एक महिला ने तो रह्स्योद्घाटन करते हुए बताया कि उसके पति का अंतिम संस्कार 8 महीने पहले हो चुका था मगर उसका शव अभी भी फ़्रीज़र में सड़ रहा है। उसे समझ नहीं आ रही कि आजतक वह जिसे अपने पति की ऱाख समझ रही थी, वो किस अजनबी की है… वो अजनबी औरत थी या मर्द ! उसने तो अपने पति की राख से क्रिस्टल ज्यूलरी बनवा ली थी। और उसका पति चौंतीस अन्य शवों के साथ लिगेसी के फ़्रीज़र में सड़ रहा है।
मेरे पाठकों, शोधार्थियों एवं आलोचकों ने एक बात पर अवश्य ज़ोर दिया है कि मेरी कहानियों में मृत्यु किसी न किसी रूप में अवश्य दिखाई दे जाती है। मेरे कहानी संग्रह ‘मृत्यु के इन्द्रधनुष’ तो मेरी चौबीस कहानियां सग्रहीत की गई हैं जिनके केन्द्र बिन्दु में मृत्यु ही है।
समय-समय पर मैंने कुछ एक संपादकीय भी मृत्यु को केन्द्र में रख कर लिखे हैं। दरअसल मृत्यु कहीं न कहीं से दबे पाँव मेरे लेखकीय दरवाज़े पर दस्तक देती ही रहती है और मेरी क़लम उसके बारे में लिखने के लिये मजबूर हो जाती है।
मैं जानता हूं कि पुरवाई के पाठक इस सप्ताह प्रतीक्षा कर रहे होंगे कि उनका प्रिय संपादकीय इस बार नागरिकता कानून के बारे में होगा… होना भी चाहिये था। मगर हर समाचारपत्र में, टीवी चैनल में सी.ए.ए. पर इतनी अधिक बहस हो चुकी है कि हम शायद इस विषय पर कुछ भी ओरिजिनल लिख पाने में सफल न हो पाते। और हम नहीं चाहते थे कि रटी रटाई बातें आपके सामने परोस दें। इसलिये सोचा कि आपको कुछ नया दिया जाए।
भारत में हस्पताल और डॉक्टरों के बारे में समय-समय पर पढ़ने को मिलता रहता है कि वे किस तरह मौत को लेकर भी पूरी तरह से कठोर हृद्य हो जाते हैं और मरीज़ के परिवार वालों को लूटने में ज़रा भी परहेज़ नहीं करते। पश्चिमी देशों के बारे में हमारे दिलों में कुछ ग़लतफ़हमियां बनी रहती हैं कि यहां के लोग इस मामले में बेहतर होते हैं। मगर हाल ही की एक घटना ने हर पाठक के दिल को हिलाकर रख दिया है।
ब्रिटेन में बर्मिंघम के निकट एक इलाक़ा है ‘हल’। हंबर नदी के किनारे बसे इस छोटे शहर का नाम अचानक सुर्ख़ियों में उछल आया जब वहां की एक अंतिम संस्कार करने वाली कंपनी ‘लेगेसी’ – Legacy Independent Funeral Directors के बारे में यह बात निकल कर सामने आई कि वे अंतिम संस्कार के समय लाशें जलाने में अनियमितताएं बरत रहे हैं।
46 वर्षीय रॉबर्ट बुश और उनकी 23 वर्षीय पुत्री सास्कया इस कंपनी के सर्वे-सर्वा हैं। कंपनी पिछले दो वर्षों से वित्तीय समस्याओं से जूझ रही है। पिता-पुत्री दोनों पर आरोप है कि उन्होंने अपने ग्राहकों के साथ धोखाधड़ी करते हुए मृत्कों को पारंपरिक अंतिम संस्कार मुहैय्या नहीं करवाया। जब पुलिस ने उनके कार्यालय पर छापा मारा और पीछे का दरवाज़ा खोला तो मृत शरीरों की सड़ांध ने उन्हें सांस रोकने पर मजबूर कर दिया।
पुलिस को वहां 35 शव मिले जिनमें से बहुत से तो फ़्रीज़र में भी नहीं रखे गये थे। शव वहां सड़ रहे थे और उनके रिश्तेदार यह समझ रहे थे कि उनके परिजनों की अंत्येष्ठी हो चुकी है और उन्हें न जाने किस-किस की राख और अस्थियां हवाले कर दी गई थीं। रिश्तेदारों को यह भी नहीं पता था कि जिस ताबूत को वे चूम रहे हैं, दरअसल वो भीतर से ख़ाली है।पिता पुत्री दोनों को धोखाधड़ी और वैध और पारंपरिक अंत्येष्टि की राह में रोड़ा अटाकने के संदेह में गिरफ्तार किया गया था बाद में और जमानत पर रिहा भी कर दिया गया है।
अभी तक यह साफ़ नहीं हुआ है कि यह केवल बदइंतज़ामी है या इसके पीछे राबर्ट और उसकी बेटी की कोई और मंशा थी। पुलिस इस मामले में तहकीकात कर रही है। सच तो यह है कि कंपनी के पास बड़े-बड़े काले घोडों वाली बग्गी है जिसमें ताबूत ले जाने की व्यवस्था है।
कई मृतकों के परिवार यह मान कर चल रहे थे कि उनके प्रियजनों का अंतिम संस्कार ‘हल’ शहर कीलिगेसी इंडिपेंडेंट फ्यूनरल डायरेक्टर्स ने सही ढंग से कर दिया है। अब उन्हें यह डर सता रहा है कि दाह संस्कार कभी हुआ भी था या नहीं… क्योंकि गुप्तचरों ने कम से कम एक परिवार को यह बता दिया है कि उनके रिश्तेदार का शव अभी भी फ्यूनरल एजेंट के गोदाम पर है – अंतिम संस्कार के सात सप्ताह बाद भी। वैसे पुलिस उस राख और अस्थियों का डीएनए टेस्ट भी करवा रही है जो कि रिश्तेदारों को सौंपी गई है ताकि पता लगाया जा सके कि क्या राख सही मुर्दे की है या नहीं।
हंबरसाइड पुलिस के अनुसार यह घटना “वास्तव में भयावह घटना” है। इसे घटना को पूरी तरह से अमानवीय कहा जा रहा है। पुलिस ने कंपनी से संबंधित दो अन्य पार्लरों पर भी छापा मारा – एक हल में और दूसरा आठ मील दूर बेवर्ली में।
पुलिस को लगभग एक हज़ार से अधिक शोक संतप्त रिश्तेदारों से फ़ोन कॉल कॉल प्राप्त हुए हैं। इन सबको यह डर है कि लिगेसी कंपनी की हरकत से वे प्रभावित हो सकते हैं। एक महिला ने खुलासा किया है कि उसे लगता है कि उसने अपने पिता के अंतिम संस्कार में एक खाली ताबूत को चूमा था।
हल की तीन बच्चों की मां बिली-जो सफिल ने कहा कि अपने पिता की राख नहीं मिलने के बाद वह “शारीरिक रूप से बीमार” महसूस कर रही थीं।
33 वर्षीय ने जुलाई 2022 में 52 वर्षीय एंड्रयू सफ़िल को खो दिया, और उसके पांच दिन बाद 34 वर्षीय उसके भाई ड्वेन सफ़िल को खो दिया। पुलिस ने बताया है कि उनके 120 अफ़सर इस केस के लिये काम पर लगा दिये गये हैं। इससे पता चलता है कि मामला कितना पेचीदा है। पुलिस इस मामले को बहुत गंभीरता से ले रही है क्योंकि किसी भी धर्म में अंतिम संस्कार का बहुत महत्व होता है।
यह सब किसी हॉरर फ़िल्म से कम डरावना नहीं है। सवाल यह भी उठता है कि कि क्या केवल 35 शव ही सड़ रहे हैं या इनकी गिनती कहीं अधिक है। एक महिला ने तो रह्स्योद्घाटन करते हुए बताया कि उसके पति का अंतिम संस्कार 8 महीने पहले हो चुका था मगर उसका शव अभी भी फ़्रीज़र में सड़ रहा है। उसे समझ नहीं आ रही कि आजतक वह जिसे अपने पति की ऱाख समझ रही थी, वो किस अजनबी की है… वो अजनबी औरत थी या मर्द ! उसने तो अपने पति की राख से क्रिस्टल ज्यूलरी बनवा ली थी। और उसका पति चौंतीस अन्य शवों के साथ लिगेसी के फ़्रीज़र में सड़ रहा है।
जब हम अपने प्रियजनों का अंतिम संस्कार करते हैं, तो कहीं मन में यह भावना होती है कि हम उनकी आत्मी की शांति के लिये जो भी संभव है वो कर रहे हैं। यदि रॉबर्ट बुश या सांस्कया जैसे फ़्यूनरल डायरेक्टर हमारे नसीब में आ खड़े हों तो हम श्राद्ध तक तो कभी पहुंच ही नहीं सकते।
इस संपादकीय के ज़रिए आपने बहुत बड़ा मुद्दा उठाया है। साधुवाद। मृत्यु के साथ ऐसा मजाक! कल्पनातीत है यह। पहले पहल तो मृत्यु हमें डराती है। फिर हम उससे समझौता कर लेते हैं। पहले जिसका उल्लेख ही त्रास देता था, अब उसके अभ्यस्त हो जाते हैं। मुर्दाघर, शवविच्छेदनगृह, श्मशान और कब्रिस्तान पर इसका मुजाहिरा बार- बार होता है।
मृत शरीरों के संपर्क में बार- बार आने से हमारी कोमल भावनाएँ समाप्त हो जाती हैं।
यही मनुष्य की फ़ितरत है।
काश! हम और अधिक मानवीय हो पाते!
कितना घृणित अमानवीय कृत्य ,है विकसित देशों में ऐसा भी हो सकता है यह सोच नहीं सकते
अपराधियों को कठोर सजा हो भी जाये तो क्या जिन लोगों के साथ यह अन्याय हुआ उनकी सम्वेदनाओं की भरपाई हो सकती है । ये कैसा व्यवसाय जो मानवता को ही नष्ट कर रहा है।
मत्यु का यह बदरंग है ।
Dr Prabha mishra
प्रभा जी हर देश की कुछ ऐसी सच्चाइयां होती हैं जो केवल संवेदनशील मन देख पाते हैं। इसीलिये पुरवाई ने आपके साथ यह विषय साझा करना महत्वपूर्ण समझा। टिप्पणी के लिये हार्दिक आभार।
यह बहुत बड़ा, आवश्यक और संवेदनशील मुद्दा उठाया है आपने। आप संपादकीय बहुत अच्छे मुद्दों पर लिख रहे हैं। आम आदमी का ध्यान इन विषयों की ओर जाना आवश्यक है ताकि करने वाला इनके दोहराव से बचे।
पश्चिमी देशों में मौत के बाद की प्रक्रिया का ये एक काला सच है, जिसका पटाक्षेप आपके संपादकीय ने जिस रूप में किया है सर रोंगटे खड़े कर देने वाला है। एक सच जिसे हर कोई नही लिख सकता। यूरोप में भी स्थिति ज्यादा प्रथक नही है, महीनों की प्रतीक्षा के बाद अंतिम संस्कार की तिथि मिल पाती है। ऐसे में भारतीय होने के नाते आपकी और मेरी चिंता जायज है । क्या हम श्राद्ध तृक पहुच भी पाएंगे। ऐसे संवेदन शील मुद्दों पर कलम चलनी जरूरी है जो आप हमेशा करते है।
साधुवाद आपको।
संवेदनाओं को झकझोरती नहीं वरन गिरेबान या कॉलर पकड़ कर मानवीयता को अमानवीयता का शैतानी शक्ल दिखाता संपादकीय।इंसानों को बताता कि विकसित देशों के सिरमौर देशों में शामिल देश के समाज और वहां के निवासियों के सामाजिक व्यवहार क्या हैं और कितने गैर जिम्मेदार हैं। गीतकार शैलेंद्र के गीत हम उस देश के वासी हैं ,,,,ज्यादा की नहीं लालच हमको थोड़े में गुजारा होता है,,,,
कुछ लोग जो ज्यादा जानते हैं ,इंसान को कम पहचानते हैं,,,,
सी ए ए को छोड़ इस अहम और दिल को हिला देने वाले ज्वलंत विषय पर लिखा इसके लिए संपादक महोदय को हृदय से आभार।
ये जानना वाकई बहुत भयावह है, इसकी कल्पना ही तकलीफ देह है, भला कोई ऐसा कैसे कर सकता है? इसके लिए हमारी महानगरीय व्यस्तता ही दोषी है जो ऐसी एजेंसियों को जन्म देती है। मैं इसे मृत्य के साथ किया गया दुष्कर्म मानता है,
सबेरे सबेरे मन विचलित हो गया। मृत्यु के उपरांत व्यक्ति से ऐसा घिनौना कर्म। सोचकर भी रौंगटे खड़े हो जाते हैं। आपके सम्पादकीय हमेशा सोचने पर बाध्य करते हैं। क्या हम वास्तव में मनुष्य भी कहलाने योग्य हैं??
अंतिम संस्कार कंपनी करेगी तो ऐसी भूल होगी ही, यह उनके लिए धंधा है। धंधे में हेरा फेरी चलती ही है। सभी जगह मिलावट है दूध मे पानी, अनाज मे कंकट पंथर, भोजन मे खाद।
सनातन धर्म में अंतिम संस्कार स्वजनो से ही करवाने का विधान है तभी दिवंगत आत्मा को शान्ति प्राप्त होती है।
जहाँ तक बात रही तेजेन्द्र सर के लेखन मे मृत्यु के दर्शन की, तो जिसने मृत्यु के सत्य को स्वीकार कर लिया वह अंदर से निर्भीक हो जाता है। यही निर्भीकता तेजेन्द्र सर के लेखन में स्पष्ट दिखाई देती है।
अनझुए मुद्दो पर अपने विचार व्यक्त करना।
संगीता अंग्रेज़ों में भी कुछ लोग दफ़नाया जाना पसंद करते हैं तो कुछ लोग अग्नि के सुपुर्द होना। मगर इस हादसे ने पूरे ब्रिटेन को जैसे भीतर से हिला कर रख दिया।
आपकी संपादकीय पढ़कर नि:शब्द हो गए । मानवता का इतना बड़ा ह्रास और अमानवीयता की सच्ची तस्वीर, एक उत्तम संपादक ही पाठक के सामने रख सकता है। कलियुग भयंकर रूप धारण कर अपनी चरम सीमा पर आ पहुंचा है,इससे अवगत कराने हेतु आपका धन्यवाद महोदय।।
एक बहुत ज़रूरी खबर के भावनात्मक पहलू पर आपने बहुत ही प्रभावपूर्तण तरीके से अपने विचार रखे हैं। वाकई मशीनों से काम करते-करते हम कहीं न कहीं मशीनी होते जा रहे हैं इसीलिए इतने भावुक संवेदनशील काम में भी लापरवाही बरतने या धोखा देने से नहीं चूकते लोग।
उम्मीद है कि आपके इस मुद्दे को संपादकीय में उठाए जाने का व्पापक असर हो और पूरी जाँच हो और लोगों को सही-गलत का पता चले।
साधुवाद आपको
अमानवीयता की हर हद पार करता घोर घृणित दुष्कृत्य शायद हर कल्पना से परे। भारत में भी कहीं कहीं इस प्रकार की सेवाएं देने का सिलसिला आरंभ हो चुका है। यहां भी लोगों को आरंभ से ही सतर्क हो जाना चाहिए क्योंकि लोभ मनुष्य से कुछ भी करवा लेता है। यह तो धार्मिक और आध्यात्मिक देश है पर यहां भ्रष्टाचार भी कम नहीं है। लोभी मनुष्य न ईश्वर से डरता है न बुरे कर्मों के बुरे कर्मों से। अगर ऐसा होता तो यहां अपराध कम होते। अभी खबर थी कि यहां कैंसर जैसे भयानक रोग के लिए नकली दवाइयों का रैकेट पकड़ा गया है। जब मौत के संबंध में व्यापार हो सकता है तो लाशों के संबंध में भी अनैतिक व्यापार संभव है। आपने वहां लाशों के साथ हुई अनैतिकता के मुद्दे को उठा कर और उसे सबके सामने ला कर लोगों को सतर्क करने का पुण्य कार्य किया है जिसके लिए आप साधुवाद के पात्र हैं।
कुछ संपादकीय पढ़कर संबंधित विषय के बारे में और अधिक जानने की जिज्ञासा जागृत हो जाती है। आज का संपादकीय पढ़ने के बाद ब्रिटेन में अंत्येष्टि संस्कार की विधि जानने का कारण भी था .. अभी तक हम सोचते थे कि वहां शवों को चर्चयार्ड में दफ़नाया जाता है । जब संपादकीय में राख़ की बात पढ़ी तो आश्चर्य हुआ कि क्या शवों को जलाने का रिवाज़ भी है ! गूगल में सर्च करने पर पता चला कि पोटेशियम हाइड्रो ऑक्साइड घुले पानी में शव को 150 degree तक के तापमान में रखकर ख़त्म कर दिया जाता है। इस प्रक्रिया को “एक्वामेशन” कहते हैं।बाद में हड्डियां अवन में जलाकर राख़ बनाकर परिजनों को सौंप दी जाती हैं और पानी सीवेज में बहा दिया जाता है।
मृतकों के परिजन बहुत विश्वास के साथ कंपनी को शव सौंपते होंगे। इस धोखाधड़ी से उनके ऊपर क्या बीती होगी, सोचकर ही घबराहट होने लगी।
ऐसे कृत्य करने वाले भी किसी असुर से कम थोड़े ही होते होंगे।
ऐसे संपादकीय भी आवश्यक हैं जागृति के लिए…. हां , नागरिकता कानून से अख़बार और न्यूज़ चैनल्स अटे पड़े हैं।
आज आपके संपादकीय को पढ़कर स्तब्ध रह गए तेजेन्द्र जी! विश्वास ही नहीं होता कि इस तरह की स्थितियाँ भी कभी कहीं बन सकती हैं।
बेहद वीभत्स, घिनौना, डरावना, क्रूरतम, अमानवीय सा किंतु सत्य संपादकीय। इतना सब करके कोई चैन की नींद कैसे सो सकता है।विकसित समाज का विकृत कर्म।
पढ़ते हुए जी मिचला गया तेजेन्द्र जी।
हमें अबकी बार इलैक्टोरल बॉन्ड पर कुछ मिलेगा,ऐसी उम्मीद थी।कोरोना काल में भी ऐसा सुनने में नहीं आया था।सच! क्या-क्या जानना और शेष है।
आने वाला समय निश्चित थी भूत प्रेतों के शासन में रहेगा । काफी पहले कुछ इसी तरह का टॉपिक पढ़ने में आया था।लक्षण कुछ नजर से आने लगे।
हम तो यही जानते हैं कि अंतिम संस्कार विधिवत ना हो तो आत्मा भूत प्रेत के रूप में भटकती है। सत्य ईश्वर जाने।
इसे तो भ्रष्टाचार भी नहीं कह सकते।यह एक ऐसा उत्तरदायित्व था जिसका निर्वाह बहुत ईमानदारी के साथ होना चाहिए था। कोई भी व्यक्ति कम से कम इस संस्कार के प्रति तो गंभीर होता ही है, परंतु उसमें भी कोताही ही बरती गई! ऐसा क्यों कर हुआ होगा? यह तो समझ में ही नहीं आया क्या कारण रहा होगा इसके पीछे?
अचानक ही एक ख्याल मन में आया। हो सकता है कि यह ख्याल ही हो सत्य न हो पर संभावना तो है।
कोरोना काल की दूसरी लहर में कई अस्पतालों में मानव शरीर के अंगों की तस्करी का मामला सुनने में आया था।
मेडिकल कॉलेजों में प्रैक्टिकल के लिये मानव शरीर अपेक्षित होते हैं। कुछ ऐसा कारण तो नहीं?
पर इसके लिये भी तो अवधि तय रहती होगी?
पता नहीं पर ऐसा लगा।
जाँच होगी तो पता चलेगा।
वैसे एक बात तो सत्य है तेजेंद्र जी कि आपकी किसी भी कहानी की किताब को हमने अभी तक नहीं पढ़ा है। हाँ! कुछ कहानियाँ जरुर पढ़ी हैं यूट्यूब में सर्च करके। आपकी किसी भी कहानी को पढ़कर कई दिनों तक उसका असर दिमाग पर रहता है यह हमने महसूस किया। एक साथ आपकी दो कहानियों को पढ़ना सहज नहीं। कहानी कभी भी हमें कहानी नहीं लगती। हमें वह सब कुछ सत्य ही लगता है और वह हमें प्रभावित करता है।बस इसलिए।
हम कभी भी मृत्यु के बारे में सोचना नहीं चाहते। जब जो होना होता है वह नियत होता है।
आपके कहानी संग्रह “मृत्यु के इंद्रधनुष” के बारे में पता चला। कहानीकार और संपादक दोनों ही रूप में आप जीवन के हर पक्ष को देखते हैं यह आपकी जरूरत है पर अपने किसी अजीज की मृत्यु का दुख बहुत अधिक सालता है।सब भुलाए नहीं भूलता ।इसलिए हमें मृत्यु की बात करना तकलीफ देता है।
उस पीड़ा के बारे में कल्पना भी नहीं की जा सकती कि जब किसी को पता चले की जिसे हम अंतिम संस्कार मानकर संतुष्ट कर रहे थे खुद को। श वास्तव में उसका शव अब भी वहीं पड़ा हुआ है। यहां तो क्रोध की कोई सीमा ही नहीं रही पढ़कर ऐसा लग रहा था कि पता नहीं क्या-क्या कर दें।
और जमानत भी हो गई है!!!!! कितनी बेकार बात है। वास्तव में यह एक बेहद अमानवीय ,घिनौना और जघन्य अपराध था। इसमें तो जमानत होना ही नहीं था उन्हें अपने अपराध को छुपाने का अवसर मिल जाएगा।
लेगेसी कंपनी अब बंद होनी चाहिये।
पर आश्चर्य तो इस बात पर भी है कि लोग स्वयं जाकर इस काम को क्यों नहीं करते हैं? अगर आप अपने परिवार के सदस्य से प्यार करते हैं तो उसका अंतिम संस्कार करना भी आपकी अपनी ही जिम्मेदारी होती है!!! पर आजकल से भी कुछ संभव है।
राख से क्रिस्टल बनवाकर ज्वेलरी बनवाने वाली बात ने भी आश्चर्यचकित किया यह भी उतनी ही अविश्वास है जितनी यह घटना।
वास्तव में संपादकीय एक हॉरर फिल्म की स्क्रिप्ट सी लगी।
गुस्सा तो इतना आ रहा है कैसा लग रहा है कि क्या-क्या लिख दें। पर लिखने को यहीं विराम देते हैं इस बेहद भयानक संपादकीय से रूबरू करवाने के लिए हम आपके साहस और हिम्मत की दाद देते हैं।
वैसे एक बेहद व्यक्तिगत प्रश्न पूछने का मन हुआ। जब आपने इस संपादकीय को लिखा होगा,क्या उस रात आपको ठीक से नींद आ पाई थी?
उत्तर देने के लिए आप बाद्ध्य नहीं हैं। बस मन हुआ तो पूछ लिया, क्योंकि हमारी तो पढ़ने के बाद ही नींद उड़ी हुई है।
हर बार अपने संपादकीय से शॉक्ड करने के लिए, देश दुनिया की नई-नई घटनाओं से रूबरू करवाने के लिए, दुनिया भर के रीति रिवाज और परंपराओं की जानकारी देने के लिए आपका बहुत-बहुत शुक्रिया।
वैसे शायद आप एक बात नहीं जानते कि आप की निडरता हम लोगों के मन में आप के प्रति डर का सबब है।
आदरणीय नीलिमा जी, संपादकीय लिखने से पहले कुछ रातें परेशान रहा। जब व्यक्ति की प्रतिक्रिया ख़त्म होती है, तो संवेदनशील लेखक की सोच शुरू होती है। लिखने के बाद मेरा purgation हो गया। आपकी विस्तृत टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार।
संपादकीय का बहुत अच्छा विषय लिया आपने तेजेंद्र जी। लेगेसी कंपनी के मालिक, मनुष्य के संवेदनाहीन होने का एक नमूना है आजकल ऐसे नमूने हर क्षेत्र में दिख रहे हैं।
महिला ने मृतक की राख से क्रिस्टल ज्वेलरी बनवा ली यह तस्वीर का एक पक्ष है, दूसरे में एक महिला ने अपनी सास के कान से कुंडल का लॉक न खुलने पर खींच कर निकाल लिया, भी सुना।
आपके संपादकीय बहुत अच्छी जानकारी देते हैं। बहुत शुक्रिया। आपके लिए हार्दिक शुभकामनाएं।
ओह! ये सम्पादकीय पढ़कर मैं हिल गई। इतना बड़ा स्कैण्डल है यह। इतनी बड़ी नृशंसता और क्रूरता है कि आप मृत व्यक्ति के अवशेषों और जीवित परिजनों, दोनों के अपराधी हैं। मृत्यु के सम्मान की बात लगभग हर धर्म कहता है लेकिन ऐसी घृणित लोग दरअसल मनुष्य होने की मौलिक शर्त तक भूल चुके हैं तभी तो मानवता को शर्मसार करने वाला ऐसा कांड हो गुजरता है। मुझे इतनी बेचैनी हो रही है पढ़कर की5 आँखें बंद करते ही अपने आपको लाशों के ढेर में खड़ा महसूस करती हूँ। ऐसे लोगों को सख़्त से सख़्त सज़ा मिलनी चाहिये क्योंकि ये भी संभव है कि आगे जाँच में मृत्यु जैसे अंतिम और शाश्वत सत्य से अप्रभावित रह जाने वाले ऐसे लोगों के मानव अंग तस्करी में लिप्त होने की खबर मिल जाए। विदेशों में इस तरह के अंतिम संस्कार का चलन ज्यादा है लेकिन इस घटना के बाद अब कौन भरोसा करेगा कि उनके परिजनों की परलोक की यात्रा उचित हाथों में है।
हृदय दहला देने वाला संपादकीय…..मनुष्यता जार -जार होती प्रतीत होती है। विकसित देशों में इस तरह का कांड चौकाने वाला है।अपने परिजनों के लिए रोते बिलखते लोगों की मनोदशा का, उनकी भावना का जरा भी ख्याल नहीं है ऐसी कम्पनियों को…..ऐसी मानसिकता के पीछे छुपे पुख्ता कारण पर आगामी सम्पादकीय की प्रतीक्षा रहेगी।
कितनी अलग दुनिया है जिसमें होने का भुलावा हम अपने आप को और आने वाली पीढ़ी को देते रहते हैं! मानवीयता, संवेदनशीलता…. ये सब नीली स्याही से चूना पुती दीवारों पर लिखी सूक्तियों संग तिरोहित हो गए हैं। इन स्थितियों को देखकर यह स्पष्ट हो चला है कि आने वाले समय में हमें अब किसी भी वीभत्स प्रकार पर आश्चर्य नही होगा, कितनी भी गिरी हुई हरकत पर क्षोभ और कैसे भी दुखद समय में दुख भी नही होगा।
तेजेन्द्र जी, यह सब कुछ लिखते समय आपने भी बहुत कुछ जिया है, भोगा है… ये इन शब्दों में पिरोया हुआ दर्द स्पष्ट बता रहा है। मनुष्यता को आईना दिखाने के लिए धन्यवाद!
आपका सम्पादकीय एक विरल ही विषय पर है
आश्चर्य चकित भी करता है और जुगुप्सा भी जगाता है पर मेरे कुछ प्रश्न हैं–
1* क्या लोग अपने प्रियजनों के अंतिम संस्कार में स्वयं उपस्थित नहीं रहते?
2* क्या वहाँ अंतिम दर्शन की परम्परा नहीं है?
3* वहाँ दाह संस्कार होता है या फिर दफ़नाया जाता है?
पढ़ाई तो मैंने पहले ही लिया था किन्तु मन इतना विदीर्ण था की समझ ही नहीं पा रही थी कि क्या लिखूं सच आपके संपादकीय ने इंसान का एक ऐसा अमानवीय चेहरा दिखाया है जो किसी की मौत के प्रति भी संवेदन हीन है। यू . के.जैसे देश में ऐसी घटनाओं का होना…समझ नहीं पा रही हूँ कि कैसे क्या कहूँ!!
मन में एक नहीं अनेक प्रश्न हैं। प्रथम तो विश्व में कहीं भी लीगेसी जैसी कंपनियाँ अस्तित्व में ही क्यों आ रही हैं। क्या इंसान इतना व्यस्त हो गया है कि अपनों के लिए ही समय नहीं रहा है जो वह अपने दायित्व की पूर्ति इन संस्थाओं के द्वारा कर रहा है। जो संस्था सिर्फ पैसों के लिए काम कर रही है उसे दूसरों नाते रिश्तेदारों या सगे सम्बन्धियों के प्रति सहानुभूति क्यों होने लगी। उनके कर्मचारियों के लिए तो शव सिर्फ शव हैं, किसके हैं, इससे उन्हें क्या मतलब। वह तो मशीनी रुप से अपना कर्तव्य निभा रहे हैं।
हाँ अपने पति की राख से क्रिस्टल ज्यूलरी बनवाने की बात अवश्य आश्चर्यचकित करती है।
इतना अमानवीय कृत्य । सोचकर ही कितनी पीङा होती है फिर जिनके साथ यह हुआ उनके लिए कितना असहनीय रहा होगा। ऐसा क्यों किया होगा उन लोगों ने । उनको कहा दण्ड मिलना चाहिए।
सर, आपका संपादकीय पढ़कर स्तब्ध हूँ l परिजनों के दुख और क्रोध के विषय में सोच-सोच कर असहनीय पीड़ा हो रही है l लोक -परलोक किसने देखा है पर कुछ मान्यताएँ परिवार और प्रियजन के मन को थोड़ी सी तसल्ली देती हैं l उनके हिस्से से वो भी छीन ली l मृत्यु की गरिमा का पालन जीवित लोगों को रखना होता है, पर जिनका ईमान ही मर गया हो उन्हें क्या कहा जाए ?हम मानव से रोबोट नहीं हुए है , हम मानव से दानव हुए हैं l क्या कहूँ… कभी-कभी शब्द अपने को विवश महसूस करते हैं l
जितेन्द्र भाई, इस बार के सम्पादकीय के विषय के लिये बहुत बहुत सदाधुवाद। विषय बहुत सँगीन है और Legacy Independent Funeral Directors की जो हर्कतें सामने आई हैं वो तो केवल एक tip of the iceberg है। न जाने इतने कितने हज़ारों लाख़ों Legacy जैसे धूरत किस्से रोज़ होते हैं जिसका न ही पता चलता है और न ही कभी चलेगा। यहाँ जो पकड़ा गया वो चोर है। जब तक कानून सख़्त नहीं होंगे, हालात में कोई तबदीली संभव नहीं है। कैनेडा में भी एक ऐसा किस्सा पकड़ा गया था। पता चलने पर funeral home का inspection हुआ और कुछ ही दिनों में दुकान बन्द।
एक बात जो हमें सदा याद रखनी चाहिये कि सारे funeral homes एक business है और वो लोग यह सर्विस मुनाफ़े के लिये कर रहे हैं। कई बार अपने परम मित्रों के देहावसान पर उनके, कुछ घर वालों के साथ, अन्तिम संस्कार के लिये funeral home में जाने का अवसर मिला। Negotiations करते समय मैं ने यह महसूस किया कि सभी funeral directors महँगे से महँगा casket बेचने की कोशिश करते हैं। यही नहौं इसके साथ और तामझाम अलग से। इस सौदेबाज़ी के दॉरान मृतक के बच्चे या बहुत करीबी रिशतेदार, जो हर service एकदम top class चाहते हैं, हों तो वहाँ मेरे जैसों की बोलती भी बन्द हो जाती है। बच्चों और रिशतेदारों की इस इस इच्छा का ख़ूब फ़ायदा उठाया जाता है। धीरे धीरे काफ़ी काटपीट के बाद एक रकम पर फ़ैसला हो जाता है। आपके सम्पादकीय के इस para से कि कुछ लोगों को तो यह भी पता नही होता कि वो एक खाली ताबूत को bye कर रहें या फिर ताबूत में उन्हीं के रिशतेदार की body है से मैं पूरी तरह सहमत नहीं हूं। हर स्थिती के checks and balances होते हैं और अगर पूरा ध्यान दिया जाये तो इस स्थिती को घटने से पहले ही बचाया जा सकता है। जैसा सब को पता है कि हर businesses में धोखेबाज़ों और ग़ल्त धन्धा करने वालों की कमी नहीं है। सारे funeral directors ऐसे भयानक नहीं होते। जो business ऐसी घिनौनी हर्कत करते हैं उनका काठ ही हण्डिया का पर्दा बहुत जल्दी फ़ाश हो जाता है।
बहुत दिन बाद पुरवाई समूह में पहुँची तो ये दुःखद संपादकीय मिली। हम विदेशों में अनियमितताओं की इस तरह आशा नहीं करते हैं। हमारे देश में तो अंतिम संस्कार इस तरह की संस्थाओं द्वारा कम करवाया जाता है। हाँ अगर लावारिस हो तो बात अलग है।
यहाँ तो ऐसे भी लोग हैं जो लावारिसों की अंतिम क्रिया अपने पैसों से करते हैं। ये मानवता हर इंसान में नहीं होती है और न इतना हर कोई कर सकता है। फिर भी अमानवीयता अपने पैर पसार सकती कहीं भी और पसार रही है।
इस संपादकीय के ज़रिए आपने बहुत बड़ा मुद्दा उठाया है। साधुवाद। मृत्यु के साथ ऐसा मजाक! कल्पनातीत है यह। पहले पहल तो मृत्यु हमें डराती है। फिर हम उससे समझौता कर लेते हैं। पहले जिसका उल्लेख ही त्रास देता था, अब उसके अभ्यस्त हो जाते हैं। मुर्दाघर, शवविच्छेदनगृह, श्मशान और कब्रिस्तान पर इसका मुजाहिरा बार- बार होता है।
मृत शरीरों के संपर्क में बार- बार आने से हमारी कोमल भावनाएँ समाप्त हो जाती हैं।
यही मनुष्य की फ़ितरत है।
काश! हम और अधिक मानवीय हो पाते!
भाई सिंह साहब, आपकी टिप्पणी सच में हमारे मन की बात कहती है। हार्दिक आभार।
कितना घृणित अमानवीय कृत्य ,है विकसित देशों में ऐसा भी हो सकता है यह सोच नहीं सकते
अपराधियों को कठोर सजा हो भी जाये तो क्या जिन लोगों के साथ यह अन्याय हुआ उनकी सम्वेदनाओं की भरपाई हो सकती है । ये कैसा व्यवसाय जो मानवता को ही नष्ट कर रहा है।
मत्यु का यह बदरंग है ।
Dr Prabha mishra
प्रभा जी हर देश की कुछ ऐसी सच्चाइयां होती हैं जो केवल संवेदनशील मन देख पाते हैं। इसीलिये पुरवाई ने आपके साथ यह विषय साझा करना महत्वपूर्ण समझा। टिप्पणी के लिये हार्दिक आभार।
ओह!
यह तो बहुत विचलित करने वाली बात है। किसी बेचारे को आग भी नसीब ना हुई हो और उसके सब संस्कार भी संपन्न हो गए हों।
कितनी दुखद स्थिति है निधि जी।
यह बहुत बड़ा, आवश्यक और संवेदनशील मुद्दा उठाया है आपने। आप संपादकीय बहुत अच्छे मुद्दों पर लिख रहे हैं। आम आदमी का ध्यान इन विषयों की ओर जाना आवश्यक है ताकि करने वाला इनके दोहराव से बचे।
हौसला अफ़ज़ाई के लिये आभार निर्देश निधि जी।
पश्चिमी देशों में मौत के बाद की प्रक्रिया का ये एक काला सच है, जिसका पटाक्षेप आपके संपादकीय ने जिस रूप में किया है सर रोंगटे खड़े कर देने वाला है। एक सच जिसे हर कोई नही लिख सकता। यूरोप में भी स्थिति ज्यादा प्रथक नही है, महीनों की प्रतीक्षा के बाद अंतिम संस्कार की तिथि मिल पाती है। ऐसे में भारतीय होने के नाते आपकी और मेरी चिंता जायज है । क्या हम श्राद्ध तृक पहुच भी पाएंगे। ऐसे संवेदन शील मुद्दों पर कलम चलनी जरूरी है जो आप हमेशा करते है।
साधुवाद आपको।
संवेदनाओं को झकझोरती नहीं वरन गिरेबान या कॉलर पकड़ कर मानवीयता को अमानवीयता का शैतानी शक्ल दिखाता संपादकीय।इंसानों को बताता कि विकसित देशों के सिरमौर देशों में शामिल देश के समाज और वहां के निवासियों के सामाजिक व्यवहार क्या हैं और कितने गैर जिम्मेदार हैं। गीतकार शैलेंद्र के गीत हम उस देश के वासी हैं ,,,,ज्यादा की नहीं लालच हमको थोड़े में गुजारा होता है,,,,
कुछ लोग जो ज्यादा जानते हैं ,इंसान को कम पहचानते हैं,,,,
सी ए ए को छोड़ इस अहम और दिल को हिला देने वाले ज्वलंत विषय पर लिखा इसके लिए संपादक महोदय को हृदय से आभार।
संपादकीय के साथ जुड़ने और उस पर इतनी बेहतरीन टिप्पणी के लिये हार्दिक आभार भाई सूर्य कान्त जी।
ये जानना वाकई बहुत भयावह है, इसकी कल्पना ही तकलीफ देह है, भला कोई ऐसा कैसे कर सकता है? इसके लिए हमारी महानगरीय व्यस्तता ही दोषी है जो ऐसी एजेंसियों को जन्म देती है। मैं इसे मृत्य के साथ किया गया दुष्कर्म मानता है,
एकदम सही कहा भाई आलोक जी। आभार।
सबेरे सबेरे मन विचलित हो गया। मृत्यु के उपरांत व्यक्ति से ऐसा घिनौना कर्म। सोचकर भी रौंगटे खड़े हो जाते हैं। आपके सम्पादकीय हमेशा सोचने पर बाध्य करते हैं। क्या हम वास्तव में मनुष्य भी कहलाने योग्य हैं??
रुचिरा, हमारा प्रयास रहता है कि हर संपादकीय आपका परिचय विश्व की किसी ऐसी स्थिति से करवाए जो आपको भीतर तक छू जाए। टिप्पणी के लिये आभार।
अंतिम संस्कार कंपनी करेगी तो ऐसी भूल होगी ही, यह उनके लिए धंधा है। धंधे में हेरा फेरी चलती ही है। सभी जगह मिलावट है दूध मे पानी, अनाज मे कंकट पंथर, भोजन मे खाद।
सनातन धर्म में अंतिम संस्कार स्वजनो से ही करवाने का विधान है तभी दिवंगत आत्मा को शान्ति प्राप्त होती है।
जहाँ तक बात रही तेजेन्द्र सर के लेखन मे मृत्यु के दर्शन की, तो जिसने मृत्यु के सत्य को स्वीकार कर लिया वह अंदर से निर्भीक हो जाता है। यही निर्भीकता तेजेन्द्र सर के लेखन में स्पष्ट दिखाई देती है।
अनझुए मुद्दो पर अपने विचार व्यक्त करना।
संगीता अंग्रेज़ों में भी कुछ लोग दफ़नाया जाना पसंद करते हैं तो कुछ लोग अग्नि के सुपुर्द होना। मगर इस हादसे ने पूरे ब्रिटेन को जैसे भीतर से हिला कर रख दिया।
आपकी संपादकीय पढ़कर नि:शब्द हो गए । मानवता का इतना बड़ा ह्रास और अमानवीयता की सच्ची तस्वीर, एक उत्तम संपादक ही पाठक के सामने रख सकता है। कलियुग भयंकर रूप धारण कर अपनी चरम सीमा पर आ पहुंचा है,इससे अवगत कराने हेतु आपका धन्यवाद महोदय।।
ठीक कहा आपने सविता जी… यह सच में अमानवीयता की चरम सीमा है।
एक बहुत ज़रूरी खबर के भावनात्मक पहलू पर आपने बहुत ही प्रभावपूर्तण तरीके से अपने विचार रखे हैं। वाकई मशीनों से काम करते-करते हम कहीं न कहीं मशीनी होते जा रहे हैं इसीलिए इतने भावुक संवेदनशील काम में भी लापरवाही बरतने या धोखा देने से नहीं चूकते लोग।
उम्मीद है कि आपके इस मुद्दे को संपादकीय में उठाए जाने का व्पापक असर हो और पूरी जाँच हो और लोगों को सही-गलत का पता चले।
साधुवाद आपको
प्रिय शिवानी आपने सही कहा है कि हमारे संपादकीय में उठाए गये सवालों का जवाब जल्दी ही ब्रिटेन की पुलिस दे पाएगी।
अमानवीयता की हर हद पार करता घोर घृणित दुष्कृत्य शायद हर कल्पना से परे। भारत में भी कहीं कहीं इस प्रकार की सेवाएं देने का सिलसिला आरंभ हो चुका है। यहां भी लोगों को आरंभ से ही सतर्क हो जाना चाहिए क्योंकि लोभ मनुष्य से कुछ भी करवा लेता है। यह तो धार्मिक और आध्यात्मिक देश है पर यहां भ्रष्टाचार भी कम नहीं है। लोभी मनुष्य न ईश्वर से डरता है न बुरे कर्मों के बुरे कर्मों से। अगर ऐसा होता तो यहां अपराध कम होते। अभी खबर थी कि यहां कैंसर जैसे भयानक रोग के लिए नकली दवाइयों का रैकेट पकड़ा गया है। जब मौत के संबंध में व्यापार हो सकता है तो लाशों के संबंध में भी अनैतिक व्यापार संभव है। आपने वहां लाशों के साथ हुई अनैतिकता के मुद्दे को उठा कर और उसे सबके सामने ला कर लोगों को सतर्क करने का पुण्य कार्य किया है जिसके लिए आप साधुवाद के पात्र हैं।
इन्सान का लोभ न जाने उसे कहां तक गिरा सकता है। आपने एकदम सही कहा आदरणीय संतोष जी। हार्दिक आभार।
कुछ संपादकीय पढ़कर संबंधित विषय के बारे में और अधिक जानने की जिज्ञासा जागृत हो जाती है। आज का संपादकीय पढ़ने के बाद ब्रिटेन में अंत्येष्टि संस्कार की विधि जानने का कारण भी था .. अभी तक हम सोचते थे कि वहां शवों को चर्चयार्ड में दफ़नाया जाता है । जब संपादकीय में राख़ की बात पढ़ी तो आश्चर्य हुआ कि क्या शवों को जलाने का रिवाज़ भी है ! गूगल में सर्च करने पर पता चला कि पोटेशियम हाइड्रो ऑक्साइड घुले पानी में शव को 150 degree तक के तापमान में रखकर ख़त्म कर दिया जाता है। इस प्रक्रिया को “एक्वामेशन” कहते हैं।बाद में हड्डियां अवन में जलाकर राख़ बनाकर परिजनों को सौंप दी जाती हैं और पानी सीवेज में बहा दिया जाता है।
मृतकों के परिजन बहुत विश्वास के साथ कंपनी को शव सौंपते होंगे। इस धोखाधड़ी से उनके ऊपर क्या बीती होगी, सोचकर ही घबराहट होने लगी।
ऐसे कृत्य करने वाले भी किसी असुर से कम थोड़े ही होते होंगे।
ऐसे संपादकीय भी आवश्यक हैं जागृति के लिए…. हां , नागरिकता कानून से अख़बार और न्यूज़ चैनल्स अटे पड़े हैं।
रचना, संपादकीय ने आपको कुछ सोचने और गूगल सर्च करने के लिये प्रेरित किया, यही इस संपादकीय की सफलता का प्रमाण है। हार्दिक आभार।
बहुत महत्वपूर्ण व गंभीर विषय को आपने अपने संपादकीय में लिखा है ऐसे ही महत्वपूर्ण विषयों से पुरवाई के पाठकों का ज्ञानवर्धन होता रहे।
हार्दिक आभार अपूर्वा।
समाचार पत्रों में इस अमानवीय खबर पढ़कर मितली आरोही थी। आपके सम्पादकीय को पढ़ कर फिर जैसे साँस लेना कठिन हो रहा है। आदमी कितने नीचे गिर सकता है?
अरुणा जी, सच में इन्सान ने गिरने की कोई सीमा तय नहीं कर रखी है।
आज आपके संपादकीय को पढ़कर स्तब्ध रह गए तेजेन्द्र जी! विश्वास ही नहीं होता कि इस तरह की स्थितियाँ भी कभी कहीं बन सकती हैं।
बेहद वीभत्स, घिनौना, डरावना, क्रूरतम, अमानवीय सा किंतु सत्य संपादकीय। इतना सब करके कोई चैन की नींद कैसे सो सकता है।विकसित समाज का विकृत कर्म।
पढ़ते हुए जी मिचला गया तेजेन्द्र जी।
हमें अबकी बार इलैक्टोरल बॉन्ड पर कुछ मिलेगा,ऐसी उम्मीद थी।कोरोना काल में भी ऐसा सुनने में नहीं आया था।सच! क्या-क्या जानना और शेष है।
आने वाला समय निश्चित थी भूत प्रेतों के शासन में रहेगा । काफी पहले कुछ इसी तरह का टॉपिक पढ़ने में आया था।लक्षण कुछ नजर से आने लगे।
हम तो यही जानते हैं कि अंतिम संस्कार विधिवत ना हो तो आत्मा भूत प्रेत के रूप में भटकती है। सत्य ईश्वर जाने।
इसे तो भ्रष्टाचार भी नहीं कह सकते।यह एक ऐसा उत्तरदायित्व था जिसका निर्वाह बहुत ईमानदारी के साथ होना चाहिए था। कोई भी व्यक्ति कम से कम इस संस्कार के प्रति तो गंभीर होता ही है, परंतु उसमें भी कोताही ही बरती गई! ऐसा क्यों कर हुआ होगा? यह तो समझ में ही नहीं आया क्या कारण रहा होगा इसके पीछे?
अचानक ही एक ख्याल मन में आया। हो सकता है कि यह ख्याल ही हो सत्य न हो पर संभावना तो है।
कोरोना काल की दूसरी लहर में कई अस्पतालों में मानव शरीर के अंगों की तस्करी का मामला सुनने में आया था।
मेडिकल कॉलेजों में प्रैक्टिकल के लिये मानव शरीर अपेक्षित होते हैं। कुछ ऐसा कारण तो नहीं?
पर इसके लिये भी तो अवधि तय रहती होगी?
पता नहीं पर ऐसा लगा।
जाँच होगी तो पता चलेगा।
वैसे एक बात तो सत्य है तेजेंद्र जी कि आपकी किसी भी कहानी की किताब को हमने अभी तक नहीं पढ़ा है। हाँ! कुछ कहानियाँ जरुर पढ़ी हैं यूट्यूब में सर्च करके। आपकी किसी भी कहानी को पढ़कर कई दिनों तक उसका असर दिमाग पर रहता है यह हमने महसूस किया। एक साथ आपकी दो कहानियों को पढ़ना सहज नहीं। कहानी कभी भी हमें कहानी नहीं लगती। हमें वह सब कुछ सत्य ही लगता है और वह हमें प्रभावित करता है।बस इसलिए।
हम कभी भी मृत्यु के बारे में सोचना नहीं चाहते। जब जो होना होता है वह नियत होता है।
आपके कहानी संग्रह “मृत्यु के इंद्रधनुष” के बारे में पता चला। कहानीकार और संपादक दोनों ही रूप में आप जीवन के हर पक्ष को देखते हैं यह आपकी जरूरत है पर अपने किसी अजीज की मृत्यु का दुख बहुत अधिक सालता है।सब भुलाए नहीं भूलता ।इसलिए हमें मृत्यु की बात करना तकलीफ देता है।
उस पीड़ा के बारे में कल्पना भी नहीं की जा सकती कि जब किसी को पता चले की जिसे हम अंतिम संस्कार मानकर संतुष्ट कर रहे थे खुद को। श वास्तव में उसका शव अब भी वहीं पड़ा हुआ है। यहां तो क्रोध की कोई सीमा ही नहीं रही पढ़कर ऐसा लग रहा था कि पता नहीं क्या-क्या कर दें।
और जमानत भी हो गई है!!!!! कितनी बेकार बात है। वास्तव में यह एक बेहद अमानवीय ,घिनौना और जघन्य अपराध था। इसमें तो जमानत होना ही नहीं था उन्हें अपने अपराध को छुपाने का अवसर मिल जाएगा।
लेगेसी कंपनी अब बंद होनी चाहिये।
पर आश्चर्य तो इस बात पर भी है कि लोग स्वयं जाकर इस काम को क्यों नहीं करते हैं? अगर आप अपने परिवार के सदस्य से प्यार करते हैं तो उसका अंतिम संस्कार करना भी आपकी अपनी ही जिम्मेदारी होती है!!! पर आजकल से भी कुछ संभव है।
राख से क्रिस्टल बनवाकर ज्वेलरी बनवाने वाली बात ने भी आश्चर्यचकित किया यह भी उतनी ही अविश्वास है जितनी यह घटना।
वास्तव में संपादकीय एक हॉरर फिल्म की स्क्रिप्ट सी लगी।
गुस्सा तो इतना आ रहा है कैसा लग रहा है कि क्या-क्या लिख दें। पर लिखने को यहीं विराम देते हैं इस बेहद भयानक संपादकीय से रूबरू करवाने के लिए हम आपके साहस और हिम्मत की दाद देते हैं।
वैसे एक बेहद व्यक्तिगत प्रश्न पूछने का मन हुआ। जब आपने इस संपादकीय को लिखा होगा,क्या उस रात आपको ठीक से नींद आ पाई थी?
उत्तर देने के लिए आप बाद्ध्य नहीं हैं। बस मन हुआ तो पूछ लिया, क्योंकि हमारी तो पढ़ने के बाद ही नींद उड़ी हुई है।
हर बार अपने संपादकीय से शॉक्ड करने के लिए, देश दुनिया की नई-नई घटनाओं से रूबरू करवाने के लिए, दुनिया भर के रीति रिवाज और परंपराओं की जानकारी देने के लिए आपका बहुत-बहुत शुक्रिया।
वैसे शायद आप एक बात नहीं जानते कि आप की निडरता हम लोगों के मन में आप के प्रति डर का सबब है।
आदरणीय नीलिमा जी, संपादकीय लिखने से पहले कुछ रातें परेशान रहा। जब व्यक्ति की प्रतिक्रिया ख़त्म होती है, तो संवेदनशील लेखक की सोच शुरू होती है। लिखने के बाद मेरा purgation हो गया। आपकी विस्तृत टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार।
संपादकीय का बहुत अच्छा विषय लिया आपने तेजेंद्र जी। लेगेसी कंपनी के मालिक, मनुष्य के संवेदनाहीन होने का एक नमूना है आजकल ऐसे नमूने हर क्षेत्र में दिख रहे हैं।
महिला ने मृतक की राख से क्रिस्टल ज्वेलरी बनवा ली यह तस्वीर का एक पक्ष है, दूसरे में एक महिला ने अपनी सास के कान से कुंडल का लॉक न खुलने पर खींच कर निकाल लिया, भी सुना।
आपके संपादकीय बहुत अच्छी जानकारी देते हैं। बहुत शुक्रिया। आपके लिए हार्दिक शुभकामनाएं।
हार्दिक आभार प्रगति जी। आप सब का स्नेह पुरवाई संपादकीयों की शक्ति है।
ओह! ये सम्पादकीय पढ़कर मैं हिल गई। इतना बड़ा स्कैण्डल है यह। इतनी बड़ी नृशंसता और क्रूरता है कि आप मृत व्यक्ति के अवशेषों और जीवित परिजनों, दोनों के अपराधी हैं। मृत्यु के सम्मान की बात लगभग हर धर्म कहता है लेकिन ऐसी घृणित लोग दरअसल मनुष्य होने की मौलिक शर्त तक भूल चुके हैं तभी तो मानवता को शर्मसार करने वाला ऐसा कांड हो गुजरता है। मुझे इतनी बेचैनी हो रही है पढ़कर की5 आँखें बंद करते ही अपने आपको लाशों के ढेर में खड़ा महसूस करती हूँ। ऐसे लोगों को सख़्त से सख़्त सज़ा मिलनी चाहिये क्योंकि ये भी संभव है कि आगे जाँच में मृत्यु जैसे अंतिम और शाश्वत सत्य से अप्रभावित रह जाने वाले ऐसे लोगों के मानव अंग तस्करी में लिप्त होने की खबर मिल जाए। विदेशों में इस तरह के अंतिम संस्कार का चलन ज्यादा है लेकिन इस घटना के बाद अब कौन भरोसा करेगा कि उनके परिजनों की परलोक की यात्रा उचित हाथों में है।
अंजु आपकी प्रतिक्रिया एकदम सही है। कोई भी नार्मल इन्सान सोच भी नहीं सकता कि कोई इतना अमानवीय हो सकता है।
हृदय दहला देने वाला संपादकीय…..मनुष्यता जार -जार होती प्रतीत होती है। विकसित देशों में इस तरह का कांड चौकाने वाला है।अपने परिजनों के लिए रोते बिलखते लोगों की मनोदशा का, उनकी भावना का जरा भी ख्याल नहीं है ऐसी कम्पनियों को…..ऐसी मानसिकता के पीछे छुपे पुख्ता कारण पर आगामी सम्पादकीय की प्रतीक्षा रहेगी।
अवश्य जया। मैं इस ख़बर पर नज़र लगाए रखूंगा।
कितनी अलग दुनिया है जिसमें होने का भुलावा हम अपने आप को और आने वाली पीढ़ी को देते रहते हैं! मानवीयता, संवेदनशीलता…. ये सब नीली स्याही से चूना पुती दीवारों पर लिखी सूक्तियों संग तिरोहित हो गए हैं। इन स्थितियों को देखकर यह स्पष्ट हो चला है कि आने वाले समय में हमें अब किसी भी वीभत्स प्रकार पर आश्चर्य नही होगा, कितनी भी गिरी हुई हरकत पर क्षोभ और कैसे भी दुखद समय में दुख भी नही होगा।
तेजेन्द्र जी, यह सब कुछ लिखते समय आपने भी बहुत कुछ जिया है, भोगा है… ये इन शब्दों में पिरोया हुआ दर्द स्पष्ट बता रहा है। मनुष्यता को आईना दिखाने के लिए धन्यवाद!
अंतरा, इस घटना ने मानवता पर से विश्वास उठा दिया है। मैं स्वयं बहुत दर्द से गुज़रा इस संपादकीय को लिखते हुए।
आपका सम्पादकीय एक विरल ही विषय पर है
आश्चर्य चकित भी करता है और जुगुप्सा भी जगाता है पर मेरे कुछ प्रश्न हैं–
1* क्या लोग अपने प्रियजनों के अंतिम संस्कार में स्वयं उपस्थित नहीं रहते?
2* क्या वहाँ अंतिम दर्शन की परम्परा नहीं है?
3* वहाँ दाह संस्कार होता है या फिर दफ़नाया जाता है?
4* वो कंपनी उन शवों को रखे क्यूँ हुए है?
कहीं-कहीं कुछ शब्द छूट गये प्रतीत हो रहे हैं।
मृत देह के साथ यह घृणित अन्याय है। इस तरह के विषय का उल्लेख करने के लिए आपका बहुत बड़ा आभार
हार्दिक आभार संगीता जी।
पढ़ाई तो मैंने पहले ही लिया था किन्तु मन इतना विदीर्ण था की समझ ही नहीं पा रही थी कि क्या लिखूं सच आपके संपादकीय ने इंसान का एक ऐसा अमानवीय चेहरा दिखाया है जो किसी की मौत के प्रति भी संवेदन हीन है। यू . के.जैसे देश में ऐसी घटनाओं का होना…समझ नहीं पा रही हूँ कि कैसे क्या कहूँ!!
मन में एक नहीं अनेक प्रश्न हैं। प्रथम तो विश्व में कहीं भी लीगेसी जैसी कंपनियाँ अस्तित्व में ही क्यों आ रही हैं। क्या इंसान इतना व्यस्त हो गया है कि अपनों के लिए ही समय नहीं रहा है जो वह अपने दायित्व की पूर्ति इन संस्थाओं के द्वारा कर रहा है। जो संस्था सिर्फ पैसों के लिए काम कर रही है उसे दूसरों नाते रिश्तेदारों या सगे सम्बन्धियों के प्रति सहानुभूति क्यों होने लगी। उनके कर्मचारियों के लिए तो शव सिर्फ शव हैं, किसके हैं, इससे उन्हें क्या मतलब। वह तो मशीनी रुप से अपना कर्तव्य निभा रहे हैं।
हाँ अपने पति की राख से क्रिस्टल ज्यूलरी बनवाने की बात अवश्य आश्चर्यचकित करती है।
सुधा जी, आपकी टिप्पणी एकदम सटीक है। कहा जाता है न कि Fact is stranger than fiction!
इतना अमानवीय कृत्य । सोचकर ही कितनी पीङा होती है फिर जिनके साथ यह हुआ उनके लिए कितना असहनीय रहा होगा। ऐसा क्यों किया होगा उन लोगों ने । उनको कहा दण्ड मिलना चाहिए।
जी रेणुका, पुलिस अपना काम कर रही है। न्याय होकर रहेगा।
सर, आपका संपादकीय पढ़कर स्तब्ध हूँ l परिजनों के दुख और क्रोध के विषय में सोच-सोच कर असहनीय पीड़ा हो रही है l लोक -परलोक किसने देखा है पर कुछ मान्यताएँ परिवार और प्रियजन के मन को थोड़ी सी तसल्ली देती हैं l उनके हिस्से से वो भी छीन ली l मृत्यु की गरिमा का पालन जीवित लोगों को रखना होता है, पर जिनका ईमान ही मर गया हो उन्हें क्या कहा जाए ?हम मानव से रोबोट नहीं हुए है , हम मानव से दानव हुए हैं l क्या कहूँ… कभी-कभी शब्द अपने को विवश महसूस करते हैं l
बिल्कुल ठीक कहा वंदना आपने। मृत्यु के साथ इस तरह का खिलवाड़ बहुत दर्द देता है।
जितेन्द्र भाई, इस बार के सम्पादकीय के विषय के लिये बहुत बहुत सदाधुवाद। विषय बहुत सँगीन है और Legacy Independent Funeral Directors की जो हर्कतें सामने आई हैं वो तो केवल एक tip of the iceberg है। न जाने इतने कितने हज़ारों लाख़ों Legacy जैसे धूरत किस्से रोज़ होते हैं जिसका न ही पता चलता है और न ही कभी चलेगा। यहाँ जो पकड़ा गया वो चोर है। जब तक कानून सख़्त नहीं होंगे, हालात में कोई तबदीली संभव नहीं है। कैनेडा में भी एक ऐसा किस्सा पकड़ा गया था। पता चलने पर funeral home का inspection हुआ और कुछ ही दिनों में दुकान बन्द।
एक बात जो हमें सदा याद रखनी चाहिये कि सारे funeral homes एक business है और वो लोग यह सर्विस मुनाफ़े के लिये कर रहे हैं। कई बार अपने परम मित्रों के देहावसान पर उनके, कुछ घर वालों के साथ, अन्तिम संस्कार के लिये funeral home में जाने का अवसर मिला। Negotiations करते समय मैं ने यह महसूस किया कि सभी funeral directors महँगे से महँगा casket बेचने की कोशिश करते हैं। यही नहौं इसके साथ और तामझाम अलग से। इस सौदेबाज़ी के दॉरान मृतक के बच्चे या बहुत करीबी रिशतेदार, जो हर service एकदम top class चाहते हैं, हों तो वहाँ मेरे जैसों की बोलती भी बन्द हो जाती है। बच्चों और रिशतेदारों की इस इस इच्छा का ख़ूब फ़ायदा उठाया जाता है। धीरे धीरे काफ़ी काटपीट के बाद एक रकम पर फ़ैसला हो जाता है। आपके सम्पादकीय के इस para से कि कुछ लोगों को तो यह भी पता नही होता कि वो एक खाली ताबूत को bye कर रहें या फिर ताबूत में उन्हीं के रिशतेदार की body है से मैं पूरी तरह सहमत नहीं हूं। हर स्थिती के checks and balances होते हैं और अगर पूरा ध्यान दिया जाये तो इस स्थिती को घटने से पहले ही बचाया जा सकता है। जैसा सब को पता है कि हर businesses में धोखेबाज़ों और ग़ल्त धन्धा करने वालों की कमी नहीं है। सारे funeral directors ऐसे भयानक नहीं होते। जो business ऐसी घिनौनी हर्कत करते हैं उनका काठ ही हण्डिया का पर्दा बहुत जल्दी फ़ाश हो जाता है।
फ़्यूनरल एजेंट्स और उनकी स्कीमों का चित्रण मेैं अपनी कहानी क़ब्र का मुनाफ़ा में कर चुका हूं विजय भाई। वैसे आपने बहुत सही हालात बयान किये हैं। आभार।
काश वो कहानी मैं ने पढ़ी होती?
बहुत ही घृणित कार्य, लोगों की भावनाएँ किस हद तक आहत हुई होंगी, बताने की आवश्यकता नहीं…
बहुत दिन बाद पुरवाई समूह में पहुँची तो ये दुःखद संपादकीय मिली। हम विदेशों में अनियमितताओं की इस तरह आशा नहीं करते हैं। हमारे देश में तो अंतिम संस्कार इस तरह की संस्थाओं द्वारा कम करवाया जाता है। हाँ अगर लावारिस हो तो बात अलग है।
यहाँ तो ऐसे भी लोग हैं जो लावारिसों की अंतिम क्रिया अपने पैसों से करते हैं। ये मानवता हर इंसान में नहीं होती है और न इतना हर कोई कर सकता है। फिर भी अमानवीयता अपने पैर पसार सकती कहीं भी और पसार रही है।