“वो दोनों तो गोरी चिट्टी रहीं, चटपट ब्याह करके गईं अपने घर..इनको कहाँ बिहाओगी भाभी” चाची ने माँ को कुहनी मारते हुए ये बात इतनी तेज़ आवाज़ में कही कि मुझ तक पहुँच ही जाए..माँ ने उनको टाल दिया,
“जहाँ इसको जाना लिखा होगा,वहाँ ये भी चली जाएगी..हर बिटिया अपना भाग्य लेकर आती है”
चाची थोड़ी मायूस होकर चुप हो गई थीं, बात आगे बढ़ नहीं
पाई, बढ़ती तो दो-चार बार ‘करिया’ शब्द का प्रयोग करके उनके चित्त को शांति मिल जाती! फिर वो मेरा रंग साफ़ करने के कुछ नुस्खे माँ को सुझातीं, माँ झिझकते हुए वो नुस्खे मुझ तक पहुँचातीं और मैं एक बार फिर गुस्से से बिलबिलाते हुए बिना खाना खाए सो जाती…
बचपन से ये बात मेरी तरह बीमारी की तरह चिपकी रही! “रंग दबा है”, “अपनी बहनों जैसी नहीं है, वो तो कपूर जैसी धरी हैं”, “आपकी ये बिटिया पूरे घर में सबसे अलग है”…ये बातें पहले तो चुभती रहीं,फिर आदत में शामिल हो गईं।स्कूल में दीदी के स्कूल में एडमिशन होते ही उनकी सहेलियों ने पूछा,”ये तुम्हारी रियल सिस्टर है? एकदम शक्ल नहीं मिलती”, बचपन में मामाजी के यहाँ शादी में गई, तो रिश्तेदारों ने बेखटके माँ से पूछ लिया,
“जब ये पेट में थी, तब भुना बैंगन खाती थी क्या तुम?”
वो मज़ाक तो वहीं रुक गया लेकिन इस भद्दे मज़ाक पर उठे कहकहे ने कई सालों तक मेरा पीछा नहीं छोड़ा…बाज़ार से लाई सब्जियों में बैंगन को देखते ही वो मामाजी के यहाँ की भीड़, उस भीड़ की भेदती नज़रें,  मेरे सामने  आकर खड़ी हो जातीं और मैं चुपके से बैंगन बगल वाले खाली प्लॉट में फेंक आती थी। वक़्त बीतने के साथ बैंगन से दुश्मनी तो छूट गई लेकिन मेरे ऊपर चिपका  “कल्लो” या “करिया” का लेबल नहीं छूट पाया…ना ये लेबल बेसन से छूटा,ना चिरौंजी से ,ना दुनिया भर की क्रीम और दवाओं से!
ऊपर से जिस दिन इस तरह का कुछ हो जाता था, सारी दबी ढकी पुरानी बातें कूदकर सामने आ जाती थीं।
“चाची क्यों आईं थीं? मैंने कहा है ना, मेरी छुट्टी वाले दिन इनको मना कर दिया करो आने के लिए”
उनके जाते ही मैंने माँ से सवाल किया,वो बिफर पड़ीं,
“क्या हमसे अपॉइंटमेंट लेके आती है? उसका जब जहाँ जी करता है, चली जाती है मुँह उठाए”
माँ के स्वर की कड़वाहट बता रही थी कि चाची का पूछा सवाल “इनको कहाँ ब्याहोगी” अभी तक माँ के मन में घूम रहा था और उस सवाल का जवाब ढूँढ़ते हुए वो आज दिन भर चिड़चिड़ाती फिरेंगी। मैंने स्कूटी की चाभी स्टैंड पर से उठाते हुए चिल्लाकर कहा,
“अगली बार चाची पूछें तो बिटिया भाग्य लेकर आती है,मत कहना..कह देना,मेरी बिटिया भले ही करिया है, तुम्हारी गोरी चिट्टी लड़की से ज़्यादा कमाती है”
गुस्से से मेरे हाथ पैर काँप रहे थे, स्कूटी लेकर मैं घर से निकल तो आई थी लेकिन इसके आगे कुछ समझ नहीं आ रहा था,जाना कहाँ है? चौराहे पर पहुँचकर दाएँ हाथ की तरफ़ इशारा करता हुआ मंदिर का बोर्ड दिखा तो लगा भगवान खुद ही मुझे आवाज़ देकर मंदिर बुला रहे हैं…मंदिर पहुँचते ही कुछ देखकर आँसुओं से आँखें डबडबा आईं। एक बच्ची अपने पापा का कंधा पकड़े खड़ी थी और उसके पापा ज़मीन पर टेक लगाए उसे सैंडिल पहना रहे थे…जैसे ही उसके पापा खड़े हुए,बच्ची ने दोनों हाथ उठाकर गोदी लेने का इशारा किया, उसकी माँ ने डपट दिया,
“भक्क! इत्ती बड़ी हो गई, गोदी गोदी की लगी रहती है”
बच्ची के पापा ने भी एक पल में इस बात का समर्थन किया लेकिन दूसरे ही पल  बच्ची का मुँह उतरता देख झट उसे गोदी में उठा लिया..बच्ची हँसते हुए अपने पापा से लिपट गई और इसके आगे मैं कुछ देख नहीं पाई..सब कुछ आँसुओं में गड्ड मड्ड हो गया था। पापा की याद इस तरह से दिल में उठ रही थी कि तकलीफ़ महसूस होने लगी थी…पापा इतनी जल्दी क्यों चले गए? उनके सामने मुझको कौन कल्लो कहने की दम रखता था? माँ भी कुछ कहती तो  डाँटकर चुप करा देते,
“नहीं लगाएगी हमारी बिटिया उपटन सुपटन..वो क्यों चमकाए चेहरा, उसकी बुद्धि चमकती है”
पापा के जाने के बाद ये बात किसी ने नहीं कही, बहनों ने भी नहीं, यहाँ तक कि माँ ने भी नहीं! जबकि उसी बुद्धि के बल पर मुझे इतनी अच्छी नौकरी मिली, पापा के असमय जाने के बावजूद हमें किसी के आगे हाथ नहीं फैलाना पड़ा… लेकिन ये सब घर में कोई नहीं गिनता, गिनी जाती हैं उन टूटे रिश्तों की संख्या, जो मेरे दबे‌ रंग को लेकर टूटे। कई जगह शादी की बात चली.. लेकिन किसी को अपने घर में भुना बैंगन नहीं चाहिए था। मंदिर की सीढ़ियों पर बैठे हुए,वो‌‌ सब याद करते हुए मन खिन्न होने लगा था,आँखें मूँदकर मैंने हाथ जोड़े ही थे कि एक जानी पहचानी आवाज़ ने चौंका दिया,
“आप हर संडे यहाँ आती हैं क्या?पिछली बार भी हम संडे को ही यहाँ मिले‌ थे”
मैंने चेहरा घुमाया, पराग मुस्कुराते हुए मेरी ओर आ रहा था..मेरे ऑफिस का सहकर्मी!
“हाँ..मतलब ..अक्सर आ जाती हूँ” मैंने सामान्य होते हुए कहा,वो वहीं सीढ़ियों पर‌ आकर बैठ गया था।
“आप कई दिनों से दिखी‌ नहीं ऑफिस में”
उसने थोड़ी ‌देर चुप रहने के बाद अचानक पूछ लिया, सूर्यास्त का ढलता लाल सूरज‌ मेरे गालों पर भी लाली की एक बूँद छिटक गया था, मेरी अनुपस्थिति भी कोई नोटिस करता है क्या?
“आजकल लिफ्ट से अपनी फ्लोर तक जाती हूँ, आपकी फ्लोर पर कोई काम भी नहीं पड़ा इस बीच..तो..”
वो “हूं” बोलकर दूर ढलता सूरज देखता रहा। कुछ महीने पहले हम ऑफिस की एक वर्कशॉप में मिले थे, उसके बाद कभी सीढ़ियों पर मिलते, कभी कैंटीन में आमना सामना हो जाता,थोड़ी बहुत बातें ‌हो‌ने लगी थीं..आज दूसरी बार हम मंदिर में एकसाथ बैठे हुए, ऑफिस की उबाऊ बातों को परे रखते हुए इधर-उधर की बातें करने लगे थे। किसके घर में कितने लोग हैं ,से शुरू हुई बातें पसंद-नापसंद पर आ गई थीं..
“मुझे बैंगन का भुर्ता बहुत पसंद है..एकदम भुना हुआ बैंगन,सोंधा सोंधा ..आप खाती हैं?”
उसके पूछते ही एक झुरझुरी शरीर में दौड़ी, ‘ना’ में गर्दन हिलाई …जी में आया कह दूँ,”खाती नहीं हूँ,एक भुना बैंगन हर दिन आईने में देखती हूँ”…तभी उसकी कही एक और बात  पर मन ठहर गया; सोंधापन! हाँ, ये खूबी भी तो होती है, भुने बैंगन में..
मंदिर से होकर लौटी तो मन उतना भारी नहीं था। अनजान लोगों की भीड़ सुकून दे गई थी या पराग के साथ बिताया हुआ वो समय, पता नहीं.. लेकिन आज अपने आसपास सब कुछ इतना चुभ नहीं रहा‌ था।
अगले‌ दिन ऑफिस में,लिफ्ट की बजाय सीढ़ियाँ मुझे मेरी फ्लोर तक ले जा रही थीं, सीढ़ियाँ अगले मोड़ को ढूँढ़ रही थीं और मेरी नज़रें पराग को…
“मैं आपको ही फोन करने वाला था, एक सरप्राइज़ है आपके लिए”
बच्चों की तरह कूदता हुआ वो अपनी डेस्क पर गया और एक छोटा सा बैग लाकर मुझे थमा दिया।
“ये क्या है?” मैंने हैरत से पूछा।
“आपने कल बताया था ना,आपको कैथा बहुत पसंद है”
उसने आँखें नचाते हुए कहा, मैं बुरी तरह झेंप गई।  बैग हाथ में थामे, सीढ़ियाँ चढ़ते हुए मेरा मन भी छोटी-छोटी ही सही,सीढ़ियाँ चढ़ने ही लगा था… अपनी सीट पर पहुँचकर, धीरे से एक कैथा निकालकर देखा, पके कैथे की तेज़ महक पूरे माहौल में फैलने लगी थी…
“क्या लाई हो, हमें भी खिलाओ”सामने वाली सीट पर बैठी मिसेज़ शर्मा ने,मेरे उस खट्टे मीठे उपहार को घूरते हुए कहा,
मैंने झट से कैथा वापस उसी बैग में रखते हुए टाल दिया,
“मेरा नहीं है..किसी ने दिया है, कहीं और देना है”
हड़बड़ाकर मैंने कह तो दिया,फिर अपने बचपने पर हैरानी भी हुई। ऐसे कैसे एक अदनी सी चीज़ के लिए मैं इतनी आसानी से झूठ बोल गई..अदनी सी? सच में? दिन भर वो उपहार मेरी डेस्क की दराज़ महकाता रहा और जितनी बार मैंने दराज़ खोली,वो मुझे पराग की याद दिलाता रहा।
उपहारों का आदान-प्रदान शुरू हुआ तो फिर रुका नहीं.. मैंने उसे मधुमालती की एक बेल दी, उसने मुझे बरगद का बोनसाई दिया..फिर मैंने एक किताब दी, उधर से एक पर्स आया। जब मैंने उसके जन्मदिन पर झिझकते हुए शर्ट दी,तो उसने बिना मेरा जन्मदिन आए मुझे एक ताँत की साड़ी दे दी। हमारे तोहफे जैसे जैसे औपचारिकता के दायरे से निकलकर करीब आते जा‌ रहे‌ थे, उसी तरह हम दोनों भी ‘आप’ की औपचारिकता से निकलकर ‘तुम’ पर आ चुके थे।
दोस्ती थोड़ी और प्रगाढ़ हो रही थी,इतनी प्रगाढ़ कि  वो मुझे साधिकार टोकने भी लगा था,
“ऑफिस में टीका लगाकर आती हो, अजीब नहीं लगता?”  “तुम इतना सिंपल क्यों रहती हो?”
“कभी जींस क्यों नहीं पहनती?”
मैं कभी तो इन बातों पर खीज जाती थी,कभी मुस्कुरा देती थी..पापा के बाद कोई तो है मेरे लिए इतना सोचने वाला,इतना गौर करने वाला! ऊपर से सबसे बड़ी बात कि मेरे रंग को लेकर उसने कभी भी कुछ ऐसा नहीं कहा था जो मेरा दिल दुखा जाए। मैं धीरे धीरे अपने आप को पसंद करने लगी थी, मुझे कोई देखता था.. मुझे ढूँढ़ता था.. मेरे अंदर की स्त्री पनपने लगी थी! मैं अपने मन के अंधेरे से बाहर आने लगी थी, सजने सँवरने लगी थी, ज़िंदगी से शिकायतें कम हो रही थीं। एक दिन मौका देखकर माँ से उसका ज़िक्र छेड़ दिया, मुझे लगा कि शायद वो अब तो अपने उस सिक्के को कीमती मानेंगी , जिसको बाकी लोग खोटा मानते आए थे… लेकिन मैं एक बार फ़िर ग़लत थी, माँ ने बड़ी तेजी से हाथ में पकड़ा अखबार मेज पर दे मारा था,
“हम यहाँ घर घर जाकर अरज लगाते फिर रहे हैं, फोटो बायोडाटा बाँट रहे हैं..वहाँ अलग रासलीला चल रही है तुम्हारी? तभी हम कहें आजकल बिंदी,लिपस्टिक सब पुतर कर काहे ऑफिस निकला जा रहा है”
“आपको दिक्कत क्या है माँ? “ मैंने पहली बार इस तरह अपनी किसी इच्छा के लिए माँ से जिरह की थी, माँ का चेहरा लाल हो गया था,
“दिक्कत है..दसियों तरह की दिक्कत है!पहले तो हमारी जात का नहीं है,ऊपर से पिछले महीने तुम्हारे जीजा  रिश्ता लाए ,तब तो तुमने झट कह दिया था कि अभी मैं पी एच डी करूँगी..अब हो गई तुम्हारी पी एच डी?”
माँ ने मुँह टेढ़ाकर के जिस तरह मेरी नकल की, आँखों में क्रोध और तिरस्कार आँसू बनकर तैर गए! जीजाजी के लाए रिश्ते को मैं बहाना बनाकर टाल गयी थी; लड़का मुझसे कम पढ़ा लिखा था, नौकरी थी नहीं, ट्यूशन करके घर चला रहा था ..
जीजाजी ने एहसान का एक पुलिंदा मेरे कंधों पर लादते हुए कहा था,
“हमारे मार्फत आया रिश्ता है, ना तो दहेज की समस्या होगी,ना  शक्ल सूरत पर कोई कुछ कहेगा”
जीजाजी की आँखों में उतरे इस निपटाने वाले भाव को देखकर ही मैंने आगे पढ़ाई का बहाना बना दिया था। माँ उस दिन से ही चोट खाए बैठी थीं ,आज मौका मिलते ही मन में भरा पूरा ज़हर मेरे ऊपर उँड़ेल बैठीं!
उस दिन के बाद से मैंने पराग से मिलना तो कम नहीं किया, बस अपनी मंशा माँ पर ज़ाहिर कर दी..उसका फोन आता तो,” हैलो,हाँ पराग” कहकर जता देती कि किससे बात कर रही हूँ! एक दो बार ऑफिस से फोन करके माँ को बताया कि “आप खाना खा लीजिएगा, मैं पराग के साथ बाहर जा रही हूँ”..बीतते समय के साथ शायद माँ ने भी ये रिश्ता स्वीकार करना शुरू कर दिया था, न तो पराग के नाम से अब वो चिढ़ती थीं,न ही मुझे किसी और लड़के की फोटो दिखाती थीं।
एक दिन सुबह सुबह फ़ोन पर पराग का नंबर चमका, उसने सीधे यही कहा,
“मम्मी तुमसे मिलना चाह रही थीं, आज संडे है, कुछ प्लान कर सकते हैं। कहीं भी..जहाँ तुम बताओ”
“ऐसे अचानक? सब ठीक है?” मैं हड़बड़ा गई थी।
पराग ने एक पल ठहरकर धीरे से पूछा,
“अरे, अपनी होने वाली बहू से मिलना है उन्हें.. इसमें इतना चौंक क्यों रही हो?”
एक झटके में कही गई ये बात मेरी सुबह में थोड़ा और उजाला भर गई थी।मेरे सामने सारे रिश्तेदारों के चेहरे घूम गया, ख़ासतौर पर चाची का..उनके माँ से पूछे गए सवाल,”इनको कहाँ बिहाओगी” का जवाब मुझे मिल गया था! थोड़ी देर बिस्तर पर पड़ी बिना बात मुस्कुराती रही,
फिर माँ को जाकर रुकते-अटकते पूरी बात बतायी,
“घर पर ही बुला लें?..हम लोग भी मिल लेंगे आपस में..बताओ,सही रहेगा ना?”
आधे मन से ही सही,माँ ने ‘हाँ’ में सिर हिला दिया था। वो रसोईं में चली गई थीं और मैं पराग को मैसेज करके, बैठक की सफाई में लग गई थी। सोफे के कुशन बदले गए, पंखे पर गीला कपड़ा मारा गया…मेरे मन पर जमी धूल पर भी कुछ छींटें पड़े! मन की ज़मीन सोंधी सोंधी महक रही थी, मैं आँख मूँदे हुए पापा की कुर्सी पर सिर टिकाए बैठ गई थी…
“क्या बना लें,बताओ उसको क्या पसंद है?” माँ ने हिचकते हुए पूछा,
मैंने बिना एक पल गँवाए जवाब दिया,
“कुछ भी बना लो, साथ में बैंगन का भुर्ता ज़रूर बना‌ लेना”
माँ कुछ देर हैरत से देखने के बाद आगे बढ़ गई थीं, मेरे भीतर एक खलबली सी मची हुई थी…आज का दिन जैसे पैरों में पत्थर बाँधकर आया था, दुनिया भर के काम हो चुके थे लेकिन शाम अभी तक आई ही नहीं थी! दसियों कुर्ते, साड़ियाँ बिस्तर पर फैलाए हुए मैं तय नहीं कर पा रही थी कि पहनूँ क्या? उधर रसोईं से भी हर थोड़ी देर में एक अनूठी महक निकलकर पूरे घर को महका जाती थी।
“इतना सब क्यों बना रही हो माँ? अब आप हटो, मैं कर दूँगी बाकी” मैंने माँ को जाकर हटाने के कोशिश की तो उन्होंने मुझे रसोईं से बाहर खदेड़ दिया,
“तुम आना भी नहीं इधर..जाओ,बाल ठीक करो, कोई ढंग का सूट पहनो..देखो, फ़ोन भी बज रहा है तुम्हारा”
भागते हुए मैं कमरे में आई तो देखा,पराग की कॉल थी,
“हैलो..” मैंने लपककर फ़ोन उठाया।
“कहाँ थी तुम, तीसरी बार में उठा है फ़ोन”
मैं पराग की झुंझलाहट पर निसार हो गई,
“अरे,किचन में थी! माँ पता नहीं क्या क्या बना रही हैं आज”
मैंने शीशे में अपने को देखते हुए पराग को बताया,तभी उसका  उसका अगला सवाल आ गया,
“अच्छा सुनो, क्या पहन रही हो शाम को?”
“तुम बताओ.. साड़ी पहनकर, पल्लू सिर पर रखकर, चाय की ट्रे वाली एंट्री करूँ?” मैं बोलते हुए ज़ोर से हँसने लगी, पराग गंभीर था,
“प्लीज़ यार, बी सीरियस! अच्छा सुनो, वो तुम्हारा आसमानी वाला अनारकली है ना, वो पहन लेना”
मुझे थोड़ी सी हैरानी हुई, इस बात पर इतना परेशान क्यों है ये? मैंने शरारत से पूछ लिया,
“वही क्यों? कुछ ख़ास बात है उसमें?”
“हाँ, उसमें तुम्हारा रंग थोड़ा खुला खुला लगता है!” पराग ने बेखटके बोल‌ दिया…एक सरसराता हुआ तीर धक्क से आकर मुझे लगा!
“रंग खुला‌ लगता है मतलब? इससे कुछ फर्क पड़ता है क्या?”  पूछते हुए मेरे होंठ काँपने लगे थे। पराग ने तुरंत कहा,
“मतलब उसमें तुम्हारा रंग इतना दबा नहीं दिखता..और फेयर दिखने से फर्क क्यों नहीं पड़ता। तुम्हारे पास कंसीलर, फाउंडेशन..ये सब होगा,लगा लेना सब! इन फैक्ट, मैं तो कहूंगा ,किसी ब्यूटी पार्लर में हल्का सा तैयार हो लेना, एकदम चमककर माँ के सामने जब आओगी ना, माँ झट से ओके कर देंगी!”
“सुनो ना पराग..प्लीज़, मैं ये सब नहीं कर पाऊँगी” मेरी आवाज़ बुझने लगी थी,पराग ने एकदम साफ़ साफ़ कहा,
“तुम समझो तो, फर्स्ट इंप्रेशन इज़ द लास्ट इंप्रेशन …माँ को ऐसे ही थोड़ी पसंद आ जाओगी, बी प्रैक्टिकल यार”
फ़ोन‌ कट चुका था, लेकिन कुछ बातें अभी भी कमरे में गूँज रही थीं..पराग की नसीहतें, उसकी कही बात “फर्क क्यों नहीं पड़ता फेयर दिखने से? माँ को ऐसे ही थोड़ी पसंद आ जाओगी”, मुझे लगा चाची सामने खड़ी होकर अंगूठा दिखा रही हैं, मामाजी के यहाँ के सारे रिश्तेदार ठहाका मारकर कर हँस रहे हैं, उन सबके साथ एक कोने में पराग भी खड़ा है, फाउंडेशन की शीशी पकड़े हुए, मुझसे प्यार‌ से कह‌ रहा है,
“लो,लगा लो अपने चेहरे पर.. गर्दन पर..हाथों पर..फिर कर‌ लूँगा शादी”
मैंने घबराकर अपना चेहरा हथेलियों से छुपा लिया था। ऐसा लगा जैसे सब्जी मंडी लगी है, सारी सब्जियाँ धो पोंछकर चमकाकर सजाई जा रही हैं…जो चमक रही है, जल्दी बिक जाएगी, बाकी डलिया में वापस जाकर किस्मत को कोसेंगी। बाज़ार में मौजूद सारे लोग एक से हैं,बस किसी का मुखौटा जल्दी उतरता है,किसी का देर से! एक कलर बॉक्स तो अधूरा रहता है जब तक उसमे काला रंग ना हो, लेकिन हमारी ज़िन्दगी में इस काले रंग को इतना छुपाया क्यूं जाता है? क्यूं कोशिश करते हैं लोग इस रंग को बदलने की? मुझे पसंद है मेरा रंग! मुझे नहीं बदलना अपने रंग को..अपनी आदतों को..अपने आप को। मैंने फोन उठाकर टाइप करना शुरू किया,
“पराग! मेरे पास नहीं है कंसीलर और फाउंडेशन..ना मेरी स्कूटी किसी ब्यूटी  पार्लर का रास्ता जानती है। मैं जैसी हूँ,वैसी ही रहूँगी.. तुम्हारी माँ भी एक काली कलूटी लड़की को‌ देखकर निराश ही होंगीं, ऐसे में घर आकर क्या करोगे?”
मैसेज भेजते ही मैंने स्विच ऑफ करके फोन बिस्तर पर फेंक दिया। मानसून मेरे अंदर दस्तक दे चुका था। थोड़ी देर पहले बिजली गिरी ही थी, अंदर बादल घुमड़ रहे थे, आँखों से बारिश शुरू हो चुकी थी।रसोईं से अब एक नयी महक बाहर आ रही थी,बैंगन भुनने की…मेरी देह और मेरा मन उस महक का अस्तित्व स्वीकार नहीं कर पा रहे थे!

5 टिप्पणी

  1. पढ़ते पढ़ते एक सुखद अंत की चाह उठी थी लेकिन सुखद होता है क्या ऐसे किरदारों का जीवन… रंग के साथ खुद को बेहतर से बेहतरीन ढाल लेती है लड़कियां पर लोगो को नज़र नहीं पलटती…लेखिका को बधाई

  2. सच लिखा है, भीतर तक बात पहुंचती ही नहीं… चुभ जाती है। ऐसी त्रासदी झेलती लड़कियों को देखा है। आखिर कब तक काला रंग गुणों पर भारी पड़ेगा? बहुत बहुत बधाई इतनी अच्छी कहानी के लिए।

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