Saturday, July 27, 2024
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पद्मा मिश्रा की कविता – मेरा बचपन, बाबुल का आंगन!

किसको पता था क़ि,
छूट जायेगा एक दिन-
मेरा प्यारा घरौंदा,,
बाबुल का आँगन..
आता याद आज भी, वो खोया मेरा उपवन,
बाबुल का आँगन..
अब तो बस ढलती हुई ,
उम्र क़ी तहरीरें है,
सूनी हथेलियों पर,
नियति की लकीरें हैं,
भूल कहाँ पाउंगी,
मेंहदी के फ़ूल रची गोरी हथेलियों पर,
अनजाना नाम कोई ..
सूनी दोपहरी में अम्मां की डांट सुन के,
सुखाते अन्चारों से अम्बिया चुराना,
ढोलक को पीट पीट,सोहर के गीत बजा,
गोलू के कुतिया क़ी छट्टी मनाना
बहना की कापी से फाड़कर दो चार पृष्ठ ,
नावें बनाकर फिर पानी में तैराना
भूल नहीं पाती हूँ,
पूजा के दीप जला,
तन्मय आँख बन्द किये,अम्मां को देख देख,
आरती की थाली से पैसे चुराना,
तिरछी निगाहों से एकटक निहारते,
पूजा के भोग लगे लड्डू छुपाना,
भूल कहाँ पाउंगी अम्मां क़ी बतियाँ,
मन क़ी कहानियों में गुम होती कल्पना,
कहाँ खो गए हैं सब?
मन तो चाहे अब भी,
छोडूँ सब झेले झमेलों को,
मन की मजबूरियों को,
समय क़ी दूरियों को,
खोये हुए बचपन को खींच कहीं से लाऊं,
बिछुड़ी सहेलियों को,
ढूंढ़  घर के आँगन में
सोहर के गीतों की महफ़िल जमाऊं,
पर खोज कहाँ पाउंगी, प्यारा वो नंदन वन,
अपनी गृहस्थी में डूब  गए सपनों को,
छोड़ सभी राजपाट,छोड़ सभी अपनों को,
घर की रसोई से कविता के शब्दों तक –
मन की कहानियों में उलझे संबंधों तक,
ढेरों दुश्वारियां है, कितनी मजबूरियां हैं,
मै ही खो जाउंगी,
उनके सच होने तक,
यादों में पलता है,
साँसों में बसता है,
मन के गलियारों में आज भी मचलता है,
अपना घर आंगन,,
अम्मां के आँचल में सोया मेरा बचपन,
आज भी रुलाता है  ..मुझको बुलाता है,
भूल नहीं पाउंगी.. भूल नहीं पाउंगी —
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2 टिप्पणी

  1. भावनाओं की चाशनी में डूबी हुई कविता सीधे बचपन में ले गई । जब बचपन था तब बड़े होने की जल्दी थी। तौलिए को लपेट साड़ी का लुत्फ़ उठाया जाता पर कहाँ पता था कि साड़ी का बोझ कितना भारी होता है ?
    बहुत बहुत सुंदर
    हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ

  2. भावनाओं की चाशनी में डूबी हुई कविता सीधे बचपन में ले गई । जब बचपन था तब बड़े होने की जल्दी थी। तौलिए को लपेट साड़ी का लुत्फ़ उठाया जाता पर कहाँ पता था कि साड़ी का बोझ कितना भारी होता है ?
    बहुत बहुत सुंदर
    हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ

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