Sunday, May 19, 2024
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नीला प्रसाद की कहानी – दहन

मेरा सर्वस्व था उस घर के अंदर! पर नहीं, अब मेरा कुछ भी तो बच नहीं रहा था वहाँ! मैं  टैक्सी से उतरकर  सोसाइटी  गेट के बाहर खड़ी हो गई। भीड़ बहुत है। कारों का जमघट इतना कि आगे बढ़ना मुश्किल। दूर से ही दिख रहे हैं तीसरे तल्ले पर बालकनी में ठुँसे खड़े लोग। कैमरामैन  और…जर्नलिस्टों की भीड़। हाँ, भीड़ के कई चेहरे मेरे पहचाने हुए हैं। बालकनी में यह हाल है, तब तीन बेडरूम के फ्लैट के अंदर का नज़ारा कैसा होगा, अनुमान लगाना मुश्किल नहीं। पर मैं तो अनुपम से अकेले में मिलना चाहती हूँ, इसीलिए भीड़ मुझे खल रही है। अकेले में मिलना अब संभव नहीं लग रहा, लिहाज़ा अंदर जाने से हिचक रही हूँ। मुझे गेट पर खड़े देख सिक्युरटी वालों ने पूछ लिया- कहाँ जाना है मैम?’ मैंने भीड़ भरी बालकनी की ओर इशारा कर दिया।  इतने तनाव में फ्लैट नंबर सचमुच याद नहीं आ रहा।गेस्ट रजिस्टर में एंट्री हो गई, मुझे अंदर भेज दिया गया। पाँवों को रास्ता अच्छी तरह याद है। मैं सही जगह पहुँची और लिफ़्ट का इंतज़ार किए बिना सीढ़ियाँ चढ़ गई। फ्लैट के बाहर फिंके पड़े  जूते-चप्पल, बिखरे फूल, पंखुड़ियाँ, रस्सी के टुकड़े, घास-फूस… और अंबार गुलदस्तों का। मैंने भी चप्पल उतार दी और दिल कड़ा करके अंदर घुस गई। 
अनुपम सामने ही दिख गया – ज़मीन पर लेटा हुआ, परम शांत। मैंने पिछली बार देखा तब से उसका वजन बहुत ज़्यादा बढ़ा हआ लग रहा है। दिनभर खाते-पीते रहने की पुरानी आदत, साथ में तंबाकू-शराब की लत।
अनुपम ज़िंदगी में अराजक रहा...और  प्रेम में भी।
 पर अभी आँखें बंद किए चुपचाप लेटा हुआ वह किसी आज्ञाकारी बच्चे-सा दिख रहा है। मासूम। मैं उसे गले लगाना चाहती हूँ। एक बार। आख़िरी बार। अकेले में। उससे कुछ पूछना, उसे कुछ बताना चाहती हूँ – जिसका मौक़ा अनुरोध करने के बावज़ूद उसने दिया नहीं। मैं कोने में खड़ी इंतज़ार करने लगी। आँखें खोलेगा? क्या कभी नहीं?
 कुछ साथी जर्नलिस्टों ने मुझे पहचान लिया, मिलने आए और कंधे पर हाथ रखकर कहने लगे सांत्वना के शब्द पर ग़नीमत है कि वह नहीं आई। पहचानती नहीं थी न मुझे – वह, यानी अनुपम की सर्वस्व। उस अनुपम की सर्वस्व जो सालों तक मेरा सर्वस्व रहा। वह बार-बार अंदर के कमरे से इस कमरे में आ-जा रही थी – चेहरा तनावपूर्ण, आँखों में आँसू ज़बरन रोके, व्यग्र और बेचैन। भारतीयों की भीड़ में वही है एकमात्र विदेशी – इसीलिए बूझ लिया। अनुपम के पापा को भी पहचान लिया मैंने, पर पास जाने या कुछ कहने की हिम्मत नहीं हुई। छाती पर हाथ बाँधे ऐसे खड़े थे अनुपम के सिरहाने, जैसे अभी-अभी बिजली का करंट उनकी पूरी देह को छू गया हो और वे सुधबुध खोकर बेजान देह लिए कुछ समझ नहीं पा रहे हों।
मैं अनुपम से मुख़ातिब हुई।
अनुपम, इतना वजन बढ़ाकर तुमने ठीक नहीं किया। दिल का दौरा नहीं पड़ता, तो और क्या होता! जब तक मेरी निगरानी में थे, मैं तुम्हारे वजन पर निगाह रखती थी। फ़िर तुम चले गए मुझसे मुँह मोड़कर और आज मिले हो यहाँ इस हाल में कि हम बात तक नहीं कर सकते। क्यों किया ऐसा? एक आख़िरी मुलाक़ात तो कर लेते! जाने का कारण बताते, दिल का हाल साझा कर लेते, दिलासा दे देते… पर लगता है जैसे शादी के बाद से बात हममें बहुत ही कम होने लगी! नहीं?
भागदौड़ भरी ज़िंदगी ठहरी हमारी! हर महीने दो से तीन हफ़्ते हमदोनों दिल्ली से बाहर रहते।  छोटी मुलाक़ात संभव होती भी तो बस वीकेंड पर। ग़नीमत थी कि हम हर महीने दिल्ली में कुछ दिन साथ-साथ गुज़ार पा रहे थे! इतने छोटे साथ को मैं गृहस्थी के झंझटों में उलझाना नहीं चाहती थी। खाना या तो बाहर से मँगा लेती या तुम्हें साथ लिए माँ के घर चली चलती – यानी कि मेरी माँ के घर। माँ को मेरी-तुम्हारी पसंद पता थी। झगड़ा तब होता जब माँ ने खाना सिर्फ़ तुम्हारी पसंद का पकाया होता। अपने पिता-माँ को ठुकरा चुके तुम मेरी माँ की गोद में लेट जाते और ख़ूब लाड़ जताते। माँ की पसंद का ख़ास पान बनवा लाते और कहते – आप कुछ कम उमर की होतीं तो मैं आपकी बेटी के बदले आपसे ही शादी कर लेता!  क्या मस्त खाना पकाती हैं, नफ़ासत से घर सजाती हैं…  ख़ुद को मेनटेन करके रखती हैं। तुम्हारी बात पर हमसब ठहाका लगाते। तब मैं पकड़ नहीं पाती थी कि इन चुटकियों में मेरे मोटापे और घर-गृहस्थी में मन नहीं लगाने के ताने छुपे हैं। मैं तब अपनी अलग दुनिया में मगन जो थी! आधुनिक स्वतंत्र स्त्री की जैसी ज़िंदगी की कल्पना अरसे से मन में पलती आई थी, वह साकार हो चुकी थी। मैं और तुम दोनों एक ही विदेशी न्यूज़ एजेंसी में काम कर रहे थे। दिल्ली में होते तब हम ऑफ़िस और पार्टियों में साथ ही जाते, दारू-सिगरेट साथ-साथ पीते। तुम ज्यादा पीने लगते या किसी भी ड्रग को ट्राई करने की हामी भरने को होते, मैं सख़्ती से मना कर देती। यहाँ तक कि कई बार इस मुद्दे पर पूरे रास्ते लड़ते हुए हम घर वापस लौटते।
मानती हूँ कि मैं तुम्हारे अटपटेपन के कारण ही तुम्हारी ओर खिंची। पहले-पहल मुझे इतना भर लगा कि तुम्हें जानना दिलचस्प रहेगा और किसी से दोस्ती या प्यार का मतलब ज़िंदगी भर का साथ होता है – ऐसी गँवार सोच मेरी कभी रही नहीं। हाँ, शादी की बात दूसरी थी। मैं उनदिनों लगभग बेरोज़गार थी, बोर होती रहती थी। थोड़ी बहुत फ्रीलांसिंग करती हुई तय करने की कोशिश कर रही थी कि जर्नलिज़्म को ही करियर बनाऊँ कि किसी और राह निकल जाऊँ। माँ नौकरी करती थीं, व्यस्त रहती थीं। पापा गुज़र चुके और छोटा भाई इतना छोटा कि दोस्त हो सकने के नाक़ाबिल। मेरी दोस्त जैसी माँ उन दिनों मेरी बीहड़ इच्छाओं, आवारगियों को मार डालने के मनसूबे नहीं पालती थीं। ऐसे में एक दिन पोनीटेल बनाए, कमर पर लुंगीनुमा स्कर्ट लपेटे, तीन इंची दाढ़ी वाले तुम मुझे अपनी ही सोसाइटी में आवाराग़र्दी करते होने के ढब पर टहलते मिले, तो मैंने हलो बोल दिया। मुझे लगा कि तुम जैसे नमूने से वास्ता मेरी बोरियत कुछ कम तो कर ही देगा। यह शुद्ध इत्तिफ़ाक था कि जिस सोसाइटी में बीस मंजिला टावर पैंतीस की संख्या में हों, वहाँ सवा दो हज़ार फ़्लैटों में से किसी दो के निवासी, इस तरह सोसाइटी के अंदर सड़क पर एक-दूसरे से सरेआम टकरा जाएँ और बाद में शादी कर लें।
याद करो अनुपम, वह पहली मुलाक़ात!
शाम का समय था। मैं तुम्हें लेकर घर आई तो माँ ऑफ़िस से वापस लौट चुकी थीं। यह कौन है?तुम्हारे हुलिए पर नज़र डालते माँ ने दिलचस्पी से पूछा। मैं तुम्हें ताकती इस अपेक्षा में चुप खड़ी रही कि तुम अपना नाम ख़ुद बता दोगे। तुम्हें घर लाने से पहले तुम्हारा नाम पूछना रह जो गया था! 
नाम जानने के लिए चाय देनी पड़ेगी – तुमने लापरवाही से कहा मानो दादागिरी दिखाते कह रहे होओ कि नाम पूछने का रुपया लगेगा। 
माँ ने तुम्हारे चेहरे को ध्यान से देखकर, हँसी दबाते कहा- मेरे यहाँ ख़ाली चाय नहीं दी जाती। चाय के साथ जो भी परोसा जाए, पूरा खाने का नियम है। मंज़ूर हो तो रुको, वरना चलते बनो।
मंज़ूर है।– तुम बोले। माँ पकौड़े, बिस्किट और चाय ले आईं। तुम खाने पर टूट पड़े।
खाना कब से नहीं खाया था?माँ ने पूछा।
कल से।
क्यों?
अपने कमरे से निकला ही नहीं कि कहीं मुझपर हमला न हो जाए…और फिर हमें प्रश्चवाचक निगाहों से ताकता पाकर स्पष्ट किया तुमने – शारीरिक नहीं, शाब्दिक हमला…हुलिया बदलो; पढ़ाई कर चुके, अब नौकरी खोजो; अकेले बेटे होने की ज़िम्मेदारियाँ निबाहो।
ओह अच्छा!’ ज़वाब सुनकर माँ और मुझे राहत मिली।
यह लड़की बहुत संयोग से मिल गई। पेट भरने को सोसाइटी के बाहर ढाबे पर जाकर उधार करने की नौबत नहीं आईl’ उसने मेरी ओर इंगित करते कहा। तब ध्यान आया कि इसे भी तो मेरा नाम मालूम नहीं है!
तुम दिलचस्प लड़के हो। आना किसी दिन। अपनी कहानी सुना जाना। पता तो चले कि नई पीढ़ी के मन में चल क्या रहा है… माँ बोलीं।
कहें तो आज ही सुना दूँ… तुमने निःसंकोच सोफ़े पर पसरते हुए कहा।  
तभी अमन खेलकर घर लौटा और अपने हिस्से के पकौड़े किसी और को ठूँसते पाकर नाराज़ हो गया। पकौड़ा खाते तुम्हारे हाथ रुक गए। मुझे पता नहीं था भाई कि तेरे हिस्से के हैं…ले, बाक़ी बचे सारे तू खा ले। वैसे पकौड़े बनाना मुझे भी आता है। कहेगा तो रसोई में थोड़े और तल दूँगा तेरे लिए…तुम्हारे सहजता से कहने पर अमन तुम्हारी बग़ल में जा बैठा और पकौड़े दनादन मुँह में डालता बोला- कोई नहीं। आप पहली बार घर आए हो, तो आज इतने से ही काम चला लूँगा। पर रोज तो नहीं आ जाओगे न मेरे हिस्से का नाश्ता हड़पने?
क्या पता, आ भी सकता हूँ। तुम मुस्कराए।
आपने स्कर्ट क्यों पहनी है? दाढ़ी भी मज़े की है आपकी और मैंने अंदर वाले पार्क में टहलते देखा है आपको.. हो तो आप लड़के ही न?अमन ने पूछा तो सब हँस पड़े।
…और इस तरह तुम पूरे परिवार के दोस्त हो गए। हम तुम्हें जज नहीं करते थे- न पहनावे, न श्रृंगार, न बेरोजगारी भरे भविष्य के सपनों पर।
 
बाप की सुनेगा नहीं और ख़ुद कमाएगा भी नहीं, तो तू खाएगा क्या? माँ ने एकदिन तुमसे बेतकल्लुफ़ी से पूछा।
वही तो टेढ़ी खीर है आंटी– तुमने उसाँसे भरते कहा, ‘दुनिया मुझे साँचे में ढालना चाहती है और मैं ज़िंदगी में हर साँचा तोड़कर जीना…
पुराने साँचे तोड़कर नए गढ़ो…कमाओ, दुनिया देखो, उड़ो नए अनुभवों के आसमान में…क्या रखा है रोज़ माँ को रुलाने और बाप से लड़ने में? बोर नहीं हो गए इतने सालों से यही करते-करते? माँ आज अलग ही रंग में थीं।
सच यही है कि हो गया हूँ बोर पर कोई रास्ता नहीं दिख रहा। जिस दिन नशा करके पड़ रहता हूँ, सिर्फ़ उसी दिन ज़िंदगी मज़ेदार लगती है।
तुम तो बड़े ख़तरनाक लड़के हो। मेरी बेटी का पीछा छोड़ दो। किसी कमाते-खाते लड़के से ज़ल्दी ही उसकी शादी करनी है…तुम्हारे साथ भटकती दिखेगी तो शादी में मुश्किल होगी।माँ ने मुस्कराकर कहा तब तुम चौंककर गंभीर हो गए। बोले- 
पहली बार कोई लड़की दोस्त बनी है। उसे भी छोड़ दूँ?
दोस्त बन गई है तो क्या ज़िंदगी बर्बाद कर दोगे उसकी?
सुनकर तुम सोच में पड़ गए। मैं खड़ी थी वहीं और पहले हमदोनों में कभी साझा भविष्य को लेकर कोई बात हुई नहीं थी। न तुमने कुछ कहा, न मैंने सोचा या पूछा। उस पल भी मुझसे पूछ लेने की कोई ज़रूरत महसूस किए बिना, तुमने सीधे माँ से कह दिया –
नहीं करूँगा बर्बाद…अगर आप उसे मेरी ही हो जाने दें। 
ऐ लड़के, अपनी औक़ात में रहोमाँ ने शुरुआत भले मसखरे टोन में की थी पर अब उनका स्वर कठोर हो गया – तुम्हारे साथ घूमती है तो यह मत समझ बैठना कि ऐरे-ग़ैरे ख़ानदान की है। बहुत अच्छे परिवार की है, उतनी ग़रीब भी नहीं है – बाप-दादे की संपत्ति में जितने की वारिस है, उस हिसाब से नौकरी नहीं किए बिना भी ठीक-ठाक ज़िंदगी गुज़ार लेगी। मैं जात-वात नहीं मानती… तब भी उसे तुम जैसे निठल्ले के पल्ले तो नहीं ही बाँधूँगी।माँ का टोन अब नितांत पेशेवर था – मानो ऑफ़िस में बदतमीज़ी पर उतारू किसी मातहत को उसकी असली जगह दिखा रही हों।
तुमने मेरी ओर देखा और ढीठ की तरह नज़रें गड़ाए देखते रहे देर तक। तब मुझसे पूछा –
मैं निठल्ला नहीं रहूँ, बुरी आदतें और अजीब कही जाने वाली धज त्याग दूँ, तो साथ निभाओगी?
मैं मुस्करा दी।
और तब तुमने सचमुच कुछ कर दिखाने की ठानी। मुझे मज़ा आ रहा था तुम्हें बदलने में – कपड़े चुनने से लेकर, उठना-बैठना-बोलना सिखाने में। यह बात तो मुझे ख़ास गुदगुदा रही थी कि यह सब तुम मुझे पाने की ख़ातिर कर रहे हो। माँ की पहचान से तुम्हें पहली मामूली नौकरी मिली। दूसरी अच्छी नौकरी अपने बलबूते। हमदोनों अब जर्नलिज़्म में थे, विदेशी न्यूज़ एजेंसी के लिए काम कर रहे थे और साथ ही रह रहे थे।
तुमने अपना घर छोड़ दिया, पर मज़े की बात यह कि माता-पिता को परेशान करने वाले सारे कारण, मेरे संपर्क में आने के बाद एक-एक करके स्वतः दूर होते चले गए थे। न तो तुम पोनीटेल बनाने, जानबूझकर विचित्र कपड़े पहनने, लड़कियों की तरह सजने या गहने पहनने में रुचि रखने वाले लड़के रह गए थे, न ही निठल्ले। तुम आमूलचूल बदल चुके थे – पहनावे से लेकर, ज़िंदगी के प्रति नज़रिए तक में। 
तब एकदिन माँ ने कहा – अब तो तुम सुधर गए हो, जाओ घर और माँ-बाप को बता आओ कि तुम मेरी बेटी से शादी करने वाले हो।
मैं उनका मुँह भी देखना नहीं चाहता। मैं अब और नसीहतें सुनना नहीं चाहता। शादी कर लूँगा तब उन्हें बताऊँगा तक नहीं।
यह ठीक नहीं। मैं जाकर बता आती हूँ। वैसे भी मेरी बेटी में ख़राबी क्या है? तुमसे ज़्यादा पढ़ी-लिखी, ज़्यादा अमीर, तुमसे ऊँची जाति की…हाँ, रंग थोड़ा दबा हुआ है और काया छरहरी नहीं।
वह जैसी भी है, मैं उससे प्यार करता हूँ। तुम उद्धत स्वर में बोले। 
तब शादी का निमंत्रण देने माँ ख़ुद गईं तुम्हारे घर और तुम्हारे पिता से कहा- 
‘बेटे के मिज़ाज को समझते हुए आपको उसकी शादी में शामिल होना चाहिए। मना क्यों कर रहे हैं?
पिताजी बोले – दरअसल हम बेटे को त्याग चुके हैं।
और वह कहता है कि उसने आपदोनों को त्याग दिया है…पर बच्चे के आगे झुकने में ही बड़प्पन है। आप उसे बुलाइए, बात कीजिए और समझौता कर लीजिए। आख़िर आपका इकलौता बेटा है और अब ढंग से कमाने-जीने लगा है। 
जब आएगा माफ़ी माँगने तब देखी जाएगी।
माफ़ी किस बात की?
घर छोड़ा, बदतमीज़ी की, हमें अपमानित करता रहा हमेशा और अब हमारी मर्ज़ी के खिलाफ़ शादी से पहले से लड़की के साथ रह रहा है।’ 
माँ लौट आईं। तुम्हारी मित्र मंडली और हमारे तमाम रिश्तेदारों की उपस्थिति में शादी हो गई। हमारे साथ पर क़ानूनी मुहर लग गई, तो मैं निश्चिंत हुई।
शादी की शुरुआत में मैंने ख़ूब नख़रे दिखाए और तुमने सहे। मैंने तुम्हें बदल दिया था, इस कारण इतराई रहती थी। लोग तुम्हारे बदलाव पर चकित रह जाते। पहनावा ही नहीं, तुम्हारा तो बातचीत का लहज़ा, उच्चारण तक बदल चुका था।अब तुम नफ़ीस और हाई क्लास वाले थे और मैं वह बेफ़िक्र पत्नी जिसे लगता था कि मेरा अहसान नहीं भूलते तुम हमेशा मेरे ही रहोगे। पर मैं ग़लत निकली।
माँ तुम्हारा बदलना पकड़ पा रही थीं। अक्सर कहतीं- ‘अनुपम की निगाह अब भटकने लगी है। भले मैं मानती नहीं।
माँ समझातीं – शायद वह घर का बना खाना खाना, सजी-धजी गृहस्थी में रहना पसंद करता है। मैं परवाह नहीं करती।
औसत पत्नियों की तरह पकाने-खिलाने-साफ़-सफ़ाई के झंझट से बचे रहने की चाहत मेरी हमेशा से थी और अपने अहसानों के बदले मैं चाहती थी कि तुम मेरी आदतों के साथ अजस्ट कर लो। आख़िर तुम्हें इतना आधुनिक और ग़ैर-पारंपरिक तो होना ही चाहिए था कि आम भारतीय पतियों वाली अपेक्षा मुझसे नहीं रखो…और फ़िर मुझमें कोई तो बात दिखी होगी तभी तुमने मुझे अपनाया। 
तब भी माँ ने समझाना नहीं छोड़ा। बोलीं – 
पति के प्यार के लिए पकाना, घर सजाना वगैरह किया जा सकता है…
मैं नहीं कर पाऊँगी।मैंने तल्ख़ी से जवाब दे दिया।
  
जल्दी ही तुम्हारा बार-बार लंदन जाने का सिलसिला शुरू हो गया। तुम लंदन ट्रिप मैनेज कर लेते थे। तुम्हें अपनी बॉस को पटाना आता था। मुझे नहीं आता था अपने बॉस को पटाना। मुझे एजेंसी की इंडिया रिपॉटर के रूप में अलग-अलग जगहों पर भेज दिया जाता और हम महीनों नहीं मिल पाते।  
मैं भले अनजान थी, तुम्हारे बार-बार लंदन जाने के कारणों की ख़बर शायद तुम्हारे घर तक पहुँच चुकी थी। तुम्हारी माँ ने एकदिन मुझे बुलवा भेजा। क्या बेटे से उनकी सुलह हो गई थी? उन्होंने मुझे घर बुलाकर पारंपरिक तरीक़े से मुँहदिखाई की रस्म अदा की और लगे हाथों सलाह दे डाली कि मैं थोड़े अरसे नौकरी छोड़कर तुम्हारे साथ लंदन ही बनी रहूँ। क्या मुझे अच्छा लगेगा कि तुम अकेले रहते किसी फिरंगन से दिल लगा बैठो? नहीं, तुम्हारा किसी से भी दिल लगा बैठना मुझे गँवारा नहीं था, पर तुम्हारी माँ का प्रस्ताव मैंने हँसकर टाल दिया क्योंकि तुम्हारे प्यार में आकंठ डूबी मैं, तब तुमपर पूरा भरोसा करती थी। तुम नाराज़ हुए – माँ ने अचानक बुला लिया और तुम दौड़ी चली गई।आख़िर क्यों? मैंने बात बदल दी…प्यार को बेरंग करने वाली बहस में क्यों उलझना!  
माँ ने समझाया कि जब तुम अपने घरवालों की हर इच्छा का विरोध करने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हो, तब मेरे अहसानों या शादीशुदा होने का लिहाज़ तुम नहीं करोगे। आवेग में, अकस्मात कोई भी सही-ग़लत निर्णय लेकर आसमान में अकेले उड़ जाने से क़तई परहेज नहीं करोगे। पर मैं उनकी राय से इत्तफ़ाक नहीं रखती थी। 
तुम महीनों भारत नहीं लौटे, फ़ोन पर बीमार कहानियाँ सुनाते मुझे बहलाने की ग़ैर मुनासिब कोशिश करते रहे, तब मैंने लंदन में सोहेल से संपर्क किया। पता चला कि तुम किसी सोफ़ी के साथ रह रहे हो। मैं चकराई। पूछा – क्या वह ख़ूबसूरत और दुबली-पतली है? घर ख़ूब सजा-धजाकर रखती है? खाना पकाने की शौक़ीन है? सवाल बेवकूफ़ाना थे पर जवाब बहुत संजीदगी से दिया सोहेल ने। 
नहीं, सोफ़ी न तो सुंदर कही जा सकती है, न दुबली। अनुपम ने जो नया न्यूज़ चैनल ज्वायन किया है, वह उसके मालिकों में से एक की बेटी है, साथ काम करती है। घर की सज्जा या इस बारे में कि वे कैसे रहते, पकाते-खाते हैं – मुझे नहीं मालूम।
मैंने अपने ऑफ़िस से पता किया- हाँ, तुम इस्तीफ़ा दे चुके थे।  
तलाक़ की बात तो तुम्हारी तरफ़ से उठनी ही थी – उठी। माँ ने मुझसे कहा कि अनुपम का व्यक्तित्व तुम्हारे संपर्क से निखर गया, अब सोफ़ी के संपर्क से वह करियर में नई ऊँचाइयाँ छूने की चाहत रखने लगा होगा। रोकने का कोई फ़ायदा नहीं, तलाक़ दे दो, ज़िंदगी में आगे बढ़ जाओ। 
मैं क्या यूज़ ऐंड थ्रो मटीरियल हूँ माँ?मैंने पूछा। माँ ने जवाब नहीं दिया।
 
मैं लिव-इन नहीं चाहती थी, इसीलिए शादी तुम्हें करनी पड़ी थी। पता चला कि सोफ़ी शादी करना नहीं चाहती थी, तुम्हारी ज़बर्दस्ती की वजह से उसे करनी पड़ी क्या अंग्रेज लड़की की वफ़ादारी पर तुम्हें भरोसा नहीं था किसी भारतीय लड़की की तरह? सोहेल ने हँसते हुए बताया कि शादी के लिए तुमने सोफ़ी के घर के खूब चक्कर लगाए, सोफ़ी और उसके परिवार वालों को मनाने के लिए बहुत पापड़ बेले। 
तलाक़ तो दे दिया पर मैं सिवियर डिप्रेशन में चली गई…और अब तक हूँ- चार साल बीत जाने के बावज़ूद। अपना घर ख़ाली करके नई सोसाइटी में, माँ के नए घर लौटते बहुत तकलीफ़ हुई। तुम इतने तेज़ निकले कि अपना काम निकालकर मुझे फेंक गए बेलिहाज़ और मैं इतनी घटिया कि तुम्हारे इरादे पकड़ तक नहीं पाई? क्या सचमुच यह मेरा मोटापा था या कि खाना नहीं पकाना, घर नहीं सजाना था असली कारण? सुनकर माँ हँसी और डॉक्टर भी। अगर ऐसे कारणों से शादियाँ टूटने लगें तब तो कोई भी शादी बच नहीं पाए! हर छरहरी लड़की माँ बनकर मोटी हो जा सकती है और कामकाज़ी लड़की खाना नहीं भी पका सकती है। अनुपम को भी आता है पकाना, तो वह ख़ुद पकाने की पहल क्यों नहीं करता था? पर मुझे तय नहीं था कि लोग सही कह रहे हैं। मुझे जब-तब अपराधबोध घेरकर परेशान करने लगता था।
 
सोफ़ी पर तो मुझे तमाम ग़ुस्सा था। और साथ ही थी ईर्ष्या। तुमदोनों से। कितने घटिया, कम मनुष्य निकले तुमदोनों! किसी और के हिस्से का सुख भोगते कोई अपराध भाव नहीं आता सोफ़ी के मन में?और तुम्हारे मन में भी अहसानफ़रामोश होने का कोई गिल्ट नहीं? आख़िर क्यों एक औरत इस तरह किसी दूसरी औरत का घर उजाड़ देती है? मनुष्य को मनुष्यता छोड़ने का हक़ नहीं मिलना चाहिए – कभी नहीं। मन में उठते तमाम बेतरतीब सवालों, गुस्से और नफ़रत से जूझती मैं दवा खाकर ख़ुद को कुछ भी नहीं सोच पाने की अवस्था में ले आती, तब ही अच्छा महसूस करती।
कुछ महीने दवा के प्रभाव में सोए रहने के बाद मैंने नौकरी बदल ली। उस ऑफ़िस में काम कैसे करती, जहाँ सबको पता था कि तुमने मुझे छोड़ दिया!! इतनी अच्छी नौकरी छोड़नी पड़ी, एक निहायत ही घटिया आदमी के चक्कर में…अनुपम तुम अंदर से थे उसी बनावट के या कि महत्वाकांक्षाओं ने तुम्हें…  
  
…कमरे के एक कोने में चुपचाप खड़ी मैं वर्तमान में लौटी। कमरे में हलचल है। अर्थी उठाए जाने की तैयारी की जा चुकी।
‘उठो, कपड़े झाड़ लो एकबार, बाल ठीक करो – ऐसे निकलोगे घर से बाहर?’ मैंने तुमसे कहा। नहीं, सशब्द नहीं।
‘मुझसे एक बार तो बात करो और कह दो कि जबतक साथ रहे, मुझे प्यार करते रहे।’ मैं सिसकियाँ रोकने की कोशिश करने लगी।
पर तुमने कुछ नहीं कहा। कोई भी कुछ नहीं बोला। लगा जैसे एकाएक सब बाहर निकल गए – कैमरामैन, जर्नलिस्ट, रिश्तेदार, पड़ोसी; और पलक झपकते कमरा रुदन के समवेत स्वर के साथ ख़ाली हो गया। सब सीढ़ियों से उतरकर नीचे पहुँच चुके और अब अर्थी को गाड़ी में डाल रहे हैं – बरामदे में खड़ी होकर यह देखते ही मैंने निकल जाने की सोची।
तब लगा कि सासू माँ से मिलकर जाना चाहिए। मैं अपनी ससुराल में हूँ – मैंने ख़ुद को याद दिलाया और अंदर के कमरे में घुस गई। वे बैठी थीं बेसुध-सी लोगों से घिरी। अनवरत रो रही थीं। मैं बिना कुछ बोले पास चली गई और उन्हें गले से लगाते फफक पड़ी, तब उन्होंने चौंककर देखा मुझे और पीठ पर थपकी देते देर तक आगोश में बाँधे रखा।
सोफ़ी को ख़बर भिजवाई गई। मैं ऐसे दुश्मन से मिलना नहीं चाहती थी, जिससे नफ़रत की आग अंदर अबतक धधक रही हो, पर वह भागती हुई आई और मुझे कसकर जकड़ लिया। बोली अंग्रेज़ी में – तो तुम ही हो निम्मी। जो हो गया, उसपर भरोसा कर पा रही हो?ठीक यही सवाल मैं भी उससे पूछना चाहती थी – जो हुआ उसपर भरोसा कर पा रही हो? मेरे हिस्से का सुख छीनकर भोगने की कोशिश की तुमने…पर कहाँ पहुँचा गई ज़िदंगी तुम्हें? वह तुम्हारे पास गया था, तो उसे सहेज-सँभालकर रखती न! ऐसे कैसे अड़तीस साल की उमर में हमेशा के लिए चले जाने दिया? अब वह कभी तुम्हारे पास नहीं लौटेगा – भरोसा कर पा रही हो? पर नहीं, मैंने कुछ कहा-पूछा नहीं।
मुझसे अलग होकर सोफ़ी ने अपने दोनों बच्चों को इशारे से पास बुलाया और कहा – आंटी के पाँव छुओ। बेटा-बेटी आज्ञाकारी भाव से मेरे पाँवों की ओर झुकने को थे कि मैंने ज़मीन पर बैठकर दोनों को ख़ुद से चिपका लिया। लंदन में जन्मे-पले, अंग्रेज माँ और भारतीय पिता के ये दोनों बच्चे पहली नजर में माँ की तरह दिखते थे, तब भी मैंने खोज ही निकाली बेटी के चेहरे में छुपी पिता के चेहरे की छाप। 
साढ़े तीन और ढाई साल के बच्चे। मेरे भी हो सकते थे। पर तब हमने बच्चे नहीं पैदा करने का निर्णय लिया था।
मुझे तुम्हारे लिए हमेशा बुरा लगता रहा…अनुपम ने मेरी इच्छा के विरुद्ध तुम्हें तलाक़ दिया, ज़बरन मुझसे शादी की’, सोफ़ी ने रोते हुए कहा, तो मैं अपने अंदर कहीं अटक गई। बुरा लगता रहा, सचमुच? वह मेरी सुनता नहीं था। बहुत कठिन आदमी था – असंभव किस्म का ज़िद्दी। देखो, शराब ने कहाँ पहुँचा दिया उसे! अपने ही मन की करता रहा हमेशा, मुझसे झूठ बोलकर भी वहाँ जाता रहा…बोला कि प्यार के क़ाबिल बनना चाहता हूँ, कोशिश कर रहा हूँ…सुनता नहीं था, वरना मैं समझा सकती थी, बचा सकती थी…मेरे नन्हे बच्चों को देखो, समझ नहीं है इन्हें कि क्या हो चुका…
किसके प्यार के क़ाबिल बनना था उसे? कहाँ जाता था तुमसे झूठ बोलकर? मन में उठे सवाल मुझसे पूछे नहीं गए। सोफ़ी दुखी थी, समझ नहीं पा रही थी कि उसकी बातों के सिरे जुड़ नहीं पा रहे और मैं वैसे भी उससे बात नहीं करना चाहती थी।
सासू माँ ने मुझे दुबारा अपने पास बैठने का इशारा किया। अब किस रिश्ते से देर तक यहाँ बैठूँ या अपना कोई अधिकार समझूँ? मुँहदिखाई में मिला सोने का लॉकेट, कान का बुंदा, साड़ी, चेन, अँगूठी – इतने सामान के  अलावा मुझे यहाँ से जोड़ने वाला और कोई तार नहींमैं उनके कहे से बैठ तो गई पर बमुश्किल दो मिनट बीतते फिर से उठ खड़ी हुई। इस बार वे कुछ नहीं बोलीं। 
उनके इशारे पर मुझे नीचे तक छोड़ने को एक महिला साथ आने लगी। ज़रूरत नहीं है, मैं चली जाऊँगी, मैंने कहा। उन्होंने सुनकर भी अनसुना कर दिया। हम सीढ़ियाँ उतरकर नीचे आ गए, मैं मेन गेट की ओर बढ़ने लगी, तब वे बोलीं – सोफ़ी पागल-सी हो गई है। इसे कुछ होश नहीं कि क्या कर-कह रही है। एक तो बॉडी लेकर लंदन से अकेले यहाँ आना पड़ा…वह भी तब, जब अनुपम से तलाक़ बस होने ही वाला था, सारे कागज़ तैयार हो चुके थे। अरसे से पट नहीं रही थी दोनों में।’ वे ठिठकीं, तब फुसफुसाती-सी बोलीं – अनुपम किसी और को डेट करने लगा, तब बच्चे पैदा कर लेने के बाद भी धोखा देने के लिए सोफ़ी उसे लगातार भला-बुरा कहती रहती थी – यह बात मुझे अनुपम की मौत से पहले ही भाभी बता चुकी थीं। सोफ़ी रुकेगी शायद श्राद्ध तक। क्या करेगी ज़्यादा रुककर? नहीं? आप तो फ़िर से आएँगी न? भाभी को अच्छा लगेगा आपका आना…
 
मुझे एक बार फ़िर से सदमा लगा। सोफ़ी से भी धोखा और तलाक़? किसी तीसरी से डेटिंग? सचमुच अनुपम?! मैं ठक खड़ी हो गई – अपने अंदर कोई प्रतिक्रिया तलाशने, गड्डमड्ड हो रही भावनाएँ साधने को। क्या नफ़रत के पैमाने मुझे किसी ग़लत चेहरे तक पहुँचा गए थे? यह सब बाद में आराम से सोचा जा सकता था, पर क्या सोफ़ी से दुबारा मुलाक़ात हो पाएगी कभी?
मैंने पाया कि रोती हुई मैं लौटकर एकबार फ़िर से सीढ़ियाँ चढ़ने लगी हूँ और साथ खड़ी भद्र महिला मुझे चकित भाव से देख रही हैं।
नहीं, किसी से कुछ कहना-पूछना बाक़ी नहीं रह गया था। मैं तो बस सोफ़ी को एक और बार गले लगाना, दिलासा देना चाहती थी – अबकी बिना किसी नफ़रत के।

नीला प्रसाद
राँची में 10 दिसंबर 1961 को जन्म। कोल इण्डिया लिमिटेड, कोलकाता से महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृत्त।
चार कहानी संग्रह ‘सातवीं औरत का घर’, ‘चालीस साल की कुँवारी लड़की’ ‘ईश्वर चुप है’, ‘मात और मात’ तथा एक उपन्यास ‘अंत से शुरू’ प्रकाशित।
सह-संपादन – ‘डॉ दिनेश्वर प्रसादःकृति और स्मृति’
अन्य विधाएँ – कविता, लेख, डायरी, संस्मरण।
सम्मान – विजय वर्मा कथा सम्मान, कमलेश्वर स्मृति कथा सम्मान और यंग मैनेजर्स अवॉर्ड।
पता – एफ-103,साकेत धाम अपार्टमेंट, प्लॉट ई-10, सेक्टर-61, नोएडा-201307.
ई-मेल – p.neela1@gmail.com
मोबाइल – 9899098633
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