छम्मो अभी-अभी आंगनवाड़ी से लौटी है। अपने घर जाने से पहले वह रोज चंदा के पास आती है। उसे आंगनवाड़ी के किस्से सुनाती है। पढ़ने की उम्र तो चंदा की भी हो गई है, किन्तु घर का एकमात्र टूटा दरवाजा छोड़कर कैसे जाए। फिर अम्मा हिदायत देकर जाती है यहाँ से हिलना मत। चंदा क्या करे? छम्मों की बातें सुनकर खुश हो लेती है। उससे दो-चार अक्षर रोज सीख लेती है। आज छम्मो जल्दी आ गई थी। आज उसके पास एक कहानी थी जो आंगनवाड़ी दीदी ने सुनाई थी। छम्मो सुनाने लगी-‘‘एक सुन्दर सी बड़़ी हवेली थी। उसमें जमींदार उसकी पत्नी और परी सी लड़की रहती थी। ढेर सारे नौकर-चाकर थे। बड़ी सी मोटरगाड़ी में बैठकर वह स्कूल जाती। उसके पास ढेर सारे खिलौने थे। कभी-कभी वह अपने खिलौने नौकरों के बच्‍चों को दे देती। पर उसकी माँ परी को नौकरों के बच्‍चों के साथ खेलने नहीं देती। एक दिन वह परी लड़की बीमार पड़ी तो चार-चार डॉक्टर उसे देखने आये। उसकी माँ उसे दूध, जूस पिलाती, फल खिलाती। क्या तो नाम बताए थे दीदी ने केला, सेब बस याद है उसे। नौकर-चाकर आगे-पीछे घूमते। जब परी लड़की अच्छी हुई तो जमींदार ने गरीब बच्‍चों को भरपेट मालपुएं, छोले पुरी और चावल खिलाए’’ 
– ‘‘ये मालपुएं क्या होते हैं ?’’
– ‘‘दीदी बता रही थी कि शुद्ध घी में बनाकर चाशनी में तर करते हैं। बहुत मुलायम और मीठे होते हैं।’’
– ‘‘छम्मो हमें कोई खाना कपड़ा नहीं बाँटता।’’ चंदा बीच में बोल पड़ी। 
– ‘‘अरे चंदा इसलिए तो सरकार ने आंगनवाड़ी बनाई है। वहाँ हमको खाना मिलता है।’’ 
– पर कपड़े उसका क्या ? हमारा घर भी तो टूटा-फूटा है। 
– ‘‘आंगनवाड़ी वाली दीदी बता रही थी कि सरकार सबको घर देगी, गरीबों को राशन देगी…. सबके दिन फिरेंगे ……तू भी आंगनवाड़ी चला कर।’’ 
– ‘‘पर मैं कैसे चल सकती हूँ छम्मो अम्मा मारेगी, घर में सुअर-कुत्ता घुस गए तो … जब तक यह दरवाजा ठीक नहीं होता तू मुझे रोज पढ़ा जाया कर।’’
– हाँ! पढ़ने से शिक्षा मिलती है। बुद्धि बढ़ती है। सपने बनते हैं, सपने देखने से आगे बढ़ सकते हैं। फिर सबका विकास होगा ऐसा आंगनवाड़ी दीदी कहती हैं।’’
-‘‘कभी मैं कहती हूँ अम्मा आज हलवा बना दे तो अम्मा कहती है सपने मत देखा कर। सपने देखना अच्छा नहीं। गरीबों के कोई सपने नहीं होते। जमीन पर रह। तो अम्मा गलत कहती है। अम्मा पढ़ी नहीं है न।”
-‘‘हाँ! तू सही कहती है। आंगनवाड़ी दीदी कहती है पढ़ने-लिखने से उजाला होगा अपन आगे बढ़ेंगें, बड़े बनेंगे’’ अच्छा अभी मैं चलती हूँ कल आऊँगी।’’ 
छम्मो चली गई …. चंदा सोच रही थी सपने देखना चाहिए ऐसा दीदी ने कहा तो ठीक कहा होगा। उसे भी सपना देखना है। बस यही तो एक घर हो, भरपेट भोजन मिले, कपड़े मिले और वह भी पढ़ने जाए। अम्मा की तरह दिन भर काम के लिए भटकती न रहे। उसको भी हक है सपने देखने का, सपनों में से निकलते कई सपने। फिर उन सपनों को एक मन मिला। उसके साथ वह उड़ना चाहती थी। उड़ना चाहती थी अनन्त आकाश में, चिड़ियों की तरह, पर उसके पंख नहीं थे। उसकी आँखों में अनन्त सपने थे, पर उनके सपने पूरे होने के साजो-सामान का कोई इंतजाम नहीं था। जहाँ दो जून की रोटी के लाले पड़े हों, वहाँ इच्छाओं और सपनों की कोई जगह नहीं होती। उसने फिर भी देखा…दूरदराज से उड़ती आई इच्छा अपने साथ तमाम साजो-सामान लेकर उतरी थी उसमें तरह-तरह के पकवान थे। सुंदर-सुंदर रेशमी वस्त्रों का अंबार था ओर थी प्रकृति के आंगन में एक शानदार हवेली। उसने एक बार इधर-उधर नजरें घुमाई फिर हवेली के अंदर प्रवेश किया। एक बड़ा सा लंबा दालान पार कर उसने एक बहुत बड़े कमरे में प्रवेश किया। कमरे में सुन्दर-सुन्दर तस्वीरें लगी थीं। यहाँ आकर उसने मुलायम से सोफे पर अपना आसन जमाया। उसकी आँखे पूरे कमरे का जायजा ले रही थीं। सामने वाली दीवार  पर देखा जहाँ एक स्त्री की बड़ी सी तस्वीर लगी थी। उसी के पास लगी तस्वीर का मूछों वाला आदमी खा जाने वाली नजरों से देख रहा था। उसकी कंजी आँखें गोल-गोल अंटियों सी लग रही थीं। घबराकर उसने नजरें हटा ली। अब इस ओर देखती क्या है, लहराती हुई सीढ़ियों से एक सुन्दर परी सी लड़की धीरे-धीरे उतर रही थी। सीढ़ियों के ऊपर बिछी लाल दरी पर उसकी गुलाबी लम्बी फ्राक लहरा रही थी। सीढ़ियाँ उतरकर वह दरवाजे से अंदर के कमरे में चली गई। अभी उसकी निगाहें उसी दरवाजे पर जमी थीं तभी कमरे में आती दूसरी सीढ़ियों से तस्वीर वाला आदमी उतरा। वह भी उसी दरवाजे से अंदर चला गया। परी लड़की एक कुर्सी पर बैठ गई। आदमी भी एक ऊँची कुर्सी पर बैठ गया। सामने टेबल पर ढँकी तस्तरियाँ रखी थी। शायद उनमें खाने का सामान होगा। तभी गहनों से लदी-फदी सुन्दर सी साड़ी पहने एक स्त्री ने प्रवेश किया उसके साथ साधारण सी साड़ी पहने एक ओर स्त्री थी। उसने हाथों से पकड़ा बर्तन टेबल पर रख दिया और टेबल पर से प्लेट उठाकर उनमें खाना लगाने लगी। खाने से उठती भाप उसके गरम होने का संकेत दे रही थी। भरवां भिंडी, आलू-छोले, रोटी, दाल, चावल और हलवे से भरी प्लेटें खाने पर एकदम टूट पड़ने को ललचा रही थी। अब तक लदी-फदी स्त्री भी कुर्सी पर बैठ चुकी थी। उसने एक काँच के जग से शरबत सा कुछ चीनी के कटोरे में लड़की और आदमी को दिया फिर स्वयं लिया। सब धीरे-धीरे बातें करते खाना खा रहे थे। उसने बड़े चाव से खाने का स्वाद लेना शुरु किया। इतनी कुरकुरी भिण्डी उसने पहले कभी नहीं खाई थीं। आलू-छोले और हलवा तो कभी-कभार गाँव में किसी शादी में खाया था। पर गाँव के उन पानी वाले छोलों और इन छोलों में जमीन आसमान का अंतर था। तभी स्त्री ने परी लड़की को मालपुआ दिया। परी लड़की नाक-भौंह सिकोड़ने लगी-‘‘माँ यह मालपुआ बहुत मीठा और घी में तर है, मैं नहीं खाऊँगी।’’ किन्तु माँ नाम वाली स्त्री ने थोड़ा सा कहकर आधा मालपुआ लड़की की थाली में रख दिया। उसकी आँखें मालपुआ देखकर फटी सी रह गई। उसने आज तक मालपुआ देखा तक नहीं था। घी में तर मालपुआ। उसे तो रोटी में भी घी नहीं मिलता। उसके मुँह में मीठे मालपुएं का घी भर गया। उसका मन खिल उठा। तभी आदमी ने मालपुआ उठाया। स्त्री ने आदमी के हाथ से मालपुआ लगभग छीन लिया-‘‘आप यह नहीं खा सकते, डॉक्टर ने आपको मीठा खाने से मना किया है।’’ उसके कानों में इन शब्दों ने एक अजूबे की तरह प्रवेश किया। क्या ऐसा भी हो सकता है। मीठा खाने को डॉक्टर मना करे। उसे तो मीठे के नाम पर कभी-कभार गुड़ मिल जाता है। 
– ओह! गुड़ को छोड़ो अभी तो मालपुएं का स्वाद जीभ पर चढ़ गया है कितने रसभरे हैं मालपुएं। इतने अच्छे पकवान को लड़की ना-नुकुर कर रही है। उसे तो जैसे स्वर्ग के पकवान मिल गए। अम्मा से भी कहेगी वह बनाने के लिए। पर अम्मा बनाएगी कैसे ? घी कहाँ से लाएगी ? चाशनी कैसे बनाएगी ? क्या अम्मा को मालपुआ बनाना आता होगा ? और वह लाल से रंग का हलवा जाने कैसे बनाया जाता है। अभी तो उसे इतनी ढेर सारी चीजों का स्वाद चखना है। तभी लड़की ने कहा-‘‘माँ! बस अब पेट भर गया।’’ अरे अभी इसने खाया ही क्या है, बस थोड़ी सी सब्जी, एक रोटी, थोड़े से चावल और आधा मालपुआ। ओह! परी सी नाजुक लड़की की खुराक भी कम होती है, इत्ते से पेट भर जाता है। उसका तो इतने से खाने से पेट नहीं भरेगा। परी लड़की शरबत सा कुछ पीकर उठ गई। दूसरी स्त्री ने प्लेटें उठाई। परी लड़की सोफे पर आकर बैठ गई। लड़की के बदन और कपड़ों  से आ रही भीनी-भीनी गंध उसके नथुनों में भरने लगी। यह कौन सी गंध है? उसका मन पुलकित होने लगा। उसकी इच्छा हुई कि वह लड़की को छूकर देखे। पर उसके हाथ तो उजले नहीं हैं। कपड़े भी फटे-पुराने हैं। उसने डर के मारे अपने हाथ पीछे खींच लिए। 
अब वह आदमी और स्त्री सीढ़ी-चढ़कर ऊपर चले गए। दूसरी स्त्री काम करने वाली होगी। उसने सारे बर्तन उठाकर टेबल साफ कर दिया। अंदर कमरे से बर्तनों की आवाज आ रही थी। दूसरी स्त्री शायद बर्तन साफ कर रही थी। 
अब लड़की ने कमरे की दीवार पर टँगे टी.वी. को चालू कर दिया। उसने रंगीन पर्दे पर खूबसूरत स्त्री-पुरुष और बच्‍चे घूमते-फिरते नजर आ रहे थे। फिर वे नाचने लगे। उसने देखा सब घेरा बनाकर नाच रहे हैं। जोर-जोर से हँस रहे हैं। परी लड़की उसमें खोई हुई थी। उसका मन हुआ वह भी नाचे। उसे नाचना नहीं आता था। उसने उठकर अपनी फटी फ्राक को नीचे किया और टी.वी. को देखकर गोल-गोल घूमकर नाचने लगी। उसे बड़ा मजा आ रहा था। 
उसके साथ सभी कुछ नाचता दिख रहा था। अपने छोटे-छोटे कदमों से वह घूम रही थी…. घूमती जा रही थी….. बाहे फैलाएं….. गोल-गोल….। यही उसका नाच था। उसे मजा आ रहा था। परी लड़की आँखों से ओझल हो गई। टी.वी. की ओर से उसका ध्यान भटक गया। नाचते-नाचते जाने कैसे वह गिर पड़ी। उसकी दोनों कोहनियाँ छिल गई। घुटनों से खून बहने लगा। सामने से रमिया आ रही थी उसने चंदा को गिरते देखा तो दौड़ी आई-‘‘यहाँ गोल-गोल घूमने की क्या जरुरत थी, क्या नाच रही थी। गिरेगी नहीं तो क्या होगा ? देख घुटनों से खून बह रहा है। रमिया ने अपने पल्लू से बहता खून पोछा, चंदा का मुँह धुलाया और कोठरी में ले गई।
– ‘‘मैं ने तुझे घर में बैठने को कहा था और तू सड़क पर नाच रही थी। बावरी हो गई है क्या ? अब चुपचाप बैठ। एक सेर आटा उधार मांग कर लाई हूँ। अभी रोटी बनाती हूँ। आज दाड़की तो मिली नहीं देखे कल काम मिलता है कि नहीं।’’ 
रमिया ने आधा आटा तसले में उड़ेला और गूंथने बैठ गई। आज सुबह भूखे पेट ही निकली थी वह। चंदा के लिए एक कटोरे में धानी रख गई थी। पर धानी ऐसे ही रखी थी। चंदा ने अभी तक नहीं खाई थी। उसने कटोरा चंदा के आगे बढ़ा दिया-‘‘ले अभी ये धानी खा फिर रोटी खा लेना। दिन भर से भूखी बैठी है।’’ रमिया भी क्या करे गांव में बरसात में काम भी मिलना कठिन है। कभी मंडी में कुछ काम मिल जाता है तो पेट की जुगाड़ हो जाती है। चंदा का बापू जब से गया है लौटकर ही नहीं आया। जाने कहाँ मजदूरी करने गया है। अब रमिया से दाड़की भी नहीं होती, उसके शरीर में एक जान जो पल रही है। चंदा का रुँआसा चेहरा देखकर रमिया की आँखों से आँसू बहने लगे। 
– ‘‘अम्मा क्यों रोती हो। मैं जल्दी बड़ी होऊँगी। तुम्हारा हाथ बटाऊँगी। अपना भी घर होगा। सरकार सबको घर देगी। झरिया कह रहा था उसके बापू फारम भरने गए हैं। अम्मा तू भी भर दे। अपने को घर मिल जायेगा। अनाज मिलेगा। छम्मो कह रही थी आंगनवाड़ी वाली दीदी सबको पढ़ायेगी। सबको दोपहर का खाना देगी। घर के लिए दलिया देगी। कल से मुझको भी भेज दे अम्मा।’’
-‘‘तुझे भेज दूँगी तो जो कुछ कोठरी में है वह भी नहीं बचेगा। परमा कब से सोच रहा है इस कोठरी पर कब्जा कर ले। यदि वो अपना सामान यहाँ रख देगा तो उसको हम कैसे निकालेंगे। हम दोनों क्या कर लेंगे। तेरे बापू को भी गये चार महीने हो गए। उनका तो अब डर नहीं रहा किसी को।’’
अब तक रोटी बन गई थी। रमिया ने एक एल्यूमीनियम की थाली में दो मोटी-मोटी रोटी, प्याज और मिर्च रखी। अब दोनों माँ बेटी एक ही थाली में खाना खा रहीं थीं। खाते-खाते अचानक चंदा के मुंह में घी से तर मालपुए का स्वाद भर गया। ?
– ‘‘अम्मा क्या तुमने मालपुआ खाया है ?
– ‘‘नहीं तो, क्या ये कोई मिठाई है ?
– “हाँ! अम्मा खूब घी और चाशनी में तर मिठाई। तू बना सकती है अम्मा।”
– “नहीं रे। अपन कैसे बनाएं और खाएं मालपुआ ? तेरे बापू आ जाएं फिर देखेंगे।” 
– “अच्छा अम्मा जाने दे अभी तो ये मोटी रोटी मुझे मालपुआ लगती है।” 
– “चंदा तू तो सपनों में रहती है। हमें दो जून की रोटी और टूटी-फूटी छत मिल जाए यही बहुत है।”
– “ना!ना! अम्मा  सपन देखना अच्‍छी बात है उसे पूरा करना और अच्‍छा है । सब कहते हैं, झरिया छम्मो, आंगनवाड़ी दीदी और वो राशन वाला बनिया भी तो कहता है अम्मा देखती जा अपने-सपने भी पूरे होंगें।” 

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