बसी काली कांव-कांव से एकसार हो जाती| फिर वहीं से शुरू होता ‘क्लायेंट’ बटोरने का सिलसिला| ‘कट’ चाय के दौर कोर्ट के अंदर दौड़ते, बाहर आते चलते रहते तो कभी कोई तरह-तरह के बिस्कुट भी मुहैया करा देता| चाय को नरम करके खाने में बिस्कुट की मिठास तो दुगनी हो ही जाती पतली चाय भी गले टुकड़ों से एकसार हो जरा गाढ़ी हो आती| घर में भले ही गरमा-गरम पोहे-जलेबी उनकी जान थे पर बाहर तो ब्रेड-बिस्किट, पेस्ट्री को उन्होंने अपनी शान बना रखा था| मेहनत से आंख चुराना उन्होंने नहीं जाना था| इसलिए आज भी शरीर की थकान से नहीं मन की टूटन से निढाल हो गए वे| इकलौती बहन थी नलिनी उनकी| उसी के विवाह इंतजाम में वे ऐसे जुटे थे कि पिछले कुछेक महीनों से खुद को ही बिसरा बैठे| ठोंक-बजा निरखने-परखने में कई योग्य लड़के वे गवां गए थे| ज्यूं-ज्यूं नलू की शिक्षा बढ़ती गई योग्य लड़कों की संख्या घटती चली गई| ये रिश्ता कुछेक महीने पहले ही आया था|
सुमंत ने गौरवर्ण, सुदर्शन चेहरा अपनी मां से पाया था| ऊपर से चरित्र की सतेज दीप्ति से उसके व्यक्तित्व की गरिमा देखते बनते थी| महू के पास ही एक छोटे से गांव में पंडिताई का पुश्तैनी धंधा था उनका| परिवार की सहजता से प्रभावित हो भाटे वकील तुरंत बात पक्की कर बैठे थे| इस बार उन्होंने खुदको भी सोचने का अवसर नहीं दिया| घर में विधवा मामी और पत्नी तो यूं भी उनके प्रत्येक निर्णय के समक्ष नतमस्तक रहती| नलू उनके हर आदेश को समर्पित|
नार्मदीय समाज में जीने का श्रेष्ठ लाभ यह था कि नगद के साथ बेटी भी खरीद ले जाने वाले अभी समाज में कम ही पनपे थे| फिर भी नलू की सुविधा को ध्यान में रखकर उन्होंने काफी-कुछ उसे सहेज दिया था| आश्चर्य यह कि विवाह कर उनका बोझ तो हल्का हुआ नहीं ऊपर से मन अवश्य भारी हो गया|
पत्नी से बोले – ‘मख एकहज बात को दुख छे| छोरी मं कई कमी नहीं पण अच्छी खासी शहर की छोरी ख गांव म याव करी दियो| उप्पर सी उनको अपणो कंई खुदको धंधो तो हेई नी| पतो नी कसी काई नादंग|
सांत्वना मांइ से मिली थी – तून कंई कसर नहीं छोड़ी बेटा| बइण का याव म तूने बाप को फरज निभायो| भगवान सब अच्छाऽज करेगा|
नलिनी ने संभ्रांत परिवार से कुछ ऐसे संस्कार पाए थे कि गांव में भी वह ऐसी रची- बसी कि मानो उसकी सारी शिक्षा-दीक्षा सार्थक हो गई| जीजी-बाउजी की गुहार-पुकार के बीच वो ऐसी छमाछम होती कि दिन से रात बन जाती| नवेली बहू से चौका छुलाने की रस्म उसने यत्न से निभाई थी| मायके की लाडली नलू को घर के काज से एकदम मुक्त नहीं रखा गया था| भाई-भाभी के लाड़ पर इठलाती नलू को मांई अक्सर झिड़कती –
‘ओ छोरी सासराज मं इ थारा लम्मक-झम्मक नी चलनऽ का| चल आज तूऽज पोताया बणा न सब न ख खबाण|’
नलू के लिए दूसरी कोई भी सब्जी बनाना जितना आसान होता अंबाडी की भाजी के लिए खिली-खिली तुअर सिजाना उतना ही कठिन|
श्वसुर ग्रह में वह इंतजार करती रही कि जीजी अब उसे भाजी बनाने कहेगी, तब कहेगी पर यहां तो शादी के बाद से दोनों समय किसी न किसी के घर खाना खाने का सिलसिला जो चला तो महीना यूं ही बीत गया| नए जोड़े को जिमाने की लगता है सबने होड़ की थी| नलू ससुराल की व्यवहार कुशलता पर मुग्ध हो आई|
आज रात खऽ….. घर मऽ जीमांगा| सास के कहते ही नलू ने चहक कर पूछा – काई-काई बणाई लेऊं? अपने हाथ का बना ग्रास खिलाने को वह तरस गई थी| अच्छा खिला-पिला कर ही तो पति को खुश करते हैं, मांई ने यही बताया था| घर के पुरुष तृप्त हो हाथ मुंह धो ही रहे थे कि चौपाल का लाउड-स्पीकर बज उठा| नलू को आश्चर्य हुआ बोली – ‘जीजी इत्ती रात ख कूण गावणों बजई रयोज?’
गावणऽ नी बेटा ई इना गांव की रीतहेज छे, जब कोई का यहां कोई मरी जायज तवं गांव भर मां असीऽज खबर देऽज| इनज भोंगा पर असो भजन बजयो नी की समझो कोई खुटी गयो| सवेरे ग्यारह बजे को टेम ‘नक्की छे| सबऽज उत्ती बखत इकट्ठा हुई ना, किरया-करम करी ना काम पर निकड़ई जायज| सास ने बताया|
पूरे तेरह दिन तक खाना नहीं बनाना पड़ेगा जेठानी के चेहरे पर इसका संतोष उभर आया| घर के काम उन्हें पसंद ना थे|
नलू उदास हो आई| तो पूराहिताई का प्रताप था वह जो उनके यहां चूल्हा तपता ना था| शादी-ब्याह, पूजा-उजार तो ठीक पर ये मौत का खाना तो उसके मायके में खाया नहीं जाता था|
श्वसुर का दबंग व्यक्तित्व सारे गांव पर रौब रखता था| नलू की क्या मजाल जो उनके सामने ना-नुकर करती| श्वसुर थे कट्टर हिंदू| पूरे गांव में किसी मुसलमान को नहीं बसने देने में उनका प्रथम हाथ था| नलू को आश्चर्य होता| भाई के यहां तो बाल-बलाई, हरिजन, मुसलमान सभी का निधड़क आना-जाना था| बल्कि उनके प्रिय मित्रों में ही था बच्चू चाचा का नाम| इसी से उसकी पक्की सहेली बन गई थी सुहेला| एक दूसरे के ओटलों पर हंसते-बतियाते धर्म के प्रश्न चिन्ह कभी ऊगे ही नहीं|
सारे सुख-भोग, स्नेह प्रेम के बीच एक कसक बनने लगी| जब भी मौत के घर से जीमने का बुलावा आता नलू की आतें अकड़ा जाती| ये ही अकड़न पहले हाथ-पांव और फिर जबान में ऐसी फंसी कि उसने कई-कई वैद्य, हकीमों के चक्कर लगवा दिए|
पति भी उसकी पीड़ा न समझते – अब थारा अकेला का लेणा खाणो रांधयो जाएगा काई? फिरी गांव वाला काई कएगा? छोरी पढ़ेल-लिखेल छे एकाइज लेणा नखरो करी रईज|
भाई की हिम्मत के बूते पर उसने अपनी मेहनत से जो अंक अर्जित किए थे वे क्या यूं ही निस्सार होंगे? रोग बढ़ता गया|
……………………
श्वसुर गृह में चाय पानी, दूध ही नियमित आंच पर चढ़ता था लोहे की बड़ी सी बाल्टी में दरवाजा बनाकर ऊपर लोहे के सरियों की टोपी पहनी पीली मिट्टी से रंगी पुती सिगड़ी ही इतने काज के लिए काफी होती| कोयले तो नाम को पड़ते| अल्मारी में भरे पड़े नारियल ही उसे आंच पकड़ने का दायित्व निभाते| जैसे-जैसे नारियल सुलगते जाते उनकी धीमी, गीली महक से नलू को नशा सा होने लगता|
कभी अत्यंत प्रिय रही इसी महक से आजकल उसका जी उबकाने लगा था| शुभ आगमन की सूचना ने रोज-रोज के बाहर के खाने से राहत दिलाई तो नलू का सौंदर्य बढ़ आया|
पहला बच्चा मायके में होगा यही तय हुआ| ससुराल के ठुंसे-पड़े मेवा मिष्ठान समेटे वह तांगे से आती दिखी तो भाई-भाभी ने उसे आंखों में उतार लिया| शहर आते ही मांई ने ढंग-ढंग से नलू की नजर उतारी| आज बहुत दिनों बाद अपना मनपसंद परोसा देखकर उसकी आंखें छलछला आई|
घर आते-जाते प्रत्येक व्यक्ति से नलू की ससुराल की प्रशंसा करना मांई का दैनिक नियम हो गया था|
‘एका घर मं तो कपड़ा न से आल्मारी न भरेल छे|
कपड़ों-लत्तों इननो न को खरीदनों नई पड़तो| बड़ा भाग से असा घर मिलऽज| चूल्हा चौका को झंझट नई| घर में राणी जसी रहज|
भाई के कान में पड़ते ये शब्द मानो शंक फूंक जाते| कौन उन्हें बताता कि वह तो तरस गई थी अपनी पसंद का पहनने को| अपने मन का खाने को| बनाने को| मांई तो विवाह पूर्व ही डपटा चुकी थी – औरत जात ज्यादा सोचणों समझणों को काई काम? 
जिस दिन नलू ने स्वस्थ बालक को जन्म दिया उस दिन भाटे वकील जीवन में पहली बार अपने भाग्य पर इठला गए|
ससुराल आते ना आते नलू की ऐंठन फिर उभरने लगी थी| अब उस पर ध्यान देता भी कौन? सारा ध्यान तो सव्यसाची ने अपने पर एकत्र कर लिया था| यही नाम रखा गया था उसके बेटे का|
तन की शिथिलता धीरे-धीरे मन की विरक्ति का कारण बनने लगी| छोटी सी टापरे वाली दुकान का छोरा यह जान कि उसे नई-नई पुस्तकें भाती है जब कभी शहर से नई किताबों की खेप लाता, उसे जरूर पकड़ा जाता| आजकल वह उधर नजर भी नहीं करती है| अपना अधिक समय अब वह पूजाघर में बिताने लगी है| मन तरल हो बह जाना चाहता है, तो दिमाग कहता है यह पलायन है|
इन्हीं दिनों गुरुदेव के गांव में पधारने का समाचार आया| उनका आतिथ्य आया था इसी परिवार के जिम्मे| श्वसुर ने सबको चेताया वे मामूली इंसान नहीं है| कई वर्षों की तप-साधना से अर्जित की है शक्तियां उन्होंने बारह वर्षों तक सिर्फ बेल पत्ती पर आश्रित रहे हैं वे| शिक्षा को भी साधा है उन्होंने समाज में आए बदलाव को देखते हुए इक्कीस हज़ार बच्चों को सुसंस्कृत करने का, संस्कार देने का बीड़ा उठाया है उन्होंने| उनकी आंख पड़ी तो हम सबके भी भाग जगेंगे|
पोंगापंथी, चमत्कारियों के कितने ही किस्से पढ़े सुने थे नलू ने| उसकी शिक्षा फन उठाने लगी|
सुमंत ने नलिनी के व्यवहार में आते जा रहे परिवर्तन को जान, अल सुबह गुरुदेव पूजाघर में चले आए थे| नलू की आंखों के प्रश्न, मन की पीड़ा समझ वे मोम हो गए| सिद्ध पुरुष थे| साधारण मनुष्य को साधना वे जानते थे|
ध्यान लगाकर बोले – नलिनी इस समय तुम मेरे सामने शरीर रूप में नहीं एक आकार ली हुई उजली रेखा मात्र हो| निश्चित ही पूर्व जन्म में तुम साधकों के परिवार में थी| तुम मेरी गुरुबहन तो नहीं? मानो खुद से ही प्रश्न कर बैठे वे|
नलिनी आज वर्षों बाद अपने अस्तित्व के प्रति सचेत हुई| गुरुदेव मानते हैं कि साधक परिवार प्रत्येक जन्म में साधक रूप ही प्राप्त करते हैं| ईश्वर की आराधना के माध्यम से सत्मार्ग को प्रशस्त करने के उनके कर्तव्य में जरा भी ढील हुई नहीं कि व्यक्ति संसारियों के यहां जन्म ले लेता है| नलिनी के व्यक्तित्व की ईमानदारी और आंखों की दीप्ति से प्रभावित हुए हैं वे| उसकी चिंताएं उनकी अपनी समस्याएं हैं| उसका सोच, उसकी उपस्थिति उन्हें सजग रखते हैं| इसीसे उससे मिलने पर पूर्वजन्म के किसी बंधन का एहसास बार-बार जागता है|
इन दिनों गुरुदेव दिन-रात भीड़ से घिरे रहते हैं| गांव-गांव से आए लोगों से बात करते वे अचानक किसी भी मनपसंद कोई चीज हवा में से निकाल देते तो लोग अश-अश कर उठते| कभी वे असाध्य रोग को साधने का मंत्र रोगी के कानों में उच्चार देते तो कभी किसी शंकालू को स्वयं में उसी के आराध्य का रूप दिखा देते| नलिनी उनसे एकांत में कहती – ‘गुरु भाई आप इतना कुछ जानते हैं तो देश में कहीं सूखा, कहीं बाढ़ क्यों? सभी की मांग पूरी क्यों नहीं करते?
गुरुदेव कहते, व्यक्ति अपने ऊर्जा स्तर को ताप-जप से जितना साध लेता है उतना ही वो पराशक्तियों के करीब पहुंचकर स्वयं में ईश्वरीय शक्तियों का आव्हान कर पाता है| सकारात्मक भाव से कार्यरूपित शक्तियों से साधक का ही नहीं, साधारण व्यक्ति का भी भला होता है| साधारण जन अपने कर्म अपने ऊर्जास्तर के अनुपात में ही लाभ पाते हैं| जिनके पास उनके सत्कर्मों का खाता नहीं वे इस लाभ से वंचित रहते हैं|
आजकल नलिनी आधी-आधी रात कुछ खोई कुछ सोई सी बैठी रहती है| पति का स्नेह उसके प्रति चिंता जगाता है| गुरुदेव वापस जा चुके हैं| किससे उपचार मांगे? सुमंत देख रहा है| इधर वह कुछ बड़बड़ाने सी लगी है| कभी मां दुर्गा का सा रूप धरती आंखें फैला देती है| तो कभी दीवार पर उभर आए नीले धब्बों में से कभी राम तो कभी कृष्ण को ढ़ूढ़ निकालती है कभी-कभी तो तेज झटके खाते हुए अचेत हो जाती है| सुमंत ने विवाह पश्चात से ही महसूस किया सब सुख होते भी नलू कुछ खोई-खोई ही रही| बाजार हाट वह उसे भले ही ना ले जा पाया हो पर दूसरी कोई कमी ना की| ताजी हो या बासी नलू जान देती है पोरन पोऽली पर यह जान वह यजमान के यहां का गर्म परोसा घर बंधवा लाता है| पर समय के साथ नलू जाने कैसी-कैसी तो हो गई है| कुछ में भी तो मन नहीं रमता उसका| और इधर यह ईश्वर दर्शन क्या वह जीवन से विरक्त होती जा रही है? देवउठनी ग्यारस नजदीक है| देव उठते ही उसकी अपनी व्यवस्तता सिर उठा लेगी| गुरुदेव को ही ढूंढ निकालना होगा|
इधर उसका सोचना हुआ हो और तीसरे ही दिन गुरुदेव अपने लाम-झाम के साथ गांव की सीमा लांघ रहे थे| शिष्यों की नवीन टोली अनुसरण कर रही थी उनका|
गांव में डेरा पड़ा ही था कि नलिनी स्वयं हाजिर हो गई| झगड़ ही पड़ी उनसे| गुरुभाई यह सब क्या है? क्या-क्या दिखाते हो मुझे? इतने देवता? मुझसे नहीं सहन होता यह सब| गुरुदेव बोले – नलिनी तुम्हारे अपने प्रश्नों का उत्तर है तुम्हारा बढ़ा हुआ ऊर्जास्तर इस ऊर्जा के प्रभाव से साधक अपने चित्त और शरीर के पारस्परिक संबंधों का वैज्ञानिक रूप से विश्लेषण तथा अध्ययन करता है और देखता है कि नितांत नासमझी द्वारा किस प्रकार अंतर्मन की तलस्पर्शी गहराइयों में विकार पर विकार उत्पन्न किए जा रहे हैं| इसे यूं समझों कि व्यक्ति जब अंधकार में होता है उसे कुछ दिखाई नहीं देता| उजाले में आते ही वस्तुएं इतनी स्पष्ट नजर आ रही है| नलिनी बिलख पड़ी, मुझे नहीं चाहिए ऐसा ज्ञान| यहां इंसान इंसान नहीं| ज्ञान कौन बांटेगा? धर्म, जात पर आंकते हैं सबको| सड़ी-गली परंपराएं| मौत पर जश्न मनते हैं| क्यों? आखिर कब तक? बहते जाते आंसुओं में आज मन की कई गांठे रिस गई|
जीवन की असंतुष्टियों से उत्पन्न मनोविकारों को गुरुदेव पहचानते हैं| बोले – मेरे शिविर में तुम नियमित आया करो नलिनी| हमारे यहां सत्संग में न किसी अंधविश्वास का आरोपण है, न किसी दार्शनिक अंधमान्यता का बंधन और न ही किन्ही सांप्रदायिक कर्मकांडों की जकड़न| यहां तुम्हें बाह्रा अदृश्य शक्ति पर आश्रित रहने की अंध परंपराओं से मुक्ति मिलेगी| यहां तक कि तुम इतनी स्वाबलंबी हो जाओगी कि दुख विमुक्ति क लिए किसी पर भी आश्रित न होगी| मुझ पर भी नहीं| हां एक बात याद रखना नलिनी पुरोहिती तुम्हारें ससुराल पक्ष का कर्म है| उसी के बूते यह सुख भोग है| ना तुम उनके यहां जोर जबरदस्ती लाई गई हो, ना वे किसी का अहित करने हेतु ये कर्मकांड अपनाए हैं| खुदको संभालो जरा|
गुरुदेव ने घंटों के लिए आंखें मूंद ली|
अंतर्मन और ब्राह्यमन की इसी लड़ाई को ही तो वे साधना चाहते हैं| क्या वे जानते नहीं कितना कठिन होता है चेतन और अचेतन के बीच संतुलन बिठाना| वे नहीं गुजरे क्या इन सबसे? मन के घोड़ों को लगाम डालने की होड़ में क्या कुछ नहीं त्यागा उन्होंने? तभी जाना है उन्होंने इस स्वभाव शिकंजे से उन्मुक्त होकर अपने भीतर स्वयं सुख शांति का जीवन जीना है तथा औरों के लिए भी सुख-शांति का स्वस्थ वातावरण निर्मित करना है|
अभी केवल पांच दिन ही बीते थे नलिनी को आश्रम आए| आश्रम के स्थापना दिवस की तैयारियां जोर-शोर पर थीं| बड़ी संख्या में लोगों के आ जुटने की संभावना थी| भंडारे का समस्त आयोजन नलिनी को ही संभालना था| घर और आश्रम के बीच की व्यस्तता चरम पर थी|
……………………
बच्चू चाचा की वह लाल ‘फियेट’ उसे दूर से ही आती दिख गई| सुहेला को चटक सलवार कमीज में उतरते देख उसे मानो सांप सूंघ गया| परिस्थिति से अनजान सुहेला दौड़कर उसके गले आ लगी| कंधे पर झूलती सी बोली “देखा कैसा सरप्राईज़ दिया?” अब्बा इधर से ‘बिजनेस टूर’ पर निकले हैं| कल बापसी में साथ ले लेंगे|
ससुराल की मानसिकता उजागर कर वह उन्हें नीचा नहीं दिखाना चाहती, पर श्वसुर भय से उसकी जबान अकड़ा गई|
गुरुदेव आए सारी परिस्थिति समझी और सुहेला से कहा, “बेटी मेरा आश्रम नहीं देखोगी?”
सुमंत ने तत्काल व्यवस्था की| खान पान, मेवों, मिष्ठान से छोटी सी टेबल सजा वह दोनों को बुला लाया| पति की सहजता व सहयोग ने नलू को भिगो दिया| तुम दोनों घूम आओ तब तक मैं अन्य बंदोबस्त करता हूं, सुमंत ने नलिनी से कहा|
आश्रम में नलिनी और सुहेला उन्मुक्त हो मिली| प्रार्थना के समय नलिनी गुरुदेव के सामने बिलख पड़ी| “मुझे इंसान-इंसान के बीच की दूरी बिल्कुल पसंद नहीं| ऐसा पंडितपना किस काम का, कि धर्म, जाति के नाम पर मनुष्य को मनुष्य ना समझें|”
गुरुदेव कुछ अस्थिर हुए बोले “स्त्री ने समाज में अधिकांशतः अधिक संतुलन, अधिक समझौता अपनाया है| शोषण के मैं विरुद्ध हूं, परंतु पारिवारिक ढांचे को बनाए रखने के लिए ‘स्व’ को ही मान्यता नहीं देना चाहिए| देखो सुमंत को तुम्हारा साथ निभाने लीक से हटकर कुछ करने में संकोच नहीं करता| तुम पुरोहितजी का आदर करो, धीरे से वे भी तुम्हें रूढ़िवादिता के शिकंजे से मुक्त कर देंगे| अब देखते हैं कि सुमंत आया है क्या?”
गुरुदेव और नलिनी जब बाहर आए तो सामने वाले वटवृक्ष के नीचे सुमंत व सुहेला बड़ी सहजता से बतिया रहे थे|
नलिनी आगे बढ़ उनके पास आ गई तो सुहेला ने हंसकर कहा| “देखो नलू, जीजाजी साली को पटा रहे हैं?”
इतने कीमती उपहार, साड़ियां मेवों के पैकेट के साथ छोटी सी सुंदर चांदी की बालियां भी सजी थीं| नलिनी के अंदर तक हर्ष की खुशबू फैल गई|
गुरुदेव ने देखा तो कहा “अरे कुछ कमी है, फलों का अभाव है|” उन्होंने तारिक को पुकारा, वह एक बड़े टोकरे में फल लेता आया|
सुहेला को ले नलिनी आश्रम परिसर का कोना-कोना दिखा लाई| कइयों से परिचय करवाया जब वे लौटीं अंधेरा होने को ही था| नलिनी ने देखा, बाहर के कमरे में दो पलंग लगे हैं| साफ तकिये व चादर बिछे थे|
-“तुम दोनों रात यहीं रहो,” सुमंत ने कहा| “जी भरकर बातें कर लेना” ठीक| पति की प्यार भरी दृष्टि से नलिनी सकुचा गई, उसके चेहरे की लजीली मुस्कान देख सुमंत भी खुश हो आया|
अगले दिन बच्चू चाचा सुहेला को ले गए| वो तो यहां के गुणगान गाते थक नहीं रही थी|
आज बहुत दिनों बाद नलू को मेहंदी लगाने का मन हो आया| नहा धोकर तैयार हो उसने पड़ोस की बिट्टो को बुला हाथ छपवा लिए| सास खुशी से हैरान थी, सूखी बेल में जीवन? जय गुरुदेव
रात सुमंत के सीने से आ जुड़ी नलू देर तक अपने कई किस्से बता, हंसती रही| सुमंत की आंखें गीली हो आईं| 
…………………………
परिवार के मुखिया को बुला आज गुरुदेव ने आदेश दे डाला| सव्यसाची को दिव्य दृष्टि देंगे वे| बालक यूं भी बाबा की उपस्थिति से मोहित रहता था| सबने धन्यवाद भाग समझा|
नलिनी को फिर चिंता हो आई| “बालमन है, पढ़ाई-लिखाई क्या सब छुड़वा देंगे गुरुदेव?” गुरुदेव ने संभाला – “सच्ची राह दिखाएंगे वे उसे| वो पढ़ेगा …. पढ़ाएगा – गृहस्थी संभालेगा| सव्यसाची अफसरी का मोहताज नहीं, वह बहुत ऊंचे पद का स्वामी होगा| मेरा उत्तराधिकारी|”
सव्यसाची उम्र में सबसे छोटा शिष्य था गुरुदेव का| पर उनके मार्गदर्शन व उसकी अपनी मेहनत से उसकी दृष्टि दिन-प्रतिदिन प्रखर होती जा रही थी| इतनी सी उम्र से ही मंचों का स्वतंत्र प्रभार संभाल लिया था उसने|
सव्यसाची संतो को निरखना और श्रोता को परखना बखूबी सीख गया है| बढ़ती उम्र के अनुभव ने उसे सिखा दिया है कैसे बदलते मौसम के अनुकूल चोला बदलना है| उसकी वाणी के ओज ने न केवल आश्रमवासियों की दिनचर्या संभालती, नलिनी को स्वस्थ किया, बल्कि अब अनेक संप्रदायों, मान्यताओं और परंपराओं के लोग शिविर में आने लगे हैं| सामान्य गृहस्थ ही नहीं बल्कि अनेक गृहत्यागी आचार्य और अग्रगण्य नेता शिविरों में भाग लेने लगे हैं| उच्चवर्गीय और निम्नवर्गीय, धनी और निर्धन, शिक्षित और अशिक्षित, युवा और वृद्ध समाज के हर तबके के लोग शिविरों में शामिल होने लगे हैं|
बढ़ते बढ़ते सव्यसाची का प्रभाव कुछ ऐसा हो चला है कि कभी वह फकीर नजर आता है कभी साधु, किसी को मुसलमां तो किसी को हिंदू, उसके सानिध्य में कभी गुरुद्वारे की शांति महसूस होती है तो किसी के कानों में चर्च की घंटियां गूंजती है|
दिवाली की जगमग के बीच छूटती रोशनी से पुरोहितजी की माथे की नसें चटक रही थीं वे उठे और अकेले ही आश्रम की ओर निकल पड़े| सव्यसाची से मिलने को आतुर पुरोहितजी भीड़ की परवाह किए बगैर, पोते को देखते ही बिलख पड़े, क्या रे मखऽअ कबऽ तक तरसाऽज चल घर चल|
सव्यसाची संपूर्ण श्रद्धा से झुककर उनके चरण छूकर बोला “घर तो मेरा मेरे बंधु बांधवों के बीच ही है बाबा| मेरे आने से आपके व्रत में व्यवधान पड़ेगा|” 
तू आई न तो देख, तू कई सोचज की थारी आवाज यहां तक पोचती नी हई| अब वसी बात नई हई बेटा” कहकर वे निढाल उदास मन घर लौट आए|
…………………
उस दिन बाहर शोर शराबा सुन सभी घर से बाहर निकल आए| देखा सव्यसाची अपने साथियों के साथ पितृगृह की ओर उन्मुक्त भाव से चला आ रहा है| बेटे की सह्रदयता से नलिनी और सुमंत की आंखें भीग आई| पुरोहितजी तो उसकी आवभगत में छौने हो गए हैं| मन में वर्षों से बसे धार्मिक प्रश्नचिन्हों को नकार वे आज कभी सबको गुड़ का शरबत पिलाते हैं तो कभी एक-एक को सत्तू खिला रहे हैं| कहीं गद्दे तकिए के इंतजाम को पुकार रहे हैं तो किसी को खाना बनाने का आदेश पकड़ा रहे हैं और तो और पिसे चावल की कटोरी ले खुद ही अल्पना डालने बैठ गए हैं| इत्र, लोभान, अगरबत्ती, गुलाब की महक फैले जा रही है| सचमुच आज देवउठनी ग्यारस है| देवता जाग गए हैं| उत्सव जारी है|
पूर्व प्राचार्य, गुजराती कन्या महाविद्यालय 539-ए, महालक्ष्मी नगर, इंदौर (म.प्र.) मो. 9826303220 ई-मेल: dr.nihar.gite@gmail.com

1 टिप्पणी

  1. शुद्ध हिन्दी के साथ कुछ गँवारू भाषा का मिश्रण कुछ खास जमा नहीं। कहानी पूरी समझने में दिक्कत होती है। मेरी समझ में कहानी बहुत सामयिक है और प्रभावशाली होती यदि उसको सीधी साधी तरह से लिखा जाता.

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