“स्त्री पैदा नहीं होती उसे बनाया जाता है”
‘सिमोन द बुवा’ की
यह पंक्ति अक्सर याद आती है मुझे
मैं सोचती हूं
वास्तव में स्त्री को,
बनाया जाता है
एक कलाकार के रूप में
बोलने के लिए भी पंक्तियां दि जाती हैं
वह हर वक़्त
किसी कैमरें के निगरानी में
या,
किसी निर्देशक के
निर्देशन में कैद रहतीं हैं
जब बेटी होती है,
तब माता-पिता के
निगरानी में रहती है
और सिखाए गए हर पंक्तियां
संस्कार बन जाती है
जब बहू, पत्नी, भाभी, देवरानी
और इत्यादि होती है
तब उनके लिए
अलग से संस्कारों वाली पंक्तियां
बनाई जाती है
जब माँ, दादी माँ और
नानी माँ बनतीं है
तब नये जेनेरेशन के हिसाब से
नए नए स्क्रिप्ट्स को
क्रिएट करते हैं
क्या बोलना है?
कैसे बोलना है?
और कब बोलना है?
बस,
दिए गए स्क्रिप्ट्स को
ही दोहराते रहना है
न ज्यादा न ही कम बोलना है
और उसि किरदार में जिना है
कहते हैं न कि
“सुनो सब का करो अपना”
लेकिन स्त्रियां,
सुनती है अपने मन की
करतीं हैं सब की
इस तरह,स्त्रियां हमेशा
शूटिंग के सेट पर
किसी न किसी किरदार का
रोल प्ले करती रहती है
जिसकी अपनी कोई
मौलिकता नहीं होती
भटकती रहती है फिल्मों की तरह
नए नए किरदारों में
कभी इस घर में
तो कभी उस घर में
स्त्रियां ता-उम्र
किसी न किसी
किरदार में ही जी रही होतीं हैं।