आज सुबह से वंदना बहुत खुश थी । आखिर उसके पति अखिलेश ने उसकी बात मान ही ली थी और जया व रचना (वंदना की पड़ोसी व सहेलियाँ) के साथ मिलकर ये तीनों आज प्रॉपर्टी खरीदने जाने वाले थे । बिल्डर के ऑफिस में शानदार लाउंज में बैठकर आकर्षक ब्रोशर मन पहले ही लुभा चुका था । फिर बजट भी अनुकूल था।  एन. सी. आर. में कहाँ धरा था सत्रह लाख में टू, बी. एच. के., हालाँकि वो चाहती तो थी कि थ्री, बी. एच. के. मिल जाए, कल को बच्चे होंगे.. परिवार बढ़ेगा तो कमरे भी तो ज्यादा होने चाहिए, पर अखिलेश ने ज्यादा बर्डन बढ़ाने से मना कर दिया था । कोई बात नहीं आखिर लेने को तो मान ही गए थे । आज ही चेक लेकर साइट पर जाना था । नवरात्र की नवमी के दिन इससे अच्छा क्या हो सकता था, खुशी के अतिरेक में सुंदर पीला सूट पहनकर तैयार होकर निकली वंदना, दही शक्कर खाकर, कहीं से कोई अपशगुन नहीं लगना चाहिए न, मातारानी बस उसे जल्दी से फ्लैट की मालकिन बना दें बस… “जल्दी आओ” अखिलेश की आवाज कानों में पड़ते ही भागते हुए कार में जा बैठी । मन पंख लगाकर उड़ रहा था ।
तीनों सहेलियां अपने – अपने पति के साथ निकलीं । कुछ दूर चलकर बीच शहर से ही अंदर की तरफ रास्ता कट गया था, दूरी तो बमुश्किल पाँच किलोमीटर ही थी, शहर के बीचों बीच,  एन. सी. आर. में पाँच किलोमीटर दस मिनट का भी रास्ता नहीं होता है, बस ये गए कि वो पहुँचे… सोंच के दायरे में फ्लैट के भीतर विचरण करती वंदना की तंद्रा अचानक हिचकोले खाने से टूटी… सामने देखा तो धूल का गुबार कार के शीशे को भिगो गया था, आगे रेत का बवंडर सा उड़ रहा था, ऐसे में ऊँचें-नीचे हिचकोले खाती कार में सफर करना डेजर्ट सफारी से कम आनंददायक नहीं था । लेकिन ये कैसे.. वो कुछ समझती कि अखिलेश खीझ उठे- 
“ये कहाँ लाकर फंसा दिया तुमने.. वहाँ तक पहुंचने का तो रास्ता ही नहीं है… कच्चा भी नहीं.. ये तो रेत का मैदान है पूरा.. पता नहीं कहाँ होगी जमीन…??”
आश्चर्यचकित तो वंदना भी थी… पर फिर पति को समझाने लगी कि पहले पहुंचो तो, यह सब तो दो महीने में बन ही जाएगा । पर वहाँ तक पहुंचना एक – डेढ़ घंटे का समय लील गया । खैर जैसे- तैसे वो सब नियत स्थान पर पहुंच गए । 
वहाँ पहुंचे तो देखा, अरे ये क्या.. यहाँ तो मेला लगा हो जैसे… न जाने कितने सेल्समैन वहाँ खड़े उत्साह से अभिवादन को आतुर थे, हर कोई बस यही चाहता था कि ये विशिष्ट मेहमान उनके ही “क्लाइंट” बन जाएं । चारों तरफ रंग बिरंगी झंडियों की झालरें तनी थीं तो बड़े – बड़े आकर्षक बैनर उस सोसायटी औऱ फ्लैट्स की भव्यता का बखान कर रहे थे । इसी सजावट से समृध्द बीचों बीच में बना हुआ था एक भव्य सा सेल्स ऑफिस.. उसके अतिरिक्त चारों तरफ थी बस धूल और खाली बंजर जमीन.. एक बार को तो वंदना भी चौंक गई, मगर ऑफिस के भीतर कदम रखते ही वहाँ की भव्यता ने उसका मन फिर मोह लिया । 
लगातार चाय, कॉफी, बिसलेरी की बॉटल, ऐसे बंट रहीं थीं जैसे फ्री का लंगर चल रहा हो ।एक तरफ जहाँ वंदना प्रसन्नता के अतिरेक में थी, तो जया थोड़ा गुमसुम । वंदना ने पूँछा भी कि क्या बात है.. पर वो ज्यादा कुछ बोली नहीं, ऑफिस के टूअर से कल ही वापस आई थी तो उसे इस सबकी ज्यादा जानकारी नहीं थी । उसने अपने पति निखिल से डिसकस करना शुरू किया । वहीं रचना तो वंदना के पड़ोस में फ्लैट लेने से ही खुश थी, वैसे भी वो अपने पति गौरव की बात कभी टालती नहीं थी, इन सब विषयों में उसकी जानकारी नगण्य ही थी ।
तीनों कपल अपने-अपने विचारों में मगन थे कि तभी सेल्समैन आया और उन तीनों को अंदर केबिन में ले गया, जहाँ मैनेजर के रूप में एक सभ्य, सुशील महिला विराजमान थीं । चेहरे पर तेज व ब्रांडेड फॉर्मल सूट में लक दक करती हुईं मैनेजर साहिबा, महंगे फोन, घड़ी आदि से लैस थीं । अत्यधिक प्रसन्नता से मिलकर उन्होंने सबको बैठने का विनम्र आग्रह किया । फिर ब्रोशर डिसकस करते हुए, पहले तो बिल्डर की महानता व ईमानदारी के कसीदे पढ़े, फिर प्रोजेक्ट की विविधता समझाने लगीं, उसके बाद बड़े ही प्यार से न- नुकुर करते हुए बीस रुपए प्रति स्क्वायर फ़ीट की रकम भी ऐसे कम करी जैसे बिल्डर का यह नुकसान अपने पास से ही भर रहीं हों ।
   
इतनी बड़ी उपलब्धि पर जहाँ वंदना और रचना इतरा रहे थे तो वहीं जया कशमकश में थी । खैर सारी बातें डिस्कस करके आखिर साइट देखने की बारी आई । दो सेल्समैन सबको लेकर बाहर आ गए और सेल्स ऑफिस के पीछे वाले मैदान में ले जाकर खड़ा कर  दिया । सामने दूर-दूर तक बस सूखी और रेतीली जमीन थी.. अगर चार- पाँच किलोमीटर दूर वाली मल्टीस्टोरी ऑफिस की बिल्डिंग न दिखाई दे रही होती तो संभवतः धरती और आकाश का मिलन यहीं दिखाई दे जाता । 
किसी की कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या कहें या समझें कि तभी उनकी दुविधा भाँप कर सेल्समैन उन्हें बताने लगा कि देखिये यहीं पर एक सुंदर सा मेन गेट बनेगा बीचोबीच लगभग छत्तीस फीट चौड़ा, भव्य और यहीं से अंदर दोनों तरफ विदेशी फूलों का बगीचा होगा। गेट से ठीक सामने एक बड़ा सा पानी का फौव्वारा लगेगा, औऱ उसी के ठीक पीछे बड़ा सा पार्क, जिसमें झूले भी होंगे, वॉकिंग ट्रैक भी, बास्केटबॉल कोर्ट और बैठने के लिए एक अलग पार्क जिसमें थीम के अनुसार नवग्रहों से संबंधित पेड़ लगाए जाएंगे । इन्हीं पार्क के दोनों तरफ होंगी अठारह मंजिली इमारतें, जिसमें हर बिल्डिंग में दो-दो लिफ्ट्स लगेगीं और एक सर्विस लिफ्ट । बस आप यूं गए और वो पहुँचे सेकेंडों में वहाँ पंद्रहवीं मंजिल पर ।
सेल्समैन ने इशारे से दिखाया तो वंदना उत्साह से उधर ही देखने लगी । सेल्समैन बताने लगा – “वो देखिये मैडम… वो.. वहाँ पर होगा आपका फ्लैट.. और उसी जगह होगी आपकी पाँच फ़ीट चौड़ी और बारह फ़ीट लंबी बालकनी, वहीं से जब आप देखेंगी तो आपको पार्क के पीछे वाला स्वीमिंग पूल भी नज़र आएगा.. और वो देखिये वो आपकी किचेन से अटैच बालकनी… पाँच बाई आठ फ़ीट की बालकनी… जहाँ रोज़ सुबह सूरज की पहली किरण बस आपकी ही दोनों बालकनी की खिड़कियों पर पड़ेगी, बोले तो बिल्कुल डिवाइन एक्सपीरिएंस,  वहाँ से आपको सामने का पार्क भी दिखेगा ।”
सेल्समैन बताते जा रहा था और वंदना सोंच के सागर में गोते लगा रही थी । सुबह की पहली खिली हुई धूप की रोशनी उसके चेहरे को गुदगुदा रही हैं, कुनमुनाते हुए धीरे से अंगड़ाई लेते हुए वो उठ रही है, फिर वो खिड़की से धीरे – धीरे पूरा पर्दा हटा देती है । पर्दा हटाते ही सुनहरी आभा से पूरा कमरा खिलखिला जाता है । अखिलेश भी जागकर, मंत्रमुग्ध से इस नज़ारे को देख रहे हैं फिर दोनों बाहर बालकनी में आ जाते हैं और हाथों में हाथ डाले सुनहरी सुबह का आनंद ले रहे हैं… चाय की चुस्कियों के साथ… चाय का स्वाद मुंह में आया ही था कि तभी कसैला हो गया जब जया बोली-
“वहाँ कहाँ..?? हवा में….!! ” और वंदना सपने के टूटने से खीझ उठी ।
इस बार तो रचना भी तपाक से बोल पड़ी-
“हाँ… मैं भी सोंच ही रही थी कि हवा में कैसे.. आज ही सप्तशती में पढ़ा था कि माँ भगवती को शुम्भ आकाश में लेकर उड़ गया और वो बिना आधार के ही उससे युद्ध कर रहीं थीं.. मगर हम तो इंसान हैं…  हम कैसे रहेंगे वहाँ…??”
उसकी बात सुनकर सेल्समैन खिसिया गया फिर खींसे निपोरते हुए बोला- 
“अरे मैडम, ये तो मैं आपको जगह बता रहा था, बाकी फ्लैट तो बस दो साल में बन जाएगा.. कुल तीस महीने का प्रोजेक्ट है, बस उसके बाद तो यहाँ छह सौ परिवार रह रहे होंगे, जिनमें आप भी होंगीं ।”
रचना ने भी समझने का उपक्रम किया पर वो फिर भी समझी कुछ नहीं थी । उसके बाद इसी तरह से स्वप्न लोक में विचरण करके वे सब वापस सेल्स ऑफिस आ गए.. जहाँ अखिलेश और गौरव ने तुरंत ही दस प्रतिशत बुकिंग अमाउंट देकर फ्लैट मालिक का तमगा हांसिल कर लिया तो वहीं निखिल ने जया से सलाह करके फिलहाल के लिए फ्लैट लेने का विचार त्याग दिया था ।
    
सब अपने – अपने घर लौट चुके थे । वंदना जहाँ नए फ्लैट में रहने के सपने संजो रही थी वहीं रचना बस खुश थी और जया निर्विकार भाव से घर पहुंची । जया ने घर पहुंचते ही निखिल से सबसे पहले ऐसे हवा में फ्लैट लेने के लिए मना कर दिया, जिस प्रॉपर्टी का कोई आधार ही नहीं उसे लेने से क्या फायदा ?? यह तो वही बात हुई कि “न जमीन अपनी न आसमान अपना”, खैर सबके अपने विचार थे ।
समय अपनी गति से चलने लगा । अभी महीना भी नहीं बीता था कि पंद्रह परसेंट की डिमांड आ गई “एट द टाइम ऑफ फाउंडेशन ब्लॉक की”, जैसे तैसे लोन कराकर अखिलेश और गौरव ने पंद्रह परसेंट जमा किए कि अगली डिमांड पंद्रह दिनों के भीतर ही आ गई “एट द टाइम ऑफ फर्स्ट फ्लोर कंस्ट्रक्शन” । अब क्योंकि इन दोनों ने “कंस्ट्रक्शन लिंक” प्लान लिया था तो जैसे-जैसे कंस्ट्रक्शन होता जा रहा था, डिमांड्स आती जा रहीं थीं और साथ ही बढ़ रहीं थीं  ई.एम.आई. भी, लेकिन वंदना खुश थी, कि बस कुछ ही माह में वो अपने खुद के फ्लैट में रहेगी । आखिर आम इंसान की और ख्वाहिश ही क्या होती है, “रोटी, कपड़ा और एक अदद फ्लैट वो भी एन. सी. आर. में”,  और वो सपना पूरा होने के महज चंद कदम की दूरी पर था ।
एक साल बाद वंदना के दादी-बाबा की शादी की साठवीं वर्षगांठ थी, उसने मन ही मन उनकी शादी की वर्षगांठ अपने खुद के नए फ्लैट में करने की सोंची थी । घर में सबको इसके लिए मना भी लिया था लेकिन ऐन मौके पर जाने कौन से विघ्न आए कि पजेशन तो दूर बिल्डिंग का काम ही रुका पड़ा था । साल भर के अंदर बिल्डर के पास से “नाइंटी फाइव परसेंट” की डिमांड्स आ चुकी थीं । सारा पैसा बैंक के द्वारा जमा कराया जा चुका था । अब बस आखिरी “पाँच परसेंट” बाकी थे जो कि “एट द टाइम ऑफ पजेशन” देने थे, पर वो पजेशन था कि होने का नाम ही नहीं ले रहा था।
अखिलेश को कहीं से पता चला कि बिल्डर ने अपार्टमेंट का जो नक्शा दिखाया था वो बदल दिया था । अब नए नक्शे में बालकनी बड़ी और कमरे छोटे हो चुके थे । भव्य ड्राइंग रूम एक सामान्य से थोड़े बड़े कमरे में बदल चुका था और बीच का छोटा सा लाउंज गायब हो चुका था । अब दोनों बेडरूम के दरवाजे भी ड्राइंग रूम में ही खुल रहे थे । यह सब सुनकर वंदना पर तो जैसे कुठाराघात ही हुआ था, पर अब किया क्या जा सकता था । साथ ही अठारह की जगह पच्चीस मंजिला इमारत बन रही थी, जिसका अप्रूवल नहीं था । स्ट्रक्चर खड़ा हो गया था, पर एन. ओ. सी. नहीं मिल रही थी तो पजेशन कैसे हो ।
आखिर एक दिन अखिलेश ने झल्लाकर कहा-
“जब तक बिल्डर को पैसे लेने होते हैं तो उस वक़्त दुनिया का सबसे तेज कंस्ट्रक्शन चल रहा होता है, साल भर में “नाइंटी फाइव परसेंट डन”, लेकिन जब बिल्डर को प्रोजेक्ट डिलीवर करना होता है तो विश्व का सबसे स्लो कंस्ट्रक्शन होने लगता है, वो आखिरी पाँच परसेंट सालों तक पूरा नहीं होता ।”
और हुआ भी वही, देखते ही देखते सात साल निकल गए, लेकिन वो आखिरी पाँच परसेंट का काम पूरा नहीं हुआ । अब तक वंदना के दादाजी जी परलोक गमन कर चुके थे, उनकी एनिवर्सरी तो सेलिब्रेट हो गई थी पर उनको अपना फ्लैट न दिखा पाने का वंदना का सपना चूर – चूर हो चुका था । मजे में बस जया रही, जिसने दो साल और सेविंग करके “रेडी टू मूव” फ्लैट खरीदा और मस्त उसमें रह रही थी । वंदना जब भी जाती उसके घर तो कलेजे पर साँप लोट रहे होते उसके, पर वह जबरन मुस्कुराती और अपने फ्लैट की उम्मीद में मन को समझा लेती । रचना भी कब की  बैंगलोर शिफ्ट हो चुकी थी तो उसे यहाँ की प्रॉपर्टी में अब कोई रुचि नहीं थी । हाँ गाहे बगाहे वो वंदना के कारण खुद के भी इस प्रोपर्टी में फंस जाने का उसे अहसास करा देती थी, जिसे वंदना बमुश्किल सहन कर लेती थी ।
बड़ी मुश्किलों और धरने प्रदर्शन के बाद आखिर बिल्डर ने फिनिशिंग निपटाई । प्लास्टर और पुताई आखिरी पाँच परसेंट में ही आते हैं जिन्हें पूरा करना बिल्डर्स की आदत में ही शुमार नहीं है । सारे पैसे लेकर बस बिल्डिंग बना देते हैं और हजारों- हजार लोग बस एक अदद घर की आशा में उसी आधी – अधूरी बिल्डिंग को देखकर संतोष करते रहते हैं । 
खैर किसी तरह से “ऑफर ऑफ पजेशन” लेटर आया । साथ ही क्लब मेम्बरशिप, दो साल के एडवांस मेंटिनेंस, ओपन और कवर्ड पार्किंग, पॉवर बैकअप आदि के नाम पर पाँच से छह लाख का अतरिक्त भार भी आया और रजिस्ट्री का खर्चा अलग है वो जब होगी तब देना होगा । दस बारह लाख की लपेट में आने के बाद बिना एन. ओ. सी. मिले फ्लैट में ही शिफ्ट होने की सोंची वंदना और अखिलेश ने, क्योंकि ई. एम. आई. तो थी ही, साथ ही किराया भी सुरसा के मुँह की तरह बढ़ता जा रहा था । हर ग्यारह महीने में दस से पंद्रह परसेंट की बढ़ोतरी को झेलना भी आसान नहीं था, तो आखिर ग्रह प्रवेश की तैयारी शुरू हुई ।
आज ग्रह प्रवेश की पावन बेला थी । सब तैयारियों के बाद वंदना और अखिलेश आकर बालकनी में खड़े हुए, उसी बालकनी में जहाँ बड़ी आशा से नौ वर्ष पूर्व खुली आँखों से वंदना ने अखिलेश के साथ हाथों में हाथ डाले चाय की चुस्कियों के बीच कुछ सुहाने पल जिये थे । आज वही बालकनी थी, वही धूप का उजियारा, बस नहीं थे तो हाथों में हाथ, क्योंकि वंदना की गोद में दो वर्ष की सृष्टि थी तो अखिलेश का हाथ थामे सात साल का आर्यन ।
वंदना के चेहरे पर उम्र हावी हो चुकी थी और अखिलेश के बालों में सफेदी । 
खुशी का दिन था, चेहरे पर  मुस्कान भी थी, सारे ख्यालों को झटककर, बालकनी में ज्यादा देर न रुकते हुए, अंदर आकर अखिलेश ने उन चारों की फैमिली फ़ोटो लगाने के लिए ड्राइंग रूम की दीवार पर जैसे ही कील गाड़ी कि प्लास्टर का एक बड़ा सा टुकड़ा हाथ में आ गया और पीछे से भरभराकर गिरी रेत ड्राइंग रूम की चमकती फर्श को धूमिल कर गई । मेहमानों के आने का समय हो रहा था, इसलिए जल्दी से किसी तरह फ़ोटो फ्रेम के पीछे टूटे प्लास्टर को छुपाकर अखिलेश ने इतिश्री की तो झाड़ू से फर्श साफकर वंदना ने । जल्दी से दोनों ने सब कुछ यथावत कर चेहरों पर मुस्कुराहट ओढ़ ली और स्वागत करने लगे मेहमानों का, आखिर उनका एन. सी. आर. में टू, बी. एच. के. फ्लैट का सपना पूरा हो गया था । कोई मजाक थोड़े ही है… भई बड़ी मशक्कत का काम है । इतना सब होने के बाद भी रजिस्ट्री अभी बाकी ही है, हम आशा करते हैं कि उनका रजिस्ट्री का सपना भी इस जन्म में पूरा हो ही जाए ।

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