“बेबी लॉ लाइन से थोड़ा ही ऊपर है। पल्स भी काफ़ी वीक है। इट्स वेरी डेंजरस। बी केयरफुल।”
डॉ फातिमा ने नमिता के गर्भ का परीक्षण करते हुए चिंता से कहा। “देखिए ज़्यादा उम्र में कंसीव करने से कुछ डिफिकल्टी तो आती ही हैं। हो सके तो फुल बेडरेस्ट करें। ज़्यादा देर खड़े रहने से आपको और बेबी दोनों को खतरा है। बस ये सातवाँ महीना बीत जाए। आई होप सो सब अच्छा होगा।” कह कर डॉ ने ख़ूब सारी हिदायतों के साथ कुछ मेडिसिन और टॉनिक नमिता को थमा दिए।
नमिता की शादी को आठ साल हो चुके थे पर घर में ऐसी कोई ख़ुशी नहीं आई थी जो उसके स्त्रीत्व पर मातृत्व की मोहर लगाती। आठ साल से उसने और उसके पति मनोज ने जाने कहाँ-कहाँ इलाज कराया। जाने कितनी जगह माथा टेका। मंदिरों-दरगाहों पर अर्ज़ मिन्नतें की। सभी धर्मों के धर्म स्थलों पर जाकर चढ़ावा चढ़ाया पर ईश्वर ने उनकी गृहस्थी को अपूर्ण ही रखा। शादी के आठ साल बाद आखिरकार किसी देवता या ईश्वर को नमिता और उसके पति पर दया आ गई और नमिता की गोद हरी हो गई।
नमिता ने 37 साल की उम्र में गर्भधारण किया था इसलिए दुशवारियाँ और पेचीदगियाँ बराबर बनी हुई थीं। अभी तक तो सब सही था पर जैसे-जैसे समय आगे बढ़ते जाता नमिता अपनी गर्भ में पल रहे शिशु को लेकर और अधिक सावधानी बरतती। शादी के आठ साल बाद उसके जीवन मे यह खुशी आई है। वह फूंक-फूंक कर क़दम रखती। हर उस बात का ख्याल रखती जो उसके शिशु के हित में थी। वह बहुत ख़ुश थी क्योंकि उसका गर्भ समाज के मुँह पर एक तमाचा था। वह समाज जिसने नमिता को बांझ, बंजर भूमि, ठूँठ और न जाने ऐसी कितनी ही विभूतियों से नवाज़ा था। उसने मन ही मन ईश्वर से प्रार्थना की “हे ईश्वर। मेरे बेबी की हिफाज़त करना।” वह अब और सावधानी बरतेगी। उस रोज से ही उसने आने वाले सभी ज़रूरी गैर ज़रूरी काम स्थगित कर दिए। पति मनोज से भी कहा “देखिए डॉ ने बेडरेस्ट बोला है आप अभी किसी मेहमान को घर न बुलाएं।”
दो दिन ही बीते थे कि नमिता का फोन बजा। स्क्रीन पर नंबर देख कर नमिता एक अनजाने भय से काँप उठी। पता नहीं क्यों? वो अक़्सर ही इस नंबर को देख कर काँप जाती है। फोन उनकी शोध निर्देशक प्रोफेसर लता ज्ञानेश्वरी का था। बोली, “नमिता तुमने इस बार अपनी छमाही शोध रिपोर्ट विभाग में जमा नही की है। कल आकर जमा कर दो।” नमिता इस अप्रत्याशित काम के लिए तैयार नही थी। फिर भी यह सोच कि मैडम उसकी परेशानी समझेंगी। कुछ उम्मीद के स्वर मे बोली “नमस्कार माम। मैं सात माह गर्भ से हूँ। मेरी गाइनी ने मुझे बेडरेस्ट बोला है। इस हालत में कॉलिज नही आ सकती।” नमिता की बात का उसकी मैडम पर उल्टा ही असर पड़ा। वह दो टूक बोली “देखो अपनी पर्सनल प्रॉब्लम अपने तक सीमित रखना सीखो। कल दस बजे ऑफिस आकर मिलो।”
फ़ोन खामोश हुआ। नमिता के मन मे उथल-पुथल सी हो उठी। “हे भगवान! मैडम तो कुछ सुनने को ही तैयार नहीं।” कैसे जाऊंगी वहाँ। क्या मेरे बच्चे से ज़रूरी शोध रिपोर्ट है। स्वयं औरत होकर दूसरी औरत का दर्द मैडम क्यों नही समझ रही हैं। क्या वो गर्भ की पीड़ा से नही गुज़री। क्या इन दिनों की पेचीदगियों को पर्सनल कहकर खारिज किया जा सकता है। क्या यह वाकई उसकी निजी समस्या है। उसके विभाग में सिर्फ उसे ही गर्भ चढ़ा है। नमिता किसी कछुए की भांति चिंताओं के सागर मे गोते खा रही थी। आखिर क्या करे। कल दस बजे वहाँ पहुँचना ज़रूरी है। लता ज्ञानेश्वरी विभागाध्यक्ष भी हैं कहीं नाराज़ हो गईं तो और दिक्कत हो जाएगी। उसके पति ने उसे कॉलेज जाने के लिए मना भी किया पर नमिता जानती थी कि उसकी मैडम का स्वभाव कैसा है। एक बार नाराज़ हो जाएं तो अपने स्कॉलर को खून के आँसू रुला देती हैं। एक लड़की थी रुबाब उससे किसी बात पर नाराज़ हो गई थीं तो छः महीने तक उसके फेलोशिप फॉर्म पर साइन ही नहीं किए। उसे इतना परेशान किया कि उस ग़रीब लड़की ने आखिरकार पी एच डी ही छोड़ दी। नमिता की आँखों में रुबाब का चेहरा घूम गया। रुबाब डॉ बनना चाहती थी कहीं जॉब करके अपने बुज़ुर्ग माँ बाप का सहारा बनना चाहती थी पर लता ज्ञानेश्वरी के अहंकार की बलि चढ़ गई। कितना रो रही थी उस दिन। स्मरण होते ही नमिता की आँखें भी भीग गईं।
नमिता न चाहते हुए भी अगले दिन नियत समय विभाग के ऑफिस पहुंच जाती है। बहुत ही सावधानी से धीरे-धीरे। एक हाथ से कमर को पकड़े। वह कभी-कभी बेडोल सी चलती। मैडम ऑफिस नही पहुंची थी। एक घंटा प्रतीक्षा के बाद मैडम भनभनाती-सी ऑफिस में दाखिल हुई।
“उफ़ ये मेड भी न जब-तब छुट्टी ले लेती है और ये दिल्ली का ट्रैफिक..।” नमिता को भान हुआ मैडम ने न उसकी तरफ देखा और न ही उसकी गुडमार्निंग का ही जवाब दिया। कुछ देर रूककर वह हिम्मत करके ऑफिस में घुसी। मैडम ने उसे देखते ही कहा-
“हाँ भई नमिता! तुम पिछली अनुसंधान बैठक मे नही आई थीं पहले उसके लिए कारण बताओ एप्लिकेशन लिखो और छमाही शोध रिपोर्ट के लिए भी।”
मैडम की बात सुनकर उसने अचरज से कहा “पर मैडम मैं तो नॉन नेट फेलोशिप नही लेती इसलिए मेरा मीटिंग में आना अनिवार्य नही है।”
“फेलोशिप नही लेती तो हम पर अहसान करती हो क्या” लता ज्ञानेश्वरी मैडम बिफ़र पड़ी। नमिता खामोश हो गई। वह कुछ और बोल कर उनके गुस्से को भड़काना नही चाहती थी। अपना-सा मुँह लिए वह एप्लिकेशन लिखने लगी। सहसा उसे महसूस किया कि उसकी जाँघे पसीज रहीं हैं। टांगों मे हल्की कंपन भी महसूस होने लगी थी। दो घण्टे से खड़ी रही है शायद इसलिए ऐसा हो रहा है।
“जल्दी ये एप्लिकेशन मैडम को दूँ और यहाँ से निकलूं।” जब तक उसने एप्लिकेशन लिखी बारह बज चुके थे। ऑफिस में मीटिंग थी अतः उसको बाद में आने को बोला गया। नमिता को अब चक्कर आने लगे थे। “उफ़ कहीं बैठने की भी तो जगह नही है।” मीटिंग खत्म हुई तो नमिता ऑफिस की ओर दौड़ी। क्लर्क ने बताया “अभी लंच टाइम है। मैडम लंच कर रही हैं। लंच के बाद आना।”
मैडम आप बार-बार कहाँ परेशान होंगी ऐसा कीजिए आप यहीं ऑफ़िस में बैठ जाइए।” क्लर्क ने शायद नमिता की परेशानी समझ सहानुभूति भरे स्वर में कहा। नमिता वहीं पास पड़ी खाली कुर्सी पर बैठ गई। बैठे हुए भी वह खुद को असहज महसूस कर रही थी और शायद उसके गर्भ में उसका बच्चा भी। जो रह-रह कर अकुला रहा था। उसे घबराहट होने लगी लग रहा था जैसे उसकी आस पास की ऑक्सीजन खत्म हो गई हो। मन हुआ की बाहर बगीचे में किसी पेड़ के नीचे जाकर बैठ जाए और ख़ूब खुलकर साँस ले। जैसे-तैसे वहाँ से उठी सीढ़ियां उतरी और गेट के पास वाले लॉन में बैठ गई। चाहा कि यहीं लेट जाए पर पैर मोड़े बैठी रही। बैग से सेब निकाला पर बैचनी के चलते खाने का मन नहीं हुआ। बस जूस ही पी सकी। एकाएक उसके फोन में कुछ हरकत हुई। नमिता ने धुंधली नज़र से देखा, उसके पति मनोज का फोन था
“नमिता अभी तक कॉलेज में हो”
“हाँ”
“काम हो गया”
“नहीं”
“क्यों?”
“लंच टाइम है, उससे पहले मैडम बिज़ी थीं। एप्लिकेशन लिख ली है उनको दे कर फ़ौरन निकल लूँगी। उसकी आवाज़ डबडबाने लगी।
“नमिता तुम्हें आना ही नहीं चाहिए था भाड़ में जाए ऐसी पी एच डी। क्या तुम्हारी मैडम ने यह भी नहीं देखा कि तुम किस हाल से हो।” तुम वहीं रहना मैं तुम्हें लेने आ रहा हूँ। तुम्हारी हालत ठीक नहीं लग रही है मुझे। और सुनो! अपना ख्याल रखना।” कह कर मनोज ने फोन काट दिया। आस-पास काफी लोग थे। उसे लगा कि कुछ की नजरें उसे टटोल रही हैं। शायद उसके उभरे पेट को। कॉमन रूम यहाँ से एक किलोमीटर दूर था इसलिए उसने वहीं रुकना बेहतर समझा।
ढाई बजे नमिता ऑफिस में हाज़िर हुई। पसीने से लथपथ। एक उम्मीद के साथ एप्लिकेशन मैडम की टेबल पर रख एक गहरी सांस भरी। वह जल्द यहाँ से निकल कर घर पहुँचना चाहती थी। आराम करना चाहती थी। ढेर सारा आराम अपने बच्चे के लिए। पर एप्लिकेशन देख मैडम चिढ़ गईं। गुस्से में बोली-
“एडहॉक पढ़ाती हो और एक एप्लिकेशन ढंग से लिखनी नही आती।” उन्होंने वह नमिता के सामने ही टेबल पर पटक दी। नमिता रूहांसी-सी उसे उठाकर बाहर आ गई। रह-रह कर हल्की टीस उसके दिल से होती हुई उसके गर्भ मे उठने लगी थी। डबडबाती आंखों से एप्लिकेशन को देखा पर कहीं कोई गलती नज़र नहीं आई । फिर भी शब्दों का हेर फेर कर उसने उसे दुबारा सुधारा। ऑफिस मे झाँका तो वहाँ खाली कुर्सी थी। पता चला मैडम विभाग में एक सेमिनार में व्यस्त हैं। शाम के पाँच बजते नमिता निढाल हो चुकी थी। भान हुआ कि उसके दोनों पैरों के बीच कुछ पिघल रहा है। थोड़ी देर में उसमे कटाव होने लगा। डॉ ने उसे बेडरेस्ट बोला था। पर वह सुबह दस बजे से सिर्फ खड़ी है। बार-बार सीढ़ियाँ उतरने-चढ़ने में हालत अलग खराब हो गई है। सामने से मैडम लता ज्ञानेश्वरी आती दिखाई दीं नमिता को देख कर बोली-
“हाँ भई नमिता! क्लर्क कह रहा था कि जो नॉन फेलोशिप नही लेता उसे अनुसन्धान की मीटिंग में आना ज़रूरी नही है। जाओ और मंडे में आकर शोध रिपोर्ट जमा करा देना।” नमिता का सिर चकरा गया। गिरते-पड़ते वह गेट की ओर भागी। लगा जैसे वाटर ब्रेक होने वाला है। पैरों में एक गीलापन पसरने लगा था। गेट पर पति मनोज का धुंधला-सा अक्स नज़र आया। वह उसे लेने आए थे। वह उनकी ओर तेज़ी से दौड़ी। पर नहीं। एक तेज़ दर्द उसके गर्भ में हुआ। दर्द की अधिकता से वह वहीं बेहोश हो गई।
पाँच घण्टे बाद नमिता को होश आया। हॉस्पिटल का एक बंद कमरा। सामने मनोज बैठे थे। बेहद उदास। बराबर में नर्स ड्रिप की सिरिंज हाथ से निकाल रही थी। एकाएक नमिता को अपने बच्चे का ध्यान आया। उसने पेट टटोला। गर्भ में एक खालीपन था। शून्य। वह चीख पड़ी। जिस बात का डर था वही हुआ। गर्भ के साथ ही उसके सपने भी बिखर गए थे। वह बच्चा जिसे वह पल प्रतिपल खुद में बढ़ता हुआ महसूस कर रही थी किसी के अहंकार और ज़िद की भेँट चढ़ गया। पर क्या वह स्वयं भी दोषी थी। मनोज ने दुखी होकर कहा, “तुम फिक्र मत करो नमिता में कल ही तुम्हारी मैडम के खिलाफ पुलिस में कम्प्लेंट करूँगा। ईंट से ईंट बजा दूंगा तुम्हारे डिपार्टमेंट की।” कह कर मनोज रो पड़ा। नमिता खामोश रही। वह जानती थी इससे कुछ नही होने वाला। कितने ही स्टूडेंट्स को देख चुकी थी जिन्होंने गलत के खिलाफ आवाज़ उठाई। उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। विभाग में जब भी ऐसा कुछ होता है पूरा स्टाफ एकजुट हो जाता हैं। विभागाध्यक्ष से दुश्मनी कोई नही लेना चाहता। उल्टे उसकी पी एच डी लटका दी जाएगी। नमिता की आंख के आंसू थम नही रहे थे। रह-रह कर बच्चे को लेकर हूक-सी उठती। एकाएक फोन बजा।
नमिता ने देखा फ़ोन उसकी मैडम लता ज्ञानेश्वरी का था। उसने बेमन फोन उठाया “हेलो नमिता तुमने शोध रिपोट जमा नही की है। मंडे में मेरी बेटी अमेरिका से वापस आ रही है मैं छुट्टी पर रहूंगी। तुम कल दस बजे आकर विभाग में रिपोर्ट जमा कर दो। और देखो अपनी निजी समसयाएं खुद तक सीमित रखना सीखो।'” वह इसके आगे कुछ कहतीं नमिता ने फोन काट दिया। नमिता के गर्भ से बाक़ी बची गंदगी और विषाक्त तत्व दोनों पैरों के बीच से रिस रहे थे। उसे लगा यह विष अब उसके पूरे शरीर मे समा गया है। सब कुछ कसैला विषैला-सा महसूस होने लगा। उसने निर्णय लिया वह विभाग जाएगी। ज़रूर जाएगी। मैडम से मुस्कुरा कर भी बात करेगी। कभी उनको यह ज़ाहिर नही करेगी कि वह उनसे कितनी घृणा करती है। कभी नही बताएगी कि उसका बच्चा उनके अहंकार की भेंट चढ़ चुका है। अब वह जल्द से जल्द अपना शोध करके उनसे पिंड छुड़ायेगी। उसने मन ही मन अपनी गुरु लता ज्ञानेश्वरी का स्मरण किया और बोली “मैडम आज तक आप गुरु रूप में मेरे लिए आदर का पात्र थी। पर आज से न केवल गुरु बल्कि स्त्री रूप में भी आप मेरी घृणा की पात्र रहेंगी। मेरी ओर से यही आपकी गुरु दक्षिणा है।” कहकर नमिता ने आंखे बंद कर ली। वह अब निजी समस्याओं को खुद तक सीमित रखना सीख चुकी थी।
तबियत खराब होने पर भी शुक्रवार लंच के बाद लगभग चार बजे नमिता लता ज्ञानेश्वरी के सामने थी। लता ज्ञानेशवरी ने आदत के मुताबिक ढाई बजे बुलाकर चार बजे मिलने के लिए ऑफिस में बुलाया। अब नमिता ऑफिस में बैठी है पर उसके सामने जो शख्स बैठा है उससे उसे घृणा थी। इतनी घृणा कि उनकी शक्ल देख कर उसके उबकाई- सी आ रही थी। उसके जिस्म में भी रह-रह कर दर्द की टीसें उठ रहीं थी। पर उसने गौर किया कि लता ज्ञानेश्वरी की तबियत आज कुछ ठीक नहीं लग रही थी बार-बार पसीना पोंछती और पानी पी रही थीं।
“यह लीजिए माम छमाही रिपोर्ट अब मुझे जाना है।”
मैडम ने उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया वो किसी से बात कर रही थीं फोन पर, शायद अपने पति से। एक घबराहट बैचनी में घिरी हुई।
नमिता प्रणाम करके ऑफिस से निकल गई शाम के पाँच बज चुके थे कॉलेज सुनसान-सा हो चला था। सर्दियों में वैसे भी पाँच बजे से ही अंधेरा घिर जाता है। इक्का-दुक्का गार्ड को छोड़ कर कोई नज़र नहीं आ रहा था। सहसा उसे याद आया कि उसका फोन ऑफिस की टेबल पर ही छूट गया है। आज शुक्रवार है इसलिए ऑफिस का स्टॉफ भी आज जल्दी चला गया था। सिर्फ मैडम ही हैं वहाँ अगर वो भी चली गईं तो उसका फोन दो दिन के लिए ऑफिस में ही लॉक हो जाएगा।
नमिता जैसे-तैसे ऑफिस पहुँची। देखा लता ज्ञानेश्वरी ऑफिस के फर्श पर बेहोश पड़ी हैं। नमिता को समझते देर न लगी कि उन्हें हार्ट अटैक आया है। नमिता ने मैडम की मदद करने के लिए उन्हें उठाना चाहा पर एक बहुत तेज़ पीड़ा उसके गर्भ में उठी। दर्द की अधिकता से वो चीख़ पड़ी। गर्भ के शून्य ने जैसे उसे भी शून्य कर दिया। उसका मातृत्व उसे कौँचने लगा। यही मौक़ा था कि वह इस हत्यारिन से अपने बच्चे की मौत का बदला ले सकती है। चुपचाप यहाँ से निकल जाए मैडम को उनके हाल पर छोड़ कर। वैसे भी मैडम ने कहाँ किसी की पीड़ा को समझा है जो वो समझे। नमिता का दिमाग़ शून्य हो चुका था जिसके गोल दायरे में उसके बच्चे का कटा फटा शव और रुबाब का लुटा- पिटा अक्स गोल-गोल घूम रहे थे।
कुछ समय के लिए नमिता बेजान हो चुकी थी। उसके लिए अच्छा मौक़ा है और वो इसका पूरा फायदा उठाएगी वो झट से ऑफिस के बाहर निकल गईं। सीढियाँ उतरते हुए ऐसा लगा की एक-एक सीढ़ी उसके लिए एक युग बन गईं हों। दिल पत्थर-सा भारी हो रहा था। साथ ही पैर भी, जो किसी असहाय को इस दशा में छोड़ कर आगे चलने में खुद को असमर्थ पा रहे थे। नमिता से जब नहीं रहा गया तो उसने फोन निकाला।
नमिता ने किसे फोन किया, किससे बात की, उसे खुद कुछ समझ ही नहीं आया। वक़्त की सुई जैसे अपनी धुरी पर ठहर गईं थी। चार-पाँच मिनट ही गुज़रे होंगे कि नमिता को मेन गेट से एम्बुलेंस अंदर दाखिल होते नज़र आई। एम्बुलेंस के पीछे-पीछे एक इनोवा भी थी जो लता ज्ञानेश्वरी के पति की थी। दोनों ही गाड़ियाँ अंदर दाखिल हुई और नमिता गेट से बाहर। नमिता के गर्भ की पीड़ा तो वैसे ही थी पर दिल बहुत ही हल्का-फुल्का महसूस हो रहा था। जैसे किसी ने बड़ा बोझ उसके सीने से हटा दिया हो। नमिता का मातृत्व स्त्रीत्व दोनों उसकी इंसानियत के सामने बौने साबित हुए। इंसानियत के रूप में आज उसने अपनी गुरु को सच्ची गुरु दक्षिणा दे दी थी।

2 टिप्पणी

  1. विश्वास नही होता कोई स्त्री इतनी हृदय हीन भी हो सकती है । हाँ बहुत से शोध मार्गदर्शक अपने शोधार्थियों को मानसिक प्रताड़ना देते हैं। पर ये एक भुक्तभोगी की कथा ही प्रतीत हो रही है।

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