कुछ महीने पहले एक पुरस्कार देने वाली संस्था और एक लेखक में हो गई बहस। संस्था देना चाह रही थी ‘अंतर्राष्ट्रीय कोरोना देव सम्मान’ जबकि पुरस्कृत होने वाला लेखक का मानना था कि इसे ‘वैश्विक कोरोना देवी पुरस्कार’ कहा जाए। लेखक की बात में भी दम था। उसका कहना था कि सुनने में सम्मान बहुत ग़रीब शब्द लगता है। सब को पता चल जाता है कि इसके साथ कोई राशि नहीं दी जा रही। केवल स्मृति चिन्ह और सस्ती सी शॉल मिलने वाली है। मगर पुरस्कार से कम-से-कम यह उम्मीद तो बंधती है कि शायद इसमें कहीं लक्ष्मी जी का भी कोई किरदार हो।

सितम्बर और जनवरी का महीना हिन्दी साहित्य में सामूहिक विवाहों का होता है। पूरे विश्व में पुरस्कारों, सम्मानों और अलंकरणों का दौर शुरू हो जाता है। कोरोना काल में तो ऐसे आयोजनों की बाढ़ सी आ गई। बस ज़ूम या किसी अन्य माध्यम से ऑनलाइन इकट्ठे हुए; और ऑनलाइन ही एक स्मृति चिन्ह दिखा दिया गया… न कोई ख़र्चा न मेहनत… बस हो गये सम्मान समारोह… सम्मान देने वाला ताली बजाता अपना कंप्यूटर बंद कर देता और लेने वाला अपने घर में बैठा-बैठा अपना कोट उतार कर घर के कपड़ों में वापिस! कुछ संस्थाओं ने पुरस्कार की राशि बनाए रखी। 
कुछ महीने पहले एक पुरस्कार देने वाली संस्था और एक लेखक में हो गई बहस। संस्था देना चाह रही थी ‘अंतर्राष्ट्रीय कोरोना देव सम्मान’ जबकि पुरस्कृत होने वाला लेखक का मानना था कि इसे ‘वैश्विक कोरोना देवी पुरस्कार’ कहा जाए। लेखक की बात में भी दम था। उसका कहना था कि सुनने में सम्मान बहुत ग़रीब शब्द लगता है। सब को पता चल जाता है कि इसके साथ कोई राशि नहीं दी जा रही। केवल स्मृति चिन्ह और सस्ती सी शॉल मिलने वाली है। मगर पुरस्कार से कम-से-कम यह उम्मीद तो बंधती है कि शायद इसमें कहीं लक्ष्मी जी का भी कोई किरदार हो। 
मुख्य लड़ाई इस बात पर थी कि कोरोना ‘देव’ है या ‘देवी’। आयोजक का मानना था कि कोरोना एक वायरस है और सभी भाषाओं में कोरोना पुल्लिंग है। कहीं कोरोना को लेकर स्त्रीलिंग में कोई बातचीत नहीं होती। तो फिर भला कोरोना को देवी कैसे पुकारा जा सकता है। संस्था ने तो चंदा भी इकट्ठा करना शुरू कर दिया है। जल्दी ही उनके कस्बे में कोरोना देवता के मंदिर का निर्माण शुरू होने वाला है। हमारी सोच आर्य-समाज के निकट है क्योंकि कोरोना देवता का कोई मानव-चेहरा नहीं होगा। अतः इस पर मूर्ति पूजा का आरोप नहीं लग सकता। 
वहीं लेखक के अपने तर्क थे। उसका कहना था कि कोरोना केवल एक शक्ति है। उसका कोई मानव-स्वरूप नहीं है। और शक्ति तो केवल दुर्गा का स्वरूप हो सकती है। कोरोना की सबसे बड़ी शक्ति है लगातार खांसी होना… ठीक होने के बाद भी इन्सान खांसता रहता है। दुर्गा के आठ रूपों से तो परिचित हैं ही। अब यह दुर्गा का एक अलग रूप है। इसलिये पुरस्कार और मंदिर दोनों का नाम कोरोना देवी ही होना चाहिये।
अंदर की बात यह थी कि इस पुरस्कार के लिये पैसा लग रहा था लेखक का। भला लक्ष्मी मैय्या के सामने किसी आयोजक की क्या औक़ात हो सकती है। आयोजक तो अपने पहले कार्यक्रम में बारह लेखकों को सम्मानित करना चाह रहे थे। एक महीने में एक के हिसाब से। मगर लेखक का आग्रह था कि पहले कार्यक्रम में केवल उन्हें ही पुरस्कृत किया जाए। अन्यथा समाचारपत्रों में उनका योगदान डायल्यूट हो जाएगा। डायल्यूट बोलने में लेखक और समझने में आयोजक दोनों को ख़ासी मुश्किल हो रही थी। 
आयोजक दलील दे रहे थे – “साहिब, बिहार सरकार तो राजभाषा पुरस्कार के लिये चौबीस हिन्दी प्रेमियों का सम्मान करती है। हम तो उससे आधे की बात सोच रहे हैं।” अंततः मामला तय हो ही गया। पहले सम्मान के लिये पूरा ख़र्चा लेखक स्वयं उठाएंगे और दूसरे कार्यक्रम के लिये पचास प्रतिशत ख़र्चे का ज़िम्मा उठाएंगे। यानी कि दूसरे आयोजन से हर वर्ष बारह साहित्यकारों को सम्मानित किया जा सकेगा।
आयोजक अपने चारों ओर निगाह दौड़ा कर मन ही मन मुस्कुरा रहे थे। उनके दिमाग़ में एक योजना पनप रही थी कि जल्दी ही वे पूरे विश्व में एक आयोजन में अधिक से अधिक साहित्यकारों, अनुरागियों और सेवकों का सम्मान कर लिम्का और गिनेस बुक ऑफ़ रिकॉर्ड्स में अपनी संस्था का नाम दर्ज करवा सकेंगे। वे कम से कम निनयान्वे लोगों का सम्मान करना चाहते थे। बेचारा आम आदमी यह सोच कर हैरान होता था कि ये बुक ऑफ़ रिकॉर्ड्स शीतल पेय या बीयर बनाने वाली कंपनियां ही क्यों करती हैं? क्या रिकार्ड्स भी किसी नशे की ही तरह सिर चढ़ कर बोलते हैं!
इन्हीं पाठकों की ही तरह कुछ बेचारे किस्म के लेखक भी होते हैं। ये जुगाड़ू नहीं होते। न ही इन्हें इन सम्मान समारोहों में व्यवहार करने का कोई प्रशिक्षण मिलता है। कभी-कभी गेहूं में घुन की तरह इन बेचारों का भी सम्मान के लिये चयन हो जाता है। उन्हें समझ ही नहीं आता कि आयोजन तो हो रहा है मगर सम्मान कहां है। एक रेवड़ की तरह तथाकथित सम्मानित साहित्यकार कतारबद्ध होकर अपने-अपने नाम का कर रहे हैं इंतज़ार… बहुत बार तो नाम और परिचय किसी अन्य साहित्यकार का चल रहा होता है और सम्मानित हो रहा होता है कोई और !  
वैसे तो सम्मानित साहित्यकार को कभी कुछ बोलने का अवसर ही नहीं दिया जाता। यदि मौक़ा दिया भी जाता है तो उससे अपेक्षा की जाती है कि वह आयोजक संस्था की शान में कसीदे पढ़े। 
आयोजक किसी की बातों में आने वाला नहीं है। उसका सीधा सवाल है, “हर वर्ष सौ से अधिक लोगों को पद्मश्री सम्मान मिलता है। राष्ट्रपति भवन में उस सम्मान रेल में बैठने के लिये लोग कितने लालायित रहते हैं। कितने जुगाड़ लगाए जाते हैं। कितने सांसद और मंत्रियों की सिफ़ारिश लगवाई जाती है। वहां कौन से आपकी शान में गीत गाए जाते हैं! वहां तो आपको इतनी भी अनुमति नहीं दी जाती कि आप अपनी मर्ज़ी से हिल भी सकें। फिर भी हर साल लोग फ़ील्डिंग करते हैं ताकि उन्हें बैटिंग का अवसर मिल सके। 
विश्व हिन्दी सम्मेलन में पुरस्कार पाने के लिये तो लोग महीने भर दिल्ली में तंबू ही गाड़ कर बैठे रहते हैं। जब तमाम कलाबाज़ियों के बाद साहित्यकार के नाम पुरस्कार घोषित हो जाता है तो वह शरमाते हुए कहता है – अरे!… कमाल है… मुझे तो कुछ पता ही नहीं था! मगर वे समझते नहीं हैं कि ये जो पब्लिक है ये सब जानती है।
वैसे साल में श्राद्ध एक बार आते हैं मगर हिन्दी जगत वर्ष में दो बार सम्मान समारोह-मयी हो जाता है। सितम्बर में हिन्दी दिवस और जनवरी में विश्व हिन्दी दिवस समारोह के अवसर पर बड़ी संख्या में साहित्यकारों का सम्मान होता है। बीच के महीनों में सामुहिक साहित्यक विवाहों का आयोजन चलते रहते हैं। इन आयोजनों से पहले ही संभावनाओं का खेल शुरू हो जाता है। हर व्यक्ति इस चक्कर में रहता है कि किसी न किसी तरह कुछ पुरस्कार तो हथिया ही लिये जाएं। पुराने ज़माने में वामपंथी और कांग्रेसी नेता ढूंढे जाते थे तो आजकल आर.एस.एस. और भाजपा के। विश्व हिन्दी सम्मान, पद्म सम्मान, साहित्य अकादमी सम्मान आदि… आदि की घोषणाओं की प्रतीक्षा की जाती है। अगले दिन या तो ख़ुशी के जाम टकराए जाते हैं या फिर ग़म ग़लत किया जाता है।
अब तो लगने लगा है कि सरकार पुरस्कारों को भी चुनाव लड़ने का एक माध्यम बना रही है। इस बार के पद्म पुरस्कारों की सूची को जाति के आधार पर देखें तो इसमें 40 ओबीसी, 11 अनुसूचित जाति, 15 अनुसूचित जनजाति, 9 ईसाई, 8 मुसलमान, 5 बौद्ध, 3 सिख, 2 जैन, 2 पारसी और 2 अन्य धर्मों के लोग शामिल हैं। वहीं क्षेत्र के आधार पर देखें तो इसमें दक्षिण भारत सबसे आगे नजर आता है। जिन 5 लोगों को पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया है उनमें से 2 आंध्र प्रदेश से, 2 तमिलनाडु से हैं। कुल 132 में से 21 पुरस्कार दक्षिण भारत की झोली में गिरे हैं। एक मज़ेदार बात यह है कि निजी संस्थाओं को दस, बीस, तीस, चालीस हिन्दी साहित्यकार सम्मान के लिये मिल जाते हैं, भारत सरकार को एक भी ऐसी हस्ती दिखाई नहीं देती। 
हमारा मानना यह है कि सम्मान समारोह की गरिमा को बनाए रखने के लिये ज़रूरी है कि उसे ‘सामान समारोह’ न बनने दिया जाए। आज फ़्रेम किये गये मान-पत्र का सम्मान लगभग शून्य हो चुका है। हर व्यक्ति सोशल मीडिया पर अपने आपको मिले – साहित्य भूषण, साहित्य रत्न, साहित्य विभूति, साहित्य अलंकार – का चित्र फ़ेसबुक और ट्विटर पर साझा करते दिखाई देते हैं। इन सम्मानों की गरिमा पर सवालिया निशान उठ रहे हैं… इस विषय पर विचार करना ज़रूरी है। 
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार, कथा यूके के महासचिव और पुरवाई के संपादक हैं. लंदन में रहते हैं.

42 टिप्पणी

    • कुछ भी हो, सम्मानित होनेवाला भी सभी तथ्यों से परिचित होता है पर सम्मान पाने का नशा और उसके ख़ुमार में रहने का मज़ा ही कुछ और है, जो आगे आनेवाले समारोहों तक टिका रहता है, फिर समय के साथ, धीरे-धीरे पिघलता जाता है। मुंशी प्रेमचंद की कहानी है “नशा”, ऐसा ही कुछ कहती है… इत्यलम्।

  1. सम्पादक जी आप कैसा जोखिम उठा रहे हैं? अपना भविष्य क्यों दाँव पर लगा रहे हैं? चुनावी मौसम में ऐसी सच्ची भाषा??? आप भी साहित्यकार हैं बिल्कुल आत्मघाती हो रहे हैं।
    लोग तो खुले मैदान यानि रेगीस्तान में ऐसी बातें करते हैं क्योंकि दीवारों के भी कान होते हैं और सुना जाता है कि बब्बन हज्जाम ने अपनी बात एक पेड़ से कह दी थी। वो पेड़ कटा उससे तबला, और सारंगी बनी। जब उसे बजाया गया तो उस पेड़ ने बब्बन हज्जाम की पोल खोल दी की उसने पेड़ को बताया था कि “राजा के सिर पर सींग है…”
    आप ऐसी बातें सम्पादकीय में लिख रहे हैं। एक गाना याद आया कि, “राज़ की बात कह दूं तो जाने महफ़िल में फिर क्या हो?”
    हमें तो पढ़ कर ज्ञान भी मिला आनन्द भी, साधु! साधु!
    लेकिन आपके भविष्य की चिंता हो रही है। ईश्वर आपका बाल बाँका ना होने दे। इसी शुभकामना के साथ विदा लेते हैं। हार्दिक धन्यवाद।

  2. इस सत्य को उल्लेखित करते हुए किसी भी बिंदु को आपने छोड़ा ही नहीं। अत्यंत अप्रिय किंतु सत्य तो सत्य ही है। साहित्य को एवं साहित्यकार को प्रोत्साहित करना आवश्यक है किंतु सम्मान हेतु यदि नैतिकता की बलि चढ़ा दी जाए तो यह अशोभनीय है… लज्जाजनक भी। इस संपादकीय को पढ़कर सभी वर्ग के पाठक तथा लेखक निश्चितरूपसे वास्तविकता को देख पाएँगे। साधुवाद सर

  3. पुरस्कारों की असलियत सब जानते हैं फिर भी मिलने पर सोशल मीडिया पर अपनी फ़ोटो लगाने से नहीं हिचकते हैं।

  4. ” मान- पत्र का सम्मान लगभग शून्य हो चुका है ”
    उपरोक्त पंक्तियाँ वर्तमान समय के सम्मान पत्र पर तीखा प्रहार करती है | हद है तेजेंद्र सर! लेखको व आयोजको का घनघोर सत्य बताकर आपने बररईया के छत्ते पर हाथ डालकर दिया है।
    लेख की पंक्तियाँ आनंदित करती रही। आपको प्रणाम है।

  5. हिंदी दिवस , विश्व हिंदी दिवस सम्मानों पर आपका यह सम्पादकीय व्यंग्य आलेख अच्छा लगा। एक बार एक स्त्री अपनी गोद में पाँच साल के बच्चे का शव लिये विलाप करती हुई भगवन बुद्ध के पास आई और बोली ‘ भंते! आप मेरे बच्चे को जीवित करदो मेरा यही एक मात्र सहारा है
    बुद्ध ने बहुत समझाया कि मृत व्यक्ति को जिलाया नहीं जा सकता,परंतु वह नहीं मानी।अन्त में उन्होने कहा- तुम्हारा बच्चा जेस्वित हो सकता है,पर एक काम कर्ना होगा,तुम गाँव में जाओ और किसी ऐसे घर से एक मुट्ठी सरसो मांग लाओ जिसके घर आज तक कोई मरा न हो, स्त्री पूरा गाँव घूम आई पर कोई घर ऐसा न मिला जहाँ कभी कोई मर न हो, थक हार कर वह भगवान बुद्ध के पास लौट आई।उसे मृत्यु के रहस्य का पता चल गया था ,वह बुद्ध की शिष्या बन गई।
    एक कहावत है ‘किसका किसका लेवें नाम,कम्बल ओढ़े सार गाँव, इस सामूहिक विवाह में जब सब शामिल हैं तब अंगुली किस पर उठाया जाय।बहुत बहुत बधाई!

  6. सम्मानों के यथार्थ पर बेबाक टिप्पणी है
    ये सामूहिक विवाह जैसा आयोजन है ,विवाह का सा हाल है जो करे सो पछताए न करे सो पछताए
    जब तक कि सम्मानित होने वाला ख़ुद ही न कहने लगे कि भाई मुझे नहीं होना सम्मानित तब तक ये दौड़ ख़त्म होने वाली नहीं है ।
    सामयिक सम्पादकीय अच्छा व्यंग है।
    Dr Prabha mishra

  7. तेजेन्दर जी बहुत सही मुद्दा आपने उठाया है। हाल में एक ऐसी ही संस्था ने फ्लैप. बु. में लिखा कि वह हिन्दी में सर्वाधिक सम्मान देने वाली संस्था होगी। यानी भविष्य में उससे सम्मानित होने वालोँ की संख्या सर्वाधिक। गिना तो 85 थी। मैंने लिखा निजी संस्था के रूप में यह सर्वाधिक होगी, यह उल्लेख करना था। लेकिन सर्वाधिक पुरस्कार/सम्मान उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान देता है। 2022 में 139 थे। अब जानकारी मिली उस निजी संस्था ने सम्मानितों की संख्या बढ़ाकर 115 कर दी है। देश-विदेश के लेखक दूर-दूर से आने की सूचना है। कोई यू.कि. से भी है। यह सब बंद होना चाहिए। इससे लेखक का सम्मान नहीं होता। इस मुद्दे पर लिखने के लिए बधाई।

  8. जनता की अदालत है क्या हुआ के चुनाव की आहट है
    दिल की बात सुने दिलवाला
    साफ साफ सम्मान के नीलामी की बात कही है। इतना खरा संपादकीय विरल है। आदरणीय अग्रज तेजेंद्र शर्मा जी का विचार प्रवाह भी तो इतना स्वीकार्य और अविरल है कि बहती नदी सा है । कूड़ा करकट भी दिखाते हैं और साफ पारदर्शी भी।
    दिल से सलाम इतने शानदार संपादकीय हेतु।

  9. विचारणीय गहरा कटाक्ष….पर हम तो साहित्य जगत में नए-नए हैं इसलिए जो मिल जाए खुशी से स्वीकार कर लेते हैं

  10. यथार्थ चित्रण किया है माननीय संपादक महोदय ने, आज साहित्यकार मूल्य हीन हो चुका है। यह आवाज सरकार तक अवश्य पहुँचनी चाहिए।

  11. Your Editorial of today speaks of various literary awards being bought n sold in open market only to lose credibility of the writers who get them.
    A sad situation indeed and as you say,best to avoid it to maintain our dignity n self-respect.
    Warm regards
    Deepak Sharma

  12. सार्थक संपादकीय!
    हैरानी तब भी होती है जब लोग आवेदन पत्र भरकर, जलसे के लिए सहयोग राशि देकर शील्ड या मानपत्र प्राप्त करते हैं। आजकल कंटेंट राइटर ख़ुद को लेखक ही बताते हैं।
    यह भी सच है कि हर संस्था ऐसा नहीं करती और न ही हर साहित्यकार सम्मान का भूखा है।

  13. बहुत मज़ा आया पढ़कर। बढ़िया कटाक्ष किया आपने ऐसी सो कॉल्ड संस्थाओं पर जो पुरस्कार के नाम पर अपनी जेबें भरती हैं। इन लोगों के लिये ये साइड बिजनेस है जिसके लिये बिना विशेष प्रयास लोग स्वयं आकर झोली में गिर जाते हैं।

  14. तेजेन्द्र भाई: आपके इस सम्पादकीय में लेखकों, संयोजकों, सम्मान और पुरस्कारों के बारे मे पढ़कर कर बहुत सी नई बातौ का पता चला। आपके इस व्यंग से ज्ञान गंगा में भी बहुत वृदधी हुई। इसके लिये बहुत बहुत धन्यवाद और साधुवाद।

  15. वाह!आज का संपादकीय हास्य-व्यंग्य की चुटकी दे गया तेजेन्द्र जी! व्यंग्य विधा में भी आप माहिर हैं यह पता चला।
    हँसी भी आई और तकलीफ भी हुई।यह सही है कि साहित्य समाज का दर्पण है। समाज में जो कुछ भी क्रियान्वयन होता रहता है, किसी भी क्षेत्र में, कालगत, कालानुरूप, साहित्य में वह रचा हुआ दिखता है, फिर चाहे वह किसी भी विधा में हो या काव्य में हो।लेकिन आज का सम्पादकीय व्यंग्य विधा के रूप में साहित्यकारों, सम्मान,और सम्मान से जुड़ी लेखकों की मानसिक प्रवृत्तियों, आकर्षण,चाहत, दिखावे पर तो चोट करता ही है पर इसके कुछ बड़े नुकसान भी हैं। हमने तो कुछ लोगों को डिप्रेस्ड होते ही नहीं हार्टअटैक आते भी देखा है।(नाम बताए बिना) एक प्रतिष्ठित पुरस्कार के लिये नाम घोषित हो गया,सबकी ढेरों बधाइयों के फोन आ गए अचानक राजनीति (साहित्यिक) ने गुपचुप खेल दिखला दिया और ऐन वक्त पर नाम परिवर्तन के कारण कवि को हार्टअटैक आ गया।
    अपेक्षाएँ कभी-कभी बहुत और गहरी चोट दे जाती हैं।पद्म पुरस्कारों में जातिवाद का दखल चिंतनीय है।
    हमारे पूर्वज साहित्यकारों के प्रति हमारे मन में अपार श्रद्धा थी। उसी श्रद्धा और आदर भाव के साथ हम समूहों से जुड़े थे पर साहित्य और साहित्यकार दोनों से खुशी कम निराशा ज्यादा हुई । व्यंग्य विधा में हमारा ज्यादा दखल नहीं। पर साहित्यिक कुंभ की भीड़ में सही मायने में संख्या सैकड़ा हो तो भी गनीमत।
    भोपाल में आपसे मुलाकात की ख्वाहिश थी। हरिभटनागर जी से बात भी हुई थी।आपका कार्यक्रम स्थल रानू (बेटी)के घर से ज्यादा दूर नहीं था। हमने सिर्फ संस्मरण लिखने का दुस्साहस किया।हमें सम्मान या प्रचार की चाहत नहीं पर जिनकी विद्वत्ता की हम कद्र करते हैं वे पढ़ें व कमजोरी बताएँ इतनी इच्छा थी। आपके लिये भी यही सोचकर लाए थे। पर आपका कार्यक्रम रद्द हो गया।
    खैर….”अपने मन कछु और है, कर्ता के कछु और।”
    आपके संपूर्ण संपादकीय में वर्णित सम्मान प्रदायगी के लिये एक लोकोक्ति याद आ रही है-
    अंधा बाँटे रेवड़ी, चीन्ह-चीन्ह कर देय।
    या फिर दादा दरबार- अधिक प्रसाद बाँटने की होड़।
    एक बात कहने का मन है ,कि क्या आपको कभी डर नहीं लगता जिस तरह से आप लिखते हैं उससे आपको नुकसान न पहुँचे?पर फिर याद आता है-“क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात नहीं कहोगे?”
    शीर्षक बहुत मजेदार लगा ,एक नम्बर।
    संपादकीय हर बार अप्रत्याशित रहता है।
    बहुत-बहुत बधाइयाँ आपको मित्र।आपका यश आसमान छुए।
    एक निवेदन है मणिपुर समीक्षा पर आपके विचार अपेक्षित हैं,सादर।

    • नीलिमा जी सारगर्भित टिप्पणी तो आपकी होती ही है। आप पूरी लगन से उसे लिखती भी हैं। भोपाल में आपसे न मिल पाने का अफ़सोस हमें भी है। दरअसल 14 घंटे दिल्ली एअरपोर्ट पर बैठा रहा। अंततः उड़ान कैंसिल घोषित कर दी गई।

  16. अच्छा लिखा तेजेन्द्र जी।पर कहना चाहूंगी कि कुछ लोग अभी भी हैं जो वर्ष भर विधाओं की कार्यशाला कराते हैं और वार्षिक पठन पाठन के आधार पर गिनती के दो –तीन सम्मान देते हैं।

    गेहूं के साथ घुन बन वह कर्मठ भी पिस गए।

    थोक में सम्मान देने के विरोध में मैं भी हूँ।पैसे देकर सम्मान खरीदने के विपक्ष में हूँ।नेतानगरी की सिफारिश से मिलने वाले सम्मान के भी विपक्ष में हूँ।
    निवेदिताश्री

  17. तेजेंद्र जी, आपका संपादकीय बेबाक और वास्तविक है।आज सम्मान ,पुरस्कार खरीदने,जुगाड लगाने की स्पर्धा सी चल रही है।केवल कुछ पुरस्कार ही आज भी अपनी गरिमा बनाए हुए हैं ।

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