आज रीना बड़ी हड़बड़ी में है। आज दफ्तर से एक ऍक्स्ट्रा छुट्टी मिली है जो रीना के लिये सौगात है। आज की यह छुट्टी वह अपने तरीके से अपने लिये गुजारना चाहती है।
रमेश बड़े हैरान हैं कि रीना को आज क्या जल्दी है। उनसे रहा नहीं जाता और पूछ लेते हैं, ‘रीना! आज तो छुट्टी है। आराम का दिन है। कुछ बढि़या नाश्ता बनाओ।‘
रीना ने बड़ी नरमाई से उत्तर दिया, ‘आज मुझे बाहर जाना है। कुछ ज़रूरी काम है। घर में ब्रेड है, नमकी़न है, केलॉग्स हैं, फल हैं, काम चला लो। प्लीज़, आज एडजस्ट कर लो, आज बाहर जाना है, एक बार किचन में गई तो बाहर आना मुश्किल होता है।‘
रमेश ने रीना को थोड़ा घूरकर देखा तो रीना अचकचा गई। ‘ऐसे क्या देख रहे हो? क्या मैं अपनी छुट्टी अपने तरीके से नहीं बिता सकती!’ ‘भाई, नाहक ही नाराज़ हो रही हो। मैंने तो सिर्फ़ ताज़ा नाश्ता बनाने के लिये कहा है।‘
आज रीना का बिल्कुल मन नहीं है किचन में जाने का। उसने साफ कह दिया, ‘नो ताज़ा नाश्ता।‘ रमेश ने अपनी खीझ को छिपाते हुए पूछा, ‘ऐसा भी क्या ज़रूरी काम है कि सुबह-सुबह घर से जा रही हो।‘
‘मुझे एक पत्रिका के प्रूफ देखने प्रिंटर के यहां जाना है। बड़ी मुश्किल से हथ्थे चढ़ा है।‘ रमेश ने एक हथियार और फेंकते हुए कहा,’ उसके लिये इतनी तक़लीफ़ उठाने की क्या ज़रूरत है? प्रिंटर से कह दो कि मेरे ऑफिस में पेपर दे जाये। तुम इतनी धूप में क्यों जाना चाहती हो?’
रीना ने भी चिढ़कर कहा, ‘मुझे पर्सनली जाना है। ये प्रिंटर बड़े कामचोर होते हैं। सामने ग़लतियां सुधरवा दूंगी। वे हिंदी की बिंदी का सत्यानाश करके रख देते हैं।‘
रमेश जानते हैं कि रीना बहुत जि़द्दी है। जो ठान लेती है, करके ही दम लेती है। न आगे सोचती है और न पीछे सोचती है।
हारकर रमेश ने कहा, ‘जब तुमको अपने मन की ही करना है, मेरी नहीं सुनना है तो जो जी में आये, करो।‘ रीना यह बात सुनकर जल-भुनकर रह गई।
बोली, ‘हां, मैं जा रही हूं। मैं वर्किंग होने के बाद भी कभी कहीं नहीं जाती। सुबह सवा आठ बजे ऑफिस के लिये रवाना और शाम पौने छ: बजे घर आ जाती हूं। आते ही किचन और मैं एक-दूसरे से उलझते-सुलझते रहते हैं और आज भी काम से जा रही हूं, ऐश करने नहीं।‘
रमेश ने तल्ख़ होकर कहा, ‘मैं देख रहा हूं आजकल तुम बदलती जा रही हो। पहले तुम ऐसी नहीं थीं। जो कहता था मान लेती थीं।’ ‘क्या मतलब? क्या मुझमें बदलाव नहीं आ सकता?
रमेश ने ख़ुद को बचाते हुए कहा, ‘जाओ बाबा। अब मेरा पीछा छोड़ो। मेरी सुनना तो है नहीं। पर सुनो, कुलाबा के लिये फलां नंबर की बस जाती है, चली जाना।
…..अब जब तुम जा रही हो, तो घर की चिंता मत करना। हम ख़ुद ही पका-खा लेंगे। यही काम बाकी रह गया है करने को।‘ रीना ने तमककर कहा, ‘तुम ही अपने मित्रों के सामने कहते हो कि तुमको किचन मे जाने की अनुमति नहीं है। आज मिल रही है तो ले नहीं रहे।‘
‘अकेले के लिये क्या ख़ाक बनाउंगा। अब तुम जाओ, छुट्टी के दिन भी चैन नहीं।‘ रीना की आंखों में पानी भर आया है। बोली, ‘तुम अपने लिये हर तरह की आज़ादी चाहते हो। मेरे बाहर जाते समय हमेशा समस्या खड़ी कर देते हो।‘
इतने में बेटे अमित ने आवाज़ दी, ‘मम्मी, मैं ऑफिस जा रहा हूं। आपको दादर ड्रॉप कर दूंगा। आप वहां से टैक्सी लेकर चली जाना।‘ ‘थैंक्यू बेटे। धूप में चलने से बच गई।‘ रीना ने फटाफट सैंडिल पहने और पलक झपकते ही धड़ाधड़ सीढि़यां उतरकर नीचे आ गई।
रीना ने जल्दी से कार का दरवाज़ा खोला और बैठ गई कि कहीं रमेश किसी काम से फिर न बुला लें। अमित नीचे आया और कार की स्टीयरिंग अपने हाथ में ले ली।
रीना ने बड़े ग़ौर से बेटे को देखा और सोचा, ‘अमित कितना हैंडसम लग रहा है। बढि़या क़द, गोरा रंग और सोबर कपड़े। सच, बच्चे कब बड़े हो जाते हैं, पता ही नहीं चलता। वह बौड़म सी अपने बेटे को देख रही है।
अमित ने कार शुरू करते हुए पूछा, ‘मम्मी आज इतने सवेरे कहां जाना है?’ रीना ने कहा, ‘अरे बेटा, एक पत्रिका के प्रूफ देखने जाना है। कई बार कुछ ग़ल्तियां रह जाती है तो जिसकी पत्रिका है, वह मेरी क्लास लेने बैठ जाता है कि ये नहीं होना चाहिये। आप ध्यान नहीं देतीं वगै़रा वगै़रा…। तो सोचा है कि इस बार पर्सनली काम कर लिया जाये और थोड़ा वक्त़ अपने लिये भी निकाल लिया जाये।‘
अमित मम्मी की बात समझ गया है। उसने कहा, ‘मम्मी, मैं समझ सकता हूं आप रुटीन कामों से बोर हो जाती हो, पर ये काम करने भी होते हैं। आप कम से कम दो हफ्तों में एक बार घर की चिंता छोड़कर बाहर चली जाया करो और वह दिन अपनी मर्जी़ से अपने पुराने लोगों के बीच बिताया करो। आपको अच्छा लगेगा।‘
‘अरे बेटे, तुमने कह दिया तो मान लो कि मैं हो आई।‘ वह हंस पड़ता है। अमित बोलता बहुत कम है, बस, ज़रूरत भर के शब्द। आंखें विंडस्क्रीन पर और सधे हुए हाथों से गाड़ी चला रहा है। क़रीब चालीस मिनट में दादर आ जाता है, ‘मम्मी, आपकी मंजि़ल आ गई। उतरो। आज का दिन आपका है, मज़ा करो।‘
रीना ने कार से उतरकर टैक्सी के लिये इधर-उधर नज़र दौड़ाई है, कोई टैक्सी चर्चगेट जाने के लिये तैयार नहीं है। रीना परेशान है। सोच रही है कि क्या टैक्सीवाले इतने अमीर हो गये हैं कि किसीको जाना ही नहीं है।
इतने में एक राहगीर ने रीना से पूछा, ‘मैडम! आपको किधर जाना है? रीना ने राहगीर को सिर से पैर तक देखा और कहा, चर्चगेट जाना है पर कोई टैक्सीवाला तैयार ही नहीं हो रहा।‘
राहगीर ने कहा, ‘मैडम, कैसे कोई तैयार होगा, आप ग़लत साइड में खड़ी हैं। टैक्सी सामनेवाली सड़क से मिलेगी।‘ रीना ख़ुद में सिमटकर रह गई और अपनी अज्ञानता पर शर्म भी आई। उसने राहग़ीर का धन्यवाद किया और सड़क पार करके उस तरफ चली गई।
चर्चगेट पहुंचकर रीना ने घड़ी देखी तो पता चला कि अभी साढ़े दस ही बजे हैं। प्रिंटर के यहां तो एक बजे जाना है। इस ढाई घंटे का क्या किया जाये। रीना ने पत्रिका के कुछ पृष्ठों के प्रिंट आउट अपने साथ रख लिये थे। सोचा कि मुंबई विश्वविद्यालय की लायब्रेरी में दो घंटे बैठा जाये।
इस सोच मात्र से ही रीना के पैर इतनी ज़ल्दी उठने लगे कि रीना को ही अपनी चाल पर आश्चर्य हुआ। मुंबई यूनिवर्सिटी के मेन गेट पर देखा तो पुलिस ही पुलिस दिखी। रीना का सिर चकराया फिर भी वह हिम्मत करके गेट पर गई।
पुलिस ने पूछा, ‘ मैडम, आपको क्या काम है इधर। इधर खड़े नहीं रहने का।‘ रीना ने चारों तरफ नज़र दौड़ाई फिर हिम्मत करके पुलिस से पूछा, ‘आप इतने सारे लोग यहां क्यों हैं? कुछ लफ़ड़ा हुआ है क्या?’ पुलिस ने हंसकर कहा, ‘नहीं, कुछ लफड़ा न हो, इसके लिये इधर परमानेंट पुलिस रहती है। आपको तो मालूम है आजकल सब जगह प्रॉब्लम ही प्रॉब्लम है। पढ़ने का जागा महाभारत का मैदान बन गयेला है।‘
रीना ने थूक गटकते हए कहा, ‘देखिये, मुझे दो घंटे बाद कुलाबा जाना है। यदि आप मुझे अन्दर जाने दें तो मैं लायब्रेरी में बैठकर अपना काम कर सकती हूं। दो घंटे बाद मैं चली जाउंगी। मैं यहां की स्टूडेन्ट रह चुकी हूं।‘ पुलिस ने हंसते हुए कहा, ‘आप तो स्टूडेन्ट रह चुकी हैं, इधर तो अभी जो स्टूडेन्ट हैं, उनको भी अन्दर नहीं जाने देते। टाईम ही ऐसा आ गयेला है।‘
उसने पुलिस से पूछा, ‘आप ही बताईये मैं क्या करूं?’ पुलिस ने बड़ा सटीक रास्ता सुझाया। बोला, ‘मैडम, सामनेवाला ओवल मैदान है, उधर आप बैठ सकती हैं। उधर बेंच है, झाड़ की छाया भी है। शरीफ़ लोग भी उधर बैठता है।‘ रीना ने घूमकर देखा और सोचा कि नॉट बैड आयडिया। यूनिवर्सिटी के गेट के साथ ही रीना के सामने मानो कॉलेज के पुराने दिन और यादें डायरी के पन्नों की तरह फड़फड़ाने लगीं।
उसे एम ए के दिनों में शाम को यूनिवर्सिटी के गेट पर उसका इंतज़ार करता परवेज़ याद आया जो उसे देखकर मुस्कराकर चला जाता था। एक दिन परवेज़ ने ही रीना का रास्ता रोककर पूछा था, ‘मुझसे दोस्ती करोगी?’ रीना को अचानक कुछ सूझा नहीं था। वह चुपचाप लायब्रेरी की ओर बढ़ गई थी। दिल धड़का तो ज़रूर था उसकी लरज़ती आवाज़ से लेकिन अपने पर नियंत्रण करते हुए वह लायब्रेरी की सीढ़ियां चढ़ने लगी थी।
अगले दिन फिर वही हरक़त और उस दिन तो परवेज़ ने अपना हाथ ही आगे बढ़ा दिया था। हारकर रीना ने उसकी दोस्ती स्वीकार कर ली और साथ ही यह स्पष्ट कर दिया, ‘देखो परवेज़, मैं नौकरीपेशा हूं और तुमको और तुम्हारी दोस्ती को ज्य़ादा समय नहीं दे पाउंगी। हां, रविवार को पूरा दिन मैं लायब्रेरी में रहती हूं, तब कुछ समय दे पाउंगी।‘ उसने रीना की इस बात को सहर्ष मान लिया।
रीना बीच-बीच में छुट्टी भी ले लेती क्योंकि एम ए का अन्तिम साल था और यह साल महत्वपूर्ण था। बस, परवेज़ की तो चांदी थी। वह तो कोई नौकरी नहीं करता था। लायब्रेरी का दामाद था। दिनभर वहीं मिलता था। वह रीना से चाय पीने का मनुहार करता। रीना और वह हट्टी पर चाय पीते। साथ ही वह सिगरेट भी ले लेता। पैसे देने के नाम पर बिना वजह अपनी जेबें टटोलने लगता। हारकर रीना पैसे दे देती। एक दिन की बात होती तो ठीक था। यह हर बार होता।
आख़िर एक दिन रीना ने कह ही दिया, ‘देखो परवेज़, मैं तुम्हारी चाय और सिगरेट का पेमेंट करने के लिये नौकरी नहीं कर रही। मुझे अपनी फीस, ट्रेन के पास और अपना जेबखर्च खुद उठाना होता है।‘ इस पर वह कटकर रह गया थाऔर इस तरह उन दोनों की अल्पकालिक दोस्ती दो विपरीत दिशाओं की ओर मुड़ गई थी। आज भी वह बात याद आते ही रीना के मुंह का स्वाद कुनैन सा कड़वा हो जाता है।
और वह कुलदीप जिसे हर लड़की को चाय ऑफर करने की आदत थी। एक दिन क्लास की करीब बारह लड़कियों ने उस ईरानी रेस्तरां में अचानक धावा बोल दिया था जहां कुलदीप बैठा हसरतभरी नज़रों से आती जाती लड़कियों को देखा करता था। उन दिनों तो चाय पिलाना भी बड़ी बात माना जाता था। आज की तरह बात-बात पर बर्गर और पिज्ज़ा नहीं खिलाया जाता था। सो उस दिन कुलदीप की जेब ख़ासी ढीली हो गई थी उन सबको चाय और पेस्ट्री खिलाने में।
…..और वह लड़का, जिसने यूनिवर्सिटी के लॉन में अपनी क्लासमेट से अपने प्रेम का इज़हार कुछ इस तरह किया, ‘रामप्यारी, तुम मेरी कविताओं की प्रेरणा बनोगी? रीना पास में ही बैठी थी और अपनी आदत के मुताबिक खिलखिलाकर हंस दी थी। रामप्यारी पैर पटकती हुई वहां से चली गई थी। यह अलग बात थी कि बाद में रामप्यारी के ग्रुप के लड़कों ने उस आशिक को ज़बर्दस्त धमकी दे डाली थी।
उफ़, रीना भी कहां खो गई़। ये यादें भी कहीं का नहीं छोड़तीं। अब तो रीना शादीशुदा है, उन सबकी भी शादी हो गई होगी। सब अपने अपने दरबार बसाये बैठी होंगी पता नहीं किस किस शहर में। इन विचारों से निकलकर उसने यूनिवर्सिटीवाली सड़क पार की और कुछ ही मिनटों में वह ओवल मैदान के सामने थी। सोचा, चलो यह दुनिया भी देख ली जाये। तेजं हवा उसके बालों को छितरा रही थी।
उस मैदान में पहुंचकर रीना स्वयं को आज़ाद पंछी की तरह महसूस कर रही थी। दूर-दूर तक खुला और फैला मैदान। क्रिकेट खेलते बच्चे। रीमा को याद आया कि सचिन तेंदुलकर और कपिलदेव भी इधर ही क्रिकेट टूर्नामेंट खेलकर सफलता के पायदान चढ़े होंगे। रीना के चेहरे पर एक बच्चे सी निश्छल मुस्कान फैल गई। रीना के मुंह से बरबस ही निकल गया, ‘आज का दिन सार्थक हुआ।‘
उसने अपने पेपर निकाले और संशोधन का काम करने लगी। घने पेड़ की छांव और उसके नीचे की बेंच पर रीना का एकछत्र राज्य। धीमी-धीमी बहती हवा मानो रीना को सहलाती हुई कह रही हो, ‘रीनाजी, तुम अपना काम करो। तुम्हें पसीना बहुत आता है न? मैं तुम्हें पसीने से तरबतर नहीं होने दूंगी। तुम आराम से काम करो, मैं तुम पर पंखा झलती रहूंगी।‘
रीना ने हड़बड़ाकर देखा तो पाया कि कोई भी तो नहीं है आस-पास। उसके कान बज रहे होंगे। आज रीना बहुत खुश है1 कितने वर्षों बाद वह इस तरफ आई है। नौकरी और विवाहित जीवन ने मानो रीना की जि़न्दगी को बैरियर से बांध दिया है। आज का दिन वह पूरी शिद्दत से जी लेना चाहती है।
अचानक मोबाईल बज उठता है। वह अटैण्ड करती है, ‘हैलो!’ दूसरी ओर से आवाज़ आती है, ‘आप रीनाजी बोल रही हैं?’ रीना ने कहा, ‘ हां बोलिये।‘ ‘कैसी हैं आप? क्या नया लिख रही हैं? ‘ रीना उनका धन्यवाद करके फोन काट देती है। रीना को बेवज़ह चिपकनेवाले लोग अच्छे नहीं लगते और तब तो बिल्कुल नहीं जब वह सामनेवाले को जानती नहीं।
रीना ने घड़ी देखी। अरे, बारह बज गये? अब तो यहां से उठना होगा, कुछ पेट में डालना होगा, पेट में चूहे दौड़ रहे हैं। रीना अपने कागज़ पत्तर समेटती है और बैग में डालती है और चलने की तैयारी करती है।
इतने में हवा का एक ज़ोरदार झोंका आता है और रीना के बालों को बिखरा जाता है। रीना को हवा का यह तरीका बड़ा पसन्द आता है मानो हवा ने उसको टाटा कहा है और फिर से आने का आमंत्रण दिया है1
ओवल मैदान से बाहर आकर रीना ने देखा कि सैंडविचवाला और नींबू शरबतवाला खड़ा है। पानवाला भी है। रीना के मुंह में पानी भर आया। कितने वर्ष हो गये फुटपाथ का सैंडविच खाये। आज यह खाया जाये और अपने दिन को पूरी तरह से सार्थक किया जाये।
रीना को देखते ही सैंडविचवाला सावधान की मुद्रा में आ गया। सैंडविचवाले को लगा कि इतनी सुंदर मैडम उसके काउंटर पर आई हैं तो शायद और लोग भी आ जायें वरना ग़रीब के काउंटर पर कौन आता है?
पैसेवालों के अपने चोंचले होते है कि बड़ी जगह, साफ़ सफाई की जगह पर एयरकंडीशन में बैठकर खाया जाये। अरे, इन बड़े लोगों को क्या पता कि बड़ी जगहों पर कितना गड़बड़झाला होता है1 अग़र अपनी आंखों से देख लें तो कभी न खायें।
रीना भी क्या करे? शादी के बाद खाने के मामले में उसके नख़रे बढ़ गये हैं। वह ज़रूरत से ज्य़ादा अपने स्वस्थ्य के बारे में सतर्क हो गई है। पहले वह फुटपाथ का कुछ भी खा लेती थी तो पच जाता था। कॉलेज के दिनों में तो फुटपाथ का ही वड़ा-पाव और भजिये खाती थी। कभी पेट में गुड़गुड़ नहीं हुई थी। परिवार के लोग उसे पत्थरहज़म कहते थे। वही रीना अब सोच-सोचकर खाती है, इसीलिये शायद हज़म नहीं होता।
आज उसने सोचा कि फुटपाथवाले कम से कम सामने ग़र्म तलकर देते हैं। रेस्तरां में तो पता नहीं कितनी देर पहले तलकर रख देते हैं। और ग्राहक के आने पर ओवन में ग़र्म करके दे देते हैं। रीना को तो रेस्तरां के तले हुए स्नैक्स की शक्ल देखकर ही पता चल जाता है कि वे दूसरी बार तले गये हैं। आज तो उसने फुटपाथ के सैंडविच और शरबत पीने की ठान ली है। जो होगा, सो देखा जायेगा।
यह सोचकर वह सहज रूप से सैंडविचवाले के खोखे पर चली जाती है। वह रीना को अपनी नज़रों तौल रहा है मानो देख रहा हो कि ये मैडम भी अभी मुड़कर चली जायेंगी या उसे सैंडविच का ऑर्डर देंगी। उसने फिर आसभरी नज़र से रीना को देखा मानो सोच रहा हो कि ये मैडम भी पैसेवाली लगती है। सादे पर मंहगे कपड़े, मंहगा पर्स लेकिन कितनी सहजता से धूप में लगे उसके काउंटर पर आ गई हैं।
उसने कहा, ‘मैडम, कौन-सा सैंडविच खायेंगी? रोस्टेड या वेजि़टेबलवाला?’ रीना को रोस्टेड सैंडविच कम पसन्द हैं, ग़रम होने से उसकी जीभ जल जाती है1 रीना ने कहा, ‘भाई, वेजिटेबल सैंडविच बनाना, तीख़ा बनाना और हां, सैंडविच के उपर सॉस लगाना फिर हरी तीख़ी चटनी भी लगाना। जीभ को थोड़ा तीखा लगना चाहिये।‘
यह कहते समय रीना के मुंह में आता पानी साफ़ देखा जा सकता था। उसे लग रहा था कि वह अपने कॉलेज के दिनों में लौट गई है और उन दिनों को जी रही है1 सैंडविचवाला भी खुश था, बोला, ‘मैडम, आपके माफि़क दिन में दस ग्राइक भी आ जाये तो अक्खा दिवस की मग़जमारी से बच जायेगा अपन।‘
रीना ने एक सैंडविच खाया और दूसरे सैंडविच का ऑर्डर दे दिया। रीना ने जितनी तबियत से सैंडविच का ऑर्डर दिया उतनी ही तबियत से लड़के ने सैंडविच बनाये भी। रीना का पेट भर गया।
अब प्यास लगी सो उसने नींबू शरबतवाले की तरफ देखा। शरबतवाले ने कहा, ‘मैडम, आपके लिये शरबत तैयार है। मेरेको मालूम था कि सैंडविच के बाद आपको शरबत चाहिये होगा।‘ रीना हैरान रह गई उस शरबतवाले की समझदारी पर। क्या तो उसकी रीडिंग थी।
रीना ने नोट किया कि सैंडविच के काउंटर पर लोग आने शुरू हो गये थे। उस लड़के के हाथ मशीन की तरह चल रहे थे। अचानक उस लड़के का ध्यान मैडम की ओर गया। बोला, ‘ मैडम, आपके हाथ का बोहनी बहुत अच्छा हुआ। आप रोज़ बोहनी करेंगी तो अपना तो चांदी हो जायेगा।‘ रीना ने हंसकर कहा, ‘ बहुत दूर से आई हूं। डेली थोड़े ही इधर आना होगा।‘ उस लड़के ने कहा, ‘मैडम, आप जब कभी इधर आयें तो मेरे इधर से ही सैंडविच खायें। मेरेको अच्छा लगेगा।‘ रीना ने उसको प्रॉमिस किया कि जब भी इधर आना होगा तो उसकी बोहनी पक्की।
रीना ने घड़ी देखी। बारह बजकर चालीस मिनट हो गये थे। रीना अपने दिन को सार्थक होते हुए देखकर बहुत खुश थी वह। बहुत वर्षों के बाद अपने मन से जो बिता रही थी अपना दिन। यादों के पन्नों ने उसके आज के अकेलेपन को कितना कुछ याद दिलाकर तरोताज़ा कर दिया था।
रीना ने फिर सड़क पार की और वह एक बार फिर यूनिवर्सिटी के गेट पर बैठी पुलिस के सामने थी। पुलिसवाला रीना को देखकर मुस्कराया। वह रीना को पहचान गया था। रीना ने कहा, ‘आपका धन्यवाद। यह मैदान तो मुझे अपने पुराने दिनों में वापिस ले गया।’
पुलिसवाला खुश हो गया अपनी तारीफ सुनकर। रीना ने वहां से टैक्सी ली और कुलाबा के सूसन डॉकयार्ड पहुंच गई। पहली बार आई थी यहां। मुंबई का सबसे बड़ा मछली बाज़ार। गेटवे ऑफ इंडिया से सटा हुआ।
पूरे बाज़ार में मछली की दुर्गंध। रीना को मतली सी होने लगी। उसका सिर घूमने लगा, उसे लगा कि यदि वह यहां चार घंटे भी रही तो मत्स्यकन्या हो जायेगी। उसे आश्चर्य हुआ कि इतनी दुर्गंधवाली मछली को लोग कैसे स्वाद लेकर खाते हैं। उसे लोगों के भोजन के स्वाद पर तरस आने लगा।
रीना ने प्रिंटर को फोन किया और पता पूछा कि किस गली में आना है। प्रिंटर के ऑफिस में पहुची। वहां के मैनेजर ने स्वागत किया और पूछा, ‘मैडम, आपको तकलीफ़ तो नहीं हुई आने में?’
रीना उसे कैसे बताती कि यहां तक आते-आते उसे कितनी बार उबकाई आई है और उसे रास्ते में थूकना पड़ा है जोकि उसकी फि़तरत में नहीं है। रीना उस प्रिंटर के टाइपिस्ट से साढ़े चार घंटे माथापच्ची करती रही और सारे संशोधन करवाती रही।
टाइपिस्ट बोर होने लगा था। शायद उसे इतने घंटे लगातार काम करने की आदत नहीं थी। रीना ने कहा, ‘मिस्टर, आपको झपकी नहीं लेने दूंगी। इतनी दूर से आई हूं। करेक्शन पूरे करवाकर ही वापिस जाउंगी।‘
पांच बजे काम पूरा हुआ और रीना फिर उसी बदबू के रास्ते को पार करते हुए कुलाबा के प्रसिद्ध रेस्तरां कैलाश पर्बत तक पहुंची। खाने की ख़ुशबू ने रीना के पेट को याद दिलाया कि दो सैंडविच से पेट को मिला पेट्रोल ख़त्म हो चुका है। कुछ और खाना चाहिये।
कैलाश पर्बत कितना बदल गया है। सब जगह मॉल का माहौल बनने लगा है । ख़ैर…रीना इस रेस्तरां के एअरकंडीशनवाले कमरे में चली गई। पसीना पोंछा और पॅडस्ट्रियल पंखे को अपनी और करवा लिया।
रीना को पसीना आने का तो यह आलम है कि एअरकंडीशन और पंखे के चलने के बावजू़द पसीना आता है। वेटर ने नये ग्राहक को देख लिया है। वह आकर पानी का गिलास रख जाता है। थ्री पीस में सजा दूसरा वेटर खाने का ऑर्डर लेने आ जाता है।
रीना को वेटर्स की यह आदत सबसे ख़राब लगती है। ग्राहक आया नहीं कि सिर पर आकर खड़े हो जाते हैं। वह हाथ के इशारे से वेटर को इंतज़ार करने के लिये कहती है। मेन्यू देखती है और फिर वेटर को एक मिक्स फ्रूट जूस और छोले भटूरे का ऑर्डर कर देती है।
थोड़ी देर में वेटर दोनों चीज़ें रख जाता है। रीना बड़े सुकून से खाती है। उसे कोई हड़बड़ी नहीं है। न कोई फोन बजनेवाला है और न दरवाज़े की घंटी।
रीना ने घड़ी देखी। शाम के साढ़े पांच बज गये हैं। सोचा अब घर की तरफ कूच करना चाहिये। इतने में फोन बजा, देखा तो रमेश का नाम चमक रहा था, ‘अरे रीना! आज घर आने का इरादा है या नहीं? पूरा दिन तो बाहर गुज़ार लिया।‘
रीना ने हंसते हुए कहा, ‘ रमेश, आज का दिन जिस तरह मैंने अकेले गुज़ारा है, मैं बहुत खुश हूं। आज के अकेलेपन ने जिस तरह मुझे भरा है, यह बहुत दिनों तक मुझे तरोताज़ा रखेगा। आती हूं थोड़ी देर में।‘
रमेश ने कहा, ‘चली आईये मादाम। शाम का खाना आपको ही बनाना है। मैं कुछ नहीं करनेवाला।‘ रीना ने गंभीर होकर कहा, ‘शाम का खाना बाहर से ऑर्डर कर लेंगे। आज तो मैं किचन में जानेवाली नहीं हूं। छुट्टी याने पूरी छुट्टी। नौकरानी भी महीने में दो छुट्टी लेती है पूरे अधिकार के साथ। क्या मैं नौकरानी से भी गई बीती हूं?’
रमेश शायद समझ गये हैं कि आज रीना अपने मन का ही सब करनेवाली है। सो बहस से कोई फायदा नहीं। वे फोन काट देते हैं। रीना रेस्तरां से बाहर आती है और टैक्सी पकड़कर चर्चगेट आती है।
लोकल देखकर उसे ट्रेन भागकर पकड़ने का दिल करता है। रीना को याद आता है कि जब वह बीए कर रही थी तो किस तरह भागकर ट्रेन पकड़ती थी। अब तो सब सपना सा लगता है। जि़न्दगी गोरेगांव और अंधेरी के बीच सिमटकर रह गई है। अब तो एक बड़ा मॉल भी घर के पास खुल गया है सो रीना की शॉपिंग भी वहीं से हो जाती है। सब कुछ सिमटकर रह गया है।
अरे! किस सोच में डूब गई और देखते-देखते तीन ट्रेन मिस कर दीं। रीना ने बोरीवली फास्ट ट्रेन पकड़ ली है और खिड़कीवाली सीट पकड़कर आंखें बन्द कर ली हैं। ट्रेन के हिचकोलों में वह कब नींद के आगोश में चली गई, पता ही नहीं चला।
अचानक एक आवाज़ से रीना की नींद खुल जाती है। रीना उनींदी आंखों से देखती है। एक महिला पूछ रही है, किधर उतरना है आपको?’ रीना उस महिला से पूछती है, ‘कौन सा स्टेशन आया अभी? वह महिला कहती है- अंधेरी। रीना खड़ी हो जाती है।
गोरेगांव आते ही रीना चालू ट्रेन में ही उतर जाती है। उसे बड़ा मज़ा आता है जब ट्रेन धीरे-धीरे स्लो हो रही हो और उसी समय उतर लिया जाये। रीना ट्रेन से उतरकर गोरेगांव वेस्ट में जाती है। एक अच्छी दूकान से पानीपूरी खाती है और बेटे अमित और रमेश के लिये समोसे पैक करवा लेती है। कुछ सोचकर वडा-पाव भी पैक करवा लेती है। गोरेगांव से ऑटो पकड़ती है और घर की ओर चल देती है।
घर पहुंचकर तीन बार दरवाज़े की घंटी घनघना देती है। रमेश दरवाज़ा खोलते हैं और कहते हैं, ‘एक बार घंटी बजातीं तो भी इतना ही समय लगता दरवाज़ा खोलने में। क्यों हमेशा घोड़े पर सवार रहती हो?’
रीना कोई उत्तर नहीं देती, सिर्फ़ नज़र उठाकर देखती भर है और रमेश उन नज़रों का सामना किये बिना अपने कमरे में चले जाते हैं।
आज की छुट्टी को रीना ने जिस तरह जिया है, जिस तरह इन्जॉय किया है, उसे वह अन्त:स्तल तक महसूस कर सकती है और इस सुखद अनुभूति में वह किसी भी तरह का ख़लल नहीं चाहती। आज का दिन रीना ने अपने तरीके से सार्थक किया है। वह बहुत खुश है।