अरे, यह बौना सूरज मेरे पैर में कहाँ से आ अटका? चमत्कृत मानसी ने ठीक से देखने के लिए सिर उठाया कि लो ss, दहकता अंगारा ठण्डे नीले ओले में बदल गया, धूप में चमकता- पिघलता सा ओला। और जरा गर्दन हिली कि वो नीलाभ दमक धप्प से हरी कौंध में बदल गई, झिलमिलाता, दमदमाता सहस्र किरणें बिखराता हरा पन्नग।
धूप में लेटी मानसी मुग्ध भाव से देखती रही, पैर की अंगुली में पड़े बिछुए के सस्ते नग पर पड़ती सूरज की कीमती किरणों ने जो अनमोल संसार रच दिया था, अद्भुत था। कुछ देर अपने अनमनेपन को भूलकर वह इस आत्मआमोद में खोई रही। कभी पैर को हिलाकर लाल सूरज देखती, कभी सिर को हिलाकर बैंगनी छटा । पर उसका यह कौतुक अधिक देर तक टिका नहीं रह सका। पराग का रिक्शा आ गया था और बैग बॉटल सम्भाले, बड़े नाप के कोट को ओवरकोट की तरह लादे वह अन्दर आ रहा था।
‘लेटी हो चाची?’ बालसुलभ निरर्थक प्रश्न फेंकता पराग अपने घर के हिस्से में चला गया और मानसी होठों पर अब तक पसरे वात्सल्य को समेटती उसे जाते देखती रही।
बादल खूब घने होकर सूरज से छेड़खानी करने लगे थे और हवा लड़ाकू पड़ोसिन सी चिपक रही थी। पारुल, पलाश भी आते ही होंगे। मानसी को उठना ही पड़ा। तकिया-चादर बगल में दबाए, एक हाथ से पलंग को शेड में खींचती मानसी को अपनी साहित्यिकता पर स्वयं ही गर्व हो आया, सूरज से छेड़खानी, लड़ाकू पड़ोसिन सी हवा… वाह मानसी! क्या बात है। आखिर कलाकार और साहित्यकार में कोई अन्तर थोड़े ही होता है।
‘कलाकार’ शब्द जितना प्यार से मानसी के मन में उभरा था उतने ही कड़वे पश्चातवर्ती प्रभाव के साथ ठहर गया और आँखें सामने के दरवाजे पर। जहाँ झूलते पर्दे के पीछे माँ दुर्गा के चित्र और शेराँवाली माता के दरबार से लाए गोटे वाले लाल दुपट्टे की झलक दिखाई दे रही थी। माता की भेटों के स्वर कैसेट प्लेयर से निकलकर हवा में घूम रहे थे ‘माता के दर पे आए, माता के दर पे, ओ sss माता है जग की मैया…’
होठों के विद्रूप को समेटती मानसी चुपचाप भीतर आ गई, गीत के बोल भी उसके पीछे आ रहे थे ‘ओss माता है जग की मैया, भक्तों की वही खिवैया…’ और मानसी के दिमाग में फिल्मी गीत पर नितम्ब मटकाती नायिका नाच रही थी ‘चोली के पीछे क्या है, चुनरी के नीचे, चोली में दिल है मेरा…।’ और फिर सब गड्डमड्ड होने लगा, ‘चोली में दिल है मेरा, माता है जग की मैया, चुनरी में दिल है मेरा, भक्तों की वही खिवैया, ये दिल में दूँगी मेरे यार को …।’
दरअसल ये दिमागी गड़बड़ ही तो सारे झगड़े की जड़ है। यही रवि भी कहता है, लेकिन मानसी का खुद पर वश भी तो चले। वो खुद से थोड़े ही करती है सब, बस होता चला जाता है। रोटियाँ सेंकती, सलाद काटती और पोना धोते हुए भी मानसी इसी सब में डूबी रही, यहाँ तक कि पलाश और पारूल को खाना खिलाते हुए भी उसके दिमाग में यही कड़ियाँ उलझी-सुलझती रहीं।
“माँ, ताई जी आ गईं क्या?” पारुल ने यूँही पूछ लिया।
“स्टूपिड! सुनाई नहीं देता, माँ के भजन चल रहे हैं।”
“शटअप, यू स्टूपिड”
बालकों के वाक्युद्ध के बीच मानसी को यह सोचकर राहत मिली कि गीत की आवाज आनी बन्द हो गई है। पर यही तो मुश्किल है, आवाजें आनी बन्द कहाँ होती हैं। उसके दिमाग में एक स्विच हमेशा ऑन रहता है।
सच तो यह है कि एक युद्ध उसके अन्दर भी चल रहा है, अविराम। गुजरे कई वर्षों का युद्ध, जिसकी स्मृतियाँ अजेय योद्धा बनकर खड़ी हो जाती हैं और कई पटकनी खाकर चित्त गिरती दिखाई देती हैं। यही सब निरन्तर चलता रहता है तभी तो रवि कहता है “तेरे माथे में कोई माकड़ बैठा है क्या जो सारे दिन चलता रहता है?”
माकड़? हाँ, माकड़ ही होगा शायद। वह तो कुछ नहीं करती, कुछ भी नहीं कहती।चुपचाप सारा दिन कामकाज, बच्चों-कच्चों में ही गुजार देती है। महरी से काम करवाती है, अम्माजी के बालों में तेल ठोक देती है और भौजाई जी के पास बैठकर माँ के जगराते की महिमा भी भक्तिभावपूर्वक सुन लेती है।
फिर क्यों रवि ऐसा कहता है, अब तो रियाज छोड़े हुए भी उसे बरसों हो गए हैं।
रियाज! छन-छन-छन-छन, छन, धिन-धिन ता, थेई-धिन… ये लो अब नया सुर बजने लगा, ये बन्द क्यों नहीं होता। अभी भौजाई जी सुन लेंगी तो कलियुग के अन्तिम चरण के पातकी प्रभाव से पृथ्वी का डोलना देखकर हाहाकार कर उठेंगी “लो, फिर ये बेसरम नाच शुरू हो गए। पतुरिएँ बाहर नाचतीं तो हमने सुनी थीं, भले घर की दुलहिनें भी पतुरिया बन के नाचेंगी अब। धन्न है म्हाराज इस युग की महिमा। अम्मा पइसा नई लुटाओगी अपनी छोटी दुलहिन पर, कि थेटर में ही नाचवे भेजोगी। धरम-करम तो विदा ले लिए इस घर से। ससुरजी की आत्मा सुरग में राजी होगी और जेठ की इज्जत पिरथी पे बढ़ेगी। राम-राम! तुम दिल्ली वालों की माया दिल्ली वाले ही समझो, हमारे भठरानीपुर में हम ना देखें ये सब…।”
कितनी सारी दूसरी आवाजें भी तो हैं जो इस सुर में ताल मिलाएँगी “नई दुलहिन! बेटा, भले घर की बहुरिएँ ये सब करती नहीं सोभतीं। घर में कोई कमी ना है, दूसरे सौक-मौज करो, पढ़ो-लिखो, चाहे कोई ढंग का काम भी कर लो पर ये पतुरियों की तरह नाचना हम ना करवे दैहें ।”
“अरे, रवि! मैंने सुनी तेरी बहू गैर मर्दों के सामने थेटर में नाचेगी। ठीक ही है भाई, पढ़े-लिखे मरद की पढ़ी-लिखी बीवी जो ठहरी, वो भी दिल्ली की। पढ़े-लिखों की माया निराली, पर ये सोच ले कि इस घर में ये सब नहीं चलने का। बाकी तेरी गिरस्थी में पड़ने वाला मैं कौन।”
“यार मानसी प्लीज, घर के लोग आर्थोडॉक्स हैं। हमारा समाज ऐसा ही है और फिर हम बेसीकली पंजाबी नहीं, यूपी के खत्री हैं, घर की लेडीज इतनी खुली नहीं हैं। थोड़ा समय लगेगा इसलिए स्टेज परफॉर्मिंग अभी कुछ साल भूल ही जाओ। धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा। और सबसे बड़ी बात ये हैं कि घर-बिज़नेस सभी तो भैया के नाम है, अलग होकर दिक्कतें हो जाएँगी। हाँ, तुम रियाज़ जारी रखना चाहो तो मुझे कोई ऐतराज नहीं।”
नहीं, कोई परेशानी नहीं। और रियाज? काफी हो चुका है रियाज़ भी अब तक। मातारानी की फिल्मी तर्ज पर बनी सैकड़ों भेंटें उसे मुँह जुबानी याद हैं। कितने जगराते उसने घर में देखे हैं, कितने वीडियो पर। भौजाई जी की भक्ति के कितने चर्चे हैं, धन्य है मातारानी में उनकी लगन।
माता का जगराता कहीं भी हो, भोजाई जी जरूर जाती हैं और सुध-बुध ही नहीं, देह को भी भूलकर घण्टों गाती हैं। और जब विभोर होकर नाचती हैं तो मानों साक्षात् भक्ति नाचने लगती है। तभी तो घर-परिवार, पास-पड़ोस, नाते-रिश्तेदारी में उनकी इतनी पूछ-कदर है। अम्माजी उनका कहा नहीं टालतीं, भाई जी उनके बताए शगुन से हटकर काम नहीं करते और पड़ोसिनें उन्हें साक्षात देवी का अवतार मानती हैं।
देवी ही तो हैं, घर-गिरस्थी की माया से उनका मन कभी का हट चुका है, बस नाम की गिरस्थन हैं। वैसे घर में रहना भी ज्यादा कहाँ हो पाता है। दिल्ली के आसपास के सारे भक्तों और यूपी, पंजाब की सारी रिश्तेदारी में कहीं भी जगराता हो, उनके जाए बिना नहीं चलता। कितनी श्रद्धा है उनके मन में, काश उसमें भी श्रद्धा होती।
श्रद्धा! हाँ, श्रद्धा नहीं है तभी तो घर में इतने बरसों बाद फिर कत्थक का रियाज करने की गुस्ताखी कर बैठी, पर भौजाई जी की श्रद्धा ही भारी पड़ी “मुहल्ले में किसी को मुँह दिखाने लायक छोड़ोगी कि नहीं दुलहिन। अरे, चार लोग सुनें तो का कहेंगे और फिर इतने भक्त घर में आते हैं वो क्या सोचेंगे। न भई, ये मुजरा यहाँ नहीं चलेगा हम तो उकता गए हैं।”
उकता तो रवि भी गया था, तभी तो कैसी उकताई आवाज में बोला था “ओफ्फो मानसी, दो बच्चों की माँ बन गई हो, अबतक फितूर दिमाग से नहीं उतरा? भूल जाओ यार इन बातों को और शान्ति से रहने दो मुझे। बच्चों की पढ़ाई- लिखाई पर ध्यान दो और सोचा कम करो। न हो तो थोड़ा भक्ति-भाव या क्या फैशन है वो? हाँ, मेडिटेशन, थोड़ा मेडिटेशन वगैरह करा करो।”
मेडिटेशन? तो क्या कत्थक मेडिटेशन नहीं है? और भक्ति-भाव जैसा भौजाई जी करती हैं वैसा क्यों नहीं होता उससे, क्या सचमुच वो नास्तिक है? नहीं, वो कोशिश करती तो है, पर ये दिमाग का माकड़ घूमता ही रहता है तो क्या करे। कोशिश वो करती है, करती रहेगी।
“चाची, चलो मम्मी और दादी तुम्हें बुला रही हैं।” पराग की आवाज से मानसी को राहत मिली, सहारा भी। जैसे किसी ने उसके निश्चय को समर्थन का मत दिया हो।
बड़े कमरे में अम्माजी और पड़ोस की कुछ महिलाओं के बीच भौजाई जी बैठी हैं, सबकी श्रद्धा को वहन करती, आत्म-गौरव से भरी “आओ दुलहिन, चण्डीगढ़ के जगराते की सीडी लाई हूँ, बड़ी साफ तस्वीरें आई हैं। जानती हो भक्तों की बहुत बड़ी संगत थी वहाँ, मातारानी की भेटों के लिए बड़ी नामी पारटी बुलाए थे वो लोग। इतना रस बरसा कि तुम्हें का बताएँ, हम तो माँ के प्रेम में डूब गए…।”
भौजाई जी निरन्तर कुछ कह रहीं हैं लेकिन पर मानसी को सुनाई ही नहीं दे रहा, वो बस टीवी देखे जा रही है…
माता की भव्यदर्शना, धूम्र विलोचना, मनमोहिनी प्रतिमा के आगे, सैकड़ों नर-नारियों के समूह का गायक मण्डली के साथ समवेत गायन चल रहा है ‘मैया के दर पे आए, मैया के दर पेsss’
सबके बीच विभोर होकर नाचती भौजाई जी का लाल टीका लगा आरक्त चेहरा और आवेश तप्त अधमुँदी आँखें… मानसी अपलक देख रही है ‘मैया के दर पे आए…।’
नाचते हुए भौजाई जी गीत के सुर पर तेजी से पग उठाती हैं, लोगों के स्वर व करतल दोनों की गति बढ़ रही है … कमर लचक रही है… माँसल देह की मोहक भंगिमा में नर्तकी के नितम्ब थिरक रहे हैं। पल्लू कभी वक्ष, कभी गोरे पेट से सरकता है तो कभी पीठ पर नहीं ठहरता…त्रिवली झलक रही है… सबको लुभाते हुए नायिका नाच रही है ‘चोली के पीछे क्या है, चुनरी के नीचे…’
मानसी के दिमाग का माकड़ फिर घूमने लगा है… कत्थक का रियाज और भक्तिभाव पूर्ण जागरण… मानसी की देह और भौजाई का शरीर… और वही सवाल ‘चोली के पीछे क्या हैsss’ मानसी थरथरा गई लेकिन बैठी रही। देखती रही भौजाई की थिरकती माँसल देह की फिरकियाँ।
लक्ष्मी शर्मा 65, विश्वकर्मा नगर 2nd महारानी फार्म, जयपुर 302018 ईमेल –[email protected].
आपकी रचना पढ़ी लक्ष्मी जी!जगराता!! कहाँ भक्ति भाव और कहाँ आधुनिकता के रंग में डूबे हुए अश्लील गाने और नृत्य। दोनों में जमीन आसमान का अंतर है भक्ति में भाव की प्रधानता होती है और भगवान में डूब कर भक्त अपना होश को देता है लेकिन संसार देह को देखने में रुचि रखता है।
कत्थक तो क्लासिकल नृत्य है! पता नहीं नृत्य कला के मामले में लोगों की सोच कब बदलेगी!.
आपकी रचना का अंतर्द्वंद्व महसूस हुआ।
आपकी रचना पढ़ी लक्ष्मी जी!जगराता!! कहाँ भक्ति भाव और कहाँ आधुनिकता के रंग में डूबे हुए अश्लील गाने और नृत्य। दोनों में जमीन आसमान का अंतर है भक्ति में भाव की प्रधानता होती है और भगवान में डूब कर भक्त अपना होश को देता है लेकिन संसार देह को देखने में रुचि रखता है।
कत्थक तो क्लासिकल नृत्य है! पता नहीं नृत्य कला के मामले में लोगों की सोच कब बदलेगी!.
आपकी रचना का अंतर्द्वंद्व महसूस हुआ।