Saturday, July 27, 2024
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डॉ. सपना दलवी की कहानी – ग्राम-कथा

धनीराम एक बहुत ही सुलझा हुआ,ईमानदार किसान था।उसके पास पुरखों की जमीन थी और दस बारह गाय थी तो कह सकते है धनीराम छोटा जमींदार ही था। जिससे उसका घर आराम से चलता था और बचत भी बहुत होती थी।धनीराम की कोई औलाद नही थी इसलिए वह जरुरतमंद बच्चों की मदद करता था। एक जमींदार किसान होने के बावजूद भी उसके विचार आज के समय से जुड़े थे। वह चाहता था गांव का हर इक बच्चा पढ़े लिखे। चाहे वह लड़का हो या लड़की। इसलिए गांव का बच्चा बच्चा धनीराम और उसकी औरत की बहुत इज्ज़त करता था।
एक धनीराम ही ऐसा था जिसकी यह विचारधारा पूरे गांव पर फैली थी। हर कोई अपने बच्चों को पाठशाला भेजता था। जिनके लिए समस्या थी उनकी मदद धनीराम करता था। इसलिए गांव का एक बच्चा भी पीछे न रहा पाठशाला जाने के लिए। इन सबके बावजूद भी कुछ रूढ़ी परंपराएं लोगों के मन मस्तिष्क पर फन फैलाए बैठी थी।
बालविवाह, दहेज़ प्रथा, सती प्रथा और स्त्री भ्रूणहत्या जैसी अपराधिक मान्यताएं चल रही थी। गांव के कुछ नामी ठेकेदारों ने तथा बड़े-बड़े जमींदारों ने इसका ठेका ले रखा था। जमींदार होने के बावजूद भी इन बड़े-बड़े जमींदारों ने छोटे जमींदार और किसानों की ज़मीन को बहला फुसलाकर अपने नाम करवा लिए था और उसी ज़मीन पर उनसे खेती करवाकर ख़ुद अपनी जेब भरते और बैठकर हुकूमत करते और बेचारे भोले भाले गांववाले उसी जमींदार को अपना मायबाप, अन्नदाता-देवता समझ बैठे थे।
इन सबके विपरित धनीराम गांव के बाहर अपनी खेती में बने मकान में रहता था इसलिए वह अपनी स्वतंत्र विचारधारा से ओतप्रोत था। सही और गलत की सीख वह गांव के लोगों को देता था। जिससे लोग सहमत भी होते थे। धनीराम बस अपने गांव में एक सभ्य माहौल बनाएं रखना चाहता था पर वक्त के साथ सबकुछ बदलता गया। धीरे-धीरे गांव के लोग जमींदारों और ठेकेदारों के तलवे चाटने लगे। दो चार गलास गले से क्या उतरे, उन बदमाश ठेकेदारों का गुणगान करने से नहीं थकते थे। गांव की ऐसी हालत देख कर धनीराम बहुत ही दुखी था क्योंकि उसे अपने गांव के भविष्य की चिंता होने लगी थी।
गांव का रखवाला ही यहां भक्षक बनता जा रहा है। ऐसे में गांव में रहनेवाले लोगों का क्या…? उनका जीवन कहीं अंधकारमय ना हो जाए यही बात धनीराम को दिनरात सताती रहती थी पर उसकी औरत धनीराम को सांत्वना देते हुए उसका मनोबल बनाए रखती थी।
अगले दिन सुबह निर्मल चिल्लाते हुए, धनीराम अरे वो धनीराम कैसे हो भाई..?कौन है पूछते हुए, धनीराम भीतर से बाहर आता है।अरे निर्मल तुम,कहा हो आजकल,बहुत दिनों बाद तुम्हारे क़दम पड़े मेरे दरवाज़े पर। घर में सब ठीक है…?बिटिया कैसी है…?अब कौनसी कक्षा में है..?निर्मल बोला अरे धनीराम अब तुमसे क्या कहें जबसे जमींदार के यहां नौकरी लगी है,कही भी आने जानें के लिए वक्त ही नही मिलता। धनीराम ने बोला,पर निर्मल तुम्हारी तो ज़मीन खेती सब है, फिर तुम्हें जमींदार के यहां नौकरी करने की क्या जरुरत आन पड़ी।
इसपर निर्मल बोला, धनीराम मैं अकेला क्या क्या देखता, इसलिए मैंने सारी ज़मीन जमींदार को भेज दी। बदले में जमींदार साहब ने रहने के लिए घर और अपने यहां नौकरी दी है। साथ ही बिटिया की शादी किसी अच्छे घर में करा देने का वादा भी किया है इसलिए अब मुनिया स्कूल नहीं जाती है। घर का कामकाज सीख रही है।
निर्मल की बात सुनकर धनीराम कुछ पल के लिए स्तब्ध रह गया। उसे समझ नही आ रहा था कि निर्मल क्या बोले जा रहा है! एक वक्त अपनी बिटिया को अफसर बनाने का सपना देखने वाला निर्मल आज कैसी बहकी बहकी बातें कर रहा है। धनीराम इतना जान चुका था कि यह आवाज़ तो निर्मल की है पर बोल सारे उन बदमाश, ठेकेदारों और बड़े बड़े जमींदारों के हैं जो निर्मल के सिर चढ़ कर बोल रहे हैं। धनीराम ने बोला- “अरे निर्मल इतना सब कुछ हो गया और तुमने मुझे इसकी भनक भी ना लगने दी! खैर इतना बता दो, सारे कागज़ात वगैरह बना लिए ना जमीन के…? पर शादी के लिए बिटिया का स्कूल छुड़वाना यह बात कुछ समझ नहीं आई मुझे।” इसपर निर्मल बोला, अरे धनीराम आज कल अच्छे रिश्ते मिलते कहा हैं! ऐसे में जब मुनियां को जमींदार से अच्छा रिश्ता मिलेगा, तो इसमें बुराई क्या है?
निर्मल की बातों से धनीराम को थोडा गुस्सा आया। निर्मल तो मुझे अपने भाई जैसा मानता है, इसी रिश्ते की दुहाई देते हुए धनीराम बोला, क्या बेवकूफों जैसी बातें कर रहे हो, बिना कागज़ात तुमने अपनी सारी ज़मीन , जमींदार को बेच दी, जमींदार के कहने पर तुमने मुनिया की पाठशाला बंद करा दी। खेलने कूदने की उम्र में तुम उसे शादी कर सूली पर चढ़ाना चाहते हो। शर्म नहीं आती तुम्हें? तुम नहीं जानते इन बड़े-बड़े जमींदारों को, निहायती घटिया है। अपने फायदे के लिए,मासूम गांववालों का शिकार करते है। वह भी प्यार से बहला फुसलाकर और तुम लोग आसानी से इनके झांसे में आ जाते हो। पता भी है तुझे निर्मल,आज ज़मीन की क़ीमत करोड़ों में है। इससे आगे धनीराम उसे और समझाता, निर्मल गुस्से से बौखला गया और बोला अरे धनीराम क्या इस गांव में तुम ही एक सच्चे महान इन्सान हो। तुम क्या जानो बेटी का बोझ, तुम्हारी तो कोई औलाद ही नहीं है।
निर्मल की बात सुनकर धनीराम और उसकी औरत थोड़े सदमे से गुजरे पर परिस्थिति को ध्यान में रख कर, धनीराम ने भी बोला, निर्मल मैं कहा बेऔलाद हूं, गांव के सारे बच्चों का मैं पिता हूं मेरी औरत भी सारे बच्चों को खुद की औलाद जैसा प्यार देती है। औलाद होकर भी रवैया बे औलाद जैसा रखते हो। बिटिया को पढ़ा लिखाकर अफ़सर बनाने की बात करता था और आज वहीं बिटिया तेरे लिए बोझ बन गई है। तुम तो एक पिता कहलाने के भी लायक नहीं हो।
धनीराम और निर्मल दोनों में बातों की जंग छिड़ गई थी। तभी धनीराम की औरत ने दोनों को छुड़वाकर निर्मल को घर से निकल जानें के लिए बोल दिया। निर्मल गुस्से में बड़बड़ाता हुआ- “देख लूंगा तुम्हें धनीराम, अब तो जमींदार मेरे मायबाप है। छोडूंगा नहीं तुम्हें” कहता हुआ निकल गया।
निर्मल की बात सुनकर धनीराम थोड़ा सहम सा गया। उसे पिछली बातें याद आ गई, निर्मल जो कभी मुझे अपना बड़ा भाई मानता था। घर आता था, खाता पीता था, आज वही निर्मल जमींदारों की बातों में आकर इतना बदल गया कि उसे सही गलत की समझ ही न रही। बिटिया का क्या होगा, वह तो पढ़ने में बडी होशियार है। क्या होगा सारे बच्चों का जो गांव का, देश का भविष्य है। यह सारी बातें सोचते हुए धनीराम की आखों से आसूं निकल रहे थे। जिस गांव की भलाई के लिए वह दिन रात एक करता था,आज वहीं गांव के लोग एक-एक कर के उन जमींदारों के झांसे में आकर अपनी जिंदगी ही दांव पर लगा रहे हैं। सोचते सोचते रात बीत गई।
अगले दिन सुबह जब धनीराम उठकर बाहर आया तो देखा, सामने दो हट्टे कट्टे जवान लाठी लेकर सीना तान धनीराम के सामने आ खड़े हुए। धनीराम ने पूछा कौन हो तुम लोग…? सुबह सुबह यहां कैसे आना हुआ? जबकि धनीराम जानता था कि, यह दोनों जमींदार के टुकड़ों पर पलने वाले कुत्ते हैं जो यहां आकर भौंक रहे है,ताकि मुझे डरा सके। तभी उसमें से एक पहलवान ने बोला,धनीराम सब कुछ जानकर भी अंजान बनने का नाटक क्यों कर रहे हो।भोले भाले लोगों को जमींदार के खिलाफ़ क्यों भड़का रहे हो,लगता है थोड़ी मेहमान नवाजी करनी पड़ेगी तुम्हारी। धनीराम हल्की सी मुस्कान बिखेरते हुए बोला, अरे भाई मेहमान नवाजी तो मैं करूंगा तुम लोगों की, सुबह सुबह मेरे घर आए हो,चलो साथ में चाय नाश्ता कर लेते हैं।
धनीराम की बात सुनकर जमींदार का आदमी गुस्से में दांत दबाते हुए बोला, हम तो तुम्हारे घर का पानी भी नही पी सकते। हम तो जमींदार के लोग हैं। कहाँ हम और कहाँ तुम! इसपर धनीराम बोला, कितने भोले हो तुम लोग,हम सब भी तो जमींदार ही है। बस कुछ बड़े हैं तो कुछ हम जैसे छोटे जमींदार हैं। तुम्हारा जमींदार करोड़ों में कमाता होगा और हम लाखों में कमाते हैं। वो भी पूरी ईमानदारी के साथ,तुम्हारे मायबाप (जमींदार) की तरह नहीं। भोले भाले लोगों को बहला फुसलाकर कर, उनकी ज़मीन हड़प कर तो नहीं कमाते। ऐसे में तुम लोगों से हम लोगों का मेल ही कहा होता है।
धनीराम की बात सुनकर जमींदार के दोनों आदमी बौखला गए। उसमें से एक ने जोर से धनीराम के सिर पर लाठी मारी, जिससे धनीराम की चीख निकली और वह मूर्छित हो गया। आवाज़ सुनकर धनीराम की औरत बाहर दौड़ते हुई आई और उसने देखा कि धनीराम नीचे गिरा पड़ा है।
धनीराम की हालत देख कर वह उन दोनों जमींदार के लोगों पर झपट पड़ी। तुम लोग तो जानवर से भी गए गुजरे हो, देख लूंगी तुम लोगों को, निकल जाओ यहां से। उसकी आवाज से राह चलते गांव के लोग वहां आ गए तो दोनों पहलवान भाग खड़े हुए। कुछ ने धनीराम की औरत से पूछा, क्या हुआ धनीराम को, किसने मारा उसे। पर जवाब में धनीराम की औरत ख़ामोश थी। क्योंकि वह जान चुकी थी सारा का सारा गांव अब जमींदार की बोली बोलता है। अब किसी को कुछ बताने का कोई मतलब नही है।
फिर उसने धनीराम को अंदर ले जाकर पलंग पर लिटा दिया। देखते देखते दिन ढल गया। रात में जब धनीराम को होश आया तो वह कुछ समझ नही पा रहा था कि, उसे क्या हो गया था पर उसकी औरत ने उसे सारी बातें बता दी। तब धनीराम ने और उसकी औरत ने ठान लिया कि,गांववालों को इन जमींदारों के चंगुल से आज़ाद करना ही है।
धनीराम और उसकी औरत चाहते थे कि उन जमींदारों और ठेकेदारों की सच्चाई अपने आप ही गांववालों के सामने आए। क्योंकि गांव के लोग जमींदार ठेकेदारों पर आंख मूंद कर भरोसा करते थे। ऐसे हालातों में उन्हें उनकी सच्चाई से रूबरू कराना बहुत ही मुश्किल था। दूसरी तरफ़ निर्मल धीरे-धीरे गांव के सारे लोगों को, धनीराम के खिलाफ़ कर रहा था। पूरा गांव, इन जमींदारों और ठेकेदारों की बातों में आकर अपने बच्चों का स्कूल छुड़वाने लगे। लड़कों को जमींदार के यहां खेत में काम पर लगवा दिया और लड़कियों को घर के कामों में ताकि उनकी शादी कराई जा सके।
गांव का यह बदलता रूप, धनीराम और उसकी औरत के लिए चिंता का विषय बन गया था। दोनों चाहकर भी कुछ ना कर पाने की स्थिति में आ गए थे। उनकी बात को ना कोई सुनने वाले था और ना कोई साथ देनेवाला। फिर भी जितना हो सके उतना दोनों इसके खिलाफ़ लड़ते रहे। सबसे बडी बात यह थी कि, एक जमींदार किसान होकर भी दूसरे किसान की हालातों से वाकिफ नहीं था। जब अपने ही अपनों को काट खाने पर अड़े हो तो भला कैसे सब कुछ सुलझ सकता था। ऐसे में धनीराम और उसकी औरत का यह संघर्ष आज भी जारी है।
डॉ. सपना दलवी
डॉ. सपना दलवी
स्त्री विमर्श लेखिका संपर्क - [email protected]
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