एक टब में साबुन घोल कर रखा हुआ था । दूसरा नल के नीचे रखा था । उसका काम था ग्राहकों को चाय पकड़ाना , ख़ाली गिलास उठाना , टेबल पर कटका मारना और जूठे गिलासों को साबुन वाले टब में डाल कर धोना और फिर नल के नीचे रखे साफ पानी के टब में डाल कर खंगालना और उन्हें पास ही पड़ी लोहें की टूटी फूटी जाली वाली टोकरी में रखते जाना । ये साबुन वाले टब का पानी पता नही आख़िरी बार कब पलटा गया था ।जूठे गिलासों की तलछट में छूटी चायें के साथ मिल कर ये साबुन वाला पानी कम कच्ची चाय अधिक लगने लगा था भूरी झाग वाली चायें । मालिक देता ही नही था नया साबुन । और गली के किनारे , स्कूल के सामने बने इस चाय के ढाबे पर कौन सा साहब लोग आते थे चाय पीने । हां , स्कूल के मास्टर यहीं से मंगाते थे चाये और स्कूल के चपरासी , सफाई कर्मचारी , स्कूल की बसों के ड्राईवर और क्लीनर इत्यादी इस ढाबे के नियमित ग्राहक थे ।वैसे भी , जो लोग आते भी थे तो वो कौन सा ढाबे के पिछवाड़े देखने जाते थे कि कौन कैसे धो रहा है बर्तन । छोटू को कई बार बड़ी घिन आती थी , और कभी हँसी भी । हँसी इस बात पर कि इस यहां पर चाय पीने वालों को तो ये भी नही पता कि मालिक एक बार चाय बना कर छन्नी हुई पत्ती को ही उबाल उबाल कर पता नही कितने ग्राहक निबटा देता है । । कई बार उस का मन करता गरम चायें पीने को । पर मालिक बस दिन में एक ही बार देता था चाय और मूड अच्छा हो मालिक का तो एक मठरी भी मिल जाती थी कभी कभी । कुछ भी हो , काम बड़ी फुरती से काम करता वो । ग्राहक आते ही आवाज लगाते —- छोटू दो चायें ।
और वो फुरती से मालिक के सामने दो धुले गिलास रख देता । मालिक स्टोप पर कड़ती चायें को बड़ी सी कडछुल से गिलासों में छान देता । छोटू को किसी भी टेबल पर बस दो गिलास चाय देना सब से ज़्यादा पसंद था । क्योंकि दो गिलास वो अपने दोनों हाथों में उठा सकता था । कांऊटर से टेबल तक पहुँचने में गर्म चाय के गिलासों की गर्मी बड़ी राहत देती थी । इतनी बारीशों में ठंड़ बढ़ जाती है यहां । हाथों को कुछ देर गर्मी मिल जाती । एक और फ़ायदा था यहाँ । जब ग्राहक ना हों और चाय के बर्तन , गिलास सब धुल गये हों तो छोटू ढाबे के थड़े पर बैठे बैठे बारिश का आनन्द लेता । बारिशे बहुत पसंद है छोटू को ।
पर ये सुख कभी कभी ही मिलता था । बारिशों में पकौडे भी बनते थे ना ढाबे पर । मालिक के हाथ में बडा हुनर है । उस के बनाये प्याज , आलू , गोभी और मिर्ची के पकौडो़ की बडी मांग है बस्ती में । उस पर ये ढाबा है भी तो स्कूल के बिलकुल सामने । छुट्टी के टाईम तो मशीन की तरह हाथ चलाने पढ़ते है । इतने बच्चों की भीड़ लग जाती है ढाबे पर । मालिक पक्का व्यपारी है । वो काफी पकौडे़ पहले से ही तल कर रख देता है । छोटू को सिखा दिया गया है कि वो गरम उतरे पकौडों मे पहले बने पकौडे मिला कर ही ग्राहक को दे ।
आज सुबह से ही मौसम बड़ा सुहाना था । घने काले श्यामल मेघ आकाश पर छाये हुये थे । स्कूल के पीछे के घने नीम , पीपल और बरगद के पेडों से कोयल और तरह तरह की चिड़ियों की मादक कलरव बादलों की गड़गडाहट के संगीत में संगत दे रही थी । सुबह से ढाबे पर चाय और पकौडों की बड़ी मांग थी । छोटू को दम मारने की भी फुरसत नही थी । दुपहर होते होते मूसला धार बारीश शुरू हो गई । जल भराव के चलते गलियां छोटी मोटी नदियों में बदल रही थी ।
स्कूल के सामने की गली में भी घुटनों -घुटनों तक पानी भर गया था । पानी ढाबे के थडे़ तक पहुंचा चाहता था । मालिक ने चुल्हा और तेल का कढाह उठा कर ढाबे के भीतर रख दिया था । छुट्टी होते ही बच्चों के रेले के रेले स्कूल से पानी भरी गली मे निकल आये । जो बच्चे बसों और रिक्शों में घर जाते थे , वे सब अपने अपने वाहनों पर जल्दी से सवार हो कर वहां से निकल गये । बहुत से बच्चे पैदल घर जाते थे । वे सब पानी में छपाक छपाक चलते बारिश में भीगते , मस्ती करते , हंसते खेलते गली में घूम रहे थे । ना तो उन्हें घर जाने की जल्दी थी , ना अपने या अपने बस्ते के भीगने की । पानी भरी गली में वे पकड़न पकड़ाई खेल रहे थे । गंदला पानी एक दूसरे पर उछाल रहे थे । छोटू ढाबे के थडे पर बैठा मंत्र मुग्ध हो कर बच्चों के ये सब खेल तमाशे देख रहा था । कुछ बच्चों ने ढाबे के थड़े पर अपने बस्ते रख दिये और अपनी कॉपियां निकाल कर नाव बनाने लगे । अब इन नावों की अद्भुत रेस का खेल आरम्भ हो गया । बच्चे पानी में कूदते फांदतें पानी में बहती नावों के पीछे भागते । किस की नाव सब से पहले डूबी , किस की सब से दूर तक गई । छोटू का मन मचल रहा था , बारिश में भीगने को , गली में भरे पानी में छप छप कूदने को और पानी में नाव तैराने को । पर उस का मालिक बड़ा कड़क किस्म का है । ड्युटी के समय उसे छोटू का पल भर के लिये भी इधर उधर होना बर्दाश्त नही है । मुट्ठी भर तो पैसे देता है , उस पर भी हर दम पैसे काट लेने की घमकियां देता है । छोटू ने ढाबे के भीतर झांक कर देखा । मालिक खराटे भर रहा था ।
छोटू के चेहरे पर मुस्कान छा गई । उस ने चुपके से थडे़ की बोरी के नीचे से कापी निकाली । पकोडे पैक करने के लिये इस कॉपी के कागजों का प्रयोग किया जाता था । उस ने कॉपी में से कुछ पेज फाडे और नाव बना बना कर रखने लगा । अपनी कारीगरी में व्यस्त छोटू को पता ही नही चला कि कब मालिक नींद से उठ कर उस के पीछे आ खड़ा हुआ है ।
” साले , कापी में से पेज फाड़ फा़ड कर क्या बर्बादी कर रहा है । “
” मैं ….मैं वो ….नाव …बना रहा था । ” हकलाते हुये छोटू ने जवाब दिया । उस की नजरे गली मे बारिश में भीगते , खेलते कूदते हुड़दगं मचाते बच्चों पर थी ।
मालिक ने भी छोटू की नजरों का पीछा करते हुये गली में स्कूल के लड़को को देखा । बच्चे पानी में कागज की नावों की रेस लगा रहें थे । मालिक ने छोटू को नजर भर कर देखा । फिर उसने ने छोटू के हाथ से एक नाव ले ली । छोटू का मुहं उतर गया । फिर अचानक से वो हो गया जिस की कल्पना छोटू सपने में भी नही कर सकता था ।
ढाबे के थड़े से पानी भरी गली में उतरते हूये मालिक ने कहा ” ” अबे रेस लगाये गा नाव की । चल आजा । देखते हैं कौन जीतेगा । ” मालिक के चेहरे पर वात्सल्य भरी मुस्कान थी ।
पल भर को छोटू अकबका गया । मालिक उसे देख शरारत भरी आवाज में बोला , ” ऐ , रेस से पहले ही हार से डर रहा है ? “
छोटू के चेहरे पर मुस्कान खेल गई । उसने ने छपाक से पानी में कूद कर अपनी कागज की नाव बहते पानी में छोड़ दी । मुसलाधार बारिश रिमझिम फुहारों में बदल रही थी ।
दूर क्षितिज में इन्द्रधनुष अपनी सतरंगी छटा बिखेर रहा था ।