वह लम्बे-लम्बे कदम रखता हुआ ‘नई दिल्ली रेलवे स्टेशन’ की ओर बढ़ रहा था। उसकी चाल देखने से लग रहा था, वह बहुत जल्दी में है। लगभग दौड़ने जैसी चाल चलने से वह कुछ-कुछ हाँफ भी रहा था।
इतनी भाग-दौड़ करते हुए, स्टेशन पर पहुँचते ही उसे ज्ञात हुआ; ‘नई दिल्ली-अमृतसर वाया मेरठ-सहारनपुर सुपरफास्ट ट्रेन’ स्टेशन से छूट चुकी है। अब कितना भी प्रयास करने पर, वह उस तक नहीं पहुँच सकता। बिना टिकिट लिए प्रयास करने पर भी, कम से कम पाँच मिनट तो प्लेटफार्म नंबर सात तक पहुँचने में ही लग जाएँगे। दिल्ली जैसे अत्यधिक भीड़ वाले स्टेशन पर, टिकिट के लिए तो कम से कम आधा घंटा लाइन में लगना पड़ेगा। वैसे भी अब ट्रेन स्टेशन क्रॉस कर चुकी है, इसलिए इतनी भाग-दौड़ करना व्यर्थ हो गया।
उसे थोड़ा दु:ख हुआ। एक बेंच पर बैठकर, उसने माथे पर दाहिने हाथ की अँगुलियाँ रखकर कुछ सोचा। फिर एकाएक मोबाइल का इंटरनेट ऑन कर, दिल्ली से सहारनपुर की ओर प्रस्थान करने वाली ट्रेन खोजने लगा। कई वैबसाइटस् और एप्स पर कुछ मिनट माथापच्ची करने के बाद उसे ज्ञात हुआ, “देवबंद के लिए दूसरी ट्रेन तीन घंटे बाद है। लेकिन वह पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन से चलेगी।”
प्रसन्न होकर, वह तुरंत हाथ से मस्तक ठोक-ठोक कर कुछ योजना सी बनाते हुए सोचने लगा। जब उसे विश्वास हो गया कि पूरा प्लान तैयार है, तब उसने बैग कंधे पर लादा और घूमता-फिरता ‘पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन’ की ओर चल दिया।
उसकी योजना थी, रास्ते में बहुत सी बुक स्टाल मिलेंगी। अच्छी पुस्तकें खरीदूँगा। ठेली स्टालों पर भी सआदत हसन मंटो, इस्मत चुगताई, गोर्की, चेखव, लियो तोलस्तोय जैसे कथाकारों की पुस्तकें उचित दामों पर मिल जाया करती हैं। उसे इरोटिक-साहित्यिक पुस्तकों की अधिक तलाश थी। इसलिए उसने ऐसे लेखकों की सूची भी बना रखी थी, जिनकी रचनाओं पर विवाद रहे हों। वह उनकी रचनाएँ पढ़ने को उत्सुक था। ‘लोलिता, लेडी चैटरली’ज लवर, फिफ्टी शेड्स ऑफ ग्रे’ जैसी पुस्तकें पढ़ने के बाद उसके अंदर यह जिज्ञासा उत्पन्न हुई थी।
मीना बाजार और चाँदनी चौक से भी कुछ मनपसंद सामान मिल जाएगा। लाल किले पर तो ठेली-रेहड़ी वालों और सामान से लदे पैदल विक्रेताओं से भी लाजवाब आइटम मिल जाया करते हैं। यदि पसंदीदा सामान ठीक-ठीक दामों पर मिल गया तो संजोकर रखने की यादगार वस्तु बन जाएगा। वक्त ज़रूरत पर सामान काम भी आता रहेगा।
इस तरह की योजना मस्तिष्क में फिक्स करके उसने कोई रिक्शा-ऑटो आदि लेने का विचार त्याग दिया। रोमॅन्टिक गीतों की धुन गुनगुनाता हुआ, वह ‘दिल्ली रेलवे स्टेशन’ की ओर बढ़ने लगा।
यूँ तो विभिन्न प्रतिस्पर्धात्मक परीक्षाएं देने और दिल्ली के विभिन्न विश्वविद्यालयों में प्रवेश के सिलसिले में वह कई बार दिल्ली आ-जा चुका था। सुपर-डीलक्स बसों और मेट्रो में बैठ कर भी उसने दिल्ली के कई ऐतिहासिक स्थलों पर घूमने का आनंद उठाया था। जब भी वह कंपटीशन फेस करने दिल्ली आया उसने स्टेशनों पर रातें बिताई थी और पैदल घूम कर ही एग्जाम सेंटर खोजे थे। इस मामले में गूगल मैप ने उसकी काफी सहायता की थी। फिर भी एक अजनबी के लिए दिल्ली की गुच्छेदार सड़कों को याद रख पाना बिल्कुल आसान नहीं था।
दिशाभ्रम के कारण, वह चौराहों पर अक्सर रास्ता भूल जाता था। क्योंकि उसे दिल्ली के सभी चौराहे एक जैसे दिखते थे। अतः रास्ता भटकने में देर न लगती। इसलिए वह सावधानी से स्टेशन की ओर बढ़ रहा था। जब कहीं रास्ता भटकता या भूलता तो किसी से भी निसंकोच पूछ लेता, “एक्सक्यूज मी सर, पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन की ओर कौन सा रास्ता जाएगा?” कुछ संकेत मिलने पर तुरंत गंतव्य मार्ग की ओर बढ़ने लगता। दिशाभ्रम होने पर उसे दो-तीन टुक-टुक चालकों और ठेली-रेहड़ी वालों से भी रास्ता पूछना पड़ा।
जनवरी माह का प्रथम सप्ताह चल रहा था। आज संयोग से अच्छी धूप खिली हुई थी। जबकि अकसर इस माह दिल्ली में कड़ाके की सर्दी रहती है। उस दिन का मादक मौसम सोई उमंगों को जगाने वाला और दबी भावनाओं के तार झनझना देने वाला हो रहा था। सड़कों पर लोग अपनी व्यस्तता का आभास कराते दिख रहे थे। कंपकपाती सर्दी से निजात दिलाने वाली धूप, आज पूरे एक सप्ताह के बाद निकली थी। कोहरे का सीना चीर कर सूर्यदेव ने अपने दर्शन कराए थे। इसलिए लोग काफी प्रसन्न दिख रहे थे।
वह दिल्ली की चकाचौंध देखता, इधर-उधर चिपके विज्ञापनों-होर्डिंग आदि पर दृष्टि डालता हुआ, मस्ती भरे अंदाज में चल रहा था। कभी-कभी विज्ञापनों की चुटीली भाषा पढ़कर, वह स्वयं ही ज़ोर से ठहाका लगाकर हँसने भी लगता।
जब वह मदमस्त हाथी के समान झूमता हुआ चल रहा था, तभी किसी ने शीघ्रता से पीछे-पीछे आकर उसके साथ कदम से कदम मिलाना आरंभ कर दिया। कुछ दूर चलते ही एक अजनबी परछाई के समान उससे चिपककर बोला, “स्टेशन जा रहे हो?”
उसने अजनबी के प्रश्न को अनसुना करते हुए, सड़कों के किनारे लगे विज्ञापनों और होर्डिंग पर फिर से अपनी दृष्टि डालना आरंभ कर दिया। क्योंकि वह उनका अवलोकन करने में काफी तल्लीन था। उसकी ओर से स्वयं को उपेक्षित और अनदेखा समझकर अजनबी ने अपना प्रश्न पुनः दोहराया, “स्टेशन जा रहे हो क्या?”
उसे एकाएक एहसास हुआ, शायद वह अजनबी उसका काफी दूर से पीछा करता आ रहा था। इसलिए संदेह होने पर वह सावधान होकर और शीघ्रता से चलने लगा। प्रतिछाया बने उस अजनबी ने छिपकली के समान उससे चिपकते हुए, अपने प्रश्न की फिर से पुनरावृत्ति की, “स्टेशन जा रहे हो क्या? कहाँ जाना है? ट्रेन कितने बजे की है?”
उसने स्वर में तीक्ष्णता लाते हुए तुनककर जवाब दिया, “तुमसे मतलब, अपना रास्ता नापो। मुझे जहाँ जाना है, चला जाऊँगा। तुम इतनी जाँच-पड़ताल क्यों कर रहे हो?”
उसके इस अभद्र व्यवहार से अजनबी थोड़ा अलग हट गया। तभी उसने सोचा इस विचित्र वेशभूषा वाले आदमी से बात करना ठीक नहीं। साला एकदम लोफर दिख रहा है। कपड़े इतने गंदे कि शायद महीनों से नहीं धुले। दाँत, मंजन और मज्जन के लिए लालायित हैं। मुँह की बास नाक सिकुड़वा दे रही है। लगता है, कुल्ली किए भी अरसा बीत गया। चमड़ी पर मैल की परतें स्पष्ट दिख रही हैं। शायद महीनों से नहाया भी नहीं। बाल ऐसे ऐंठे हुए हैं, जैसे आकाश बेल ने किसी झाड़ी को लिपटकर उसका दम निकाल दिया हो। कोई जहरखुरानी वाला ठग या धुप्पलबाज तो नहीं?
उसने इस प्रकार का व्यक्ति पहले नहीं देखा था, इसलिए वह उसके दलाल या भड़वे होने का संदेह मन में न ला सका।
उसने अजनबी से दूर हटते ही अपना बैग गोद में इस प्रकार भींचा, जैसे कोई प्यारा बच्चा हो। उस बैग में कपड़ों और जरूरी कागजातों के अतिरिक्त दस हज़ार रुपये थे। ये रुपए उसने कस्बे के एक प्राइवेट स्कूल में शिक्षक की नौकरी करके और बच्चों को ट्यूशन पढ़ाकर इकट्ठा किए थे। यही उसकी अब तक के जीवनभर की पूँजी थे। सरकारी शिक्षक बनने की चाह में, कंपटीशन फेस करने वह दिल्ली आया था।
अजनबी उससे अचानक फिर सटा और कान में फुसफुसाया, “बंगाल, बिहार और नेपाल से आज ही नया माल आया है। एकदम सीलबंद, सोलह-सत्रह साल वाले पीस। नई खेप अभी-अभी गाड़ी से उतरी है…….। चलना है तो बताओ।”
ये शब्द सुनकर, उसे कल्पना करने में तनिक भी देर न लगी, “वह अजनबी एक दलाल है। किसी ग्राहक को फँसाने के लिए जाल बुन रहा है।”
उस दलाल के शरीर से निकलने वाली दुर्गंध को सहन न कर पाने के कारण, वह उससे स्प्रिंग के समान उछलकर दूर हट गया। उसे मन ही मन दो-तीन गालियाँ दी, “साला…….चूतिया……..आँडरु-फाँडरु समझ रहा है। ग्राहक भी ढूँढा तो मेरे जैसा, आदर्शवादी-चरित्रवान। आज तक किसी परायी स्त्री को गलत दृष्टि से नहीं देखा। अब क्या इसके झाँसे में आऊँगा।”
दलाल अपनी धुन का पक्का निकला। उसने उस पर फिर दाँव फेंका, “सिर्फ तीन सौ में बात सेट हो जाएगी। सीलबंद की गारंटी होगी। कई तो उनमें से अभी निखरी हैं। जिसे चाहे कली से फूल बना लेना। नई मुर्गी छोड़ना बेवकूफी है। बाद में वो मजा कहाँ? साइज बड़ा हो जाता है। पसंद न आया तो रुपए वापस। यहाँ से कोई खास ज्यादा दूर भी नहीं।”
दलाल के इन शब्दों ने उस पर तेजाब फेंकने जैसा काम किया। वह आवेश में झल्लाया, “दूर हटो, मैं तुमसे बात नहीं करना चाहता। मैं इस समय बहुत जल्दी में हूँ। तुम अपना काम करो।”
“काम ही तो कर रहा हूँ। मुझे तुमसे ज्यादा जल्दी है।” दलाल ने अधिकार भाव से, रोब सा जमाते हुए कहा।
उसके मन में आया इस दल्ले को दो-तीन घूसे जमा दे। फिर जो हो, सो हो। लेकिन इस अपरिचित और अनजान जगह पर इसका कोई दोस्त निकल आया तो उल्टा मुझे ही धूँस डालेगा। इस आशंका से वह डर गया।
जैसे-तैसे पीछा छुड़ाने के लिए, लगभग भागने की स्थिति में जैसे ही उसने स्वयं को तैयार किया, दलाल ने उसका बैग पकड़कर फिर कहा, “देखो, ऐसा मौका बार-बार नहीं आता। मौके का फायदा न उठाना सबसे बड़ी बेवकूफी होती है। माल नया है, गारंटी शुदा। मज़ा न आया तो दुगने रूपये वापस करूँगा। कसम धंधे की, वादा करता हूँ। लो अभी फोन पर तुम्हारी बात करवाता हूँ।”
दलाल ने जींस की पॉकेट से पुराना-घटिया सा मोबाइल निकाला और नंबर डायल करना आरंभ कर दिया।
दलाल के उतावलेपन को देखकर वह विनम्रता से बोला, “देखो भई! मैं बहुत जल्दी में हूँ। मुझे हर हालत में घर पहुँचना है। छह बजे मेरी ट्रेन है। ट्रेन मिस हो गई तो सारी रात स्टेशन पर ही गुजारनी पड़ेगी। आजकल सर्दी भी बहुत हो रही है। कोई दूसरा ग्राहक ढूँढ लो।”
“अच्छा ठीक है, पहला राउंड ट्रायल का दूँगा। बाद में छककर बैटिंग कर लेना। दो-तीन बार विकिट गिराना। रुपए केवल एक बार के देना। बल्ले की धार पैनी हो जाएगी। धंधे की कसम, आज ही नई खेप आयी है। साँगा फिट करो, तो सीलबंद के साथ। बाद में क्या मज़ा?” ये वाक्य कहते हुए, दलाल ने फिर नया शब्द जाल बुना।
दलाल उसका विश्वास अर्जित करने के लिए, उसे एक से बढ़कर एक प्रामाणिक वाक्य सुनाता रहा। ऐसा है….. वैसा है…….ये है……वो है……..लेकिन वह अपना आदर्शवाद छोड़ने को तैयार न हुआ। मर्यादा की परिधि से बाहर न आया। न उसमें कोई कामुक उमंग जगी और न भावनाएं मचली। उसे केवल एक ही ख्याल था, “छह बजे की ट्रेन हर हाल में पकड़नी है। ट्रेन छूट गई तो सर्दी की ठंडी रात, देवबंद रेलवे स्टेशन पर गुजारनी पड़ेगी। गाँव पहुँचने के लिए रात में कोई साधन नहीं मिलेगा। ओढ़ने के लिए केवल एक पतली सी चादर उसके पास है। ठंड लगकर तबीयत बिगड़ जाएगी।”
उसने दलाल के हाथ से बैग झटके से खींचा और दिल्ली रेलवे स्टेशन की ओर फिर बढ़ चला। शिकार हाथ से निकला देख, दलाल ने उसे तीन-चार गालियाँ देते हुए उसके पिछवाड़े पर जोर से लात मारते हुए कहा, “भोसड़ी का हिजड़ा! छक्का साला! मर्द बना फिरता है। अपनी लुगाई को खुश कर देता है या नहीं। नहीं होती होगी तो मेरे पास भेज देना। एक घंटे में तर कर दूँगा। महीनों की प्यास एक घंटे में बुझा दूँगा। पर साले! तुझ जैसे नामर्द को किसने अपनी लौंडिया दी होगी? समझ गया मादरजात, तेरी डंडी में दम है ही नहीं। तू क्या संभोग का मज़ा ले पाएगा?”
अस्तित्व को झकझोर देने वाले, दलाल के ये कथन सुनते ही, एक ज़हर सा उसके शरीर में दौड़ गया। स्वाभिमान पर गहरी चोट लगी। अन्दर ज्वाला-सी दहकती अनुभव हुई। उसने पुरुषार्थ को धिक्कारा, “मेरी मर्दानगी पर कलंक। इज्जत पर हमला। इज्जत के लिए तो लोग जान भी दे देते हैं। मर्द हूँ, मर्द वाला काम करके जाऊँगा। दो साल से पहलवानी कर रह हूँ। आज दिखाता हूँ, इस रंडी के को। मैं क्या बला हूँ?”
चोट खाए साँप की भाँति, पलटवार करते हुए उसने दलाल को ललकारा, “चल बता तेरा माल कहाँ है? फोड़-फाड़कर अभी खस्ताहाल करता हूँ। बाद में पूछ लेना अपनी मुर्गी से। पर्दाफाश नहीं कर दिया तो मेरा नाम भी…………।” उसने अपना नाम बताया। मान लीजिए…..अक्षत पँवार। उसकी आँखों में जोश और क्रोध का मिश्रण स्पष्ट झलकता दिखाई दिया। वही मरने-मारने पर उतारू वाला।
“…….लेकिन याद रखना, मेरे पास केवल एक घंटे का समय है। छह बजे मेरी ट्रेन है, जिसे मैं किसी भी कीमत पर नहीं छोड़ सकता।” वह दलाल को चेतावनी देते हुए, सख्त स्वर में बोला।
“यहीं पास में ही। वह दूसरी गली जो सामने दिखाई दे रही है, उसमें। लो फोन पर तुम्हारी बात करवाता हूँ।”
दलाल ने गली की ओर हाथ की अँगुली तानी और तुरंत फोन पर नंबर डायल करना आरंभ कर दिया। उसने दलाल को यह कहते हुए रोक दिया, “नहीं-नहीं इसकी कोई जरूरत नहीं। तुम आगे-आगे चलो मैं तुम्हारे पीछे आता हूँ। किसी को पता नहीं चलना चाहिए मामला क्या है?”
दलाल आगे-आगे चल दिया और वह डरा-सहमा, छुपता-छुपाता सा उसका अनुसरण करने लगा। यह जगह और रास्ता उसके लिए बिलकुल अपरिचित थे।
कोई पचास कदम का रास्ता तय हुआ था कि दलाल एक तंग गली में मुड़ गया। गली अधिक चौड़ी नहीं थी। फिर भी पुरानी इंटों से बने छोटे-छोटे मकानों के अतिरिक्त उसमें कुछ-कुछ दूरी पर फल, चाय, किराना, सब्जी आदि की चार-पाँच दुकानें भी थी। लगभग तीन सौ मीटर लंबी उस गली के बीच दलाल एक दुकान के पास रूका। दुकान पर बैठे फल विक्रेता ने उन दोनों को तिरझी नज़र से घूरा।
“दो मिनट रुको, मैं अभी आया” बोलकर दलाल उस जीने पर चढ़ गया जिसमें से एक बार में केवल एक ही व्यक्ति ऊपर चढ़ या उतर सकता था।
स्वयं को ठगा हुआ सा महसूस कर उसने फल विक्रेता से बात करने का बहाना ढूँढा। एक अनार हाथ में उठाकर, “अनार क्या भाव दिया है, श्रीमान। इनका जूस भी निकालते हो? या ऐसे ही बेचते हो।”
“अरे साहब, ये घटिया अनार क्यों खाते हो? दूसरे बेहतरीन वाले खाना। इनमें वो स्वाद कहाँ, जो उन्हें खाने में है। ताक़त पाने के लिए बाद में इनका जूस पिया जाता है।”
वाक्य समाप्त होते ही हँसी का फव्वारा दोनों ओर से फूटा। तभी उसने फल विक्रेता से थोड़ा सटकर धीरे से पूछा, “ये (जीने पर चढ़ने वाले दलाल की ओर इशारा करके) कह रहा था बिहार, बंगाल और नेपाल से नया माल आया है। सोलह-सत्रह साल की छोकरियाँ। क्या सच है?”
“साला दल्ला! भड़वा झूठ बोल रहा है। इस कोठे की हालत देखकर लगता है, तुम्हें। यहाँ कोई हुस्नपरी होगी। यहाँ तो एक मोटा-गद्धड़ माल है। इस कोठे पर तो क्या, पूरी गली में भी महीनों से कोई नई चिड़िया नहीं आयी। यहाँ बीस साल से फल बेच रहा हूँ, गली की पल-पल की खबर रहती है। वैसे था कभी इस कोठे पर भी जमाल। लेकिन अब तो……..।”
फल विक्रेता अपनी बात पूरी न कह पाया था कि सीढ़ियों से दलाल उतरता दिखाई दिया। वे दोनों मौनव्रत धारण करके खड़े हो गए।
“चलो, जल्दी चलो, सब मामला फिट है।” कहते हुए दलाल ने उसका हाथ पकड़ा और लगभग खींचने जैसी हालत में उसे ऊपरी मंजिल पर ले गया। एक छोटे से कमरे में उसे ठूँसकर सामने बिछे तख़्त पर बैठने का इशारा किया।
“बस अभी आया” बोलकर वह कमरे से फिर निकल गया। तख़्त पर रंगीन मोटी चादर बिछी थी। लखौरी ईंटो से बना वह कमरा किसी छोटे से किचन रूम से अधिक बड़ा नहीं था। बाहर से रोशनी आने के लिए कोई झरोखा न होने के कारण कमरे में काफी अंधेरा था। दलाल ने बाहर निकलते ही दरवाजे पर बंधी चिक खोल दी। जो टक की आवाज करके नीचे तक फैल गई। कमरा भयभीत करने वाले अंधेरे से भर गया होता यदि उसमें शून्य वाल्ट का हरा बल्ब न जल रहा होता। उसने अपने बैग- उसमें रखे रुपयों और जरूरी दस्तावेजों- की ओर देखा तो, उसका दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। परंतु अब………….।
कुछ क्षण पश्चात दरवाजे पर लटकी चिक बाहर की ओर खिंची और मोटी टुनटुन जैसी एक औरत बिना अनुमति के अंदर प्रवेश कर गई। जिसे देखते ही उसके मुँह से ‘हाय’ निकला। करंट लगने के समान वह तीव्रता से तख्त से उठकर कोने में जा खड़ा हुआ। वह तुरंत समझ गया, “तो इस हथनी के लिए शिकार करके लाया गया हूँ। मुझसे तीन गुना वजनी। इसके सामने तो बिल्कुल बच्चा हूँ।”
उसने मन ही मन दलाल को दो-तीन गालियाँ दी, “साला भूतनी का, रंडी की औलाद। कह रहा था, कमसिन लड़कियाँ आयी हैं। सीलबंद, एकदम नया माल। तो ये है, वो नया माल। देखने में ही डायन लग रही है। शरीर देखो, अमेरिकन गाय भी शरमा जाए।”
काली डायन सी उस औरत ने तख्त पर बैठते ही धमकाने के स्वर में उससे कहा, “आ जा शरमा मत, जल्दी लिपट जा। काम खतम कर।”
औरत की कर्कश आवाज और रोबीले स्वर को सुनकर, वह अंदर तक डर गया। मन ही मन दलाल को फिर कोसा, “भैन चोद ने सांडनी वार्ड में फंसा दिया। इसका पूरा तो डब्लू डब्लू एफ़ के फाइटर भी नहीं पाड़ सकते। दो सूमों पहलवान भी इस पर मिल कर चढ़ें तो इसका बाल न बाँका होए। इससे तो अच्छा होता, बुड्ढा वार्ड में घुसा देता।”
उसकी कोई प्रतिक्रिया न देख औरत फिर गुर्राई “ओ चीकने जल्दी आ। काम खतम कर। दूसरा ग्राहक भी देखना है। बोहनी का टाइम है। बोहनी खराब मत कर। मेरा उसूल है, बोहनी के टाइम किसी ग्राहक को रूखा नहीं भेजती। वरना पूरी रात कोई नहीं आता।”
इतना सुनते ही वह जोश में आने के स्थान पर पसीने से भीगने लगा। उसका मुर्गा, पंख फड़फड़ाने या कुकड़ू कू बोलने के बजाय दुबक गया। लंबी-काली बेलों में ऐसे घुसा जैसे किसी कुत्तिया ने पीछा किया हो। डरते-डरते उसने दो वाक्य मुँह से निकाले, “मेरे साथ धोखा हुआ है। बात नए माल की हुई थी। मिला है पुराना और अधेड़।”
यह सुनते ही औरत बड़बड़ायी, “फिलहाल पुराने से ही काम चला ले। नया फिर चख लेना। बोहनी ख़राब मत कर, जल्दी आ जा। समझा रही हूँ। रंडी के भी कुछ उसूल होते हैं। मैं अपना उसूल तोड़ना नहीं चाहती।”
उसने मन ही मन दलाल को फिर कोसा, “साले ने धोखा दिया। सपना हसीन परी का दिखाया। भेज दी ये हथनी। भोसड़ी के को, एक रुपया नहीं दूँगा। ये मुझे फ्री में भी दे, तो भी ना लूँ……।”
वह सोच ही रहा था कि औरत ने तख़्त से उठकर उसे ज़ोर से घूसा जड़ा। उसका सिर और शरीर दोनों दीवार से टकराए। उसके दिमाग में झंझनाहट सी हुई और वह रूआँसा हो गया।
फिर अचानक जैसे बिल्ली चूहे पर झपटती है, वह औरत उस पर ठीक वैसे ही झपटी। उसका बैग, मोबाइल, रुपए और जरूरी दस्तावेज़ आदि छीनकर उसकी बाँह पकड़कर जीने तक लायी और यह ये शब्द बड़बड़ाते हुए- “साले हिजड़े! सब नसें खराब कर रखी हैं। तेल फूँककर दिया जलाने चला है। पीछे मुड़कर देखा तो जान से मार दूँगी। हथियार काट कर जनखा बना दूँगी।”- उसके पिछवाड़े पर जोर से लात मारी। वह सीढ़ियों से लुढ़कता हुआ धड़ाम से सड़क पर गिरा। शरीर पर कई चोटें भी आयी। फिर शीघ्रता से उठकर एक बार कोठे की ओर देखा और लड़खड़ाते कदमों से धीरे-धीरे स्टेशन की ओर चल दिया।
अब उसमें न कोई उमंग दिख रही थी और न कोई उतावलापन। न कोई स्फूर्ति थी, न कोई जल्दबाजी। जबकि वह जानता था, “उसे छह बजे की ट्रेन हर हालत में पकड़नी है। ट्रेन छूट गई तो सर्दी की ठंडी रात में स्टेशन पर सोना पड़ेगा। गाँव जाने के लिए रात में कोई भी साधन नहीं मिलेगा……..।”
मो. इसरार
जन्म : 21 जुलाई 1979
जन्म स्थान : सहारनपुर, उत्तर प्रदेश
शिक्षा : एम.ए. (हिन्दी, संस्कृत, शिक्षाशास्त्र) पी-एच. डी.
लेखन : कथाबिंब, क्षितिज के पार, साहित्य कुञ्ज, लाइव रिपोर्ट, शाह टाइम्स आदि विभिन्न पत्र-पत्रिका में अनेक कहानियाँ प्रकाशित हुई हैं। जिन उन पर पाठकों की अच्छी-बुरी प्रतिक्रियाएं भी खूब मिली हैं।
उत्कर्ष प्रकाशन, मेरठ से ‘पप्पू पाकिस्तानी’ नामक कहानी संग्रह प्रकाशित।
शिक्षा जगत से लम्बे समय से जुड़े होने के कारण शिक्षा के परिप्रेक्ष्य और शिक्षण-शास्त्र से सम्बन्धित अनेक आलेख लिखे हैं। जो विभिन्न जर्नल और पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं। सभी आलेखों को संग्रहीत रूप में शब्द प्रकाशन, दिल्ली ने “शिक्षा, शिक्षक और शिक्षण” नामक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया है।
Shabd.in पर ‘उग्र बनाम मंटो’ नामक पुस्तक ऑनलाइन प्रकाशित है। https://hindi.shabd.in/create
सम्पर्क : ग्राम व पोस्ट- केंदुकी, तहसील- देवबंद, जिला- सहारनपुर, उत्तर प्रदेश- 247554