पार्टी शानदार चल रही थी।ऑफिसर व्हिस्की, बीयर,जिन और लेडीज़,वाइन,लाइम सोडा,कोक,जूस हाथ में थामें –चीयर्स टू न्यूली  वेड कपल‘-कहकर अपनी अपनी ड्रिंक इंज्वॉय कर रहे थे। मन्द मन्द स्वर में बजते कर्णप्रिय संगीत की धुनें पार्टी में अलग ही रस घोल रहीं थीं। स्मार्ट यूनिफॉर्म में सजे वेटर वेज़ और नॉनवेज़ स्नैक्स की ट्रे उठाये इधर से उधर भाग रहे थे।आज की यह लंच पार्टी कर्नल आहूजा की ओर से अपने कोर्समेट्स को दी जा रही थी। सारे कोर्समेट अपनी उम्र को पीछे धकेलकर नये जोश के साथ चुहलबाजी में मस्त थे। पूरा माहौल जीवंत और आल्हाद से स्पन्दित था।
लेडीज़ के एक ग्रुप की खुसुरफुसुर अलग चल रही थी। मिसेज़ सिद्दिकी ने कहा ;
हाय अल्लाह ! शादी आहूजा ने की है। पर देखो ! बदले बदले सरकार हम सब के नज़र आ रहे हैं । देखो ! देखो ! सब कैसे चहक रहे हैं? सबके मन में  अनार फूट रहे हैं, जैसे नयी दुल्हन उन्हें भी रिटर्न गिफ्ट में मिलने वाली है।”
लिल्ली ने अपनी फुलझड़ी जोड़ दी ;
सब आहूजा के नसीब से रश्क कर रहे होंगे, पर नयी दुल्हन तो उनको  तभी मिलेगी ,जब हम अल्ला मियाँ को प्यारे होंगे ।”
माहौल  में कई अनार एक साथ फूट पड़े।जब लिल्ली ने जोरदार ठहाका लगाकर यह बात कही। पर मिसेज़ माया शेखावत कुछ अनमनी सी दिखीं। उन्हें  यह पार्टी  रास नहीं आ रही थी। उनकी नजर शशि शर्मा पर गयी। वह उनके ही शहर  अलवर से थी। अतः उन दोनों का आपस में एक अनकहा प्यारा सा रिश्ता बन गया था, वह शशि को एक कोने में खींचकर ले गयीं और अपनी भड़ास  निकालने के लिये थोड़े तुर्श स्वर में बोली ;
सच बताना शशि ! 75 की उम्र में शादी करने का क्या कोई तुक है? अब तो नाती पोतों  की शादी की उम्र है। इन्हें कौन से लड्डू मिलेंगे, इस उम्र में खाने को? अरे ! हम सब का एक पैर कब्र में  लटका है। हर आने वाला दिन बोनस है। ऐसे में शादी ! तौबा ! तौबा। मैं तो इसे पागलपन कहूँगी। सच में आहूजा पगला गया है। तुम क्या सोचती हो , इन लोगों ने सही किया है?” 
शशि को माया की बात का तुरन्त कोई जवाब नहीं सूझा। वह स्वयं स्तब्ध थी। उसे पार्टी में आने से पहले अमरेन्द्र ने कुछ नहीं बताया था। उसने सोचा था, महीने में होने वाला नार्मल गेट टू गैदर है। उसके लिये भी सब कुछ अप्रत्याशित था।
इस समय उसका दिलो-दिमाग कहीं अतीत में अटका हुआ था। उसे मस्तमौला अलका बहुत याद आ रही थी। हँसमुख अलका और जिन्दादिल आहूजा की जोड़ी मेड फॉर ईच अदरथी। वह दोनों हर पार्टी में छाये रहते थे। अलका से सब की आखिरी मुलाकात इसी क्लब में हुई थी। सब कोर्स की गोल्डन जुबली मनाकर इजिप्ट की यात्रा पर गये थे। वहाँ से लौटकर सिर्फ एक बार गेट टू गैदर में अलका आई थी। फिर एक दिन अचानक आहूजा की  व्हाटस्अप पर हृदयविदारक सूचना मिली थी ;
 “दुःख के साथ सूचित कर रहा हूँ कि मेरी पत्नी अलका की हृदयाघात से मृत्यु हो गयी है।” 
इस वज्रघाती सूचना को पढ़कर सब सहम गये थे। अपनी शोकसंवेदनाएँ सबने फोन से ही भेजी थीं।  एक लम्बे अन्तराल तक आहूजा की कोई खबर नहीं थी। वह कहाँ है? क्या कर रहा है? यार दोस्तों ने सोच लिया था, शायद वह अमेरिका में अपने बेटे के साथ है।
फिर आया कोरोना का तांडव काल। कोरोना की विभीषिका और लॉकडाउन के हालात में सब से मिलना-जुलना असम्भव हो गया था। सब पार्टियाँ बन्द हो गयीं थीं। एक तरह से क्लब पर ही ताला जड़ गया था। लेकिन सब एक दूसरे से फोन से संपर्क साधे हुए थे। लेकिन आहूजा ने कोई सम्पर्क नहीं रखा। एक एक करके कई  दोस्त  कोरोना के शिकार बन गये थे। आहूजा के लिये भी मन में आशंका उठी थी। अनजाना डर सबके दिलो दिमाग में बैठ गया था। 
लॉकडाउन खुलने के बाद जिन्दगी फिर पटरी पर लौटी थी। क्लब की रौनकें फिर लौट आई। लेकिन आहूजा किसी पार्टी में कभी नहीं आया। आज छह साल बाद दिखाई दिया है। 
आहूजा ने उम्र के इस पड़ाव पर पुनर्विवाह क्यों किया है? जरूर कोई ठोस वजह रही होगी। शशि वजह जानने के लिये बेचैन थी, तभी  ब्रिगेडियर लाल ने एनाउंसमेंट कर दिया ;
अब मैं कर्नल एण्ड डॉ.मिसेज वन्दना आहूजा से गुजारिश करूँगा कि वह डाइस पर आये।” इसके  बाद उन्हें पूरे कोर्समेट्स की तरफ से गुलदस्ता और उपहार भेंट किया गया। 
 अब वंदना सबकी जिज्ञासा का केन्द्र थी। सब उसके बारे में जानना चाहते थे। वंदना का साधारण रंगरूप  देखकर माया फिर धीरे से शशि के कान में फुसफुसाई ;
हाय राम ! वंदना में ऐसा क्या आहूजा को दिख गया, जो इस उम्र में फिसल गये।” शशि धीरे से मुस्करा दी।
सबके अनुरोध पर सौम्य  व्यक्तित्व की स्वामिनी वन्दना ने अपना परिचय बड़े नपे-तुले शब्दों में दिया ;
गुड आफ्टर नून ! मेरी वन्दना माथुर से मिसेज वन्दना आहूजा बनने की कहानी बहुत लम्बी है। संक्षेप में इतना ही कहूँगी कि मेरे पूर्व पति कैप्टन नीतीश माथुर आज से 42 वर्ष पूर्व एक उग्रवादी आपरेशन में मणिपुर में शहीद हो गये थे। उस समय मेरी बेटी कल्पना मात्र 6 महीने की थी। आज वह आस्ट्रेलिया में एक ख्र्यातिलब्ध सर्जन है । मैं सागर विश्वविद्यालय के इकोनोमिक्स विभाग मैं पढ़ा रही थी। वहाँ से रिटायर होकर छह साल से हैदराबाद में अपने फ्लैट में अकेली रह रही थी। अब वहाँ से अपना सब कुछ समेट कर आहूजा के साथ आप लोगों  के बीच आ गयी हूँ।
 सबने करतलध्वनि से उनका स्वागत किया। ब्रिगे.अमरेन्द्र ने आहूजा को छेड़ते हुए कहा ;
अब तेरी बारी है। तू सच सच बता ,वन्दना को पहली बार डेट पर कब और कहाँ लेकर गया था।”
 आहूजा ने अपनी टाई की नॉट को ठीक करते हुए कहा ; “मेरे शरारती दोस्तो ! जैसा आप सब समझ रहे हो, वैसा कुछ नहीं हुआ। बस सब कुछ इत्तेफाक से हो गया है।”
 सारे दोस्त  शोर मचाने लगे ;
यार हमसे क्या पर्दा, सच सच बता।” 
आहूजा सच ही बोल रहा था। अपनी पत्नी अलका की मृत्यु से वह बिल्कुल अकेला पड़ गया था। बेटा अमेरिका में स्थायी रूप से बस चुका था। यहाँ वह अकेला था । घर  पर सन्नाटे से उसकी भयानक मुलाकात हुई। बेटा बार  बार पास बुला रहा था। अमेरिका में स्थायी रूप से बसने का फैसला नहीं ले पा रहे थे। कुछ दिनों के लिये गये, फिर वापस लौट आये। किसी तरह से समय के साथ बहने का प्रयास कर रहे थे। फिर कोरोना के चक्रव्यूह में फंस गये। उनके बीमार पड़ते ही नौकर भाग गया। कोरोना की विभीषिका ने मनुष्यता को बंधक बना लिया था। ढेरों नाते रिश्तेदार यार दोस्त और परिचित थे। लेकिन कोई  करीब नहीं आ सका। किसी का कन्धा नहीं मिला रोने के लिये।  उसके घर के बाहर क्रास का निशान बना दिया गया था। एक तरह से उसका सामाजिक बहिष्कार हो गया था। बीमारी में एक प्याली चाय के लिये तरस गया। अकेलेपन की जिस अंधेरी कन्दरा में वह कैद था, वहाँ  उदासी और अवसाद  के अलावा और कुछ नहीं था। कोरोना ने सबको संवेदनशीलता की आर्द्रता से वंचित कर दिया था। हालात सामान्य होने में लम्बा समय लगा। तब बेट ने अमेरिका  आने के लिये दबाव डाला ;
पापा आप अकेले इण्डिया में नहीं रहोंगे? अब आपको हमारे पास ही आकर रहना होगा। हम आपका कोई बहाना नहीं सुनेंगे।”
 वह भी अकेलेपन से घबरा गया था। वहाँ जाने में ही भलाई  समझी । वह वहाँ अपना दुःख-दर्द और अकेलापन बाँटने गया था। पर वहाँ एक अजीब तरह के सन्नाटे में गिरफ्तार हो गया। बेटे बहू की जिन्दगी इतनी यांत्रिक थी कि पूछो नहीं। उनके पास सब कुछ था,पर उसे देने के लिये समय नहीं था ,सच पूछो तो बच्चों के पास अपने और अपने परिवार के लिये भी समय नहीं था। वह  वहाँ भी अकेला पड़ गया। सारा दिन घर में अकेला पड़ा पड़ा भावनात्मक और मानसिक रूप से अपने को बीमार समझने लगा। जिस मकसद से गया था, वह पूरा नहीं  हुआ। वह भारत लौटने के लिये छटपटाने लगा। उसी समय उसके अभिन्न मित्र सोमेश की शादी की पचासवीं सालगिरह का निमंत्रण आया। उसे भारत लौटने  का अच्छा बहाना मिल गया।.उसने  बेटे से कहा ;
सोमेश की शादी की सालगिरह के फंक्शन में शिरकत भी कर लूँगा,साथ ही साथ कुछ अधूरे काम इण्डिया में हैं, उन्हें  पूरा कर लूँगा। फिर बेफिक्र होकर तुम्हारे पास आऊँगा ।”
बेटे-बहू से नहीं कह पाये मन का सच कि मेरा यहाँ मन नहीं  लगता है। बेटे -बहू को दुःख  होता। क्योंकि इसमें  उनका कोई दोष नहीं था। उनकी जिंदगी ऐसी ही थी। अपनी तरफ से बच्चे सब सुख-सुविधाएँ मुहैया करा रहे थे। पर उसका अकेलापन अपनी जगह पर कायम था। सोमेश का बहाना लेकर लौटा। एयरपोर्ट से सीधे उन्हीं के घर चला गया था। जहाँ भविष्य उसका इन्तजार कर रहा था।
   आहूजा ने हाथ उठाकर सबको शान्त रखने का उपक्रम  करते हुए कहा
दोस्तो ! मैं  वन्दना को पहले से नहीं  जानता था। वन्दना मेरे बचपन के दोस्त सोमेश की पारिवारिक मित्र है। वह भी सोमेश को शादी की सालगिरह की मुबारकबाद देने हैदराबाद से आई हुई थी। हमारी मुलाकात सोमेश के घर पर हुई। हमारी और वन्दना जी की जिन्दगी के बारे में सोमेश को सब मालूम था। उसने ही कहा ;
तुम दोनों का दर्द  एक जैसा है। दो अधूरी जिन्दगी मिलकर एक पूरी जिन्दगी बन सकती है। अगर कोशिश की जाये।
उसी ने हमें विवाह करके एक साथ रहने की सलाह दी थी। उसके जोर देने पर हम दोनों तीन-चार बार उसके ही घर पर मिले थे। पूरी ईमानदारी और सच्चाई से हमने अपनी अपनी समस्याओं को शेयर किया। हमें लगा हमारी जरूरतें और समस्याएँ एक जैसी हैं। हम दोनों के बच्चे विदेश में सेटल हैं। बच्चों को हमसे जो कुछ लेना था, वह ले चुके थे। हमें देने के लिये उनके पास सिर्फ डॉलर्स थे, जिनकी हमें जरूरत नहीं थी। हमें क्वालिटी टाइम बिताने के लिये कम्पनी चाहिये थी। उनके फोन पर –पापा ! मिस यू, टेक केअरकहने से मेरी केअर नहीं हो सकती थी। हमें ग्राउंड पर अपना सुख-दुख बाँटने वाला साथी चाहिये था। अलका के इस तरह जाने से मैं बिलकुल टूट गया था। घर भांय-भांय कर रहा था। अकेले कभी घर गृहस्थी सम्भाली नहीं  थी। मुझे सम्हालने वाला आस-पास कोई नहीं था। अब हम मोहल्ला संस्कृति और संयुक्त परिवार की सीमा को लांघ चुके हैं। फ्लैट कल्चर ने हमारे जीवन को और अकेला कर दिया है। बच्चों की अपनी जिन्दगी की समस्याएँ और जिम्मेदारियाँ हैं ।उनके पास रहकर उनके लाइफ स्टाइल में ढलना हमारे लिये मुश्किल था। हमने वह जीवन भी कुछ समय जी कर देख लिया था। अकेलापन वहाँ और ज्यादा लगा था। लेकिन इस उम्र में शादी करने का निर्णय लेना भी बड़ा कठिन था-लोग क्या कहेंगे? बच्चे क्या सोचेंगे ? रिश्तेदारों  की क्या प्रतिक्रिया  होगी?’ यही सब बातें हमें आगे बढ़ने से रोक रहीं थीं। हमारे समाज में बिना शादी के स्त्री-पुरुष का एक छत के नीचे रहना भी सम्मानजनक नहीं समझा जाता है। मगर सोमेश ने समझाया-लोगों की बातों पर समय मत व्यर्थ करो। रही बच्चों  की रज़ामन्दी, तो मैं  उनसे बात करता हूँ ।उम्मीद के विपरीत हम दोनों के बच्चों ने अपनी रज़ामन्दी  देने के साथ ही साथ अपनी प्रसन्नता भी प्रकट की-अगर ऐसा हो जाये अंक्ल ,तो हमारी चिन्ता ही मिट जायेगी। हम अपने सिंगल पेरेन्ट के लिये फिक्रमंद होने के साथ साथ गिल्ट भी महसूस करते हैं‘ , कहकर हमारे कदमों को आगे बढ़ाया। शादी के मौके पर समय निकाल कर आये। विवाह  के बाद हम दोनों ही पूरे नहीं हुए हैं बल्कि  हमारे अधूरे परिवार भी पूरे हो गये है। वंदना की बेटी कल्पना ने मेरा हाथ पकड़ कर पूछा-सारी उम्र एक शब्द पापाबोलने का अधिकार मेरे पास नहीं था। उसके लिये बहुत तरसी हूँ, क्या मैं आपको पापा बुला सकती हूँ?’ उसकी बात सुनकर मैं बहुत भावुक हो गया। हम और अलका भी बेटी के लिये बहुत तरसे थे। कल्पना के रूप में मुझे बेटी और मेरे बेटे को बहन मिल गयी है।” सबने ताली बजाकर-वेल डन टाइगर‘-कहकर आहूजा को कन्धे पर उठा लिया।
माया फिर शशि को बॉलकोनी में खींच लाई। शरारती आँखों को नचा कर बोली-ओ माई गॉड ! इन्होंने अपनी सुहागरात में क्या किया होगा?’ शशि के उत्तर  देने से पहले कर्नल घोष ने कहा-डॉ.वंदना जी ! सुना है आप बहुत सुन्दर गाती हैं। कुछ सुनाईये प्लीज !” वंदना ने बिना किसी नखरे के एक प्रशिक्षित गायिका की तरह एक गीत सुनाया-पूछो न कैसे मैंने  रैन बिताई। वंसमोर‘ ‘वंसमोरसे पूरा हाल गुंजायमान हो उठा।उन्होंने सबके अनुरोध का मान रखते हुए-के सरा सरागाकर सबको और आश्चर्य चकित कर दिया। उन्हें हिन्दी और अंग्रेजी दोनों ही विधा के गायनकला में महारत हासिल थी। दोनों ही गाने सुनकर दिल खुश हो गया। 
लौटते समय सुहागरात वाला माया का भद्दा मजाक शशि को सालता रहा। मन में मंथन चलता रहा। शादी की वजह धीरे धीरे समझ में आने लगी। भले ही इस उम्र में व्यक्ति की बॉयलॉजिकल नीड नहीं रहती हैं।लेकिन उसे भावनात्मक सुरक्षा का संबल तो चाहिए ही। दिल के खालीपन को भरने के लिये कोई बात करने वाला, सुनने वाला और सुख दुःख में साथ खड़ा होने वाले साथी की जरूरत तो महसूस  होती है। जरूर उन्होंने अपनी पहली रात बहुत कशमकश में बिताई होगी। वंदना को कैप्टन माथुर और आहूजा को अलका से जुड़ी हर बात याद आई होगी। हर बात पर रोना भी आया होगा। अन्दर रिसता दर्द आँसुओं में पिघल कर पनाला की तरह बहा होगा। दोनों ने एक दूसरे के घावों  पर संवेदना का मरहम लगाया होगा। अतीत से निकल कर दोस्ती का हाथ थामा होगा। दोस्ती के सफर में उनके घर की  दीवारों पर कुछ और तस्वीरें सज गयी होगीं। दीवारें आपस में गुफ्तगूँ करने लगी होगीं। खामोश डायनिंग टेबल-थोड़ा और लीजिये’, ‘ अरे!आपने तो कुछ खाया नहीं-से चहकने लगी होगी। एक दूसरे को दवाइयाँ समय से लेने की याद दिलाई जा रही होगी ।गुनगुनी धूप में बैठकर दोनों थोड़ी देर के लिये अतीत के कुहासे से निकलकर कुछ आज की बातें कर लेते होंगे। देश दुनिया की खबरों की चर्चा भी होती होगी। जिन्दगी को एक मकसद मिल गया होगा। अकेलेपन का सन्नाटा कितना जानलेवा होता है। जीवन में कितनी उदासी ,निरीहता और अवसाद भर देता है, यह वही महसूस कर सकता है,जो सन्नाटे की गुफा में कैद हुआ हो। वन्दना ने बेटी के पालन पोषण एवं पढ़ाने लिखाई  के उत्तरदायित्व तथा विश्वविद्यालय में अध्यापन की व्यस्तता में अकेलेपन का दंश झेल लिया था। लेकिन रिटायरमेन्ट के बाद अकेलेपन की असुरक्षित अंधेरी सुरंग से गुजरना उसके लिये बहुत मुश्किल हो गया था। वह उनसे लड़ते लड़ते लहू-लुहान हो गयी थी। एक अच्छे दोस्त की जरूरत ने उसे शादी के निर्णय तक खींचा था। 
अगर  दोस्ती के शामियाने के नीचे  बैठकर थोड़े समय के लिये ही सही फिर से उन दोनों की जिन्दगी गुनगुनाने लगे और उम्र का बचा टुकड़ा हँसी खुशी से जी लिया जाये,तो इसमें हर्ज क्या है?सब कुछ होते हुए भी एक दोस्त की जरूरत तो हर उम्र में होती ही है। इस पर तंज और उपहास क्यों?

नाम– डॉ. कृष्णलता सिंह
जन्म तिथि–3अप्रैल
शिक्षा-एम.ए.पीएचडी (लखनऊ विश्वविद्यालय)
सम्प्रति-अध्यापन से अवकाश और स्वतंत्र लेखन।
सम्मान-आधारशिला फाउंडेशन द्वारा मारीशस में 2015 में आयोजित अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन में-‘हिन्दी गौरव’
तथा 2016 में पेरिस में आयोजित अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन में ‘महादेवी वर्मा ‘सम्मान से सम्मानित 1
पुस्तक/प्रकाशन- कहानी संग्रह-‘मेरे हिस्से का आसमान’ (आधारशिला प्रकाशन, देहरादून ), ‘
कहानी संग्रह-लछमनिया’ (रश्मि प्रकाशन, लखनऊ)
कहानी संग्रह- सेल्फी और इन्द्रधनुष (लिटिल वर्ड प्रकाशन)
कहानी संग्रह-रंग बदलती जिन्दगी (लिटिलबर्ड प्रकाशन दिल्ली)
उपन्यास- गुनाह एक किश्तें हजार (आधार शिला प्रकाशन देहरादून)
उपन्यास- मेरी यात्रा-सैन्यधर्म के कुछ दस्तावेज़ (पिजन प्रकाशन दिल्ली से)
उपन्यास-वक्त की शाख पर टँगे लम्हे (अद्विक प्रकाशन, दिल्ली)
दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर आदि समाचार पत्रों एवं साहित्यिक पत्रिकाओं में लेख कहानियाँ और संस्मरण आदि प्रकाशित ।
सम्पर्क – 9971107736
C-301,रहेजा अथर्वा,सेक्टर 109,
गुरुग्राम, 122001,हरियाणा,भारत ।

1 टिप्पणी

  1. डा0 कृष्णलता सिंह की कहानी हर्ज़ क्या है पढ़ी।जीवन साथी के न रहने के बाद के एकाकीपन का सही वर्णन और उससे जूझते दो लोग यदि एक प्रौढ़ आयु में यदि विवाह कर लेते हैं तो लोग तरह तरह की बाते बनाते ही हैं। पर यदि सोच कर देखा जाये तो बहुत सारी रिक्तताऐं भर जाती हैं और नीरस जीवन सरस हो जाता है। जीवन को नये मायने और एक सम्बल मिलता है। ऐसा हो जाना चाहिए कोई हर्ज़ नहीं है। और ऐसा हो भी रहा है भारत में अब।

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