Wednesday, October 16, 2024
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डॉ. ऋचा गुप्ता की लघुकथा – प्यार की फिलोसफी

“प्यार भी अजीब शय है ना ! तक़रीबन सही सही नहीं कहा जा सकता कितनी बार की जा सकती है ।”
लड़का बड़ी गौर से लड़की का चेहरा देख रहा था। उसके चेहरे पर तैर रहे विस्मय के भाव साफ़ दिखाई दे रहे थे ।
“मतलब… कहना क्या चाहती हो और कितनी बार कर सकती हो प्यार ।”
लड़की ने बड़ी बेशर्मी से पैरो को टेबल पर रखा और एक ज़ोर का ठहाका लगाया।
“क्यों अब इस प्यार पे भी बस तुम आदमियों का हक़ बचा है क्या ?
लड़की के चेहरे पे असंख्य भाव आ के बैठ गये ।घड़ी भर में मासूम सा दिखने वाला चेहरा सख़्त ,बेजान और उम्र दराज दिखने लगा था।लड़का थोड़ा सकपाकाया और उसने बात बदलने में ही भलाई समझी।
“तुम्हारे पैर कितने सुंदर है।जैसे गुलाबी फ्लेमिंगो की पतली लंबी लंबी टाँगे ।”
पर लड़की बात बदलने के मूड में बिलकुल दिखाई नहीं से रही थी।
“पता तुम्हें हर बार जब टूटे दिल के टुकडे समेटे जाते है ना।तो उसके बाद जो शख़्स तुम्हें दिखायी देता है ,वो कभी पहेले जैसा होता हीनहीं है।हर बार दिल जो लकीरें खींच दी जाती है।उसके बाद मासूमियत मरने लगती है।और मरे हुए दिल से जो मोहब्बत होती ,वो बसकामचलाऊ दिल धड़कने जितनी ही होती है । एक बार जो शख़्स मर जाता है वो वापस नहीं आता और जो रह जाता है वो बस उस मरीबेजान रूह का लिबास भर है।”
लड़का लड़की की गोल गोल बातो में कही खोता जा रहा था। बस समझ कुछ नहीं पा रहा था ।
“छोड़ो तुम कहाँ मेरी फ़ॉलोस्फ़िकल बातो में पड़े हो ,तुम अपनी फिलोसफी में खुश रहो। प्यार मतलब एक नया शख़्स और एक नयाजिस्म…है ना !
उसके पीछे की रूह कैसी है किसे फ़र्क़ पड़ता है ।”
शायद लड़का इतनी सच्चाई सुनने के लिए तैयार ना था।सच्ची बाते हमेशा ही कड़वी होती। जल्दी पच नहीं पाती।
“आज तुम्हारा दिमाग़ ठिकाने पर नहीं है ।फिर कभी मुलाक़ात होगी ।”
यह कह कर लड़का उठ खड़ा हुआ।और लड़की के चेहरे पर एक शरारत भरी मुस्कान तैर गई।
डॉ ऋचा गुप्ता
डॉ ऋचा गुप्ता
सहायक प्रोफेसर दिल्ली विश्वविद्यालय. अध्ययन, अध्यापन, लेखन में रुचि। अर्थशास्त्र में एम.ए., एम.फ़िल और पी .एच .डी । पिछले कई सालों से दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन कर रही हैं, ।कहानियों के माध्यम से अपनी साहित्य में रुचि को सभीके सामने रखने प्रयास करतो हैं। संपर्क - [email protected]
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1 टिप्पणी

  1. पुरवाई का यह अंक भी पिछ्ले अंकों की तरह नए विचार और नई रचनाओं का मंच साबित हुआ। संपादकीय की साफगोई और विचारों की बेबाकी ने साबित कर दिया की भाषा वही प्रभाव छोड़ती है जिसमे सच्चाई हो और सजीवता हो। ब्रिटेन के भारतीय मूल के प्रधानमंत्री के निजी जीवन की धार्मिक आस्था ने धर्मसापेक्षता को प्रबल किया और आपके द्वारा अपनी पूजा पाठ करना फिर बंद करने के कारण ने एक सच्चे वफादार भारतीय पति की झलक प्रस्तुत की। अच्छा लगा,

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