गैर मर्द को छूना भी हराम । गलती से छू जाये तो माफ़ी है। लेकिन दोबारा किसी सूरत नहीं। शैतान का बहकावा है हमीदा..और नहीं तो क्या..” सकीना के कमरे में दाख़िल होते ही अम्मा, जो अभी तक पड़ोस वाली चची से इधर उधर की बतिया रहीं थीं, अचानक मस्जिद के मौलवी में तब्दील हो गईं। उसे समझ आ रहा था अम्मा यूँ आवाज़ ऊँची कर के क्या समझाना चाहती हैं।
कॉलेज शुरू हो चुके थे। सो, उसकी उम्र का ज़रा लिहाज रख लिया गया। वरना अम्मा तो बस.. उफ्फ अल्लाह..
14 की अनगढ़ उम्र रही होगी। शऊर अभी कच्चा ही था। नाश्ता रखते हुए वह झुक के खड़ी हुई। दुपट्टा प्लेट में ही रह गया। अम्मा की आँखों से ऐसी चिंगारी निकली…गर वह काग़ज़ की होती वहीं भस्म हो जाती.
अम्मा के हिसाब से लड़कियाँ ज़रा सलीक़ामन्द ही अच्छी लगती हैं। सलीक़ा याने तरीक़े से उठना-बैठना, तंग कपड़े ना पहनना, दुपट्टा से सीने को ढक के रखना, आवाज़ दबा के बोलना.. सड़क पे ठठा मार के न हंसना और जहाँ चार लड़के खड़े हों, निगाह नीची कर के तेज़ रफ्तार से गुज़र जाना।
अपने ज़हन को उसने प्राइमरी की करेक्शन नोटबुक की तरह इस एक बात से भर दिया कि, लड़कों से दूर रहना है। उनकी तरफ देखना नहीं है।
क्लासरूम के दरवाजे़ पर भी शायद यह अदृश्य चेतावनी लिखी थी। लड़के जिस सफ़ में बैठते, लड़कियाँ खुद बा खुद दूसरी तरफ़ बैठ जातीं। सब की अम्माएं घर से ताक़ीद कर के भेजती थीं शायद।
किताबें सीने से सटा कर चलते हुए कोई लड़का सामने से आता दिखे भी तो उसकी निगाह नीचे ज़मीन में चीटियाँ तलाशने लगतीं। “मर्दों की ज़ात तो होती ही कमीनी है। औरत को अपना अच्छा भला खुद समझना चाहिए।” अम्मा की हिदायतें अचानक उसके कान में मॉर्निंग अलार्म की तरह बजने लगतीं। वह नज़रें नीची कर हड़बड़ा के गुज़र जाती।
वह उन लड़कियों में से थी जिनके दोस्त मुश्किल से बनते या बनते ही नहीं। मुख्तसर हाय हैलो को अगर दोस्ती कहा जा सकता तो पूरी क्लास से ही यारियां गठी हुई थी। उसे खूब इल्म था कि दोस्ती किसी चीज़ का तकाज़ा करे न करे आपका वक़्त तो चाहती ही है। उसके पास यही नहीं था।
घर लौटने के तय वक़्त से घडी के काँटे चंद सेकेंड भी आगे होते, अम्मा का बीपी पीछे-आगे होने लगता। वह दहलीज़ पकड़े खड़े-पीर का रोज़ा रखे रहतीं। लौटने पर डाँटती नहीं थीं। उनकी बस निगाह काफी थी जिनसे गुलछर्रे उड़ाने की तोहमत लगाते हुए अंगारे बरसते और वह ज़िल्लत से राख हो जाती।
घर में दाखि़ल होते हुए नज़रें दूसरी तरफ चुरा के कहती, “अम्मा…वो ट्रैफिक जाम बहोत था.. अम्मा..वो सिलेबस का टॉपिक नहीं मिल नहीं रहा था तो ज़रा..लाइब्रेरी चली..
बात अधूरी छोड़ अम्मा आगे बढ़ जातीं। वजह जानने में खास या आम किसी क़िस्म की दिलचस्पी नही थी। सिर्फ इतना चाहतीं कि लड़की सात खै़रियत के किसी तरह बी.ए.कर ले।
तस्बीह के हर दाने पे अल्लाह की तारीफ करते हुए अच्छी जगह से रिश्ता तय हो जाने की दुआ मांगती। नमाज़ें कज़ा न करती कि जाने कब दुआ कुबूल हो जाए।
सकीना अक्सर सोचती अम्मी जा’नमाज़ पर कितनी देर तक बैठी रहती हैं और कैसी मुहब्बत से.. काश!! इतनी मुहब्बत से कभी मुझे अपने पास बिठातीं। अच्छा..अगर मैं लड़का होती क्या तब भी अम्मा की ज़बान पर ऐसे कांटे उगे रहते..
मैंने कभी किसी चीज़ के लिए ज़िद्द नहीं की.. ज़बान दराज़ी नहीं की.. सब कहते हैं, सकीना बहुत नेक और फरमाबरदार औलाद है। आप कभी कुछ नहीं कहती.. बल्कि… बल्कि.. आप तो मुझसे खुश ही नहीं रहती..अम्मा यार! नहीं बनाया अल्लाह ने मुझे लड़का! मेरी क्या गलती इसमें.. सोचते सोचते नाक में पानी आया। छत से लगा पंखा धुंधला गया।
जवाब कौन देता.. पंखे की घुरघुराहट में अम्मा के खर्राटे मिल गए। वह अब भी जग रही थी। तकिये की नमी चुग़ली कर रही थी, आज की रात फिर नींद रूठी रहेगी।
(2)
गाड़ी वाला आया घर से कचरा निकाल का रूहानी नग़मा और हमीदा चच्ची की सुफ़ियाना आवाज़.. सकीना को किसी अलार्म की ज़रूरत ही क्या थी…
चच्ची पूरी आवाज़ में बोले जा रही थीं, “बाजी का अच्छा है। एक बिटिया है। पढाए ले रही हैं। हमाई तो पांच हैं। कहाँ से लाएं इतना पैसा कि फीस भरें।” गु़सलखाने से निकलते हुए चच्ची के हाथ मे कटोरी देखकर उसे यक़ीन हो गया, रहती दुनिया तलक पड़ोसियों के शकर के तकाज़े कभी खत्म न होंगे।
“अब क्या कहें हमीदा”, अम्मा ने पड़ोसी का फ़र्ज़ अदा करते हुए चाय का कप उनके हाथ में थमाया। दुपट्टे से चेहरे का पसीना पोछा। गहरी सांस छोड़ते हुए बोलीं, •••पांच के बाद ही सही तुम्हारे है तो औलाद.. बुढ़ापे की आस है। हमको तो अल्लाह ने इस खुशी से ही महरूम.. अम्मा बात अधूरी छोड़ते हुए चुप हो गयीं।
•••• ए बाजी.. फख़रूद्दीन भाईसाब होते तो होती न क्या औलादें…अब छोड़िये भी पुरानी बातें..चच्ची ने दिलासा देते हुए कहा, अल्लाह ने कितनी नेक और सालेह बेटी दी है आपको। भला मजाल है जो किसी ने उसको आधी रात भी छत पे नंगे सर देखा हो। किसी ने उसकी तेज़ आवाज़ सुनी हो। हम तो अपनी सड़बैली बेटियों को सकीना की मिसाल देते हैं।
••••बाकी अल्लाह तो देख ही रहा है कि इस गरीबी में कैसे आप तन-पेट काट के औलाद को तालीम दिला रही हैं। कुछ भी रायगां नहीं जाएगा बाजी। इत्मिनान रखिये। “
हमीदा चची की मुहज़्ज़ब लहजा में डूबी बातों ने अम्मा के मुरझाए जी को तसल्ली दी। सुने हुए आखिरी जुमले को दुरुस्त करते हुए बोलीं,
“ए हमीदा.. तालीम वालीम ठीक है लेकिन देखो..मामला यह है कि नौकरी हमें करानी नहीं है। बस..आजकल का चलन है यह बी ए वगैरह तो सोचा करा दें। अच्छे खानदान से रिश्ता होने में आसानी रहती है न! अब ज़माने के हाल तो देख ही रही हो। सलाम कराई में दूल्हे के हाथ पे रखो मोटरसाईकिल की चाभी या दो सोने की अंगूठी, तब जाके बिटिया बिदा होती है..” कहते हुए अम्मा ने दीवार पे टंगे काबा वाले कैलेंडर को देखा और चुप हो गयीं।
फिर थोड़ा रुक कर खोई खोई सी बोलीं, “°°°एक बार यह सकीना अपने घर द्वार की हो जाए तो समझो हमारा हज बग़ैर किबला देखे अदा हो गया।”
आंगन में हो रहे डिस्कशन से बेपरवाह कॉलेज के लिए तैयार हो रही सकीना ने अलमारी के आईने अपना चेहरा देखा। यह जगह जगह से उखड़ा लग रहा था। कहीं तहें नज़र आती। कहीं सिलवटें। इन सब के नीचे दर्द की बारीक़ परतें थीं जिसे मोश्चुराईज़र से दुरुस्त किया गया। होंठ की पपड़ी को मुख़्तसर से लिप बाम से..फिर भी चेहरे की हर लकीर में फैली उदासी बता रही थी कि बहुत रात गए नींद को घसीट कर आँखों में ज़बरदस्ती बिठाया गया था।
गर्मियों के शुरुवाती दिन थे। धानी रंग पे सफेद चिकन कारी के काम का कुर्ता। सफ़ेद लेगिंगस। उसी रंग का दुपट्टा। छोटी सी अक्सिडाइज़्ड झुमकियाँ। जब मन फीका हो चटख़ रंग के कपड़े पहनने चाहिए। मूड का स्विच जल्दी ऑन होता है। कहीं पढ़ था उसने। आज आज़माया। इस उम्मीद से कि चेहरे पर उठ रहे तमाम तास्सुरात के आगे शोख़ रंग ढाल बन के खड़े हो जाएंगे।
लेकिन आँखें.. यह तो सच कह ही देंगी। लिहाजा कोरों को काजल की पेंसिल से भरा ही था कि— “यह किसको रिझाने जा रही हो बीबी.. “
अम्मा की गरज़दार आवाज़ के साथ खट से दरवाज़ा खुला। कमर पे हाथ रखे तमतमाता चेहरा लिए वह लगभग फुंफकार रही थी।
अचानक हुए इस बम धमाके से हाथ से काजल छूट गया। फिर अम्मा के तानों की बंदूक से सकीना की शख्सियत, किरदार को छलनी करती वो गोलियां निकली कि आँसू काजल के बांध को तोड़ पूरे चेहरे पे गोमती बहाते चले गए। उसने उल्टी हथेली से गालों पर गिर रही कालिख को बेदर्दी से रगड़ा। नागरे डाले और बाहर निकल गयी।
3)
बादलों ने हर तरफ़ से आसमान की घेराबंदी कर रखी थी। हवा क़ैद थी और फ़िज़ा में घुटन..मगर सबसे ज्यादा सकीना के दिल में..
क्लास के लिए वह लेट हो चुकी थी। क़दम लगभग दौड़ रहे थे। तभी सामने से कुछ लड़कों का ग्रुप आता दिखाई पड़ा। अम्मा की हिदायतो का अलार्म कान में बज उठा। सीने से लगी किताबों को थोड़ा और भींचा। निगाहें कंधों का दुपट्टा देखने लगीं। सामने के गड्ढे ने सकीना के पैरों को लड़खड़ाया। घुटने मुड़े। किताबें गिरीं। चेहरा ज़मीं की तरफ बढ़ा..कि सख्त बाजुओं ने उसे कमर से थाम लिया।
अल्लाह..! ज़मीन पर औंधे मुँह गिरते बची सकीना ने हड़बड़ा कर रुख ऊपर किया। साँवली रंगत का कोई लड़का चेहरे पे झुका था। क़ुर्बतों का यह आलम कि सकीना ने “आप ठीक हैं न? ” कहती हुई उसकी आवाज़ की गर्माहट को अपने चेहरे पे महसूस किया।
क़ुदरत इस वक़्त डाइरेक्टर थी। ज़िंदगी का यह लम्हा, फ़िल्मी। बहुत फ़िल्मी..चंद माइक्रो सेकंड के लिए ही सही..लड़का पॉज़ हो गया था।
सकीना कमर पे सिहरन के एहसास से चौंकी ऐसे जैसे किसी ने खेल में स्टेच्यू के बाद ओके बोल दिया हो। “.. हाँ$$$$..ठीक हूँ मैं!” दुपट्टे को संभालते हुए खुद को खड़ा किया। उसकी साँसे बेतरतीब थी। चेहरे पे आए बालों को कानों के पीछे फंसाया। झुककर जल्दी जल्दी गिरी किताबें उठाई। क्लासरूम की तरफ बढ़ गई।
लड़के की निगाह अब भी उसका पीछा कर रही थीं। सकीना का जी भी कहाँ लग रहा था। रात से अब तक कितने एहसासों से गुज़री थी वह.. लेकिन क्यों ऐसा था कि अम्मा की कंटीली बातों से हुए सरदर्द से ज़्यादा उसे इस वक़्त कमर से पैर तक का जिस्म बेजान महसूस हो रहा था।
क्लास खत्म कर लड़खड़ाते पैर लिए उसने अपने वजूद को लाइब्रेरी की कुर्सी में छोड़ दिया। किताब के सारे हरूफ एक दूसरे पे चढे थे। हाईलाईटर लिए सबको अपने-अपने ठिकाने पे बिठाने की जुगत से सकीना किताब में सर झुकाए जूझ रही थी।
एक्सक्यूज़ मी…
“यह तो..वही है..” आवाज़ को पहचानने की कोशिश करते हुए उसने हड़बड़ा कर ऊपर देखा। हाईलाईटर छूट के ज़मीन पर गिर गया। इस बार फिर वह सकीना के चेहरे के बहुत पास था। उसके चेहरे पे भरपूर निगाह डाले हुए लड़का ज़मीं की तरफ़ झुका। गिरी हुई चीज़ उठाकर मेज़ पर रखी। लाइब्रेरी के “साइलेंट प्लीज़” के क़ायदे को फॉलो करते हुए वह फुसफुसाया, ” आप का आई कार्ड..वहीं कॉरिडोर में रह गया था।” कहते हुए दूसरे हाथ में पकड़े इडेंटिटी कार्ड को मेज़ पर रखा ।
“हाँ$ ..हाँ… यह तो..मेरा ही..है। थैंक्यू..थैंक्यू सो मच..” बैग की ज़िप खोलकर एहतियात से रखते हुए उसने कहा।
आप ठीक से चल पा रही हैं न? उसने फिकरमंदी से पूछा।
“दर्द है। ठीक हो जाएगा।” कुर्सी पे बैठे बैठे सकीना ने उसकी तरफ़ देख कर कहा। अब पहली बार उसने ठहरकर लड़के को देखा था। साँवला रंग, करीने से सेट किये हुए बाल, चौड़ा माथा, नीम दराज़ पलकें, क्लीन शेव में मुस्कुराता चेहरा। ऐसा खास तो नहीं था। लेकिन दोबारा पलटकर देखने का जी चाहे, इतना तो था ही।
“थैंक्यू वन्स अगेन…” बात पूरी करते हुए इस बार सकीना भी मुस्कुरा दी।
“टेक केयर” कहते हुए वह पलट गया।
4)
मा’मूल के मुताबिक़ अम्मा तस्बीह के हर दाने पे बेटी के अच्छे घर से रिश्ता हो जाने की दुआ मांगते मांगते सो चुकी थी।
सेमेस्टर पूरा होने को थे। एग्ज़ाम की डेट आ चुकी थी। लगातार किताब घूरने के बाद भी सारे हरूफ तमीज़ से अपने अपने ठिकाने बैठ नहीं रहे थे। घुलमुल हो के कभी उस लड़के की आवाज़ बनते कभी मुस्कान… तभी वाईबरेशन मोड पर लगा फोन थरथराया।
रात के 11 बजे किसका फोन हो सकता है? सोचते हुए सकीना ने फोन रिसीव किया।
हेलो! घर,गली के सन्नाटे और अम्मा के खर्राटे को ध्यान में रखते हुए उस ने आहिस्ता से कहा।
अस्सलामो अलैकुम.. मैं हैदर… वही जिसने आपको सुबह गिरने से बचाया था। याद आया?
है..द..र..सकीना के होंठ कान की लौ तक फ़ैल गए। जैसे इसी कॉल का इंतज़ार था। खुशी को दिल में रोकते हुए संजीदगी से पूछा, मेरा नंबर कैसे मिला आपको?
आप के i card से.. मेरा यूँ फोन करना आपको बुरा तो नहीं लगा? लड़के ने हिचकिचाते हुए पूछा।
अम्म्….नहीं….जी कहिये, उसने संभल कर कहा।
वो.. मैंने यह कहने के लिए फोन किया था कि पैर का दर्द धीरे धीरे असर दिखाएगा। गर्म तेल से हल्की मालिश कर कपड़े से बांध लीजियेगा और… और…
उसके पास नसीहतों का पिटारा था। जो खुल चुका था। सकीना हूँ हाँ करती सुनती रही।
यह पहली बार था जब पूरे होश में किसी ने उसकी परवाह की थी।
शाम अम्मा ने उसे लंगड़ाते देख पूछा तो था। “कुछ नही, ज़रा सा पैर मुड़ गया” के जवाब पे खामोश हो कर कपड़े सीने लगीं थीं।
दरसल मशीन चलाते-चलाते मशीन बन गयी थी अम्मा। बिना ग्रीज़ वाली मशीन। पैर के अंगूठे पायदान को खदेड़ते खदेड़ते आगे की तरफ मुड़ गए थे। लेकिन उनके हिस्से की जिंदगी अरसे से ऐंठी हुई किसी सिम्त नहीं मुड़ती थी।
दुनिया जानती थी वो जवानी में हुई बेवा हैं। अड़ोस-पड़ोस वाले कपड़े सीने को दे जाते। दस्तूर ए ज़माना के तहत हमेशा मर्द दर्ज़ियों से कम रेट मिले। वह हुनरमंद से ज़्यादा ज़रूरत मंद थीं। इतनी बड़ी- भरी दुनिया में एक बेटी के साथ तन्हा भी। कम मेहन्ताने पर बग़ैर ज़िरह बहस के लोगों के कपड़े सीती रहीं।
मजबूरियाँ बहुत सी बगावत का गला घोंट देती है।
मायके वालों ने फिक्र की। चट्टान सी जिंदगी सामने पड़ी है। पीठ पे बेटी का बोझ लेकर सफर कैसे करोगी? वह वाक़िफ़ थी ज़माने की तल्ख हक़ीक़त से। एक बच्चे की माँ को कुँवारा मर्द मिल सके, वह भी बग़ैर इश्क़ लड़ाए.. इतना तरक़्क़ीयाफ्ता तो नहीं हुआ था यह समाज। और बच्चे वाले आदमी को सकीना का सौतेला बाप बनाने की उनकी कोई आरज़ू न थी।
ताज़ा बेवा हुई अम्मा खा़मोशी से आसमान की तरफ देखती और बाद नमाज़ दुआओं के लम्हें तवील कर देतीं।
आहिस्ता आहिस्ता ग़रीबी के वायरस ने ख़ून के रिश्ते को ठंडा कर दिया। उनके लिए कोई नहीं था। वह भी कहाँ बची थीं..जिंदगी के तपते रेगिस्तान में तन्हा खड़ी, नरमी.. नमी.. एहसास सब से ख़ाली..
सकीना समझती थी इस खा़लीपन के एहसास को।
लेकिन इस वक़्त कौन सा एहसास था यह जो उसकी समझ के दायरे के बाहर था..ऐसा कैसे हो सकता था कि कमरे की दीवार, छत, छत पे टंगा पंखा, दहलीज़, दरीचा सब हैदर की तरह मुस्कुरा रहे हों।
कहते क्या हैं इस जज़्बात को जिसकी ज़द में दिल आज पहली बार आया था? यह पहली बार खु़श भी था..खा़एफ़ भी। बेचैन भी था। पुरसुकुन भी। धड़क नहीं, बह रहा था। नदी था। जिसके तेज़ बहाव के आगे खु़द को तिनके सा छोड़ दिया था उसने।
5)
खूबसूरत कहानी।
बहुत सुंदर ।लहर की तरह बहती चली गई कहानी । आपकी लेखनी ने बहुत सी उर्दू सिखा दी ।
लिखते रहिएगा । और ऐसा लिखिएगा कि पाठक की चेतना झकझोर दे । समाज में परिवर्तन सरल नहीं पर कोशिश करने वालों की हार भी नहीं ।
बहुत शुभकामनाएँ ।
बहुत प्रवाह है कहानी में, मुस्लिम पृष्ठभूमि पर लिखी अच्छी कहानी