सुभाष पाठक ‘ज़िया’ की ग़ज़लें
छोड़ो कि टूटकर वो सितारा किधर गया
दरिया छलक छलक के समन्दर के सामने
दिल को बुरा न कहिये कि धड़के है बार बार
तेरी निगाह फेर ने की देर है फ़क़त
दामन बचा न पाया जो तितली का ख़ार से
इतना यक़ीन था मेरे ईमान पर उसे
माथे को उसने चूम लिया कुछ कहे बग़ैर
किस हँसी पर हारिये दिल किन ग़मों पर रोइये
छेड़कर बातें पुरानी फेरकर मुँह बैठे हो
बह रही है देखिए गंगा हमारी आँख से
जब अंधेरे में नहीं कोई हमारे साथ तो
देखना है देखिये हरइक नज़ारा शौक़ से
ख़्वाब की इस फ़स्ल में होगा इज़ाफ़ा और भी
बाद मुद्दत के मिले हो ऐ ‘ज़िया’ साहब अगर
ख़्वाहिशों को हसरतों को तिश्नगी को मार के
दिल मेरा उम्मीद से क्यूँकर बँधा है क्या पता
हमने कब चाहा कि देखें पाँव तेरे नाज़नीं
कुछ दिनों से फूल अक्सर चुभ रहा है आँख में
है अगर मुमकिन तो फिर आकर मिलो बुधवार को
अपने ही हाथों से सर पे छाँव कर ली धूप में
वो ‘ज़िया’ है उससे मिलकर तुम ज़िया ही पाओगे
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