तेज़ बारिश को मैं अंधेरी रात में अकेली बैठ मुग्ध निहार रही थी। आसमान से पानी में घुलकर जाने क्या रिसता है जो अक्सर विचारशून्यता की स्थिति में ला देता है। देर तक चुपचाप बूंदों के झिमिर-झिमिर अलसाए शोर में वर्तमान से नाता टूटा-सा लगने लगता है। ऐसे उदास मौसम में भावशून्य आँखें घनघोर बरसात को चुप निहारती रहती है और मस्तिष्क अतीत के गलियारों में भटकने लगता है। पिछले साल के आषाढ़ की उस बरसाती रात में आज की ही तरह मैं अकेली बैठकर चमकती बिजली और घोर बारिश का रोमांच अनुभव कर रही थी। गोद में महाश्वेता देवी का उपन्यास, हाथ में चाय का कप और चेहरे पर छिटकती बरखा बूंदों का मज़ा लेता देख हमारे उड़िया चौकीदार की 16 वर्षीय बेटीझिल्लीने कुछ ऐसा कह दिया कि वो शाब्दिक प्रहार अंतस तक चोट पहुँचा गया। उस साँवली, दुबली-पतली, कमज़ोर-सी लड़की का नाम भी थोड़ा अजीब थाझिल्ली। झिल्ली ओड़िसा के सुदूर, पिछड़े, देहात इलाक़े के विपन्न कृषक परिवार की किशोर-वय लड़की थी। किसी भी आम भारतीय ग्रामीण या किसान परिवार के लिए क़र्ज़ से लदी, अभावों में गुज़रती ज़िंदगी कोई अजूबा नहीं और झिल्ली का परिवार भी इसका अपवाद नहीं था। प्रेमचंद के उपन्यास के दीन-हीन, क़र्ज़ में आकंठ डूबे कृषक परिवार 21 वीं सदी में भी हमारे गाँवों में बसते हैं। मुझे बरसात की भयावह आक्रामकता के सौन्दर्य में डूबा देख झिल्ली भी चाय का कप ले पास आ खड़ी हुई। मैंने मुस्कुराते हुए उससे कहा–मुझे इस तरह की बिफरती, शोर मचाती बारिश बहुत पसंद है। गार्डन की तरफ़ भीगते पेड़ों को उस तरफ़ देख झिल्ली। तुझे नहीं लग रहा है कि हम किसी जंगल में हैं। बारिश का मौसम सबसे ज़्यादा मज़ेदार है। झिल्ली ने असहमति में सिर हिलाया–आंटी आप लोग पक्के घर के साफ़ सुथरे बिस्तर में, सूखे सोफ़ों में बैठकर बोल लेते हो बरसात का मौसम सुंदर होता है। हमारे गाँव में बारिश में दो वक़्त खाना भी मिल जाए न तो बहुत है। हमारे एक कमरे के झोपड़े में सब तरफ़ से पानी चूने लगता है। माँ झोपड़े के भीतर जगह-जगह बरतन रखकर मिट्टी वाले एक कमरे के घर को कीचड़-कीचड़ होने से बचाती है। क्या बताऊँ आंटी दीवार भसक न जाए इसलिए पूरी रात हम लोगों को दीवार से चिपककर बैठे-बैठे जागना पड़ता है। बरसात में हर साल गाँव के एक-दो लोग दीवार गिरने या खेत में साँप काटने से, बिजली गिरने से नहीं तो नदी में बह कर मरते हैं। छप्पर से चूते पानी के लिए कितना भी बर्तन रखो घर पानी-पानी हो ही जाता है। मिट्टी वाली फ़र्श में बारिश का पानी पहुँचने से कितना कीचड़- कीचड़ होता है आप लोगों को क्या मालूम। सुबह बरसते पानी में भीगते हुए लोटा लेकर कीचड़-कीचड़ खेत की तरफ़ जाओ। बरसते पानी में दलदले तालाब में पैर धसाते नहाने जाओ। आपके घर के जैसा वाशिंग मशीन में कपड़ा थोड़ी न सूखता है। छोटे से झोपड़े के भीतर निचोड़-निचोड़कर कपड़ा सुखाओ तो फिर चलने फिरने की जगह नहीं बचती। चूल्हे के लिए कितने भी पहले से लकड़ी सुखाकर रखो बारिश में भीग ही जाती है। गीली लकड़ी से चूल्हा जलाना कितना मुश्किल होता है आंटी आपको क्या मालूम। पूरा झोपड़ा धुँआ-धुँआ हो जाता है। बारिश के दिनों में ले देकर माँ केवल चावल बना पाती है जिसको नमक से खाओ। झिल्ली द्वारा सुनाए इस पूरे प्रकरण में मेरे निर्दोष होने के बावजूद मन अपराधबोध से भर गया। मैंने सांत्वना देते हुए समझाया–बारिश न हो तो तुम्हारे खेत में फ़सल भी तो नहीं होगी पगली। झिल्ली के चेहरे की व्यंगात्मक मुस्कान कह रही थी कि आंटी अब आप एक कृषक सुता को बरसात की सार्थकता समझाओगी। झिल्ली ने बाहर बरसते पानी पर आँखें जमाए हुए मायूसी से कहा–वो तो जानती हूँ आंटी लेकिन बारिश रात में नहीं होना चाहिए और अगर होए तो घर पक्का होना चाहिए। सोने के लिए खाट और एक सूखी कथरी होना चाहिए। आंटी हमारे घर में सीलन की बदबू भर जाती है। पूरी रात चुपचाप बैठकर बाहर अंधेरा देखते रहो। अगर हमारे यहाँ टीवी होता तो हम लोग भी देखकर वक़्त गुज़ार लेते। 
झिल्ली के पिता गाँव में घाटे की खेती की निरंतरता के परिणामस्वरूप मिली घोर विपन्नताओं से तंग आकर शहर आ गए थे। पलायन कर आए किसानों में व्यावसायिक कारीगरी या कुशलता के अभाव में मज़दूरी या चौकीदारी दो ही विकल्प बचते हैं। आज से लगभग सात या आठ साल पहले की बात है जब हमारे घर के बाजू वाले प्लाट में बनने जा रहे नये भवन के मालिक को भवन निर्माण सामग्री की रखवाली के लिए एक चौकीदार की आवश्यकता थी। इस भवन के ठेकेदार का गाँव में रह रहे झिल्ली के पिता से किसी तरीक़े से संपर्क हुआ और यह किसान एक झोला पकड़े चौकीदारी करने शहर आ गया। पहली बार उस चौकीदार को हमारे घर के सामने लगे गुलमोहर की छाँव में बीड़ी पीते हुए देखा था। बाजू वाले प्लाट में लोहे का सरिया, रेत, सीमेंट के बोरे ट्रकों से उतर चुके थे। चौकीदार के लिए कच्चा कमरा तैयार होने में दो से तीन दिन का वक़्त लगने वाला था मगर प्लॉट पर भवन निर्माण सामग्री की मौजूदगी की वजह से चौकीदार को यहाँ से हटना मना था। मज़दूरों के काम पर नहीं आने के कारण ठेकेदार ने चौकीदार को कमरा तैयार होने तक दो या तीन दिन यूँ ही पेड़ के नीचे काटने के लिए कहा। इस तरह सुबह से शाम एक ही जगह पर उसके बैठने की वजह से अनभिज्ञ मैं जब-जब बालकनी पर आती इस अंजान आदमी को घर के ठीक सामने बैठा पाती। हमारे सुनसान इलाक़े में जहाँ दूर-दूर तक तीन या चार घर गिनती के हैं वहाँ सुबह 6 बजे से हमारे घर के ठीक सामने बैठे उस अजनबी को देख मुझे बैचेनी होने लगी। मई की कड़ी धूप में जब कमरे के भीतर से बाहर देखने से भी आँख चौंधिया रही थी वह ग्रामीण गर्म लू के थपेड़े सहता नाम मात्र की छाँव के नीचे अपना गमछा झलता बैठा था। कभी थककर तवे-सी गर्म ज़मीन पर लेट जाता, कभी पसीना पोछता, कभी आँखें मिचमिचाकर चिलचिलाती दोपहर के सन्नाटे में सड़क को दूर तक ताकता रहता। अब तक मेरा धैर्य जवाब दे चुका था। आख़िरकार मैं गेट से बाहर निकल उसके सामने जा खड़ी हुई–सुबह से यहाँ क्यों बैठे हो? किसका इंतज़ार कर रहे हो? मेरे पहुँचते ही वो हड़बड़ी में उठ खड़ा हुआ। उड़िया-भाषी चौकीदार के हिंदी उच्चारण में लग रहे श्रम ने उसके ओठों का आकार आवश्यकता से ज़्यादा गोल बना दिया–ऊऊऊउऊ हम इदोर चूकिदारी करने आई हूँ। मू-मूमू मूकान का मालिक दू तीन रोज में कमरा बनाकर दे देगा। (हम यहाँ चौकीदारी करने आए है। मकान मालिक दो या तीन दिन में कमरा बनाकर दे देगा)।  सुबह से उसकी संदिग्ध उपस्थिति से परेशान हो चुकी मैं कारण पता चलते ही आश्वस्त हो गई। उसकी मौजूदगी की वजह से पर्दा उठने के अगले ही क्षण यह सोचकर घोर चिंता हुई कि मई के उस भीषण तापमान में उसकी यही अवस्था अगले तीन दिनों तक यथावत रहेगी। तुम रात को कहाँ सोओगे? उसने दाँत निपोरकर झेपते हुए जवाब दिया–इधुरी सोएगा (इधर ही सोएगा)।  मुझे अचम्भा हुआ कि इस तरह तीन-चार रातें बिना बिस्तर, खुले आसमान के नीचे कैसे गुज़रेगी? चौकीदार से बात करते हुए पाँच मिनट धूप में खड़े रहने से ही शरीर आग उगलती गर्मी में झुलसने लगा। रेतीली गर्म ज़मीन पर एक गमछा बिछाकर ये कैसे सो रहा है? आग के गोले में परिवर्तित हो चुके सूरज के नीचे खड़ा रहना मुश्किल हो रहा था। गरम लू से आँखों में लपट-सी छूट रही थी। गर्मी से बचने के लिए सर पर चुन्नी लेकर मैंने दौड़ते हुए घर का गेट बंद किया। क्या इस घर के मालिक को नहीं पता कि चौकीदार गाँव से यहाँ सिर्फ़ उसके सहारे आया है। मैंने घर में घुसते ही पुराने बिस्तरों के ढेर से दो पुरानी चादर और एक तकिया निकालकर चौकीदार को बालकनी से आवाज़ दी–यहाँ आओ। चौकीदार ने बिना एक शब्द कहे बिस्तर मेरे हाथ से ले लिया। उस प्लाट में पानी के लिए बोर भी नहीं खुदा था। चौकीदार के लिए हमारे लॉन में नहाने की सुविधा और पीने के लिए पानी का इंतज़ाम कर दिया। एक नितांत अपरिचित व्यक्ति को अपने घर में इससे ज़्यादा प्रवेश या सुविधा देने का मेरा मन न था। 
चौकीदार के आने के लगभग चार या पाँच दिनों के बाद बाथरूम के आकार का तंग कमरा बनकर तैयार हो गया। छत के नाम पर टीन की दो चादरें डाल दी गई। कमरा क्या एक अंधेरा दड़बा था जिसकी छत सर को छू रही थी। असल में भवन निर्माण पूरा होते ही चौकीदार का कच्चा कमरा तोड़ना होता है इसलिए सिर्फ़ टाँग पसारकर सोने लायक़ जगह को घेर कमरे का रूप दे दिया जाता है। जिस दिन चौकीदार का कमरा बना उसी दिन प्लॉट के ठेकेदार और इंजीनियर ने हमारे घर से एक दिन के लिए बिजली कनेक्शन माँगने के लिए कॉलबेल बजाया। बाहर निकलने पर इंजीनियर साहब ने नम्रता से आग्रह किया–मैम सिर्फ़ आज के लिए मोटर चलाने के लिए आपके यहाँ से थोड़ा-सा बिजली कनेक्शन चाहिए। मेरे अनुमति देते ही बिजली के लंबे तारों वाले एक्सटेंशन वायर हमारे पूरे आँगन में फैल गए। चटक धूप से बचने के लिए हमारे घर के पोर्च की छाँव में खड़े इंजीनियर ने असहज कर देने वाली ख़ामोशी को तोड़ने की ग़रज़ से नेमप्लेट से सरनेम पढ़कर बेवजह ही पूछ लिया–अच्छा आप लोग चतुर्वेदी हैं? इस तरह ज़रा-सी औपचारिक बातचीत और बिजली की उपयुक्त व्यवस्था देख आश्वस्त होकर जाते इंजीनियर साहब से मैंने ज़रा रुखाई से पूछा–उतनी छोटी-सी जगह में चौकीदार खाना कैसे बनाएगा और सोएगा कहाँ? इंजीनियर ने हँसते हुए बेपरवाही से कहा–अरे मैम आप भी कहाँ लगाए हो? इन लोगों को आदत होती है इस तरह रहने की। बाहर बैठकर खाना बना लेगा।ये लोगआपसे हमसे ज़्यादा मज़बूत होते हैं।ये लोगकुछ इस तरह का था कि मज़दूर वर्ग मानव जाति से इतर किसी और ही प्राणि-जगत से ताल्लुक़ रखते हैं।   
                                                                                                                                        चौकीदार गाँव की किसानी छोड़ शहर में तमाम परेशानियों से अकेला जूझ रहा था। प्लॉट पर दिन भर मज़दूरों की चहल पहल में लोगों के साथ हँसता बतियाता दिख जाता था। शाम के धुंधलके में ईंट, गारे, सरिया, सीमेंट के बोरों के बीच उसका छोटा-सा वीरान झोपड़ा ऊँघता रहता। अचानक हुई बारिश से सीमेंट को सुरक्षित रखने के लिए चौकीदार के छोटे से कमरे में सीमेंट के बोरे रख दिए गए थे। साँस लेने के लिए भी दरवाज़े की तरफ़ मुड़ना पड़े, ऐसी तंग कोठरी। साँझ ढले चौकीदार झोले में रसोई का कुछ सामना लाते दिखता। झोपड़े के बाहर तीन ईंटों पर बने चूल्हे में रखी बटलोही से धुँआ निकलता रहता था। जब तक खाना बनता चौकीदार पास ही रेत में विचार-शून्य बैठा रहता। मैं जब जब डायनिंग टेबल पर खाने की सजी थाली देखती तो दीवार के ठीक उस पार रेत पर बैठा चौकीदार आँखों के सामने झूलने लगता। जितनी बार बालकनी में जाती उस पर एक नज़र अनायास ही पड़ जाती। कभी कबाड़ के ढेर पर उसकी आदम ज़माने वाली जर्जर लुँगी सूखती दिखती, कभी वह चुल्हा फूँकता दिखता। मुझ पर नज़र पड़ते ही अपने पीले दाँत दिखा मिमियाता हुआ अभिवादन के लिए उँगलियाँ माथे तक ले जाता। ये बेचारगी, अभिवादन, जी हुज़ूरी मेरे दिए हुए बिस्तर की वजह से थी या तंगहाली की अभ्यस्तता थी, मालूम नहीं। कई बार दीनता व्यक्ति को निस्वार्थ भावना से भी झुकना सिखा देती है।
तमाम परेशानियों के साथ अंजान शहर में अकेले रहते हुए इस अधेड़ उम्र में घर गृहस्थी के काम सीखना चौकीदार के लिए कष्टप्रद हो रहा था। गाँव में रह रहे परिवार के लिए उसकी चौकीदारी ही एक मात्र जीवन आधार थी सो गाँव वापस जाना असंभव जान पड़ता था। देहात की ईश्वरीय अनुकम्पा के आसरे वाली खेती की अनिश्चितता ने जीवन भी अनिश्चित कर दिया था। गाहे-बगाहे मेरे द्वारा दिया जाने वाला खाना-चाय कपड़ा उसके लिए क्या, किसी के लिए भी पर्याप्त नहीं था। आख़िर एक दिन रेत के ढेर पर चौकीदार के साथ एक दुबली पतली महिला साधिकार बतियाती दिखी। उस अधिकार भावना ने सहज ही परिचय दे दिया कि यह चौकीदार की पत्नी है। उस औरत को देख मुझे इतनी तसल्ली क्यों मिली? सड़क किनारे अकेली जान के लिए खाना पकाते चौकीदार की बेबसी से मैं बहुत विचलित हो चुकी थी। मैंने बालकनी से ही हँसते हुए कहा– अच्छा हुआ बुला लिया। चौकीदार लजाते हुए खड़ा हो गया। उन्हें असहज देख मैं भीतर आ गई। आज मन बड़ा प्रसन्न था। लगा चलो चौकीदार भी परिवार वाला हो गया। मैं जब कभी बालकनी में सपरिवार बैठी सुबह की चाय पीते उसे पेड़ के नीचे अकेला बैठा देखती थी तो उसकी आँखों का नैराश्य मुझे विराग में डुबोने लगता। एकाएक जीवन की नश्वरता समझ आने लगती। कई बार उसके झोपड़े के सामने से निकलती हुई मैं जान-बूझकर अनदेखा करती ताकि उसके उस मार्मिक अभिवादन से बचकर निकल जाऊँ। आज चौकीदार की पत्नी के आ जाने से बहुत अच्छा लग रहा था। आदमीऔरतको कितना भी कमज़ोर समझे लेकिन सच यह है की औरत की अनुपस्थिति में वह ख़ुद को अधूरा महसूस करता है। हमारे छत्तीसगढ़ में कहावत भी है जिसका अर्थ है बचपन में माँ और बुढ़ापे में पत्नी का साथ छूटने पर जीवन की दुर्गत हो जाती है। 
प्लाट में काम करने वाले छत्तीसगढ़ी मज़दूरों ने चौकीदार की पत्नी को शहर में नया नाम दियाचौकीदारिन। ओड़िसा के बाहर पहली बार क़दम रखी चौकीदारिन के हिंदी उच्चारण को सुनकर चौकीदार हिंदी का व्याकरणाचार्य लगने लगा। प्लाट में छत्तीसगढ़ी मज़दूर औरतों से बतियाती चौकीदारिन अपनी बात समझाने के क्रम में हिंदी के शब्द ढूँढ़ती, अपने दिमाग़ में ज़ोर डालती ऊऊऊ  ऊऊऊउ बोलकर कभी आकाश में देर तक ताकती, कभी सर खुजाती, कभी झुंझलाकर हँसने लगती। मज़दूरों को दिन भर काम करते देख जल्द ही दोनों पति-पत्नी ने भी इसी प्लाट में मज़दूरी का काम करना शुरू कर दिया। चौकीदार को प्लॉट छोड़ कहीं भी जाने की मनाही थी लेकिन पत्नी के लिए ये प्रतिबन्ध न था। शीघ्र ही चौकीदारिन ने बहुमंज़िला इमारतों के निर्माण स्थलों पर दिन भर मज़दूरी करना आरंभ कर दिया। चौकीदारिन दुबली-पतली, बेहद सीधी-साधी उड़िया महिला थी जो साँझ ढले हमारे घर की बाउंड्री-वाल से सटे अपने झोपड़े में थके क़दम घसीटते लौटती दिखती थी। दिन भर मज़दूरी, रात में सोते-जागते चौकीदारी करते माता-पिता शहर में और इनके दोनों छोटे बच्चे (झिल्ली और उसका छोटा भाई जुलू) गाँव में। मैली-सी साड़ी पहने चौकीदार की पत्नी कई बार हमारे लॉन के नल से पानी लेने आती। उड़िया मिश्रित टूटी-फूटी हिंदी में वह मुझे जो कुछ समझा पाती उसका सार यही होता कि गाँव में मेरे दोनों बच्चे अकेले हैं। पता नहीं रात में मेरी छोटी-सी लड़की क्या पकाती होगी? घर के कोठार में हमारे खेत का अनाज भर के आए हैं। मेरी बेटीझिल्लीबड़ी हो रही है, दहेज के लिए पैसा जोड़ना है इसलिए हमको शहर में रहकर कमाना ज़रूरी है। हकलाती हुई आगे कहती–सबसे बड़ी विवाहिता बेटी 19 साल की है। दामाद ने दीवार पे लटकाने वाली टीवी माँगी है। चौकीदारिन की उड़िया हिंदी खिचड़ी बोली के मार्मिक विवरण से हिंदी शब्दों के टुकड़े चुन-चुन मुझे पूरी व्यथा समझने में बड़ी कठनाई होती लेकिन बच्चों की याद में बहते उसके आँसुओं को किसी भाषा, किसी अनुवादक, किसी भूमिका की ज़रूरत न थी। इस छोटे से परिवार का दुखदायी बिखराव देख मैंने बच्चों को शहर लाने को कहा तो पता चला बच्चे गाँव के सरकारी स्कूल में उड़िया माध्यम में पढ़ रहे हैं। अब बड़ी कक्षाओं में नए सिरे से उनसे हिंदी माध्यम में सारे विषय नहीं हो पाएँगे। ख़ैर गाँव में रह रही चौकीदार की 11 वर्षीय बेटीझिल्लीऔर 8 साल का बेटाजुलूगाहे-बगाहे छुट्टियों में अपने माता-पिता के पास रहने शहर आ जाते थे। सहेलियों संग खेत, खलिहान, नदी, तालाब, पहाड़ में उन्मुक्त घूमने वाली झिल्ली का नितांत अपरिचित शहर के एक छोटे बंद कमरे में मन नहीं लगना स्वाभाविक था।  
जब मैंने झिल्ली को पहली बार देखा तो वह अपने छोटे भाई जुलू के साथ झोपड़े के सामने भवन निर्माण के लिए पड़े रेत के ढेर पर बैठी सड़क पर आते-जाते लोगों को ताक रही थी। अपनी बालकनी से मैंने दिन भर इस बच्ची को रेत पर बैठे देखा। शाम को टहलने के लिए निकलते हुए मैंने पास जाकर उसका नाम पूछा। उसने झेंपते हुए सर झुकाकर धीमी आवाज़ में कहा–पुष्पा। उसके द्वारा पुष्पा नाम बताते ही छोटे भाई ने हँसते हुए चुगली कीझूठ बोल रही है, झिल्ली नाम है झिल्ली।”  झिल्ली ने अपने इस अजीब नाम से शर्मिंदा हो जुलू को खा जाने वाली नज़रों से घूरा लेकिन इससे बेअसर वो अपनी बहन की पोल खुलने की ख़ुशी में रेत पर हँस-हँस के लोट-पोट हुआ जा रहा था। 
माँ खाना बनाकर मज़दूरी के लिए निकल जाती और ये बच्चे बोर होते सड़क पर एक दूसरे के पीछे दौड़ते दिखते। बाउंड्री-वाल के बाहर से ही मेरे बेटे कान्हा को क्रिकेट, फ़ुटबाल, बैडमिंटन खेलते देख दोनों बच्चे बाल सुलभ लालसा से ताकते। हमारे घर के लॉन में सकुचाई, सिमटी, सशंकितझिल्लीकी एन्ट्री बेटे के बैडमिंटन पार्टनर के रूप हुई। ये बात आज से 7 साल पुरानी है। इस सहमी, ठिठकी, ग्रामीण आहट ने पिछले सात सालों में हमारे पूरे घर पर कुछ ऐसा आधिपत्य जमाया कि फिर झिल्ली परिवार का एक अभिन्न हिस्सा बन गई। हमारे घर में आने वाले मेहमानों, रिश्तेदारों को वह उसी संबोधन से पुकारती जिस तरह से मेरा बेटाकान्हाउन्हें पुकारता। इस तरह उसे हमारे यहाँ दादाजी, बुआ, नानी, नाना, मौसी सब मिल गए। झिल्ली घर आए मेहमानों के साथ कुछ इस हक़मिज़ाजी से मिलती कि मेहमान लौटते में बेटे के साथ-साथ उसे भी रुपये पकड़ाते। इस रिश्ते को कौन समझ सकता है कि हमारे घर आए मेहमानों द्वारा विदाई के वक़्त दिए गए रुपयों को भी वह मुझे कुछ इस तरह देती जैसे कोई अपनी माँ के पास रखवाता है। ये बात और है कि मैं वह रुपये फ़ौरन ही उसकी माँ को बुलाकर पकड़ा देती। किसी भी घर में बेटी के रहने पर दीवारें खनकती है, हवा में रौनक़ की ख़ुशबू महसूस होती है। मुझे यह अहसास झिल्ली की मौजूदगी ने कराया। झिल्ली के प्रति मेरा अगाध स्नेह हमारे यहाँ घरेलू काम करने वाली यशोदा की नज़रों में भी खटकने लगा। इन सात सालों में धीरे-धीरे झिल्ली ने गाँव जाना छोड़ दिया और हमारे घर पर ही स्थायी तौर पर रहने लगी। घर के एक अतिरिक्त कमरे में झिल्ली का क़ब्ज़ा हो गया। कमरे में अटैच्ड टॉयलेट की सुविधा होने से चौकीदार अपनी किशोर पुत्री की सुविधा के लिए आश्वस्त था। चौकीदार और चौकीदारिन सुबह-सुबह दिशा-मैदान को काफ़ी दूर जाते थे। झिल्ली की पढ़ाई न बाधित हो इसलिए मैं उसे उसके पाठ्यक्रम से हिंदी, अंग्रेज़ी और गणित विषय पढ़ाती। ओड़िसा की ये ग्राम्य कन्या साल में सिर्फ़ दो बार परीक्षा देने ओड़िसा जाती थी। उसके गाँव के अधिकांश बच्चे रोज़ी-रोटी की तलाश में पलायन करने वाले अपने माता-पिता के साथ शहर चले आते हैं। मैंने कई बार झिल्ली को कहा तुम्हारी पढ़ाई का नुक़सान होता है। मैं उसे हिंदी पढ़ना नहीं सिखा पाई अलबत्ता उसने उड़िया के कई शब्द मुझे सिखा दिए। दिन भर मेरे पीछे-पीछे घूमती ये बातूनी लड़की गाँव की अपनी अज़ीज़ सहेलियों, झगड़ालू पड़ोसियों, देहात की रिश्तेदारी, ग्रामीण शादी ब्याह के रोचक क़िस्सें सुनाती रहती। मुझे अपना छत्तीसगढ़ ही पलायन की समस्या से ग्रसित लगता था लेकिन झिल्ली का तो आधा गाँव ख़ाली हो चुका था। युवा कृषक मज़दूरी के लिए शहर आ जाते हैं इसलिए गाँव में बूढ़े और बच्चे ही रह जाते हैं। झिल्ली की बातें सुन दहशत होती कि गाँवों और किसानों को बचाने का शायद ये आख़री सेफ़्टी अलार्म है। अवैज्ञानिक खेती के नुक़सान सहता ग़रीब किसान भगवान भरोसे रहने की अपेक्षा बाहुबल का पारिश्रमिक पाने शहरी श्रमिक बन जाता है।
झिल्ली का वक़्त मेरे साथ आराम से कट जाता लेकिन जुलू को शहर में ऊब होती थी। घर में मन न लगता और बाहर दोस्त नहीं थे। जुलू गाँव में पूरा-पूरा दिन दोस्तों के साथ नदी किनारे घूमने का आदि था। सभी दोस्त दौड़ते हुए पहाड़ी पर सबसे पहले पहुँचने के लिए भागते। साँयकल में पास के ही दूसरे गाँव तक घुमने जाते। जुलू की ग्रामीण अल्हड़ता को शहरी सभ्यता रास नहीं आती थी जबकि झिल्ली को हमारे घर से गाँव जाने के नाम पर घबराहट होती थी। लड़के और लड़कियों का ये नैसर्गिक गुण है कि किशोरवय पहुँचते-पहुँचते लड़की घर में और लड़के घर के बाहर ज़्यादा सहज होते हैं। जुलू कान्हा को गार्डन में खेलता देखने पर ही घर आता था जबकि झिल्ली दिन भर में शायद एक बार भी अपने घर न जाती। जब-जब कान्हा लॉन में होता जुलू जाने कहाँ से प्रकट हो मुस्कुराता हुआ गेट खोलकर भीतर आताकान्हा भाई आज क्रिकेट नहीं खेलेगा ना अपन लोग। आज फ़ुटबाल ..फ्लिज़ भाई फ्लिज़।”  झिल्ली ने भी कभी बेटे को उसके नाम कान्हा से नहीं पुकारा। हमेशाभाईजानही पुकारती। एक हास्यास्पद बात तो बताना ही भूल गई। चौकीदार कोअंकलशब्द का अर्थ नहीं पता था। यह सीधा-साधा ग्रामीणअंकलशब्द को एक सम्मानसूचक संबोधन समझकर सम्मान देने मेरे नन्हे से बेटे कान्हा और पतिदेव दोनों को ही अंकल बुलाता। सड़क पर साइकल चलाते कान्हा को देखकर चौकीदार हमेशा झेड़ता–अंकल तुम्हारा साइकल हम चलाएँगे।
कान्हा हँसते-हँसते दोहरा हो जाता–मैं आपका अंकल नहीं बल्कि आप मेरे अंकल हो।
मैं चौकीदार को हज़ार बार अंकल का मतलब समझाकर हार गई और आख़िरकार मैंने भी बेटे को अंकल स्वीकार कर लिया। इस तरह हम पति-पत्नी भी चौकीदार और चौकीदारिन के अंकल आंटी हो गए। चौकीदारिन मुझे आंटी और कान्हा को अंकल बुलाती। चौकीदार मुझे देखते ही आवाज़ देता–आंटी झिल्ली को ज़रा भेजो न? झिल्ली के गंभीर पिता का अपने परिवार के प्रति समर्पण अभूतपूर्व था। कई बार मैं चुपचाप बालकनी से उन चारों को झोपड़े के सामने बैठे घंटों गप्पें मारते देखती। उनके बीच उड़िया में चल रहे वार्तालाप का एक भी शब्द पल्ले नहीं पड़ता था मगर उन चारों की खिलखिलाहटें, भाई बहनों की दौड़ा-भागी वाले धौल-धप्पे बताते थे कि मीठी-मीठी नोकझोंक चल रही है। रेत के ढेर पर बैठी झिल्ली खिलखिलाती हुई अचानक जुलू को मारने दौड़ती। बहन की मार से बचने के लिए ठहाके लगाता जुलू गली में दूर तक भागकर खड़ा हो चिढ़ाने लगता। जुलू को हँसते देख झिल्ली झुंझलाती हुई फिर मारने दौड़ती। चौकीदार एक ज़िम्मेदार पिता की भाँति भाई-बहन के बीच उग्र होते तनाव को वहीं थाम लेता। उनके लिए घर के नाम पर बने इस इकलौते कमरे में चारों का घुसा रहना संभव न था। बाहर पड़ा रेत का ढेर ही उनकी बैठक थी। मैंने उन्हें एक खाट ख़रीदकर दी थी जिसे बड़े जतन से दोपहर भर खड़ा रखा जाता ताकि काम करने आए मज़दूर बैठ-बैठकर तोड़ न दें। 
झिल्ली का रहना, खाना, नहाना, सोना जैसी सभी दैनिक गतिविधियाँ हमारे घर पर ही होती थी। शौच मुक्त भारत की कल्पना साकार कैसे हो? पलायन कर आए ये किसान शहर में रहने के लिए एक कमरा तो बमुश्किल जुगाड़ पाते हैं। चौकीदार के अस्थायी कमरे में सर छिपाने की ही गुंजाइश थी। हमारे घर में रहने से किशोर बेटी को खुले में शौच और नहाने से मुक्ति मिलने पर उस ग़रीब पिता को आत्मिक संतुष्टि मिलती थी जिसका ज़िक्र अक्सर झिल्ली करती रहती थी। झिल्ली हमारी बालकनी से ही चिल्ला-चिल्लाकर अपने माता-पिता से बातें करती रहती थी। कई बार तो दो-दो दिन अपने घर न जाती। चौकीदारिन रेत में बैठी ऊँची आवाज़ में बालकनी में खड़ी झिल्ली से उड़िया में कुछ पूछती। भाषाई दिक़्क़त की वजह से मुझे एक शब्द समझ न आता। बालकनी में देर तक चल रही अबूझ बातचीत से झुंझलाकर मैं पूछती–झिल्ली मम्मी क्या पूछ रही है? झिल्ली हँसती हुई बताती–मम्मी पूछ रही है कि तुम्हारे घर (झिल्ली के घर) में खाना बन गया? मुझे (झिल्ली को) अपने घर में भोजन का निमंत्रण दे रही है। माँ बेटी के बीच चल रहे परिहास को समझ मैं भी मुस्कुराने लगती। साधनहीन जीवन में परिवार के चारों सदस्यों का प्रेम और आनंद देखना सुखद अनुभव था। चौकीदार एक समर्पित पति, ज़िम्मेदार गृहस्थ और स्नेही पिता था। जुलू, झिल्ली और कान्हा अक्सर ही लान में क्रिकेट खेला करते। क्रिकेट खेलते वक़्त शहतूत की दो लंबी टहनियाँ जिसमें पत्तियों का गुच्छा भी हो तोड़कर कान्हा झिल्ली के दोनों हाथों में पकड़ाकर समझातादेख झिल्ली जब मैं छक्का लगाउँगा तो तू दोनों हाथों की टहनी ऊपर हिलाते हुए कूद-कूदकर नाचना। देख एक बार एक पैर लेफ़्ट दूसरी बार राईट और साथ में पत्तियाँ हिलाते रहना।बेटे के छक्के पर ओड़िसा की इस चीयर गर्ल का डांस देखने लायक़ होता। भूरी आँखों वाला छोटा जुलू उड़िया उच्चारण लिए तोतलाया-सा चींखताछका (छक्का) नोई लगा था, झिल्ल्ली ओभी मत नाच।मैं लान में बैठी तीनों की बहस, लड़ाई, झगड़े, रन बनाने का संघर्ष और खेल की बेईमानियाँ देख हँसते-हँसते दोहरी हो जाती। आउट, नाट आउट, नो बॉल, चौका, छक्का की तीखी नोक-झोंक आरोप-प्रत्यारोप का ख़ात्मा अक्सर हीचीटिंग-चीटिंगऔरजाओ मुझे नहीं खेलनासे होता। कान्हा के स्कूल जाने पर उसकी अनुपस्थिति में लॉन में बिखरे बैट, बॉल, बैडमिंटन, फ़ुटबाल पर जुलू का एकाधिकार होता। थोड़ी देर में ही खिलौनों के साथ अकेला खेलता जुलू उकताकर घर लौट जाता।
चौकीदार बीच-बीच में दो चार दिन के लिए ओड़िसा जाता रहता था। इस बीच चौकीदारिन और बच्चे शहर में ही रहते थे क्योंकि निर्माणाधीन भवन वाले प्लॉट को बिना देख-रेख के नहीं छोड़ा जा सकता था। चौकीदार जब भी गाँव से वापस शहर लौटता तो सकुचाया-सा खीसें निपोरते हमारे गेट पर आकर मुझे एक पॉलीथीन पकड़ाता। पॉलीथीन में गाँव से लाई खेत की सूखी मूँगफलियाँ, मोटा पोहा और गुड़ होता था। बड़ा सिमटा हुआ मिमियाता-सा हँसता–अंकल (कान्हा) के खाने के लिए। शहर वालों की नज़र में बेहद सस्ती इन चीज़ों की इस ग्रामीण परिवार के लिए बहुमूल्यता मुझे पता थी। सूदूर देहातों में किस स्तर तक ग़रीबी और अभाव है ये झिल्ली के साथ रहकर पता चला। मैंने तब जाना कि अति पिछड़े गाँवों के बदहाल परिवारों को सप्ताह में सिर्फ़ एक या दो बार चावल के साथ सब्ज़ी नसीब होती है। इससे पहले मेरी धारणा थी कि गाँव में सब्जियाँ और दूध तो प्रचूरता से उपलब्ध है। सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते थे कि 30 रुपये एक सप्ताह के घर ख़र्च के लिए पर्याप्त होते हैं। ज़रा-सा भी अतिशयोक्ति की मिलावट नहीं कि कपड़े सिर्फ़ तीन जोड़ी ज़रूरत से ज़्यादा है। कान्हा को स्कूल के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में पहनने के लिए मिलने वाली अजीबो-ग़रीब, रंग-बिरंगी, चमकीली ड्रेस प्रोग्राम के एक घंटे बाद हमारे किसी काम की नहीं होती थी। स्टेज में डांस के फ़ौरन बाद ही कान्हा ये भड़कीले कपड़े उतार फेंकता–छी! मम्मा ये स्कूल वाले कैसी जोकर-सी ड्रेस देते हैं। क्या-क्या लगा दिया है। पूरी बॉडी में चुभ रहा है मम्मा। ऐसी तमाम उटपटांग या आउट ऑफ़ फ़ैशन ड्रेस पहनकर जुलू ख़ुशी-ख़ुशी अपने पिता की साइकल चलाता नज़र आता। गाँव के ग़रीब घरों में रात में सोने के लिए खाट सामान्यत: सिर्फ़ पुरुष सदस्यों को उपलब्ध होती है। कड़ाके की हड्डी-तोड़ ठण्ड में स्वेटर जैसालक्ज़री आइटमतो इनके गाँव भर में दो-चार के पास ही है। बाक़ी के लोग फट चुकी साड़ियों को तहकर शॉल की तरह ओढ़ते और ज़मीन में बिछाते हैं। झिल्ली के गाँव की दर्दनाक कहानी मुझे अविश्वास भरी आँखों से सुनता देखकर हमारे घर में काम करने वाली यशोदा ने बताया– झिल्ली सही बता रही है दीदी। मेरा गाँव भी तो ओड़िसा में है। गाँव में सच में ऐसा है इसलिए तो ये लड़की आपके पास से गाँव लौटना नहीं चाहती। आपके घर में साबुन, सोडा, खाना-पीना, पहनना-ओढ़ना, तेल-कंघी जब घर बैठे मिले तो कौन झोपड़े में रहने जाएगा। 
यशोदा की मुझसे सीधे-सीधे बोलने की हिम्मत नहीं पड़ती कि झिल्ली का पूरा ख़र्च उठाने के एवज़ में आप उस से काम करवाइये। यशोदा के मन में झिल्ली के लिए द्वेष बढ़ता ही जा रहा था। कहीं-न-कहीं वो झिल्ली को दी जा रही सुविधाओं की तुलना स्वयं की मेहनत और पारिश्रमिक के रूप में प्रदत्त सुविधाओं से करने लगी थी। यशोदा को क्रोध था कि झिल्ली को जो हासिल हो रहा है वह मुफ़्त का है और उसे काम के एवज़ में भुगतान मिलता है। एक दिन यशोदा ने शिकायती लहजे में कहा–दीदी ये लड़की कान्हा के साथ बैडमिंटन खेलने, टीवी देखने, ही ही हा हा करने में सुबह से शाम कर देती है। इतना भी नहीं होता कि आपकी कुछ मदद कर दे। मेरे अनसुना कर देने पर झिल्ली को घूरती हुई फिर पोछा लगाने लग गई–ए झिल्ली देवी! उठ यहाँ से। मुझे पोछा करना है। गाँव में इतने मज़े थे क्या रे तेरे? इन दोनों की बहस के बीच में पड़ना इसलिए व्यर्थ था क्योंकि हमारे गेट से बाहर निकलकर यशोदा झिल्ली की माँ से मित्रतापूर्वक उड़िया में घंटों बातें करती थी। अपनी जन्मभूमि से दूर जब कोई  हमवतन, हमज़ुबान मिले तो बिछोह का दर्द हल्का हो जाता है। चौकीदारिन और यशोदा रेत में बैठी ओड़िसा के त्योहार नवा-खायी की तैयारी से लेकर झिल्ली की पहली माहवारी के धार्मिक अनुष्ठान के खर्चों पर चर्चा करती। झिल्ली से ही मालूम हुआ कि गाँव में किशोर लड़कियों की पहली माहवारी आने पर गाँव भर को भोजन कराने की प्रथा है।छि! आंटी पूरे गाँव को पता चल जाता है। झिल्ली बड़ी हो गई उसी का पूजा है बोलकर खाना खिलाए। वहाँ तो हर लड़की का ऐसा होता है। मेरे को अपने टाइम इतनी शरम आई आंटी कि पूछो मत। एक महीने तक गाँव में आँख उठाकर नहीं चल पाई थी। इधर शहर में पढ़े लिखे लोग तमाशा नहीं करते। वो तो मैं आपके पास रहने लगी तो लेट्रिन बाथरूम का सुभीता हो गया। नहीं तो महीना चलने में तालाब में नहाना धोना मुश्किल हो जाता है। जब मेरे महीना आने का खाना खिलाना हुआ तो मैं बहुत रोई। मैं उस टैम (टाइम ) गाँव क्यों आ गई? आंटी के पास रहती तो इस बेज्जती से बच जाती।” 
देश के सबसे पिछड़े राज्यों में से एक ओड़िसा के गाँवों से हर साल किसान पलायन कर देश के कई महानगरों में रोज़गार की तलाश में निकलते हैं। हर शहर में इन ग्रामीण किसानों ने अलग बस्तियाँ बसा ली हैं। ये किसान शहरों में चौकीदारी, रिक्शा चलाने, होटलों में काम करने और दिहाड़ी मज़दूरी का काम करते हैं। किसानों का इस तरीक़े से शहरी मज़दूर बन जाना एक कृषि प्रधान देश के लिए घोर चिंता का विषय होना चाहिए। यशोदा भी उनमें से ही एक थी जिसका पति ओड़िसा की किसानी छोड़ शहर में रिक्शा चलाता था। झिल्ली और यशोदा में उम्र का बड़ा अंतराल होने के बावजूद यशोदा का द्वेष समझ से परे था। झिल्ली की उपस्थिति से यशोदा पर होने वाली कृपा, अनुराग और सुविधाओं में विभाजन ही इस नफ़रत का कारण था। हमारे घर पर झिल्ली के दो वक़्त गुणवत्तायुक्त भोजन की सुविधा की तुलना यशोदा अक्सर अपने बच्चों को उपलब्ध भोजन से करती–दीदी आपके घर जैसा खाना मेरी दोनों बेटियों को भी मिले तो वो भी झिल्ली जैसी गोरी हो जाएँगी। देखो न दीदी झिल्ली जिस दिन गाँव से आती है काली बिल्ली दिखती है। आपके घर चार दिन रहते ही रंगत खुल जाती है इसकी। यशोदा का ये बैर स्वाभाविक ही था। अपने स्नेह में भागीदारी किसे भली लगती है? उस पर भी हम पति-पत्नी का झिल्ली के प्रति वात्सल्यपूर्ण प्रेम यशोदा को खल जाता था। झिल्ली को सोफ़े के हत्थे पर पैर पसारे टीवी देखते देख यशोदा का ख़ून खौल जाता–क्यों रे लड़की जात ऐसे पैर फैलाकर बैठती है क्या? घर संभालने की उम्र में दीदी के राज में बच्ची बनी बैठी है। उसके आक्रोश में तमीज़ सिखाना कम और वैमनस्य अधिक झलकता। मेरे लिए आज भी यह शोध का विषय है कि एक दिन में लगातार 5 फ़िल्में देख लेने का हुनर सभी ग्रामीणों में होता है या यह योग्यता सिर्फ़ मेरी झिल्ली में ही था? खाने की थाली पकड़े टीवी देखती हुई ज़ोर-ज़ोर से हँसती जाती। कितनी बार इस बेहूदगी के लिए मुझसे डाँट भी खाती–क्यों झिल्ली इतनी ज़ोर-ज़ोर से हँसते हैं? पूरी कालोनी सुन रही होगी तेरा राक्षसी अट्टहास। मेरे ग़ुस्से से वो हमेशा बेअसर रहती। डाँट सुनकर चुप रहने की जगह हँसते-हँसते हाँफ जाती–आंटी आप भी आओ न, देखो तो हीरो सबकी कितनी पिटाई कर रहा है। वो उसका बाप हिरोइन को कमरे में बंद कर दिया तो हीरो खिड़की से चढ़ा। कई बार सुबह से चलती टीवी की आवाज़ से मेरा पारा चढ़ जाता–झिल्ली बस अब बंद कर। ला तो  तेरी इंग्लिश कॉपी। 
तीन-चार माह मेरे पास गुज़ार लेने पर बीच-बीच में 15 दिन के लिए उसे गाँव जाना पड़ता था। कुछ दिन गाँव में जाकर फिर से स्कूल, खेत, चूल्हा अकेली संभालती। गाँव पहुँचते ही खाने की कमी और काम की अधिकता से सप्ताह भर बाद ही वह अक्सर बीमार पड़ जाती थी। कितनी बार उसके पिता उसे गाँव से लाकर मेरे पास अधमरा, बीमार, कुपोषित छोड़ गए। गाँव में पौष्टिकता के अभाव में कमज़ोर, धँसी आँखें लिए लड़की सूख के काँटा हो जाती थी। एक बार तो चौकीदार ने जब उसे मेरे पास छोड़ा तो झिल्ली से खड़ा तक नहीं हुआ जा रहा था। पीलिया अपने चरम पर था। पास पड़ोस के शुभचिंतकों ने मुझे आगाह किया–जब तक तुम इन लोगों का अच्छा कर रही हो सब ठीक है। इतनी बीमार लड़की का इलाज करवा रही हो। कल को  इलाज के दौरान कुछ अनिष्ट हो जाए तोये लोगचढ़ बैठेंगे।इन लोगोंको पैसे झटकने का मौक़ा चाहिए। फिर वही, “ये लोग”  मनुष्य जाति से इतर एक जाति। दो-चार महीने मेरे पास रहकर झिल्ली प्रायः थोड़ी भरी-भरी लगने लगती। यशोदा और झिल्ली में हमेशा एक शीत युद्ध का तनाव बना रहता। लैपटॉप पर काम करते हुए मुझे कई बार यशोदा के ताने सुनाई दे जाते–क्यों रे! यहाँ आकर शैम्पू में बाल धोती है। वहाँ तो मैदान से आकर भी मिट्टी में हाथ घस के धोती होगी। कर ले चार दिन के जलवे इनके घर पर लेकिन शहर में रहना है न तो मेरे जैसे ही चार घर काम पकड़ना होगा। मेरा सब्र जवाब दे गया–यशोदा क्या हो रहा है ये? क्या बोल रही है? उसके कुछ बोलने से पहले ही झिल्ली बीच में आ गई–कुछ नहीं आंटी। ऐसी ही मज़ाक़ चल रहा है। अपनी ज़मीन से दूर एक हमज़ुबाँ साथीदार को झिल्ली किसी क़ीमत पर खोना नहीं चाहती थी। बहस में मेरे हस्तक्षेप से उनमें दुराव बढ़ने की पूरी संभावना थी। 
इन सात सालों में स्नेह और विश्वास का अटूट रिश्ता बन गया ओड़िसा के बोलाँगीर ज़िले के छोटे-से गाँव की इस छोकरी से। झिल्ली की निर्दोष आंचलिक खिलखिलाहट में एक अजीब-सी कशिश थी। उसके गाँव जाने की तारीख़ के हफ़्ता भर पहले से ही मुझे घबराहट-सी होने लगती। अगले सोमवार इस वक़्त झिल्ली जा चुकी होगी ये सोचकर मन भारी हो जाता था। झिल्ली, कान्हा और जुलू अपनी मस्ती के चरम पर मुंबईया शैली की हिंदी अपुन-तपुन, बीड़ू में बाते करते। एक दिन मैंने पूछा–झिल्ली तुझे गाँव कब जाना है? इठला के आँखें मटकाती हाथ हवा में घुमाकर बोलती–अब अपुन को ए.सी. में सोने की आदत है। मैं गाँव न जा सकूँ रे बाबा। अब अपुन अपनी शादी में ही अपने गाँव जाएगा। फिर हँसते-हँसते संजीदा हो कहती–हमारे उधर शादी कर के कौन से मेरे दिन बदलेंगे आंटी। वही सुबह अंधेरे में उठकर गाँव के बाहर लोटा पकड़े निकलो। तालाब में नहाने जाओ। वहाँ से कपड़े धोकर सर पर रख वापस घर लाओ। फिर कुँए में पीने का पानी भरने जाओ। अनाज फटको, लकड़ियाँ बीनकर लाओ, चूल्हा जलाओ, खाना बनाओ, बर्तन मांजो, दोपहर में खेत में मेहनत करो, मवेशियों को चारा दो, घर-आँगन गोबर से लीपो-बुहारो और खाने के लिए सिर्फ़ मोटा चावल और सील-बट्टे की चटनी। आंटी हमारे उधर पति अच्छे हो या बुरे अपने माँ-बाप को ख़ुश रखने बीवी को मारते ही हैं। बहुत अच्छा पति मिल जाए तो दूसरे गाँव में लगने वाले शनिचरी बाज़ार में जाने के लिए कभी-कभार 50 रुपये पकड़ा देते हैं। जिसमें से 40 रुपये तक की टिकली, रिबन, काँच की चूड़ियों में ख़र्च हो जाते हैं और बचे 10 रुपये के समोसे खा लो।
मेरी शहरी ज़िंदगी और झिल्ली के ग्रामीण दारुणता में दो दुनिया के अंतर को देख मेरे भीतर मची उथल-पुथल को झिल्ली की पारखी आँखें समझ जाती थीं। अपार प्रेम में भावुक होकर कहती–आंटी आपके साथ बीतने वाले दिन मेरे लिए सपने जैसे हैं। मैं पूरी ईमानदारी से जानती थी कि मैंने उसके लिए कुछ भी विशेष नहीं किया था या जितना कर रही थी वो मेरे लिए मायने नहीं रखता था। झिल्ली के पसंदीदा कामों में फ़िल्में देखने के बाद मेरे साथ कार में घूमना दूसरे स्थान पर था। घोर ग़रीबी भी उसकी किशोर उम्र के रंगीन ख़्वाबों में बाधक नहीं बनती थी। टीवी पर वरुण धवन को देखते ही दीवानी हो जाती–आंटी आओ न, देखो तो कितना स्मार्ट लग रहा है मेरा वरुण। मैं उसे सारी आधुनिक ड्रेस साथ में ले जाकर ख़रीदवाती। मेरी झिल्ली भी जीन्स पहनकर शहरी तितली बनी माल में इठलाती चलती। वो उम्र के उस दौर से गुज़र रही थी जहाँ सपनों के पंख द्रुत गति से फड़फड़ाते हैं, मन बिजली से ज़्यादा चपल, धड़कन दूने आवेग से स्पंदित होती है। उम्र के इस रूमानी पायदान पर सपने गुलाब, रातें रजनीगंधा, सुबह हरसिंगार हो जाती है, लेकिन अपने घर की लड़की में आया ये प्राकृतिक व स्वाभाविक गुलाबी बदलाव मुझे बुरा लगता था। आम भारतीय अभिभावक की तरह मैं उसकी शृंगारिक अभिव्यक्तियों को नियंत्रण में रखना चाहती थी। कई बार उस पर बेवजह नाराज़ हो जाती–दिन भर नाच-गाना, रोमांस देखती रहती है। चल कॉपी पुस्तक निकाल। ओड़िसा फ़ोन लगा और पता कर स्कूल में सिलेबस में कहाँ तक पहुँच गए है?  
मुझसे ख़ून का रिश्ता न होकर भी उसका अधिकार भाव जताना बड़ा भला-भला-सा लगता। कभी मैं लैपटाप में व्यस्त होती तो अचानक बनावटी ग़ुस्से में तनकर रौबदार आवाज़ में सवाल करती–मैडम जी (जब मुझसे कुछ ग़लती हो जाती तो वो मुझे आंटी की जगह मैडम जी ही बुलाती) कुछ याद है आपको? गैस पर चाय कितने घंटे पहले चढ़ाई थी? जाओ मैडम जी बर्तन का हाल देखो, जलकर कोयला हो गया है।  मैं अपनी ग़लती पर पर्दा डालती और उलटा उस पर सारा दोष मढ़ देती–मैं तो कमरा बंद करके लैपटाप पर काम कर रही थी इसलिए बदबू नहीं आई। तू क्यों इतनी बेहोश होकर टीवी देख रही थी? तुझे जलने की महक नहीं आई? हम दोनों एक दूसरे पर इल्ज़ाम लगाते। हर बहस में झिल्ली का अंतिम वाक्य होता–वो तो मैं हूँ इसलिए घर में बर्बादी नहीं मचती। आपका बस चले तो सब सत्यानाश कर दो। जब मैं गाँव में रहती हूँ तो जाने कितना नुस्कान करते होगे। उसके द्वारा नुक़सान को नुस्कान बोले जाने पर ठहाके लगाते हुए मैंने कहा–हाँ रानी बेटी तेरे कारण ही नुस्कान से बच जाते हैं। इतने अपनेपन के बाद भी एक दिन उसने मुझे उदास कर दिया। मेरे पास बैठ अचानक मुँह उतारकर बोली–आप चाहे मुझे कितने भी अच्छे कपड़े पहना कर घुमाओ। मैं आप लोगों के जैसी नहीं दिखती। मैंने आपकी सहेलियों को बोलते सुना हैये काम वाली है क्या?”  मेरा झुका चेहरा देख ज़ोर से हँसने लगी– अरे छोड़ो मुझे नहीं बताना चाहिए था कि मैंने आपके दोस्तों की बात सुन ली है। उसने चतुरता से विषय परिवर्तित कर दिया–आप तो मेरी शादी में जब ओड़िसा आओगे तब हमारे गाँव वाले मानेंगे कि आप मुझे कितना प्यार करते हो। जब-जब मैं गाँव लौटती हूँ तो आपके दिए सामान देख पास-पड़ोस वालों को यक़ीन नहीं होता कि कोई इतना सब कुछ बिना काम किए देता है। सब बोलते हैं तू काम वाली बाई होगी उनके घर की। 
झिल्ली के साथ मुझे मालूम हुआ कि पाँच किलो आटा, नहाने के दो साबुन, एक किलो शक्कर या दो लीटर तेल ख़रीदना फिज़ूलख़र्ची है। ओड़िसा में चावल की मुख्य उपज होने के कारण वहाँ रोटी की गिनती महँगी चीज़ों में होती है। झिल्ली को हमारे यहाँ उसकी पसंदीदा रोटियाँ मिल जाती थी लेकिन जुलू को चावल ही खाना पड़ता था। जब मुझे पता चला कि जुलू को घर पर रोटियाँ नहीं मिल पातीं तब उसके घर पर महीने का आटा भेजना शुरू किया। झिल्ली के साथ मॉल में अपने लिए कपड़ों की ख़रीदारी करना छोड़ दिया था। इसके पीछे भी उसी का कहा एक वाक्य था–आंटी आपके एक ड्रेस की क़ीमत में हमारे गाँव में दुल्हन के पूरे कपड़ों की ख़रीदारी हो जाती है। मेरा मन भीतर तक निर्दोष अपराधबोध से भर गया। एक ज़िम्मेदार नागरिक अपने हिस्से का हर टैक्स पूरी ईमानदारी से, भरपूर प्रसन्नता से भर रहा है इस उम्मीद पर कि हमारे देश के भीतर की दो दुनिया का ये अंतर ख़त्म हो। बावजूद इसके तंत्र का भ्रष्टाचार इस खाई को भरने नहीं देता है। झिल्ली की ग़रीबी देखते हुए उसके आगे ख़र्च करना एक गुनाह-सा लगता। शायद उसके प्रति ये मेरा भावनात्मक लगाव था। अन्यथा लोग अपने घर काम करने वालों के आगे ही बड़ी-बड़ी पार्टियाँ करते हैं, ड्राइवर के आगे ही उसके एक माह के वेतन के बराबर होटल में खाने के बिल का भुगतान करते हैं। 
झिल्ली दो-चार दिन में जब कभी हमारे घर से अपने प्लॉट में बने कमरे में जाती तो जुलू बहन को छेड़ने के लिए हाथ जोड़ मेज़बान की भूमिका निभाताआइये, आइये झिल्ली मेमसाब। खाना खा के जाइएगा झिल्ली मेमसाहब। झिल्ली इतराती हुई वापस आ जाती–अपुन की आंटी अपुन का वेट कर रहा होगा खाने पे। झिल्ली कई बार मेरे लिए समस्या पैदा कर देती। उसकी शर्त थी वो खाना मेरे साथ ही खाएगी। मैं जब कभी एकांत में लिखती रहूँ तो उसे अपूर्णता में छोड़ना नापसंद करती हूँ। अधूरे में छोड़कर वापस क़लम संभालने में पहले वाली लय और कसावट खो जाती है। हाथ में क़लम हो और ऐसे समय पर घड़ी-घड़ी झिल्ली की मनुहारचलो न आंटी खाना खाएँगे।उसकी तेज़ भूख देख मुझे उठना ही पड़ता। मैं कभी मम्मी से फ़ोन पर बात करती रहूँ तो अचानक पीछे से आकर फ़ोन छीन लेती–नमस्ते नानी, आप कब आओगे? यहाँ पर आंटी पतला होने के लिए दो दिन से खाना नहीं खाई है। लो अब आप आंटी को डाँट लगाओ। इतना कह फ़ोन मुझे पकड़ाकर दांत दिखाती भाग जाती। सात साल से भी ज़्यादा वक़्त का साथ एक लंबा अनुभव होता है। मुझसे जुड़ा कोई भी रिश्ता झिल्ली से अपरिचित नहीं था। मेरे पास आई 10 साल की झिल्ली अब 17 साल की हो चुकी थी।
जब झिल्ली गाँव जाती तो उसके बैग में शहरियों की नज़रों में हास्यास्पद समझे जाने वाले उपहार रख देती। आटे के पैकेट, वाशिंग पावडर, बिस्किट, पोहा, सूजी, तेल के पैकेट, सैनिटरी पैड। झिल्ली को गाँव जाते समय पैसे ज़्यादा दो तो गाँव के घर में रुपये रखने के लिए दोनों बच्चों के पास सुरक्षित जगह नहीं थी। ओड़िसा के एक कमरे के घर में दिन भर के लिए ताला लगाकर जुलू और झिल्ली साइकल से दूसरे गाँव स्कूल जाते थे। जब-जब झिल्ली को गाँव के लिए विदा करती दिमाग़ में एक ही ख़याल आता–इस लड़की की शादी यहाँ ठीक-ठाक कमा लेने वाले लड़के से हो जाए तो ज़िंदगी बहुत अच्छी न सही लेकिन पहले से काफ़ी बेहतर हो जाएगी। चौकीदार ने भी कई बार अप्रत्यक्ष रूप से झिल्ली के भविष्य की ज़िम्मेदारी मुझ पर सौंपने के इशारे किए–झिल्ली तो कान्हा का बहन है। अब हम तो बोलता है कि झिल्ली के बारे में उसका ओंकल आंटी जाने। वो ही लोगोन उसके माँ-बाप है। सारी परिस्थितियों को देखते हुए झिल्ली को पास के ही एक बुटिक में सिलाई सिखाने की बात हो गई। अभ्यास के लिए हम कपड़े भी ख़रीद लाए। झिल्ली ने कपड़ों पर सिलाई की प्रेक्टिस शुरू कर दी। 
मुझे लंबे वक़्त तक लैपटॉप पर काम करता देख या ज़्यादा चाय पीने पर झिल्ली लगातार टोकती रहती–अंधे हो जाओगे आंटी किताब और काम्पुतर (कम्पूटर) से। आंटी चाय पी-पीकर पेट सुखा ले रहे हो।कई बार बेटे से उसकी तीखी झड़प होती–भाईजान दूसरों के सामने मुझे झिल्ली मत पुकारा कर। अगले ही पल फिर मिन्नतें करते हुए लहजा नर्म करती–प्लीइस्स भाई जान, सब के आगे पुष्पा बुलाया कर। मेरे पास बैठ गाँव के ढेर क़िस्से आधी रात तक सुनाती। गाँव में कैसे खेत के बंटवारे में आम के पेड़ वाले या नहर के तरफ़ के हिस्से को लेकर भाइयों में घमासान होता है। आंगन में छिड़े घरेलू झगड़े देखने लोग जलता चूल्हा छोड़ गलियों में भागते हैं।  घर के भीतर चलती तीखी बहस में भाई-भाई, सास-बहू के बीच ऊँची आवाज़ में आरोप-प्रत्यारोप का दौर चल रहा हो तो उनके दरवाज़े पर तब तक लोग डंटे रहते हैं जब तक अंदर का ही कोई एक बाहर निकल चिल्लाकर भीड़ को न खदेड़े–क्या तमाशा लगा रखा है? जाओ अपने-अपने घर। झिल्ली के गाँव के कितने अनदेखे पड़ोसियों के मेरी कल्पना में स्पष्ट चेहरे बने हुए थे–आंटी इधर शहर में कित्ता अच्छा है कि कोई एक दूसरे के घर आना-जाना नहीं करते। हमारे गाँव में तो इन्दुरी पीठा, चाकुली पीठा, पकाला बनाना शुरू करो ख़ुशबू से लालची लोग आकर चूल्हे के पास बैठ जाते हैं। उधर शहर जैसा इतना रंग-रंग का खाने का चीज नहीं रखते हैं न आंटी। बेर, आम, फल्ली को हम लोग साल भर के लिए सुखा लेते हैं। भूख लगने पर चगलते रहो। पोहा गुड़ को छिपा-छिपाकर रखना पड़ता है नहीं तो रिश्तेदार अपने हाथ से निकालकर खा जाते हैं। मैं चुपचाप घोर दरिद्रता की कहानियाँ सुनने के बाद अक्सर सोचती कि सभ्यता की बातें भरे पेट ही संभव है। ओड़िसा की बातों में खोई झिल्ली अनवरत बताती जाती कि कैसे खेत में साँप काटने की वजह से लोग मरते रहते हैं। कैसे पहाड़ी मंदिर के रास्ते पर लड़कियाँ अपने प्रेमियों से छिप-छिपकर मिल आती हैं। कैसे जंगली हाथी खड़ी फ़सल बर्बाद कर देते हैं और कैसे अकाल पड़ने पर शादियाँ टूट जाती हैं। ओड़िसा के बड़े त्योहार कुवार पूर्णिमा पर कुँवारी लड़कियाँ पुच्ची खेलती हैं जिसमें झिल्ली हमेशा जीत जाती है। गाँव में नवा-खाई और रथ-यात्रा में लाउड-स्पीकर पर उड़िया गानों में लोग जमकर नाचते हैं। एक दिन मैंने ज़िद पकड़ ली चल हमको भी गाँव वाला नाच दिखा। रात 11 बजे यू-ट्यूब पर उड़िया गाना ढूँढ़कर लैपटॉप में बजाया गया। ओड़िसा से मीलों दूर इस शहर में अपनी मातृभाषा में गीत सुन झिल्ली बावली होकर नाची। गाने के बोल समझ न आने के बावजूद कान्हा ने भी कूद-कूदकर नाचते हुए उसे ज्वाइन कर लिया। हालाँकि बेटे और झिल्ली में छत्तीस का आँकड़ा रहता फिर भी दोनों अलग नहीं रह पाते थे। झिल्ली अपने जोड़े पैसों सेभाईजानके लिए राखी और मिठाई ख़रीदती थी। कान्हा की बेतरतीब किताबों को क़रीने से लगाना, उसके तोड़े खिलौनों का मुझे छिपकर हिसाब देना, ये सब झिल्ली के महत्वपूर्ण काम थे। कान्हा और झिल्ली की लड़ाई में अक्सर मैं झिल्ली का पक्ष लेती। महान बनने के लिए नहीं बल्कि इसलिए कि ज़्यादातर वो सही होती थी। कान्हा रुवाँसा हो जाता–मम्मा आप तो इसी को सपोर्ट करती हो। रुक झिल्ली महारानी अपने दोस्तों के आगे तेरे को झिल्ली बुलाऊँगा। स्कूल से लौटकर तुझे गंदे मोज़े सुघाऊँगा तब तू सुधरेगी। झिल्ली और कान्हा में 9 साल का अंतर था फिर भी कान्हा ने उसे कभीदीदीनहीं कहा। जुलू की देखा-देखी हमेशाझिल्लीही बुलाता।
झिल्ली की तीव्र बुद्धि हमेशा घर की व्यस्था दुरुस्त करने के लिए सचेत रहती। रात में गेट लॉक हुआ कि नहीं। गार्डन में कितने केले फले हैं। बाई ने सफ़ेद कपड़ों में दूसरे कपड़ों का रंग चढ़ाकर चुपचाप सुखा दिया है। भाईजान किताबों के बीच टैब छिपाकर गेम खेल रहा है। मेरे स्टाफ़ के लड़के उसे घूरते हैं। ऐसी तमाम ख़ुफ़िया जानकारी मुझे लगातार देती रहती। इन सात सालों में मैं यह भूल चुकी थी कि झिल्ली के बिना मेरा जीवन कैसा था। कान्हा के बर्थ डे पर चौकीदार ने भवन निर्माण स्थल में फेकी हुई अनुपयोगी लकड़ियों से छोटी-सी बुक-शेल्फ़ बनाकर उपहार में दी। मैं इस परिवार से मिले अपनत्व से बंध गई थी या उनकी दीनता से उपजी करुणा क़रीब ले आई थी मालूम नहीं। 
कान्हा द्वारा दिए गए संबोधनमहारानी जीवाले का उत्तर झिल्ली हमेशा मातृवत स्नेह में देती–जी जनाब, फ़रमाइए भाईजान, क्या है अपुन का भाईजान। दिन भर घर की रौनक़ बनी दोनों की नोक-झोंक में मुझे कई बार रेफ़री की भूमिका निभानी पड़ती। कान्हा के कमरे से आवाज़ें बाहर तक सुनाई देती–सुन न भाईजान तुम ऐसे बिस्तर में लेटकर मत लिखा करो। लिखावट ख़राब होती है। तुम टीबल-चीयर (टेबल चेयर) पर बैठकर लिखा करो। हमारे गाँव में तो किसी भी बच्चे के घर में पढ़ने के लिए टिबल चीयर नहीं है। हम लोग तो बोरा बिछाकर बैठते हैं। झिल्ली के ग़लत उच्चारण चीयर (चेयर) को कान्हा हँसते हुए सुधरवाता–झिल्ली महारानी चीयर नहीं चेयर बोलते हैं। 
झिल्ली हाथ जोड़कर सर झुका देती–भाईजान तुम्हारे आगे आज से अपुन इंग्लिश नहीं झाड़ेगा।
कान्हा हँस-हँस के उसके पीछे घूमता–झिल्ली महारानी प्लीज़ एक बार बोल अच्छे से चेयर ….चे…य…र…चे ..य..र।
लड़की झुंझला जाती–रहने दे बाबा हम तो अब हिंदी मेंकुस्सी” (कुर्सी) ही बोलेंगे।
कान्हा हँसते-हँसते लोट जाता–झिल्ली महारानी कुस्सी नहीं कुर्सी बोलते हैं।
 झिल्ली रूवाँसी हो जाती–आंटी देखो, भाईजान मेरा मज़ाक़ बना रहा है।
 कान्हा को जब-जब झिल्ली पर बहुत प्यार आता तो लाड़ में उसे उसके स्कूल के नामपुष्पा“  से पुकारता–
नहीं मेरी पुष्पा ….मेरी पुष्पा मैं तो तुझे ठीक-ठीक प्रोनाउन्स करना सिखा रहा हूँ। 
कान्हा के मुँह से पुष्पा सुनते ही झिल्ली का सारा ग़ुस्सा काफ़ूर हो जाता। अगले एक दो घंटे फिर दोनों के बीच समंदर से गहरा प्रेम होता। जुलू के आते ही फिर कान्हा और जुलू एक साथ हो झिल्ली को छेड़ने लगते।   
एक दिन दोपहर में झिल्ली ने बताया कि जुलू को बाफा (पिताजी को उड़िया में बाफा कहते हैं) हॉस्पिटल ले गए थे। उसके पैरों में सूजन है। डाक्टर बोला है कि किडनी की कुछ बीमारी हो सकती है। किडनी की समस्या की भयावहता से अंजान झिल्ली इतनी बड़ी बात बहुत आसानी से बता रही थी मानो सर्दी ज़ुकाम हो। किडनी में समस्या की बुरी सूचना मिलते ही मेरे आगे झिल्ली की माँ और जुलू का मासूम चेहरा घूम गया। साइकल चलाने निकले जुलू के लौटने में ज़रा-सी भी देर होने पर भोली माँ अनहोनी की आशंका से रोने लगती थी। गाँव में जुलू फ़ोन न उठाए तो घबराहट में चौकीदारिन की तबीयत ख़राब हो जाती थी। गाँव से आने वाली ट्रेन का टाइम होने के बाद जुलू और चौकीदार को घर पहुँचने में आधा घंटा भी लेट हो तो झिल्ली से बोलकर मुझसे रेलवे इन्क्वायरी में फ़ोन करवाती। झिल्ली ने कई बार मुझसे शिकायत भी की थी कि माँ जुलू को ज़्यादा प्यार करती है। झिल्ली ने आगे कहा कि बाफा (पिताजी) ने जुलू की किडनी वाली दवाईयाँ नहीं खरीदी क्योंकि वो जुलू को झाड़ फूँक करवाने गाँव ले जा रहे हैं। इतना सुनते ही जुलू की बिगड़ती सेहत देखने मैं तुरंत उनके झोपड़े में पहुँची। चौकीदारिन दीवार से टिकी मैली साड़ी के एक छोर से आँसू पोछती जा रही थी। पस्त पड़ा जुलू झूल चुकी खाट में लेटा हुआ था। चौकीदार जुलू को गाँव ले जाने के लिए एक पुराने झोले में कपड़े भर रहा था। मुझे देखते ही निढाल पड़ा जुलू कमज़ोरी के बावजूद किसी तरह उठकर बैठ गया। चौकीदारिन सुबकने लगी–देखो न आंटी जुलू का तोबिय्त कित्ता खराब हो गया। बड़ी मुश्किल से चौकीदार को राज़ी किया कि जुलू को गाँव ले जाने से तबीयत और बिगड़ेगी। मैं ख़ुद जुलू का अच्छे-से-अच्छा इलाज करवाऊँगी। दूसरे दिन हम पति-पत्नी जुलू को हॉस्पिटल ले गए। जुलू के अनेकों टेस्ट के बाद ख़ून में मामूली-सा संक्रमण निकलने और किडनी पूरी तरह सुरक्षित होने पर राहत की साँस ली। नियमित दवाईयाँ लेते हुए जुलू को दो चार दिन में ही स्वस्थ होकर फिर झिल्ली को मारने सड़क पर दौड़ता देख चैन मिला। 
ये आज से सिर्फ़ दो महीने पहले की बात है जब एक दोपहर अचानक जुलू के ज़ोर-ज़ोर से रोने की आवाज़ अंदर कमरे तक सुनाई दी। जुलू को इस तरीक़े से पहले कभी रोते नहीं सुना था। घर के अंदर न आकर गेट पर बाहर ही खड़ा रोता हुआ बदहवासी से झिल्ली को आवाज़ दे रहा था। उसका रुदन बेहद असामान्य और भयावह था। झिल्ली घबराई सरपट दौड़ते बाहर निकली तो पता चला चौकीदार घर पर बेहोश हो गया है। मैं भी झिल्ली के पीछे दो-दो सीढ़ियाँ फाँदती बाहर निकली। जुलू बावला हो चीख रहा था–आंटी पापा घर पर बेहोश पड़े हैं। संयोग ही था कि उस दिन मेरे पति घर पर ही थे। हड़बड़ी में हॉस्पिटल के लिए हमने तेज़ी से कार बाहर निकाली और चौकीदार को उठाने उनके झोपड़े में गए तो देखा वो अकड़कर कड़ा हो चुका था। बेचारी चौकीदारिन का रो-रोकर बुरा हाल हो रहा था। इस शोर-शराबे से सड़क पर आते-जाते लोगों ने भीड़ लगा दी थी। हमारे साथ-साथ तमाशबीनों को भी समझ आ रहा था कि बच्चों के पिता की साँसें टूटे काफ़ी देर हो चुकी है लेकिन सीना छलनी करता संसार का सबसे कठोर सत्य पत्नी और बच्चों को कौन पाषाण हृदय कहे। अब तो केवल चौकीदार का निर्जीव शरीर ही ज़मीन पर पड़ा था। जब कोई अपना काल-कवलित हो तो आदमी सत्य को नहीं स्वीकारता। हम बाहरी थे इसलिए तुरंत स्वीकार लिया कि चौकीदार की मृत्यु हो चुकी है मगर एक पत्नी को औपचारिक स्वीकृति के लिए डाक्टर ही चाहिए था। चौकीदारिन मुझे देखते ही बुक्का फाड़कर रोने लगी–ओंटी हॉस्पिटल चलो। देखो झिल्ली के बाफा का तबीयत कितना खराब हो गया है। हाय रे औरत! अभी भी आस की एक कच्ची डोर थामे हुए थी। हम चाहते तो इस निष्प्राण शरीर के लिए सुविधाजनक एम्बुलेंस बुला सकते थे मगर बिलखती चौकीदारिन की हॉस्पिटल पहुँचने की अधीरता देख कार में ही ले जाने का निर्णय लिया। 
सब कुछ जानते-समझते हुए भी पतिदेव ने अकड़े हुए मृत शरीर को हॉस्पिटल ले जाने के लिए गोद में उठाकर गाड़ी में डाला। कार के पीछे की सीट में लंबे चौड़े चौकीदार की अकड़ी टाँगे मुड़ नहीं रही थी। कार का एक दरवाज़ा खुला ही था इसी हालत में कार हॉस्पिटल की तरफ़ तेज़ गति से बढ़ने लगी। छाती चीरते ख़ंजर सत्य को झुठलाते हुए चौकीदारिन और बच्चे रास्ते भर सिसकते और प्रार्थना करते रहे। मैं किसी तरह अपनी रुलाई रोके हज़ार बार बुदबुदा चुकी थी–हे भगवान! तूने क्या किया? हे ईश्वर इन ग़रीबों के लिए इतना बेरहम हो गया। बदनसीब परिवार हॉस्पिटल में चमत्कार की उम्मीद में रुदन के उफ़ान को बाँधे स्ट्रेचर के साथ दौड़ रहा था। आख़िर डॉक्टर ने अंतिम परिणाम की औपचारिकता पूरी कर दी। डॉक्टर्स ने हमें बताया कि मृत्यु तो दो घंटे पहले हो चुकी है। आशा का आख़री आधार टूट चुका था। प्राण-पंछी कभी न लौटने के लिए उड़ चुका था। इतनी देर से अनिश्चितता में डूबती, उतराती चौकीदारिन कटे पेड़-सी गिर पड़ी। अस्पताल की फ़र्श पर लोट-लोटकर रोती झिल्ली, जुलू और माँ का क्या हाल था बताने के लिए मेरे पास शब्द नहीं है। याद नहीं कि वो लोग वहाँ कितनी देर बिलखते रहे। आह! इंसान की औक़ात बस इतनी ही है कि साँसें थमी और आँखों के सामने की दुनिया ख़त्म। कल तक जिनके प्रेम में चौकीदार दिन रात एक किए था आज उनके हृदय-विदारक रुदन से बेअसर सफ़ेद चादर ओढ़े स्ट्रेचर पर पड़ा था। पता चला उस दिन चौकीदार की तबीयत सुबह से ही ख़राब थी और झिल्ली की माँ इलाज के लिए पैसे कमाने मज़दूरी पर गई थी। मैंने झिल्ली से व्याकुलता में पूछा–पापा की तबीयत ख़राब थी ये बात तुमने मुझे क्यों नहीं बताई थी झिल्ली? भावहीन चेहरे से भीगी आँखें झुकाकर बोली–मेरा और भाई का तो ख़र्च उठाते हो और मैं आपको किस मुँह से बताती आंटी? सिर्फ़ पैसों के अभाव में परिवार का तंदुरुस्त मुखिया अपने हँसते-खेलते कुटुंब को अधर में छोड़कर असमय ही चला गया। ग़रीबी और हादसे बच्चों को वक़्त से पहले परिपक्व बना देते हैं। ये इन दोनों बच्चों को देखकर समझ आ रहा था। कितनी बड़ी विडंबना है कि शरीर के निष्प्राण होते ही, आँसूओं के नियंत्रण में आते ही फ़ौरन क्रियाकर्म पर चर्चा होने लगती है। मुझे उनकी दीमक लगी ख़स्ता आर्थिक स्थिति का पूरा अंदाज़ा था। उस दारुण क्रंदन के उफान के बह जाने के बाद की शांति में मैंने धीरे से पूछा–क्रियाकर्म शहर में करोगे या गाँव में? झिल्ली की माँ के गाँव ले जाने की इच्छा जानने के बाद ओड़िसा के लिए गाड़ी बुक कराई। रास्ते के लिए खाना पैक करा, सिसकती झिल्ली के हाथ में पैसे थमा, निर्जीव चौकीदार सहित रोते-धोते परिवार को सीने पर पत्थर रखकर विदा किया। एक बात की फिर भी तसल्ली थी कि इसी शहर में रहने वाले झिल्ली के सगे चाचा-चाची भी गाड़ी में उनके साथ गाँव जा रहे थे। ये दम्पत्ति (चाचा चाची) भी इसी शहर में भवन निर्माण कंपनी में मज़दूरी करते थे। गाड़ी में बैठते समय झिल्ली के चाचा को मैं लगातार निर्देश देती रही–रास्ते में सबका ध्यान रखना। सफ़र बहुत लंबा है, साथ रखा खाना सबको ज़रूर खिला देना। ये लोग रो-रोकर अपनी तबीयत बिगाड़ लेंगे। मैंने सपने में नहीं सोचा था कि कभी झिल्ली और जुलू दोनों फूल से बच्चों को कफ़न ओढ़े चौकीदार के साथ इस तरीक़े से विदा करूँगी। आँसू थम ही नहीं रहे थे। सुदूर देहात से आए अबोध बच्चे स्नेहिल पिता को और अभागी पत्नी सौभाग्य खोकर ख़ाली हाथ लौट रही थी। आख़िर धूल उड़ाती गाड़ी आँखों से ओझल हो गई। मैं बिलकुल उसी जगह, उसी पेड़ के नीचे खड़ी थी जहाँ पर चौकीदार को पहली बार देखा था। उनके जाने के बाद अचानक पूरा घर वीरान हो गया। मैं बालकनी में बैठी उनके टूटे दरवाज़े में लगे ताले को भावशून्य निहारती रहती। कई बार सुबह उठकर लगता झिल्ली घर पर ही दूसरे कमरे में सो रही है। बाहर निकलूँगी तो रेत के ढेर पर बैठा चौकीदार हँसता हुआ कहेगा–आंटी झिल्ली को भेजना ज़रा। मुझे नहीं पता कि मुझे ज़्यादा रोना चौकीदार की अकाल मृत्यु पर था या झिल्ली से हमेशा के लिए अलग होने पर। कई बार ख़याल आता था कि अगर उस दिन हम शहर के बाहर होते तो इन तीनों को कौन संभालता या झिल्ली मुझे अपने बाफा की तबीयत के बारे में पहले बताती तो हम चौकीदार को हॉस्पिटल ले जाते। शायद वो आज ज़िंदा होता और सब कुछ पहले जैसा होता। लगने लगा कि मैं झिल्ली के बिना कैसे जी पाऊँगी। कभी-कभी ऐसा लगता कि झिल्ली अभी कमरे में कान्हा की शिकायत करती घुसेगी।
उनके गाँव जाने के बाद मैं फ़ोन पर लगातार झिल्ली और उसकी माँ के संपर्क में रही। चौकीदार की तेरहवीं में 20 हज़ार रुपये ख़र्च हुए। उस परिवार के लिए 20 हज़ार जुगाड़ने का अर्थ पहाड़ तोड़ना था। झिल्ली ने फ़ोन पर बताया–आंटी आपके दिए पैसे तो घर में 10 दिनों से जमा रिश्तेदारों को खिलाने और दसवें दिन की पूजापाठ में ही ख़त्म हो गए। चौकीदार ने मज़दूरी की बचत से झिल्ली की शादी के लिए किश्तों में कान के झुमके और पायल ख़रीदे थे। बेटी के लगन का शृंगार को बेचकर तेरहवीं का जुगाड़ हुआ। मुझसे मीलों दूर ओड़िसा के अनदेखे गाँव के अंजान कच्चे घर से डूबी-डूबी आवाज़ में झिल्ली ये सारी बातें मोबाइल पर सुनाकर रो रही थी–आंटी गाँव में तो हम लोग भूखे मर जाएँगे। यहाँ कुछ नहीं है इसलिए बाफा हमको लेकर शहर गए थे। अब हम लोग फिर से उसी अकाल वाले गाँव में वापस आ गए। आंटी अब हम लोग क्या करेंगे? मेरे और झिल्ली के मध्य चलते बेतार संवाद को मीलों दूर से भी संवेदनाओं की मज़बूत डोर ने बाँधा हुआ था। झिल्ली की लगातार हिचकियाँ सुन मैं अनवरत समझाती रही कि ख़ुद को अकेला न समझे। जब सारे मेहमान लौट जाएँ तो तेरहवीं के बाद शहर आ जाए। यहाँ अपने झोपड़े में न रहे बल्कि हमारे स्टाफ़ क्वाटर में आ जाए। मैंने झिल्ली को सुझाया कि झिल्ली की माँ अपने पुराने साईट पर पूर्ववत काम कर सकती है। चौकीदारिन को झिल्ली की शादी का पूरा ख़र्च उठाने का आश्वासन दिया। मुझे ज्ञात था कि मेरी बातों से उसके पति-वियोग का दुःख तो कम नहीं होता लेकिन मैं चाहती थी कि उसकी चिंता ज़रा-सी कम हो जाए बस। चौकीदारिन ने तेरहवीं में पूरे गाँव को भोजन कराने के लिए अपने छोटे से खेत को भी गिरवी रखा। ज़िंदा व्यक्ति की क़द्र मृत्यु के बाद कितनी बढ़ जाती है। इन तेरह दिनों में गहने बेचकर, खेत गिरवी रखकर जितना पैसा ख़र्च किया उसके आधे ख़र्च में हुए इलाज से चौकीदार आज जीवित रह सकता था। गाँव जाने के लगभग 20 दिनों बाद एक सुबह झिल्ली का फ़ोन आया–आंटी मैं कल 11 बजे की ट्रेन से अकेली आ रही हूँ। आप मुझे लेने स्टेशन आ जाना। गाँव का खेत माँ के नाम ट्रांसफ़र करने के लिए बाफा का मृत्यु प्रमाण पत्र शहर के हॉस्पिटल से ही बनेगा क्योंकि बाफा को उसी हॉस्पिटल से डिस्चार्ज किया था। झिल्ली मेरे साथ घर में फिर रहेगी सोच लंबे समय की उदासी के बाद मन ज़रा-सा खिल गया। उसके आने वाले दिन सुबह से ही घर में रौनक़-सी लगने लगी। फ़्रिज में ढेर सारी खाने की चीज़ें भर ली। झिल्ली को लेने वक़्त पर स्टेशन पहुँच गई। एक झोला टाँगे प्लेटफ़ार्म में दूर से आती झिल्ली बहुत कमज़ोर लग रही थी। मुझे देखते चुपचाप लिपट गई। बहुत दुःख झेलकर आई है मेरी बच्ची। हम दोनों की आँखों में पानी था। झिल्ली आज फिर उसी शहर में वापस थी। कान्हा स्कूल से आते ही घर में झिल्ली को देख उससे लिपट गया–झिल्ली तूने आने में ट्वेंटी डेज़ लगा दिए।
  भाईजान घर से मेहमान नहीं लौटे थे तो मैं कैसे आती?
इस बार गाँव से आई झिल्ली के व्यवहार में उदासी के साथ-साथ एक परिपक्वता और ठहराव आ चुका था। कान्हा ज़बरदस्ती उसका हाथ खींच-खींच गार्डन में बैडमिंटन खेलने ले गया। जब जुलू संग रहता था तब तीनों  बच्चे क्रिकेट खेलना ज़्यादा पसंद करते थे। झिल्ली बेमन से बैडमिंटन रैकेट पकड़ी गार्डन से अपने ताला लगे घर की तरफ़ ताकती रहती। उस घर की ओर जहाँ से महज़ 20 दिन पहले उसके बाफा मुस्कुराते हुए बाहर निकलते थे, उस घर से जहाँ चूल्हे में रखे बर्तनों से सोंधा-सोंधा धुआँ निकलता था, जहाँ एक कुनबा दिन भर की थकान के बाद भी साँझ ढले मिल-बैठकर हँसी-ठिठोली करता। इस घर के भीतर वे ख़ुशनुमा मंज़र अब कभी नहीं दिखेंगे। चौकीदार का मृत्यु प्रमाण-पत्र बनाने के लिए पोस्टमार्टम डिपार्टमेंट से उस तारीख़ को डिस्चार्ज किए गए शवों के नाम से झिल्ली के बाफा का नाम मिलान करवाना था। चौकीदार का पोस्टमार्टम किया गया था क्योंकि उसे हॉस्पिटल मृत अवस्था में लाया गया था। पोस्टमार्टम कार्यालय के रजिस्टर के नाम, चौकीदार के आधार कार्ड और झिल्ली के स्कूल सार्टिफ़िकेट में पिता के नामों का मिलानकर हमें यहाँ पावती मिली।  पोस्टमार्टम विभाग की सरकारी पावती को जन्म मृत्यु विभाग में जमा करने पर इस नाम के व्यक्ति के मृत होने की आधिकारिक घोषणा होती है। घर से 10 किलोमीटर दूर हॉस्पिटल और कार्यालय के छः या सात चक्कर लगाने पड़े। अनेक कारण–अभी तो बाबू लंच टाइम के लिए गए हैं, चार बजे के बाद मिलेंगे, अरे आप तो सवा चार को आ रहे है, अभी पाँच मिनिट पहले घर के लिए निकल गए। ऐसा करिये कल 11 बजे आ जाइए, अरे आज तो बाबू छुट्टी में है जी।  
एक मृत्यु प्रमाण-पत्र के लिए इतने चक्कर और घंटों का इंतज़ार कष्टप्रद था। रोज़-रोज़ इतनी दूर हॉस्पिटल आकर बिना काम हुए घर लौटने पर झिल्ली झेपते हुए खेद प्रकट करने लगती–आंटी मैंने यहाँ वाले चाचा को बोला कि चलो मेरे साथ हॉस्पिटल तो बोलते हैं कि अपनी आंटी को ही ले जा। वो पढ़ी-लिखी हैं। झिल्ली द्वारा दी जा रही इतनी सफ़ाई से मैं द्रवित हो गई। जन्म मृत्यु कार्यालय में एक बार फिर चौकीदार का आधार कार्ड खिड़की के छेद से आगे बढ़ाया। उस आधार कार्ड की तस्वीर में भी ग़रीब चौकीदार कितना प्रसन्नचित्त लग रहा था। कुछ दिनों पहले जिस आदमी को दिन रात मुस्कुराता देखती थी आज उसी का आधार कार्ड पकड़े तेज़ बारिश में दवाईयों और गंदगी की खटास से भरे सरकारी अस्पताल के गलियारे में उसका ही मृत्यु प्रमाण-पत्र बनाने इस टेबल से उस टेबल घूम रही थी। झिल्ली शर्मिंदा थी, हॉस्पिटल में मेरे साथ-साथ चलती सकुचाई-सी बोलती– आंटी मेरे कारण आपको रोज़-रोज़ इतनी दूर अपना काम छोड़कर आना पड़ रहा है। बाफा ऊपर से देखकर ख़ुश होते होंगे कि मेरी बेटी अकेली नहीं है। मेरी ख़ुशामद करती झिल्ली मुझे अच्छी नहीं लग रही थी। जब तक  इस शहर में घर के बाजू में ही उसका परिवार था तब उसमें ये दीनता नहीं थी। मेरे साथ पूरे अधिकार और निडरता से लड़ती थी और यही अपनापन मुझे उससे जोड़े हुए था। अबकि बार उसमें कृतज्ञता से उपजी दीनता आ गई थी। उसका इस तरीक़े से झुकना मेरी लिए बहुत पीड़ादायी था। आख़िरकार मृत्यु प्रमाण-पत्र पर सरकारी ठप्पा लगाकर खिड़की से बाहर निकले मेरे हाथ में दिया गया। प्रमाण पत्र पढ़कर अजीब लग रहा था। चौकीदार को इस काग़ज़ में मृत घोषित किया जा रहा है। झिल्ली ने झोले में प्रमाणपत्र डालते हुए इत्मीनान से कहा–चलो आंटी बहुत बड़ा काम हो गया। इसके बिना खेत माँ के नाम नहीं हो सकता था। माँ, जुलू या मैं कोई भी ये काम नहीं करवा सकते थे। चौकीदार की मृत्यु पर सरकारी मुहर लगवाने के लिए हफ़्तों की इतनी मशक्कत लगी कि मृत्यु प्रमाण पत्र से दुःख कम और उपलब्धि की संतुष्टि अधिक हो रही थी। ये हमारे सरकारी कार्यालयों की माया है कि वो परिजनों का दुःख कम करने इन अपरोक्ष विधियों से सहायता करते हैं। 
प्राणों से अधिक प्रिय व्यक्ति को खोने के बाद भी जीवित लोगों को सांसारिक व्यवस्थाएँ करनी ही होती हैं। अभी भी झिल्ली का एक दूसरा ज़रूरी काम करवाना बाक़ी था। इस अचानक हुए हादसे में चौकीदार और उसकी पत्नी की बक़ाया मज़दूरी के पैसे ठेकेदार के पास ही जमा रह गए थे। ठेकेदार से मिलने वाले 5000 रुपये की क़ीमत इस परिवार के लिए क्या मायने रखती है मुझे मालूम था। झिल्ली को गाँव से आकर मेरे पास रहते 15 दिन से ज़्यादा हो चुके थे। इस बीच वो रोज़ हमारे घर से गाँव में फ़ोन लगाकर माँ और जुलू से बात करती। मैं उसको समझाती–झिल्ली फ़ोन बिल का टेंशन न ले, फ़ोन अनलिमिटेड फ़्री है। घर पर देर तक बात कर लिया कर। वो माँ से फ़ोन पर उड़िया में घंटो बातें करती। बीच-बीच में गला रुंधने से देर तक मोबाइल पकड़े झिल्ली चुपचाप बैठी रहती। इस बीच झिल्ली को मैं शहर में जहाँ भी घुमाने ले गई वो कार में बैठी रास्ते भर लगातार बाफा (पापा) की बातें करती। रास्ते में एक मंदिर देखते ही ज़ोर से चिल्लाई–देखो आंटी, आंटी देखो वो वाला मंदिर। बाफा हमें साइकल में बैठाकर इस मंदिर में लाते थे। यहाँ गुरुवार को पूड़ी-खीर का प्रसाद मिलता है। आंटी अभी पीछे जो दुकान निकली न, बाफा राशन लेने इसी दुकान पर आते थे। ये दुकानदार बहुत अच्छा है। राशन उधार भी देता है। आंटी वो ठेला है न, इधर जुलू और मैं एक बार गुपचुप खाने आए थे। मैं ड्राइव करती हुई उसकी बातें सुनती रहती। भरे गले से कहती–आंटी कई बार लगता है कि कोई बुरा सपना बहुत लंबा चल रहा है। एक सुबह-सुबह सोकर उठूँगी तो बाफा चूल्हे के पास आग तापते माँ से बातें करते मिलेंगे। सब कुछ पहले-सा हो जाएगा। हम लोगों के साथ ही ऐसा क्यों हो गया आंटी? सब लोग तो ज़िंदा हैं आंटी। बाफा को ही यहाँ से जाना था। हम तीनों कैसे जिएँगे आंटी? हमारे साथ क्यों हुआ ऐसा? इस सवाल का जवाब मेरे पास था लेकिन दे नहीं सकती थीअगर तुम ग़रीब न होते तो तुम्हारे बाफा आज शायद ज़िंदा होते।
इस बीच एक दिन हम उसके झोपड़े का ताला खोलकर अंदर गए। दुर्घटना के बाद आनन-फानन में बंद हुआ किवाड़ आज पहली बार खुला था। मिट्टी का ये वही कच्चा कमरा था जिसकी दीवारों पर सात साल तक एक हँसते-खेलते परिवार की खिलखिलाहटें चिपकी हुई थीं। कुछ दिनों पहले इस कमरे को जिस अफ़रा-तफ़री में परिवार वाले छोड़ गए थे सब कुछ अनछुआ वैसा ही पड़ा था। टेड़े-मेढ़े बर्तन में भात सड़ के सूख चुका था। टोकरे में रखी कच्ची सब्ज़ियों की शक्ल पहचानना मुश्किल हो रहा था। घर वालों के मटमैले कपड़े रस्सी में टंगे थे। इन कपड़ों में उसके बाफा के पैंट-शर्ट भी थे या ये कहूँ कि मेरे ही पति के ख़ारिज कपड़े यहाँ फिर से नये बने लटक रहे थे। धूल-धूसरित कमरे में धूसर सड़ांध भरी थी। ख़ुशियों के इस खंडहर में झिल्ली को संभालना मुश्किल हो गया। पिता की मौत से उजाड़ हुए आशियाने में वापस आकर उसने फिर एक बार अपने जीवन भर के लिए हुई इस कमी को शिद्दत से महसूस किया। रोते-रोते एक ही वाक्य लगातार बोले जारही थी–देखो न हम लोगों के साथ क्या हो गया आंटी। हम लोगों ने तो कभी किसी का बुरा नहीं किया। 
इस झोपड़े में झिल्ली ने गाँव ले जा सकने वाले सामानों का अलग गट्ठर तैयार किया और फिर से ताला लगाकर मेरे साथ लौट आई। इस बीच मैं घर में लगातार झिल्ली को समझाती रही–आख़िर तू मेरे साथ सात सालों से रह रही थी। तेरी शादी होने तक मेरे पास ही ठहर जा। माँ और जुलू को यहाँ बुला ले। पहले भी गाँव में भूखों मरने के बाद ही तो तुम लोग शहर आए थे। अब वहाँ किसके सहारे रहोगे? हम और अंकल हमेशा तुम्हारे साथ हैं। मैं दिल से कह रही हूँ कि तुम और जुलू अब हमारी ज़िम्मेदारी हो। चार दिन गाँव में रहते हो तो वो दुर्गति होती है कि लौटने पर पहचानना मुश्किल होता है। ज़िंदगी वहाँ बिना काम, बिना पैसों के कैसे गुज़रेगी? वो सब कुछ उदास मन से शांत सुन रही थी। एक बार गले लग फिर से बहुत देर तक रोती रही और मुझे भी ग़म में डुबाती रही। इस उम्र में पूरे परिवार के अंधेरे भविष्य की चिंता ने झिल्ली को ख़ामोश कर दिया था। गाँव में कोई रोज़गार न होने के बावजूद चौकीदारिन बिना पति के शहर में रहने को तैयार न थी। सीधी-सादी ग्रामीण महिला पति के बिना भी अपने गाँव के सामाजिक घेरे में स्वयं को सुरक्षित महसूस करती थी। शहर में गाँव वाली सामाजिकता उसे कभी हासिल नहीं हो सकती थी। झिल्ली मेरे पास थी जुलू और उसकी माँ गाँव में। फ़ोन पर मैं चौकीदारिन को हौसला देती–शहर आ जाओ। यहाँ काम है। गाँव में नहर नहीं है। बारिश नहीं हुई तो क्या खाओगे? ओफ्फ्फो झिल्ली की माँ क्या बोल रही हो? गाँव के लोग शहर में अकेली रह रही बहू को लांछन लगाते हैं तो लगाने दो। क्या गाँव वाले तुम्हारे घर का राशन भरेंगे
झिल्ली को बक़ाया पैसे के लिए प्लॉट के ठेकेदार ने दो-तीन बार बैरंग लौटा दिया। अब की बार मैं बालकनी से लगातार ठेकेदार पर कड़ी नज़र जमाए थी। जल्द ही ठेकेदार को समझ आ चुका था कि मेरे रहते वह झिल्ली के पिता की मज़दूरी नहीं दबा पाएगा। एक-दो बार टालने के बाद उसने झिल्ली के हाथ में गिनकर 5000 रुपये रख दिए। साथ ही मेरी तरफ़ देख ऊँची आवाज़ में बोला–देख अब तेरा एक रुपये भी मेरी साइड नहीं बनता है। झिल्ली को कार में बिठाकर चौकीदारिन की मज़दूरी वाले दूसरे साईट में 3000 रुपये वसूलने गई। मैंने जानबूझ कर कार ऐसी जगह पार्क की जहाँ से ठेकेदार मुझे देख पाए। झिल्ली कार से उतर कर अकेले ही पैसे माँगने गई। दूर से मुझे समझ नहीं आ रहा था कि दोनों में क्या बातें हो रही हैं। थोड़ी देर बाद झिल्ली मज़दूरी के पैसे लेकर लौट आई। चौकीदार के मृत्यु प्रमाण पत्र और मज़दूरी का तमाम बक़ाया मिलने के बाद इस शहर से झिल्ली की ग़रज़ का आख़री संबंध भी समाप्त हो गया। झिल्ली के चाचा हमारे ही शहर में काफ़ी दूर एक घर में चौकीदारी करते थे। जिस दिन पूरे पैसे मिल गए उसी शाम मैं डायरी में कुछ लिख रही थी तभी झिल्ली ने कमरे में आकर अपने चाचा-चाची के पास एक दिन के लिए छोड़ने का आग्रह किया। एक दिन चाचा के यहाँ रहने जाने के पीछे झिल्ली के तर्क बड़े व्यवहारिक थे–आंटी  ये चाचा-चाची गाँव में भी हमारी मदद करते हैं। हम लोग खेत जोताई के लिए मज़दूर नहीं लगा सकते इसलिए मिलकर बारी-बारी से एक दूसरे का खेत जोतते हैं। चाचा बोलेंगे झिल्ली 15 दिन से यहाँ आंटी के घर पर है और एक दिन भी मिलने नहीं आई। चाचा कल गाँव जाने वाले हैं तो पैसे और मृत्यु प्रमाण पत्र भी माँ को पहुँचा देंगे।
झिल्ली के चाचा के घर निकलते वक़्त कान्हा झिल्ली की बाँहों में लटक गया–झिल्ली क्यों जा रही है? तेरे चाचा के साथ तो गाँव में भी रहती है। 
झिल्ली ने कान्हा को दुलारते हुए लपेट लिया–मेरे भाईजान। उनके घर पर एक दिन रुक कर तेरे पास वापस आ जाऊँगी। आंटी मेरे को छोड़कर आएगी तब तक तुम अपना हूमवार्क पूरा कर लो।
कान्हा ने झिल्ली को हँसते-हँसते बाय किया–झिल्ली मैं कुस्सी-टेबल में बैठकर अपना होमवार्क कर लूँगा। तू कल आ जाना फिर अपुन लोग मॉल जाएँगे…धिन्चाक…धिन्चाक। 
झिल्ली को चाचा के घर छोड़ने जाते वक़्त पता नहीं अचानक मुझे रास्ते में क्या सूझा। एक दुकान पर कार रोक उसे चार जोड़ी कपड़े ख़रीदवाए। असल में वो मुझे पटियाला सलवार पहने देख अक्सर कहती थी–आंटी पटियाला सलवार के साथ लंबी बाँह वाले कुरते बहुत सुंदर लगते हैं। इस बार दिवाली में आप मेरे लिए वही ख़रीदना। अब पिता की मृत्यु के बाद पहली दिवाली तो वो लोग नहीं मनाएँगे। वो उस उम्र में थी जहाँ लड़कियों को सुंदर कपड़े पहनना सबसे बड़ा शौक़ होता है। उसकी बुझी-बुझी आँखों को चमकता देखने के लिए सलवार क़मीज़ दिखाकर पूछा–देख झिल्ली कौन-सा अच्छा लग रहा है
_ आंटी आपके पास तो ये कलर है। लाल वाला ज़्यादा सुंदर है।
मैंने असल बात छिपाते हुए कहा–अरे मेरे लिए नहीं है। मेरी फ़्रेंड तेरे जितनी ही पतली है उसके लिए लेना है। अगर झिल्ली को बता देती कि ख़रीदारी उसके लिए कर रही हूँ तो वह मना करती इसलिए बिना बताए उसकी पसंद किए कपड़े काउन्टर में ले आई। रास्ते में बताया कि ये उसके लिए है–क्यों आंटी, क्यों इतना पैसा बर्बाद किए? कार चलाते हुए झिल्ली के दिशा-निर्देश पर उसके चाचा के घर की अनजान, कीचड़ भरी गलियों में मुड़ती गई।
झिल्ली तेरे चाचा तो बहुत दूर रहते हैं। तू इनके घर इतनी दूर कब आई थी?
आंटी बाफा साइकल में एक-दो बार लाए थे। आख़िरकार एक बड़े से निर्माणाधीन बंगले के सामने झिल्ली ने गाड़ी रुकवाई–बस आंटी यही, बस-बस। मेरे चाचा यहीं चौकीदारी करते हैं।
इस निर्माणधीन, वीरान, अंधेरे मकान के आगे रेत का ढेर, सीमेंट गारा मिलाने वाली कुछ मशीनें, लोहे की रॉड पड़ी थी। नए मकान में अभी बिजली फिटिंग नहीं हुई थी। मकान का ढाँचा पूरी तरह बन चुका था। बारिश और अंधकार में भीगी ये सुनसान जगह बहुत भयावह लग रही थी। झिल्ली की सुरक्षा को लेकर मैं बहुत सतर्क थी।
मैंने फ़िक्रमंदी से कहा–झिल्ली जब तक मैं चाचा-चाची को देख न लूँ तुझे यहाँ नहीं छोड़ूँगी।
कार रुकने की आवाज़ से इस बंगले के किनारे बने झोपड़े से कमर में छोटा बच्चा टाँगे, नाक के दोनों सिरों पर उड़िया नथ पहने, दुबली-पतली महिला बाहर निकली। झिल्ली को देखते ही बच्चा मचलता हुआ अपनी माँ की गोद से उतर झिल्ली की तरफ़ बाहें फैलाए दौड़ा। झिल्ली ने उसे गोद में लेकर मेरी तरफ़ पलटते हुए परिचय कराया–ये चाचा का बेटा। 
मैं आश्वास्त होकर लौटने लगी तो झिल्ली छोटे बच्चे को गोद में लिए हुए मुझे कार तक विदा करने आई।
मैंने सीट पर बैठकर, स्टेयरिंग थामे हुए पूछा–कल कितने बजे लेने आऊँ
इस पर वो बार-बार कहती रही–आप लेने मत आना मैं चाचा को छोड़ने के लिए बोल दूँगी।
लौटते हुए मैं सोचने लगी कि झिल्ली ने बार-बार क्यों कहा कि मैं उसे लेने न आऊँशायद उसे चाचा के घर एक दो दिन रुकने का मन है और संकोच में वो बता नहीं पा रही है। झिल्ली का बात-बात पर मेरी सुविधा का ख़याल करना शहर में विकल्पहीनता का परिणाम था या मेरे प्रति स्नेह ये समझना दुष्कर था। झिल्ली को चाचा के यहाँ छोड़कर घर में घुसते ही उसके बिना ख़ाली कमरे सूने और बहुत बड़े-बड़े लग रहे थे। पिछले पन्द्रह दिनों से मैं फिर से झिल्ली की उपस्थिति की अभ्यस्त हो चुकी थी। कई बार मुझे घोर आश्चर्य हुआ कि झिल्ली से बेहतर मेरी मनःस्थिति को कोई नहीं समझ पाया–आंटी आप अभी कविता लिखकर आ रहे हो न
मैं आश्चर्य में पड़ जाती–हाँ! पर तुझे कैसे मालूम हुआ?  
उसकी आवाज़ में नरमाई आ जाती–आप जब कुछ लिखकर आते हो तो आपकी आँखें पानी वाली और चेहरा लाल हो जाता है। ऐसा लगता है जैसे रोकर आए हो।
मैं ख़ुद हैरत में थी। अच्छा!  लिखते वक़्त मेरे साथ ऐसा होता है।
झिल्ली को चाचा के घर छोड़कर आए एक दिन बीत गया। 
दूसरे दिन सुबह से कान्हा कई बार पूछ चुका–मम्मा झिल्ली को लेने चलें। वो महारानी हम लोगों को मॉल के लिए लेट करवा देगी। 
बार-बार झिल्ली को लाने की ज़िद पर मैंने झुंझलाते हुए कहा–कान्हा मैंने बताया न बेटा उसके चाचा छोड़ देंगे साइकल से। झिल्ली ने मुझे लेने आने को मना किया है। उसके मना करने के बाद तो मैं अब नहीं जाऊँगी। उसको  हमारी याद आएगी तो फ़ोन कर लेगी।
कान्हा ने मुँह फुलाकर चेतावनी दी–उसके कारण हम माल के लिए लेट हो रहे हैं फिर आप गेमिंग ज़ोन से जल्दी लौटने नहीं बोलना। झिल्ली महारानी को तो चिंता ही नहीं रहती। आज इसको छोड़कर माल चलो मम्मा फिर मैं उसे चिढ़ाऊँगा। 
शाम तक हम माँ बेटा इंतज़ार करते रह गए लेकिन चाचा ने झिल्ली को घर पर लाकर नहीं छोड़ा। मैंने उसके पिता के मोबाइल नंबर पर फ़ोन लगाया, जो अब झिल्ली के पास था। मेरे मोबाइल पर ये नंबरझिल्लीज़ फ़ादरनाम से सुरक्षित था। लगातार कई बार फ़ोन किया मगर मोबाइल स्वीच ऑफ़ था। मैंने सोचा चाची ने आने नहीं दिया होगा। उसी शाम सात या आठ बजे गाँव से मेरे मोबाइल पर झिल्ली से बात करने जुलू का फ़ोन आया। मैंने जूलू को बताया कि वो तो चाचा के घर गई है। तुम उसके मोबाइल पर कॉल कर लो। 
जुलू की आवाज़ में बहुत अधीरता थी–नहीं ओनती (आंटी) उसका मोबाइल स्विच ऑफ़ बता रहा है। 
मैंने जुलू को आश्वस्त किया–आज आने का बोलकर गई थी। मैंने भी फ़ोन लगाया था लेकिन उसका फ़ोन स्विच ऑफ़ बता रहा है। शायद कल मेरे पास आ जाएगी।
जूलू ने थोड़ा दबाव बनाते हुए कहा–आंटी आप अपना मोबाइल लेकर चाचा के घर जाकर झिल्ली से बात करवाइए न।
रात 8 बज चुके थे। चाचा का घर शहर से काफ़ी दूर था। जुलू चाचा के घर साइकल चलाता हुआ जाता था इसलिए उसे इस दूरी का भी ज्ञान था। उस वक़्त तेज़ बारिश हो रही थी। मैंने जुलू को अगली सुबह बात करवा देने की बात कही। तेज़ बारिश हो रही है बताने के बावजूद जुलू लगातार झिल्ली से बात करवा दीजिए की रट लगाए था। जब से झिल्ली गाँव से आई थी मैं रोज़ एक घंटे फ़ोन पर उनकी बात करवा रही थी। झिल्ली कहीं संकोच में मुझे फ़ोन लगाने न बोल पाए यह सोच ख़ुद होकर बोलती–झिल्ली बेटा घर पर याद से फ़ोन कर लिया कर। मम्मी को बहुत अकेला लगता होगा बेटा। जुलू तो लड़का है। बाहर खेलने निकल जाता है। तू मेरे साथ है। माँ घर पर तेरे बाफा को याद करती अकेला महसूस करती होगी। 
झिल्ली जब चाचा के घर के लिए निकली उसके पाँच मिनिट पहले तक भी गाँव में बात हुई थी। उस एक दिन जब वो मेरे साथ नहीं थी 15 वर्षीय बित्ते भर के जुलू ने दबाव बनाते हुए बड़ी बात कह दी–ओन्ति कौन-सा आपको बारिश में भीगते हुए जाना है। कार में तो जाते हो ओंटी। चाचा के घर पर जाकर बात करवा दीजिए। बहुत ज़रूरी काम है।
उसके तेवर देख मेरा पारा गर्म हो गया। मैंने ग़ुस्से को नियंत्रित करते हुए  “देखती हूँ जा पाऊँगी या नहीं”  बोलकर फ़ोन रख दिया। फ़ोन डिस्कनेक्ट करने के बाद भी मन बहुत विचलित था। न जाने गाँव में इन ग़रीबों की ऐसी कौन-सी बात है जो झिल्ली को ही बताना है? जुलू की बेअदब ज़िद पर क्रोध भी आ रहा था। मुझे पता था कि अगर मैं फ़ोन पर उनकी बात नहीं करवा पाई तो उनसे ज़्यादा मैं परेशान रहूँगी। झक मारकर कड़कती बिजली और बादल तोड़ बारिश में गाड़ी बाहर कर उन्हीं अंधेरी गलियों में दुबारा गई। रात की तेज़ बारिश में कार के शीशे पर नाचते वाइपर भी अंधकार भरे बाहरी दृश्य को स्पष्टता देने में असफल हो रहे थे। रास्ते के कई मोड़ पर भ्रमित हुई, ठिठकी और आख़िरकार किसी तरह अपने गंतव्य स्थान पर पहुँची। चाचा के निर्माणाधीन भवन के सामने कार रोकते ही बारिश से बचने के लिए सिर पर हाथ रख उस झोपड़े तक दौड़ते हुए पहुँची। दरवाज़े परझिल्ली झिल्ली”  सुन झोपड़े के बौने दरवाज़े से एक मज़दूर बाहर निकला। हम दोनों ने एक दूसरे को अनुमान से पहचान लिया। 
चाचा ने आँखों में अचरज भर कर कहा– झिल्ली तो आपका घोर (घर) गया है।
 मुझे ताज्जुब हुआ कि इतनी दूर, रात के बरसते पानी में लड़की को अकेले पैदल कैसे भेज दिया?
 मैंने नाराज़ होकर पूछा–किस रास्ते से गई है? मुझे तो नहीं मिली। 
चाचा की आवाज़ में अब चिंता की झलक आ चुकी थी–अरे वो तो आज सुबह 6 बजे ही कान्हा के घर जा राहा हूँ बोल के निकुला है। 
मेरे पैरों तले ज़मीन खिसक गई। मैंने उन्हें बताया–झिल्ली तो मेरे घर पहुँची ही नहीं।
बातचीत सुनकर चाची भी जलता चूल्हा छोड़ बाहर आ गई। चाचा से पता चला कि झिल्ली सुबह अपने कपड़ों का बैग लेकर हमारे घर के लिए निकली थी। एक पल को मन काँप गया कि रास्ते में उसके साथ कहीं कोई अनहोनी न हो गई हो मगर झिल्ली की चाची ने मेरी शंकाओं को दूर कर दिया। झिल्ली ने चाची को बताया था कि कान्हा की मम्मी का फ़ोन आया है कि अगली गली में इंतज़ार कर रही है। अपने चाचा चाची को मेरे उस फ़ोन के बारे में कहा जो मैंने उसे किया ही नहीं था। तब समझ आया कि वो योजनाबद्ध तरीक़े से झूठ बोलकर चाचा के घर से निकली है। एक पल जड़वत खड़े रहने के बाद मैंने झिल्ली के चाचा को कहा–उसकी माँ को गाँव फ़ोन करके अभी कुछ मत कहना। झिल्ली मुझे बोलकर गई थी कि वो दो दिन आपके घर पर रहेगी और फिर मेरे पास लौट आएगी। झिल्ली के दिमाग़ में है कि आंटी सोचे कि वो चाचा के घर पर है और चाचा निश्चिंत रहे कि वो कान्हा के घर पर है। इस तरह वो दो दिन आराम से ग़ायब रह कर कल तक लौटने की योजना में है। वो कल सुबह तक मेरे घर पक्का आ जाएगी फिर उसकी ख़बर लेती हूँ। आप गाँव फ़ोन करके मत बताइए। उसकी माँ का रो-रो के बुरा हाल हो जाएगा। अभी पति की मौत के आँसू सूखे नहीं हैं। मेरे चुप होते ही झिल्ली की चाची ने अपने पति से धीमी आवाज़ में कहा–वो ई लोड़का के साथ भाग गया।
                            रास्ते भर ज़ेहन में हज़ारों सवाल…..जुलू ने झिल्ली से बात करवाने का इतना दबाव क्यों बनाया? क्या गाँव में ही इन्हें झिल्ली के ग़ायब होने के बाबत कोई भनक लग गई है और वो ख़बर की पुष्टि चाहता था? अब थोड़ी देर में फिर जुलू का फ़ोन आया तो मैं क्या जवाब दूँगी? झिल्ली अगर वापस नहीं लौटी तो उसकी माँ का क्या हाल होगा? झिल्ली हम सबको अंधेरे में रख किसी के साथ दो दिन बिताना चाहती थी? शहर में तो किसी से कोई जान-पहचान नहीं फिर किसके साथ गई? क्या कोई गाँव से हमारे शहर उससे मिलने आया है? फ़ोन पर घंटों उड़िया में जिससे बाते करती है वो उसकी माँ न होकर कोई और था? मैं घर पहुँचकर भी झिल्ली का नंबर लगातार लगाती रही। पूरी रात बिस्तर पर बैचेनी से करवट बदलते गुज़री। झिल्ली अभी इस वक़्त रात में किसके साथ होगी सोच-सोचकर ग़ुस्से में सर फटने लगा। जो मैं नहीं सोचना चाहती थी कल्पना में वो दृश्य बनने लगे। क्रोध और फ़िक्र के ज्वार चढ़ते ही जा रहे थे। आने दो सुबह ख़बर लूँगी इसकी। लम्पट लड़की कल मेरे पास सामान्य ढंग से इस तरह लौटेगी कि चाचा के घर से आ रही है। पहले तो मैं अंजान बन के पूछूँगी–अच्छा चाचा ने दो दिन रोक लिया तुझे। उसके हाँ कहते ही फिर अच्छी फटकार लगाउँगी–बेशर्म लड़की। बाफा को गए महीना नहीं भरा और तुझे मटरगश्ती सूझ रही है। माँ और भाई गाँव में सदमे से उबरे नहीं हैं और तू यहाँ आवारगी कर रही है। आधी रात जागते रहने के बाद फिर उसका मोबाइल ट्राई किया लेकिन उसे लताड़ने के मंसूबे धरे रह गए जब उसके फ़ोन केनाट रीचेबलका मैसेज गुजराती भाषा मेंनाट रीचेबलबताने लगा। मतलब अब वो यहाँ से बहुत बहुत दूर गुजरात पहुँच चुकी है। अब दिमाग़ फिर घूमने लगा। कहीं लड़की किसी ग़लत हाथ में तो नहीं पड़ गई? रात में जुलू ने झिल्ली से बात करने के लिए दुबारा फ़ोन नहीं किया था। इसका मतलब चाचा ने गाँव में जुलू और उसकी माँ को झिल्ली के गुमशुदगी के विषय में बता दिया था। हे भगवान! उन दोनों पर क्या बीत रही होगी? झिल्ली की वापसी की सारी संभावना समाप्त हो चुकी थी। वो हमारी दुनिया से मीलों दूर जा चुकी थी। मेरी आँखों के आगे दो दिन पहले का सारा घटनाक्रम एक चलचित्र-सा घूमने लगा। कल क्या इसलिए ही रसोई में झिल्ली ने कान्हा के पसंदीदा नमकीन बनाए–ले भाईजान तेरे लिए महीने भर का नमकीन इस डिब्बे में रख दी हूँ। बाज़ार की चीज़ें मत खाया कर भाई। पैसा भी जाता है और शरीर का नुस्कान होता है भाईजान। कल शाम जाने से पहले लॉन से एक गुलाब तोड़ मुझे दिया–मेरी प्यारी आंटी। 
मैंने कहा भी–अरे क्यों तोड़ दिया। फूल पेड़ पर ही अच्छे लगते हैं।
आओ न आंटी ये टेबल पकड़ने लगो। सोफे की जगह बदलकर जाऊँगी।
तेरे चाचा के घर जाने की ऐसी तैयारी कर रही है कि जैसे उधर से ही गाँव निकलना है तुझे। 
ओफ्फो झिल्ली कान्हा की बुक्स निकालकर ज़मीन पर क्यों फैला दी
आपको क्या करना है ? आप जाओ न यहाँ से। मैं भाईजान की आलमारी सज़ा रही हूँ।
फिर बिना मेरी तरफ़ पलटे किताबों के पिरामिड बनाती हुई बोली–आज भाईजान का कमरा जमाऊँगी। कितना बिखरा देता है। घर से जाते वक़्त सिर्फ़ झिल्ली जानती थी कि वो सदा के लिए जा रही है और हम अब कभी नहीं मिलेंगे। मेरा दिमाग़ झन्न कर रहा था। पूरा ग़ुस्सा कपूर बन गया और बिछोह तरल हो आँखों से टपकने लगा। कई बार लगा कि जैसे ये सब झूठ है। एक तनाव यह भी था कि इस शहर में झिल्ली मेरी ज़िम्मेदारी थी। मेरे घर से इस तरह ग़ायब हो जाने पर उसका परिवार आशंकाओं से ग्रस्त मुझे सवालों के घेरे में खड़ा करता।  क्या झिल्ली ने जानबूझकर भागने के लिए अपने चाचा का घर चुना ताकि उसके परिवार की तरफ़ से मुझे कोई परेशानी न हो? उस अभागी माँ से फ़ोन कर बात करने की हिम्मत नहीं पड़ रही थी जिसे अपने पति को खोए महीना भर हुआ था और अब बेटी अपने हाल पर छोड़ गई। मेरी रहस्यमय उदासी यशोदा और गार्डेन में काम करने वाली गीता के बीच सुगबुगाहट का विषय थी। झिल्ली का उन सब से बिना विदा लिए यू अचानक ग़ायब हो जाना उनको हज़म नहीं हो रहा था। यशोदा ने संशय भरी आवाज़ में पूछा–दीदी जी झिल्ली ने कल तो कहा था कि अपने चाचा के घर जाना है उसे। उधर के उधर कैसे निकल गई? न आपको बताया न मुझे। कम से कम आपको तो बताकर जाना चाहिए। पिछले 20 दिन से उसके काम करवाने आप कितनी दौड़ भाग किए। काम ख़त्म तो रिश्ता ख़त्म। पहले तो जब भी गाँव जाना होता था तो 15 दिन पहले से बताती थी। इस बार झूठ बोलकर गाँव जाने की क्या ज़रूरत पड़ गई।
झिल्ली को कोसने का यशोदा को अच्छा सुअवसर हाथ लगा था। वो अनपढ़ ज़रूर थी लेकिन चेहरे के मनोभाव का व्याकरण पढ़ना जानती थी। मेरे चेहरे पर अवसाद की ख़ामोशी बख़ूबी समझ रही थी। मुझे कुरेदने के फेर में कमरे में झाड़ू लगाती लगातार प्रश्न कर रही थी–झिल्ली अपना पूरा कपड़ा ले गई न दीदी? उसको मालूम था दीदी कि चाचा के घर से आपके घर नहीं लौटना है अब। कितना बुरा लग रहा है मुझे आपके लिए। ओड़िसा साइड दिन भर में दो ट्रेन जाती है। वो आपके घर से कितने बजे गई? लाओ फ़ोन लगाओ तो उसे मैं अच्छे से डाँटती हूँ। यशोदा की चालाकियाँ मेरी समझ में आ रही थीं। तो क्या यशोदा को भी झिल्ली के किसी प्रेम प्रकरण की भनक थी। 
बेटे ने स्कूल से लौटते ही आदेश सुनाया–मम्मा झिल्ली को उसके चाचा के घर से ले आओ। महारानी जी वहाँ ओड़िया में बातें करती बैठी होगी। ये नहीं कि घर आ जाओ, मेरा भाईजान वेट कर रहा होगा।
गाँव में फ़ोन लगाकर चौकीदारिन से बात करके ही मेरी बैचेनियों को आराम मिल सकता था मगर गाँव फ़ोन करने की मेरी हिम्मत ही नहीं हो रही थी और उस भाग्यहीन परिवार की सुधि भी लेनी थी। शाम होने पर बेवजह ही फिर उसके चाचा के घर के लिए निकली। सिर्फ़ यह जानने के लिए कि झिल्ली की माँ से उनकी क्या बात हुई? वहाँ जाकर पता चला कि गाँव का ही झिल्ली का हमउम्र लड़का अहमदाबाद में मज़दूरी करता है। झिल्ली उसके साथ ही चली गई। 
झिल्ली की चाची सर झुकाकर बोली–गाँव में भूखे मरने से लड़की डोर (डर) गया। उसका माँ के पास शादी करवाने पैसा भी थी नोई था न मैडम। वो बच्चा लोगोन को लेकर शहर में काम करने भी तो तोयार नहीं था। बाप ज़िंदा होता तो झिल्ली ये गंदा काम करने का हिम्मत नोई करता। उसका माँ तो रु रु के पागल हो रहा है। जुलू बहोत गाली दे रहा है बहन को। मिलेगा कहीं तो जान से ख़त्म कर दूँगा बोलता है।
ये कठोर बातें और कुछ भी नहीं थी सिवाय प्रलाप से मिलने वाली राहत, बातों की जुगाली और मन की भड़ास के। मैं ख़ाली मन और थके तन से लौट आई। घर के सन्नाटों में झिल्ली की अनुपस्थिति की झंकार गूँज रही थी। भाय-भाय करते कमरे में उसकी सजाई चीज़ें एक अपने की छुवन को याद कर रहे थे। चार दिन पहले मेरी ज़रीदार भारी साड़ियों को कीड़ों से बचाने की गोलियाँ डालते हुए उससे कहा था–झिल्ली ये सब साड़ियाँ तेरी शादी तक संभालकर रखनी है। दहेज में ले जाना सब। मन को बारहा समझाया–झिल्ली जा चुकी है। पिता की मृत्यु के बाद भी झिल्ली एक बार चली गई थी लेकिन उसमें फ़र्क़ था। मैं उसके जाने के बाद भी फ़ोन से रोज़ाना संपर्क में थी। इस बार वो हम सबको छोड़कर गई थी, धोखा देकर गई थी। जब मेरी व्याकुलता का ये हाल है तो गाँव में माँ बेटे पर क्या बीत रही होगी
साहस बटोर एक सप्ताह बाद गाँव के नंबर पर फ़ोन लगाया। मेरी आवाज़ सुनते ही झिल्ली की माँ की हिचकियाँ बंद ही नहीं हो रही थी। फ़ोन पर आज वो दो महिलाएँ थी जिनसे झिल्ली अपने जीवन में सबसे ज़्यादा जुड़ी थी। झिल्ली की माँ से फ़ोन पर हुई लंबी बातचीत का जो सार निकला वो कुछ इस तरह था कि झिल्ली और वो लड़का फ़ोन पर लगातार संपर्क में थे। वो लड़का अहमदाबाद से जब-जब गाँव आता था झिल्ली भी उसी तय समय पर गाँव जाती थी। झिल्ली की माँ ने रोते हुए बताया कि गाँव वालों के अपमान के डर से वह तालाब में नहाने भी नहीं जा रही थी। पिछले 6 दिनों से अपने एक कमरे के घर के दरवाज़े तक भी न निकली। 15 साल का जुलू अकेले झिल्ली द्वारा किए जाने वाले सारे घरेलू काम जैसे; पानी भरना, तालाब में कपड़े धोना, गोबर लीपना, चूल्हे पर खाना पकाने के साथ साथ बीमार चौकीदारिन की देखभाल भी कर रहा था। सुबह जल्दी उठकर दोपहर 11 बजे तक सारे काम ख़त्म कर साइकल से दूसरे गाँव स्कूल जाता था। झिल्ली इस साल 18 साल की हो चुकी थी इसलिए क़ानूनी केस नहीं बन सकता था। मैं झिल्ली की माँ को क्या बोल संवेदना जताऊँ समझ नहीं आ रहा था। जुलू सब संभाल लेगा, चिंता मत करो झिल्ली की मम्मी। जाने दो झिल्ली के सुख में ही ख़ुशी है। आख़िर आपको उसकी शादी की चिंता थी न? बोल रहे थे न बिना बाप की लड़की से कौन शादी करेगा? उसके सामने ही बोलते थे न आप कि जिसका बाप नहीं उस लड़की के रिश्ते में मुश्किल आती है। आप ये सोच लो कि झिल्ली उस लड़के के साथ ख़ुश तो रहेगी। 
झिल्ली की माँ लगातार रोती जाती–मैं बड़ी बेटी के ससुराल वालों को क्या मुँह दिखाऊँगी। झिल्ली को अपने पापा के मरने का इंतज़ार था क्या आंटी? झिल्ली के चाचा लूग (लोग) और जुलू उस लड़के के माँ बाप से ख़ूब लड़कर आए हैं। मेरा आदमी ख़त्म हो गया, लड़की भाग गया तब भी हमको मौत नहीं आती आंटी। जुलू खेलने के उम्र में घर संभाल रहा है।
अनवरत हिचकियों की बीच चौकीदारिन ने बताया कि उस लड़के का घर गाँव में झिल्ली के घर के ठीक सामने ही था। झिल्ली के घर छोड़कर जाने के बाद दोनों परिवारों में हुआ झगड़ा बेहद तनावपूर्ण और ख़ौफ़नाक था। 16 साल के जूलू और झिल्ली के चाचा की उस लड़के के परिवार वालों से हाथा पाई हुई। झिल्ली की माँ कभी रोती कभी घटनाओं का ब्योरा देती–आंटी जुलू को मार तो नहीं डालेगा वो लोग। गाँव में सूखा पड़ा तो हमारा भी आदमी फाँसी मत लगा ले बोलकर कमाने शहर गया। उधर भी जाकर आख़िर मरा न आंटी। ग़रीब को बिना मौत मरना ही है। आज जुलू का बाफा ज़िंदा होता तो झिल्ली हमारा नाक नहीं कटवा पाती आंटी। ओंटी अब हम लोगोन को भी मर जाना चाहिए। जुलू अकेला कैसे खेती संभालेगा? बिन बाप का मेरा बच्चा कहाँ जाएगा आंटी। मुझे अजीब लग रहा था कि झिल्ली अब हम में से किसी के जीवन में नहीं थी। जुलू को यक़ीन था कि वो आवारा लड़का झिल्ली को धोखा देगा और हताश झिल्ली सहायता के लिए मेरे पास ही लौटेगी। उसने अपनी माँ के हाथ से फ़ोन ले उत्तेजना में मुझसे कहा–ओंटी (आंटी ) आप झिल्ली को घर में घुसने मत देना। आएगा तो चप्पल से ख़ूब पिटाई करना।
अपमान व धोखे से उपजी पीड़ा और आक्रोश को मैं समझ रही थी। झिल्ली बालिग़ हो चुकी थी। अपने जीवन के फ़ैसले लेने का उसे क़ानूनी अधिकार था। शादी करना कोई गुनाह नहीं है। ये सारे तर्क दिमाग़ समझता है लेकिन दिल रिश्तों में दग़ा को बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था। झिल्ली के नज़रिये से देखने पर समझ आता है कि हम में से किसी को भी अगर भनक होती तो शायद हम सभी उसके इस फ़ैसले का विरोध करते। मैं शायद उसे परिवार को विश्वास में लेने की सलाह देती और शायद उसके परिवार को सूचित कर देती या स्वयं उन्हें इस शादी के लिए राज़ी करने की कोशिश करती। ये सब मेरी शहरी बुद्धि के तर्क थे। झिल्ली को भान था कि गाँव में समगोत्री शादी के लिए परिवार को सहमत करना असंभव है। यशोदा के लिए अब झिल्ली की अनुपस्थिति और मेरी मायूसी पर से रहस्य के बादल पूरी तरह छँट गए। हमारे शहर में ही रह रही झिल्ली की चाची और यशोदा की किसी उड़िया परिवार में नवजात के छठी के कार्यक्रम में मुलाक़ात हो गई। यशोदा ने अपनी पुलक को नियंत्रण में रखते हुए मुझसे शिकायत की–क्या दीदी झिल्ली किसी लड़के के साथ भाग गई बता देते तो मैं उसको बदनाम करती क्या? आपको मुझ पर भरोसा नहीं था?
झिल्ली के लिएभाग गईजैसा सस्ता शब्द बहुत बुरा लगा। ख़ून का घूँट पीकर चुप रहने का वक़्त था। यशोदा को आज वो अवसर मिला जब मुझसे सहानुभूति की आड़ में वो खुलकर अपनी भड़ास निकाल सकती थी–ऐसा नहीं करना था दीदी उसको। आप लोगों को कितना भरोसा था उस पर। बेटी जैसे रखे थे। एक पल को ख़याल नहीं आया। मेरी आंटी, मेरी आंटी… करती थी, दिखा दी न अपनी औक़ात। आपके घर जैसा पहनना-ओढ़ना, खाना-पीना तो नहीं मिलने वाला। आपको उस पर विश्वास नहीं करना था दीदी। आपके घर से कुछ चोरी तो नहीं कर के भागी? अब मेरा धैर्य जवाब दे चुका था–यशोदा वो चली गई इसका मतलब यह नहीं कि वो चोर है। जाने के पहले वो घर के कोने-कोने को सजाकर गई। मुझे बताकर जाती तो क्या मैं जाने देती उसे? यशोदा को निंदा रस का सुख न मिला। धीरे-धीरे दिनचर्या झिल्ली के बिना पटरी पर आना सीख रही थी। कितनी बार लगता था कि अभी कमरे में मटकती घुसेगी किसी नए ख़ुलासे के साथ। कई बार आभास हुआ जैसे बाजू वाले कमरे में टीवी देख रही है या नीचे कान्हा के साथ खेल रही है। कान्हा को किसी तरह समझाया कि उसके स्कूल से फ़ोन आया था इसलिए उसे  बिना मिले ही जाना पड़ा। 
    
15 या 20 दिनों बाद गाँव से जुलू का फ़ोन आया–उन्ती (आंटी) मेरी साइकल आप लोगोन के घर पर है नमैंने उसके पिता की साइकल हिफ़ाज़त से पीछे के आँगन में रखवा दी थी। मुझे उस परिवार के लिए एक साइकल की क़ीमत पता थी। शहर में एक पुरानी साइकल तलाशने में उसके पिता को चार माह लगे थे। जुलू को साइकल गाँव ले जाना था। मैंने फ़ोन पर जुलू से पूछा–पैसों की ज़रूरत हो तो मैं चाचा के हाथ भिजवा दूँ? जुलू ने कहा कि वो सप्ताह भर के भीतर ही शहर मेरे पास पैसे और साइकल लेने आएगा। जुलू से पता चला कि चौकीदारिन ने रो-रोकर तबीयत ख़राब कर ली है। झिल्ली के जाने के बाद चौकीदारिन दो बार टिटलागढ़ के अस्पताल में भर्ती भी हुई थी। चौकीदारिन पहले से ही शरीर और मन से बहुत कमज़ोर औरत थी उस पर हादसों ने उसे भावनात्मक और शारीरिक रूप से तोड़कर रख दिया था। जुलू ने फ़ोन माँ को पकड़ा दिया–आंटी कान्हा के पापा झिल्ली के लिए क्या बोलते हैं? हमको तो बहुत शर्म आता है। आप लोग अपने बच्चे से बढ़कर रखे। आप लोगों को भी धोका देकर भाग गया। चौकीदारिन बातें कम करती और रोती ज़्यादा थी। माँ बेटे दयनीय और कठिन परिस्थितियों में मज़बूती से एक दूसरे का सहारा बने हुए थे।घोर निराशा के दौर में आत्मीय संबंध और गहरे हो जाते है। जुलू और मेरी फ़ोन पर अब जिस निकटता से बात हो रही थी ऐसे पहले कभी न हुई थी। इतना छोटा-सा जूलू आज एक मुखिया कि तरह घर के निर्णय लेने पर मजबूर था और मुझसे बात कर शायद एक अभिभावाक या हितैषी की कमी को पूरा कर रहा था। मैं मन में ठान चुकी थी कि इस बार जुलू का एकाउंट खुलवाकर कम से कम उसके 18 साल होने तक हर माह कुछ पैसा ऑनलाइन भिजवाया करूँगी।
जुलू कान्हा से पाँच साल बड़ा था लेकिन ग़रीबी में पला बच्चा डील-डौल में कान्हा से साल दो साल ही ज़्यादा लगता। हमारे घर से सारी पुरानी टी शर्ट्स उठा ले जाता। वैसे भी दरिद्रता कपड़ों के M, XL या XXL साइज़ नहीं जानती। मुझे याद है कि दिवाली से पहले मैंने जुलू से पूछा–तुम्हें दिवाली गिफ़्ट क्या चाहिए जुलू? आशा थी कि कपड़े, पटाख़े या कोई खिलौने वाली गन ही माँगेगा। जुलू ने मच्छरदानी माँगी। उसके जवाब से मैं बहुत देर तक ख़ामोश सोचती रहीक्या कान्हा कभी दिवाली उपहार में मच्छरदानी माँग सकता है?” एक बार  बातों-बातों में झिल्ली ने बताया कि साइकल से दूसरे गाँव स्कूल जाते वक़्त बारिश में दोनों बच्चे भीग जाते हैं। झिल्ली से यह जानने के बाद मैंने चौकीदार के हाथ रेनकोट भिजवाया था। गाँव से जुलू का चहकता फ़ोन आया–ओंती (आंटी) गाँव का सोब लुरका (लड़का) लोग मेरे से जलने लगा है। रेनकोट पहर के जाता हूँ न। 
इस उम्र में इन बच्चों को ज़िंदगी से एक बड़ी सीख मिल रही थी कि शौक़ से बड़ी ज़रूरतें हैं, खिलौनों से क़ीमती रोटियाँ हैं। मैंने ग़ौर किया कि झिल्ली के जाने के बाद जुलू की बातचीत और लहजे में एक ठहराव आ गया है। बीमार माँ की लाचारी देख इस किशोर बच्चे ने अपना दायित्व भली-भाँति समझ लिया था। उम्मीद कर रही थी कि जीवन से इतने कठोर अनुभव लेने के बाद जवान होता जुलू माँ को परिपक्वता से संभालने में समर्थ हो जाएगा। बीमार चौकीदारिन भी एक मात्र आधार जुलू में साँस की डोर फाँसे शापित ज़िंदगी घसीट रही थी। 
उस दिन मैं कहीं बाहर निकलने की तैयारी में ज़रा हड़बड़ी से तैयार हो रही थी। तभी मेरे मोबाइल पर झिल्ली के गाँव वाले मोबाइल नंबर से घंटी बजने लगी। स्क्रीन परझिल्ली ओड़िसालिखा दिखने लगा। मुझे लगा आज जुलू गाँव से मेरे पास आने के लिए निकल रहा है। ट्रेन का समय बताने के लिए फ़ोन लगाया होगा। फ़ोन उठाने पर दूसरी तरफ़ एक लड़की की आवाज़ थी। उसने अपना परिचय झिल्ली की बड़ी बहन के रूप में दिया–आंटी मैं गाँव से झिल्ली का बड़ी बहन बोल रही हूँ। जुलू रोड एक्सीडेंट में ख़त्म हो गया। कब? कैसे? मैं इतनी ज़ोर से चिल्लाई कि बेटा दूसरे कमरे से दौड़ा आया। जुलू माँ को दोपहर का खाना और दवा देकर परीक्षा देने स्कूल के लिए निकला था। दूसरे गाँव जाते हुए हाई वे पर पीछे से टेम्पो ने जुलू को ठोकर मार दी। मस्तक के ऊपर से पूरा गाड़ी निकल गया। चेहरा भी नहीं बचा आनती और जुलू सोड़क पर ही शांत हो गया आनती। उसके बाद वो लड़की रोती हुई और भी कुछ-कुछ बोल रही थी। मेरे दिमाग़ में जैसे हज़ारों हथौड़े चल रहे थे, कलेजा मुँह को आ गया, पूरा शरीर थरथराने लगा, धड़कन इतनी तेज़ जैसे हृदय फट जाएगा, जाँघों पर चीटियाँ-सी रेंगने लगी, आँखों के आगे अंधेरा लगने लगा, ईश्वर से विश्वास उठ गया। माँ का अपने बच्चे का क्षत-विक्षत शव देखने के बाद क्या हाल हुआ होगा सोच कर आत्मा काँप गई। जुलू का मुस्कुराता चेहरा आँखों के आगे झूलने लगा। सपनीली, हल्की भूरी आँखों वाला जुलू चौकों और छक्कों पर चीखता, बैडमिंटन की कॉर्क मारने के लिए पूरी ताक़त से ओठों की भींचकर उछलता। बैटिंग की ज़िद पर अड़कर बॉल लॉन में फेंककर बाहर निकल जाता, सामने सड़क पर एक हाथ छोड़कर साईकल चलाता, माँ को डराता। मैं बुत बनी फ़ोन पकड़कर खड़ी थी। झिल्ली की बहन ने रोते-रोते कहा–माँ बोली की झिल्ली की औनती (आंटी) को फ़ोन कर बता दे। उस अनदेखी लड़की के रुदन ने मेरी आँखों से आसूँओं की झड़ी लगा दी। 
मेरी हिम्मत नहीं पड़ी की चौकीदारिन से बात करूँ। अपने ख़ून से सींचकर नन्हें से बच्चे को पल-पल बढ़ता देखने का एहसास एक माँ ही जानती है। स्तनपान कराते समय शिशु और माँ की आँखों का मूक संवाद दुनिया का सबसे अधिक आत्मिक, संवेदनात्मक और स्नेहिल वार्तालाप है। बच्चे को साल दर साल बढ़ते देखना, आलिंगन में भींच लेना, उसकी शरारतों को आँखों में भरना कितना सुखद है। एक धम्म की आवाज़ से भयभीत माँ किस आशंका से दौड़ती है ये हर जननी समझती है लेकिन अपने बच्चे की सुरक्षा से जुड़ी उस अशुभ संभावना को मुँह से नहीं बोलती। आज जुलू ने अपनी माँ को किसी भी अनहोनी के भय से निरापद कर दिया। मुझे नहीं पता कि चौकीदारिन के शरीर में प्रलाप की शक्ति भी थी या नहीं। मैंने झिल्ली की विवाहिता बहन से पूछा–माँ कैसी है? उसने जानकारी दी कि जब से जुलू गया आज चार दिन हो गए अन्न का एक दाना उसके मुँह में नहीं गया। 24 घंटो में से 20 घंटे बेसुध है। मैंने चौकीदारिन से बात नहीं क्योंकि मेरे पास वो शब्द नहीं थे जिसमें मैं उसे संवेदना जता पाऊँ। मैं सिर्फ़ उसको रोटी, कपड़ा और मकान दे सकती थी लेकिन उसका खोया संसार नहीं। झिल्ली की कही एक बात याद आने लगी–आंटी मेरे पापा क्यों मरे क्योंकि हमारे पास दवाई ख़रीदने को पैसा नहीं था। अगर हम लोगों की खेती ठीक-ठाक हो रही होती तो हम लोग उधर ही रहते। गाँव में 12 तक स्कूल होता तो गाँव की कई लड़कियों की पढ़ाई न छूटती। आज लग रहा है कि गाँव में 12 तक स्कूल होता तो जुलू को हाई वे पर साइकल चलाते दूसरे गाँव नहीं जाना पड़ता और वो भी जीवित होता। इन दुर्घटनाओं का एक तर्क यह हो सकता है कि जिसकी मृत्यु जब लिखी है तब होकर ही रहेगी लेकिन मैं भी इतना जानती हूँ कि एक ग़रीब ही दवा के अभाव में मरता है और एक निर्धन के ही कलेजे का टुकड़ा कई किलोमीटर दूर हाइवे में साइकल चलाता हुआ स्कूल जाता है। ग़रीबों को सर के ऊपर लटकती तलवारों के नीचे ही तमाम उम्र गुज़ारनी है।
मुझे मालूम है कि झिल्ली कितनी भी परेशानी में हो लेकिन शर्मिंदगी की वजह से मेरे पास वापस लौटकर नहीं आएगी। इसी ज़मीं पर रहते हुए मैं अब ज़िंदगी में कभी झिल्ली से नहीं मिल पाऊँगी और जुलू ने तो सारी संभावना ही ख़त्म कर दी। ईश्वर एक बच्चे के साथ इतना क्रूर कैसे हो सकता है? भगवान एक विधवा के साथ इतना निर्दयी कैसे हो सकता है? कान्हा अकेले बैठ दीवार के सहारे टिकी जुलू की साइकल के पैडल हाथ से घूमाता रहता है।

1 टिप्पणी

  1. मधु जी की सुन्दर और भावपूर्ण रचना.. इस मन्च पर दुबारा पढ़ कर बहुत अच्छा लगा..!!

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.