जो जीवन जन्म के साथ हमें मिलता है वह हमारा प्रारब्ध होता है। जीवन चुनने का अवसर हमें नहीं मिलता पर किस्मत अच्छी रही तो अभिनय में अपना किरदार हम चुन पाते हैं। पर कैसी विचित्र नियति है उसकी कि उसने न तो जीवन चुना और न ही किरदार। दोनों ने उसे चुन लिया था।
अम्मा बाबू ने नाम दिया राधेश्याम पर उसके नाम में से यह श्याम ऐसे विलुप्त हुआ, जैसे राधे से बिछड़कर मुरलीधर श्याम द्वारका जा बसे थे। तो बच गया अकेला, ‘राधे’। अब यदि यह राधेश्याम सिर्फ ‘राधे’ भी रहता तो भी गनीमत थी पर गनीमतों के बाहर था उसका जीवन तो यह राधे नाम तो अब बहुतेरे लोगों के लिये ‘राधिका’ बन चुका है।
फिर जीवन कहिये या हालात, वक़्त ने कुछ ऐसी शक्ल अख़्तियार की कि उसे राधे कहने वालों की गिनती बहुत तेज़ी से घटती चली गई और आज हालत ये कि अस्सी प्रतिशत लोगों के लिये वह केवल राधिका है, राधिका रानी। बाकी बीस में उसके राधे के नाम से जानने वाले वे लोग बचे हैं जो उसके अपने या परिचित लोग हैं और उसे उसकी असली पहचान से जानते हैं।
राधे-राधे का पावन सम्बोधन ब्रज में लोगों की जिव्हा के अग्रभाग पर सजा रहता है। इधर से निकलो तो राधे-राधे, उधर से गुज़रो तो राधे-राधे। राधे रानी सरकार का राज है ब्रज क्षेत्र के लोगों के दिलों पर, किंतु यही पुनीत संबोधन राधे के लिये एक विशेष अर्थ के साथ प्रकट होता है। वह चलता है तो लोग छेड़कर पुकारते हैं, राधे-राधेsss या फिर हँसकर आवाज़ देते हैं, जय हो राधिका रानी की। यह नाम उसके वजूद से कुछ यूँ चस्पा हो गया है कि कानों में पड़ता है तो अनचाहे ही उसकी मतवाली चाल में कुछ और लचक आ जाती है। वह भी क्या करे, जीवन में राधे को ठेलकर राधिका ने पक्का रंग जो चढ़ा दिया है।
ब्रज क्षेत्र में सदियों से रासलीला का चलन है। यहाँ की मशहूर रासलीला मण्डली में उसके बाबा कभी कंस का रोल किया करते थे। उसके पिता जब तक रहे नन्द बाबा बनते रहे। शिब्बो चाचा बनते थे सुदामा और उसके गोरे रंग और तीखे नयन-नक्श के कारण उसे बना दिया जाता था राधिका रानी की सबसे छोटी सखी। वृंदावन के इस चौबे परिवार में लीला, कीर्तन आदि में भाग लेना शौकिया नहीं बल्कि व्यवसाय और रोजी रोटी से जुड़ा है। उसके पिता लीला से ही जुड़े रहे पर उन्हें बंसीवारे ने लम्बी उम्र न देकर जल्दी ही अपनी शरण में ले लिया। छुटपन की याद है, दादी कहा करती थीं, फूलैगौ सो झरैगौ, चढ़ैगौ सो गिरैगौ। पर पिता को इतना अवकाश भी न मिला।
तो उसका लीला में हिस्सा लेना भी उतना ही स्वाभाविक था जितना किसी बालक का स्कूल जाना। सुंदर लहंगा चोली और गुलाबी चुनरिया के साथ सुंदर गहनों और मेकअप के साथ उसे भी बिठा दिया जाता बाकी सखियों के साथ रासलीला की झाँकी में। रात गहराती तो उस अबोध को नींद आ जाती पर उसके सुंदर सलोने चेहरे से किसी की नज़र ही न हटती। वह विशाखा बनी सखी पर जा लुढ़कता और लोगों को इसमें भी लीला दिखाई पड़ती। सबसे सुंदर और प्यारी जो लगती थी छोटी सखी।
छोटी सखी की भूमिका से उसकी तरक्की हुई बड़ी सखी के रूप में पर एक तो उसका सुचिक्कन रंगरूप निखरकर आया और दूसरे वह बहुत जल्दी ही वह अपने काम में इतना पारंगत हो गया कि वृंदावन की ‘राधिका रानी रास मंडल’ की रासलीला में उसकी ट्रेनिंग श्री राधा रानी के रूप में होने लगी।
गोरा रंग, सुंदर तीखे नयन नक्श, छोटा कद, छरहरा बदन और सबसे ऊपर फूलों की डाली जैसी पतली कमर की लचक, उसमें सारे गुण थे राधा रानी की भूमिका के लिये। उसकी कमनीय कदकाठी में भी झुकाव कुछ अलग दिशा में ही प्रतीत होता था। हावभाव भी स्त्रियोचित गुणों से भरपूर थे और इसका कारण छुटपन ही से उसका सखी रूप का स्वांग और कड़ी नृत्य साधना थे। इस सबके चलते उसके व्यक्तित्व में तथाकथित पुरुषोचित कठोरता और शुष्कता का अभाव उसे अधिक स्त्रैण ही दर्शाता था। उसकी बारीक आवाज़ में कैशोर्य के बीतने के बाद भी न तो वह खुरदुरापन दाखिल हुआ, न ही उसमें ऐसा कड़कपन शामिल हुआ जो उसके स्वर को मर्दाना बना पाता। स्वर की कोमलता और माधुर्य ने उसके इन्ही गुणों को जैसे द्विगुणित कर दिया।
बचपन ही से लीला के माहौल में पला बढ़ा राधे इन सब कारणों से ‘राधिका रानी रास मंडल’ के कर्ता धर्ता परमा भगतजी की सारी उम्मीदों पर खरा उतरता था। भगतजी की पहल पर उसने छुटपन से ही पूरे मनोयोग से लीला के एक अन्य वरिष्ठ कलाकार से कत्थक की भी ट्रेनिंग लेना शुरू कर दिया था। लीला के लिये अनुशासन और कड़ा अभ्यास जरूरी था और अभ्यास से वह कभी जी चुराए ऐसा मौका न चाचा आने देते, न ही परमा भगतजी। फिर जिस काम में मन रुचे उससे भला कोई जी चुराता है। जल्दी ही अभ्यास के दौरान वह ऐसे चक्कर लेने लगा कि जैसे समस्त देह एक काठ के लट्टू में बदल गई हो।
जब रास का रंग चढ़ता तो उसकी बलखाती देह में जैसे समा जाती थीं साक्षात राधिका रानी। महारास की झाँकी में इतना जोरदार युगल नृत्य होता कि जैसे साक्षात राधा कृष्ण ने अवतार लिया हो। श्रद्धालु इतने भाव विभोर हो उठते कि एक के बाद एक गानों की फरमाइशों की झड़ी लग जाती। बंसी बजाते खड़े श्रीकृष्ण के चारों ओर वह ऐसे परिक्रमा करता जैसे अपनी धुरी पर घूर्णन करती पृथ्वी सूर्य के गिर्द चक्कर लगाती है। बिजली सी फड़कती उसकी देह में जाने कैसे इतनी शक्ति समा जाती कि उसके पैर द्रुतगति से नृत्यरत होने पर भी न थकते। कृष्णभक्ति में डूब जाता उसका पोर पोर। उसे महसूस होता जैसे वहाँ अन्य कोई नहीं बस कृष्ण ही कृष्ण हैं चहुँओर।
उसे याद है जिस दिन पहली बार वह राधिका रानी के गेटअप में लीला में उतरा था तो कैसी पुण्य अनुभूति हुई थी उसे। गर्व, दिव्यता और पवित्रता के मिले जुले भावों से उसका चेहरा चमक रहा था। जब वह कृष्ण बने मुरारी भैया के साथ महारास की लीला में नाचा था तो उस मुख्य झाँकी में नोटों की इतनी बारिश हुई थी कि परमा भगतजी उनकी बलैया लेते थक नहीं रहे थे। डंका ही बज गया था उसके नाम का।
यही तो चाहा था उसने तभी से जब से होश संभाला था। यूँ कहने को तो यह उसके स्वप्न के साकार होने की बेला थी पर इधर ये असमंजस था कि राधे को छोड़ता नहीं था। वह भी क्या करता। जो कोई और भी होता तो उसकी मनोदशा भी इससे भिन्न तो न होती। दरअसल उसके जीवन में दो तरह की बातें एक साथ घट रही थीं और दोनों में इतना विरोधाभास था कि राधे समझ नहीं पा रहा था कि क्या सही है और क्या गलत?
और ये विरोधाभास कुछ यूँ था कि जहाँ एक ओर तो राधा रानी के स्वरूप में उसकी बढ़िया परफॉर्मेंस की चहुँओर तारीफ़ें गूंज रही थीं। ढेर सारे बुलावे आ रहे थे लीला के। भगत जी फूले नहीं समा रहे थे। उसकी तनख्वाह में भी बढ़िया बढ़त मिली थी। मने सब कुछ उसके मन को हर्षाने वाला। पर यह सब लीला होने तक रहता।  बाहर की दुनिया इससे अलग थी।
मतलब एक ओर इतना सम्मान और दूसरी ओर उसके आसपास, घर, पड़ोस, यार दोस्त, कॉलोनी के लोगों और रिश्तेदारों के चेहरों पर खेलती तिर्यक मुस्कानें उससे छुपी न थीं। उनकी छेड़छाड़ में छुपे तंज को समझने लायक उम्र हो चुकी थी राधे की। उसकी प्रतिभा का उन मनचलों के आगे कोई मोल नहीं था जो उसे मनुष्य नहीं मनबहलाव का एक खिलौना भर बनाने को आतुर दिखाई पड़ते थे। उन्हें उसकी प्रतिभा या मेहनत नहीं केवल उसकी देह की कमनीयता और लचक दिखाई पड़ती है। उसकी देह पर फिसलती उनकी लोलुप दृष्टि में तैरते अश्लील आमंत्रण और उनके अशोभनीय इशारे देखकर सिहर जाता उसका मासूम मन। मन में कहीं किसी चुभन का अहसास होने लगा था उसे। जैसे ये नज़रें नहीं उसे छलनी कर देने वाले खंजर थे जो उसकी देह से खाल तक छील लेने को आतुर दिखाई पड़ते।
जान चुका था राधे कि उसकी हैसियत कागज़ के उस पुतले से अधिक नहीं जो दावानल में खुद को बचाये चलने की कोशिश कर रहा है। वह उन लड़कों से दूरी बरतने का पूरा प्रयास करता। स्कूल के बाद का समय नृत्य अभ्यास ले लेता। बाकी बचे थोड़े बहुत खाली समय में यूँ भी उसका वक़्त बहनों और उनकी सहेलियों के साथ ही बीतता था। पुरुषों की इस दुनिया से स्त्रियों की वह दुनिया उसका कवच थी, जहाँ वह स्वयं को पूरी तरह सुरक्षित और प्रसन्न महसूस करता।
अकेला होता तो विचित्र से ख्यालों में घिर जाता। कैसी है न ये दुनिया। पुरुषों की इस शुष्क और पथरीली दुनिया में किसी पुरुष के लिये कोमलता से बढ़कर कोई अभिशाप नहीं, राधे यह समझने लगा था। उनकी दृष्टि में गड़ती थी उसकी ये लोच और उसका यह पवित्र काम भी जिसे पेशा या कामधंधा कहते उसकी जबान जल जाती क्योंकि उसके लिये यह साधना थी, पवित्रता थी, संस्कार था और कृष्णभक्ति भी थी।
अपनी राधिका के मुखमंडल पर विषाद की छाया और एकांत में उसके मुखारविंद से निकलती अस्फुट ध्वनियाँ देर तक परमा भगतजी की नज़रों से बच न सकीं। उड़ती चिड़िया के पर गिनने वाले भगतजी ने बहुत स्नेह से उसके मन की थाह ली। उसकी दुविधा को जानकर वे गम्भीर हो गए। वे उम्रदराज व्यक्ति थे। दुनियादारी उनसे कहाँ छिपी थी। जानते थे कलाकारों के लिये समाज में व्याप्त विरोधाभासी व्यवहार को भी और उससे पीड़ित कमउम्र कलाकार के मन को भी। प्रेम से उसके सिर पर हाथ फिराते हुए उन्होंने उसकी उहापोह से उसे निकालने के लिये ही तो उन्होंने राधे को सुनाया था वह किस्सा जब रास मंडल में श्री हरिराम व्यास ने किशोरीजी को पायल पहनाई थी।
“तो लल्ला, बात कछु ऐसे भयी कि एक दफे यहाँ रास मंडल में श्री राधा-कृष्ण रास नृत्य कर रहे थे और राधिका जी की पायल टूट गई, व्यासजी (विशाखा सखी के अवतार) जो कि लीला में लीन थे, उन्होंने तुरंत अपनी तुलसी माला को गले से तोड़कर श्री प्रिया जू के चरणों में बांध दिया । वैष्णवों में से कुछ का विरोध सामने आया पर उनका कहना था कि जो अगर श्री राधारानी की सेवा में इसका इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है तो यह भला मेरे लिए किस काम की है। जिसने भी सुनी बस शीश झुका दिया। तो बोलो जै राधा रानी सरकार की।” इस बात को सुनकर राधे सहित सब दंग रह गए।
“तो ये है राधा रानी की प्रतिष्ठा। यूँ भी जब रास होता है तो उनके माध्यम से साक्षात कृष्ण और राधिका ही तो लीलारत होते हैं। फिर तुम जानत हो लाला कि ब्रज के तो कण कण में राधा कृष्ण विद्यमान हैं। ब्रज में केवल एक ही पुरूष है राधे, और वे हैं बंसी बजइया, रास रचइया लीलाधर कृष्ण भगवान। बाकी सब गोपियाँ हैं। तो तुम पर उँगली उठाने वाले भी सब राधे राधे। और सुन लो लल्ला, गोवर्धन परबत को उँगली पर उठाने वाले ने तुम्हें चुना है लीला के काज तो ये बहुत भाग की बात है।”
भगत जी अपनी उँगली उठाकर आकाश को इंगित किया।
“पर भगतजी….”
“फिर तुम तो कलाकार हो कृष्ण बनो या कंस या कि राधा रानी। कलाकार के लिये ये दुविधा नहीं होनी चाहिये। जिस चरित्र को वह जीता है उसमें उतरना किसी साधना से कम नहीं लाला। इस साधना में खोकर खुद को साबित करो। फिर कोई कछु कहे ध्यान मत दो। हम कह रहे हैं कि तुम केवल अपने अभ्यास पर ध्यान लगाओ राधे बेटा। कोई कमी न रहने पाये। तुम्हे तो मालूम है लाला, दिल्ली वाली लीला में मात्र दो दिन बचे हैं। फिर कल सुबह हम दिल्ली के लिये रवाना हो जाएँगे। अब छोड़ो ये सब बेकार की बातें।”
मुस्कुरा दिया था राधे, भगत जी की बातें सुनकर। आज उसके पिता यदि होते तो उनके बराबर ही होते। शायद उसे ऐसे ही दुनियादारी की सीख दी रहे होते। शिब्बो चाचा अब लीला से रिटायर हो चुके हैं। वे भी यही समझाते थे कि लीला बहुत बड़ी जिम्मेदारी है। भागवालों को मिलता है यह मौका। सात जन्म के पुन्न रहे होंगे जो उसने यह सेवा का अवसर पाया है।
सच ही तो है चाचा का जीवन तो सुदामा या ग्वाल बाल बनने या फिर लीला के दूसरे कामों में प्रबन्ध करते बीता। कहाँ मिल पायीं उन्हें मुख्य भूमिकाएँ। राधा कृष्ण को हसरत से  देखते हुए उनकी जवानी बीत गई पर कभी भी वे वह न बन सके जो बनने की साध पाले थे। इसीलिए अब राधे में अपने सपनों की परिणति उन्हें बहुत सुकून देती है।
उसके बाद राधे ने मुड़कर नहीं देखा। उतर गया वह राधिका रानी के चरित्र को साकार करने के लिये। किशोरावस्था से शुरू हुआ था उसके राधिका बनने का सिलसिला और वर्षों तक चलता रहा। बारहवीं के बाद उसने पढ़ाई छोड़ दी क्योंकि अब जिम्मेदारी बढ़ गई थी तो बहुत कम वक़्त मिलता था उसे। वैसे भी बाहर की इस दुनिया से उसे विरक्ति सी होने लगी थी क्योंकि इसके मूल में वही व्यवहार था जो उसके पुरुषत्व को अक्सर निशाने पर ले लेता था।
कैसी विडंबना थी कि युवावस्था की दहलीज पर खड़े होकर उसे अपने पुरुषत्व को साबित करने के लिये जूझना पड़ रहा था। कोमल देह में उपस्थित ऐसा पुरुषमन जो प्रेम करना भी जानता था और बदले में प्रेम पाने का आकांक्षी भी था। चंदा का प्रेम जो उसके जीवन की एकमात्र राधिका थी।
धीरे-धीरे उसका जीवन बस इन्ही तीन चीजों पर केंद्रित हो गया। लीला, अपना घर परिवार और चंदा की एक झलक पाने की कोशिश। तन कोमल तो था क्या उसके सीने में धड़कते दिल को मालूम था कि मन और देह दोनों को एक साथी चाहिये होता है। विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण देह का स्वभाव है और वह भी इस सिद्धान्त से अछूता न था। उसका ही मन कामना की आंधी में सूखे पत्ते सा डोल उठता जब कभी चंदा का ख़याल उसके मन के आंगन में उतर आता।
चंदा उसी के पड़ोस में रहती थी। बचपन की साथी, बचपन से साथ खेले, साथ पढ़े पर जब किशोरावस्था जवानी की दहलीज पर जाकर खड़ी हुई पता नहीं कैसे दोनों के बीच समझदारी की एक अदृश्य दीवार आ खड़ी हुई। उसे देखता तो भूल जाता भगतजी की बातें। उसके भीतर की राधिका का कद घटने लगता।
बालपन कितना अबोध और निश्चिंत होता है, जवानी उतनी ही सतर्कता से भरी होती है, भले बुरे की सीख इंसान से उसकी सारी सहजता छीन लेती है। लीला, कीर्तन में स्त्रीवेश में नाचने वाले स्कूल पास राधे और उच्चतर पढ़ाई के लिये कॉलेज जाने वाली चंदा के बीच दूरियाँ तो आनी थीं पर इन दूरियों ने राधे के निर्दोष मन से सुख चैन छीनकर एक विचित्र सी पीड़ा सौंप दी है।
जिस दिन उसे चंदा की एक झलक मिल जाती है उस पीड़ा पर जैसे हल्दी चंदन का लेप लग जाता है। गनीमत यही है कि चंदा की मासूम आँखों पर अभी भी दुनियादारी का पर्दा नहीं चढ़ा था। उनमें लहराता भावनाओं का समंदर राधे के दिल को उम्मीदों का ऐसा चप्पू सौंप देता कि उसके प्रेम की नाव हिचकोलों से उबर जाती। अपने मूक प्रेम की कश्ती लेकर मझदार में भी आगे बढ़ने हौसला पा लेता था राधे।
पर सब दिन होत न एक समाना। जीवन कब बदलाव के भंवर में घिर जाता है कौन जान सकता है। फिर एक दिन अनहोनी हुई और भगतजी डेंगू के शिकार होकर परलोक सिधार गए। यह सब इतना अप्रत्याशित था कि राधे को लगा कि उसकी दुनिया पर बज्जर आन गिरा। पिता तो बचपन में चले गए थे पर आज परमा भगतजी के जाने ने उसे यतीम हो जाने की पीड़ा से भर दिया था। मन में की चुभन आज कुछ और बढ़ गई थी। ऐसे जैसे कोई कील चुभ रही हो कोमल मन में। अपने भविष्य पर भी अनिश्चय के काले बादल मंडराने को स्पष्ट महसूस कर रहा था राधे।
वही हुआ जिसके डर ने राधे की रातों की नींदें उड़ा दी थीं।  उनके स्नेह, भक्ति, निष्ठा की डोर से बंधा रास मण्डल उनके जाते ही तिनकों की तरह बिखर गया। एक ही मंडल के तीन टुकड़े हुए पर कोई भी उसकी पुरानी प्रतिष्ठा को बरकरार न रख सका न ही उसकी जगह न ले सका। जिस मण्डल से उसकी उम्मीदें जुड़ी थीं उसमें राधिका के रोल के लिए एक लड़की को रख लिया गया।
लीला में लड़कियों की डिमाण्ड आजकल ज्यादा है। उसने बहुत सोचा पर उसे कुछ काम न सूझा क्योंकि उसने होश संभालने के बाद से यही एक काम किया था। बिच्छू का मंतर जाने बिना साँप के बिल में हाथ कैसे डाल देता। नृत्य अभिनय की इस दुनिया के बाहर बहुत अजनबीपन महसूस होता था उसे। पर लीला की दुनिया अब सिमट रही थी। बढ़ रही थी उसकी असुरक्षा। आर्थिक भी और सामाजिक भी।
तब राधे को नया काम मिला और मन मुताबिक न सही पर उसी से मिलता जुलता काम और वह था जागरण या कीर्तन में निकलने वाली राधा कृष्ण की झाँकी में राधा का रोल। यहाँ लीला की तरह अभिनय या डॉयलाग की कोई गुंजाइश नहीं थी बस तेज़ आवाज़ में डीजे पर बजते गाने पर कृष्ण बने साथी कलाकार के साथ नाचना होता था। फिर उसी जागरण या कीर्तन में वह भोले शंकर की झांकी में पार्वती माँ बनकर भी नृत्य करता।
हालाँकि यहाँ भी झाँकी स्वरूप की तात्कालिक तौर पर पूजा अर्चना की जाती पर डीजे पर फिल्मी धुनों पर आधारित गीतों यहाँ तक कि कई एक चलताऊ फिल्मी गानों पर भी नृत्य किया जाता जो उसके मन को ठेस पहुँचाने का काम करता। नृत्य तो यथावत था पर यहाँ कला पक्ष नदारद था। जिस सम्मान के लिए उसका माथा गर्व से तन जाता था, रासलीला में मिलने वाला वह सम्मान पहले जैसा नहीं रह गया था। जिस भक्ति भाव के चलते वह एक नैतिक जिम्मेदारी और सुरक्षा महसूस करता था अब वह भी पहले जैसा कहाँ रह गया। मन की चुभन अब बढ़ती जा रही थी।
लोगों की जबान में भांडगिरी करने वाले नचनिये की उसकी हैसियत के बावजूद काम तो काम है, पेट पालना है तो करना होगा। वह नहीं करेगा तो कोई और करेगा और सबसे बड़ी सच्चाई ये भी थी कि बचपन से लीला ही उसका जीवन था।  इसी माहौल में उसकी आँखें खुली थीं, केवल यही सीखा था उसने और अब इसके अतिरिक्त वह कुछ कर पाएगा, इसकी कोई संभावना उसे दूर दूर तक नहीं नज़र आती थी। आगे पढ़ने के उसके स्वप्न ने तभी आँखें मूंद ली थी जब लीला मण्डली में उसका सिक्का चल जाने पर उसने पढ़ाई छोड़ दी थी।
पिता के बाद से माँ बहनों की जिम्मेदारी उसके नाजुक कंधों पर उस उम्र में आ गई थी जब उसे जिम्मेदारी का मतलब भी नहीं मालूम था। वह तो देशभर में लीला मण्डली के साथ घूमता रहा, कभी दिल्ली, कभी आगरा, कभी मुंबई तो कभी कलकत्ता। बड़े भाई ने जब तक खींच सकता था उसकी कमाई से पैसा खींचा और फिर अपने परिवार के साथ अलग हो गया। बड़ी दो बहनों की शादी हो चुकी थी और दो बहनें अभी बाकी थीं। उसने बहुत मेहनत की इन तमाम वर्षों में पर यह उसके मन का काम था इसलिए कभी महसूस ही नहीं हुआ कि वह कोई काम कर रहा है। इसी कारण इतने वर्ष मनप्राण से लीला से जुड़ा रहा।
 पर अब कुछ भी पहले जैसा नहीं रहा। दुनिया बहुत तेज़ी से बदल रही है। उसकी दुनिया में भी ये बदलाव बहुत तेज़ी से आये। पहले उसे अपने काम से मतलब रहता था। वही भजन, नृत्य, राधिका रानी के रूप में नया नया बनाव श्रृंगार इसी सब में बीत रहा था जीवन। पर अपनी स्वप्न सरीखी इस दुनिया से बाहर निकलकर देखने की नौबत आ गई जब दाल रोटी जुटनी मुश्किल हुई।
इधर नई मुसीबत आयी। लॉकडाउन के दिनों में जब जागरण और कीर्तन बंद हो गए तो उसे खाने के लाले पड़ने की नौबत आने लगी और तभी उसके साथी कलाकारों ने सुझाया एक नया रास्ता।
वैसे इस प्रकरण की पृष्ठभूमि कुछ यूँ है कि एक दिन छोटी बहन पारुल ने उसे झकझोर कर नींद से जगाया,
“भैया, भैया….देखो जे का हुआ है….”
हड़बड़ाहट से उबरकर अपनी आँखों को मिचमिचाते हुए उसने देखने की कोशिश की। उसने देखा पारुल की साँस फूली हुई थी और चेहरा उत्तेजना के अतिरेक से लाल भभूका हो चला था। शायद वह कहीं से दौड़ते हुए आयी थी। उसके हाथ में मोबाइल फोन था।
“सोन दे लाली…का है गयो…का बज्जर पर गओ…”
पारुल ने बताया कि जागरण मण्डली के एक साथी बृजेश के अकाउंट से राधे का एक डांस का वीडियो वायरल हो गया है। राधे को वायरल का यही अर्थ मालूम था कि वह वीडियो मशहूर हो गया है और हज़ारों लोग उसे देख रहे हैं। बहन के बहुत जोर देने पर दोस्तों की देखा देखी उसने भी इंस्टाग्राम और फेसबुक पर अपना खाता खोल लिया – राधिका रानी।
उसके सभी कलाकार साथी ‘रील’ बनाते हैं। उसके कुछ जागरण की परफॉर्मेंस के वीडियो टिकटाक पर उसके साथी ही डालते रहे थे। सुनते थे बहुत लाइक कमेंट आते थे। वह ये सब कहाँ जानता था। न ही उसकी कोई रुचि थी इस सब में। फिर बित्ते भर के फोन में समाई यह नई दुनिया सर्वथा अपरिचित और अबूझ थी उसके लिये।
लेकिन जब बृजेश के फोन पर डला उसका एक अन्य परफॉर्मेंस वीडियो भी बहुत वायरल हुआ तो बहुत लोगों ने उसे कहा कि वह खुद यह क्यों नहीं करता। उसकी प्रतिभा का लाभ उसे क्यों न मिले। लॉकडाउन के दिनों में पारुल के सहयोग से उसने भी इस और ध्यान देना शुरू किया और पारुल ने ही उसके वीडियो बनाकर पोस्ट शुरू किये। इंटरनेट की दुनिया में राधिका रानी यानी राधिका के गेटअप में उसका चेहरा पहले से मशहूर हो चुका था। तो उसे स्थापित होने में बिलकुल वक़्त नहीं लगा।
यूँ भी उसे लगता कि अपनी इस दुनिया में वह जितना सफ़र तय कर चुका था, वहाँ से लौटने की तो कोई गुंजाइश नहीं थी पर जीवन इसी गति से आगे बढ़ता रहा तो रास्ता कट ही जाएगा।
जब कुछ वीडियो हिट हुए तो पारुल ने यूट्यूब चैनल भी बना लिया। आजकल वह भी अपने साथियों की तरह रील बनाता है और फेसबुक और इंस्टाग्राम के साथ यूट्यूब चैनल पर अपलोड करता है। उसके ज्यादातर वीडियो वायरल होते हैं। फॉलोवर्स भी कई मिलियन हो चुके हैं। अब तो लड़की के कपड़े पहन कर खूब मेकअप करके वह फिल्मी गानों पर डांस की भी रील बनाता है। वो क्या कहती है पारुल, सोशल इंफ्लुएंसर बन गया है राधे और सोशल मीडिया पर बहुत चर्चित भी है। उसकी कोशिशों का कद बढ़ता गया और दुर्भाग्य को झुकना पड़ा।
उसकी रोजी रोटी की समस्या हल हो गई है, कमाई खूब बढ़ गई है। आर्थिक असुरक्षा खत्म हो गई है किंतु जीवन का हलाहल कम होने की बजाए और बढ़ गया था। लोगों के व्यवहार में पहले ही से उसके प्रति उपहास का भाव था पर अब वह चरम पर पहुँच गया था।
उसकी स्त्रियोचित कद काठी, उसका सात्विक व्यवहार, उसके चरित्र और व्यक्तित्व की कोमलता और स्त्रैण हाव भाव ने उसे व्यावसायिक लाभ तो खूब दिया किंतु उसका उसके जीवन पर जो नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा था वो उसे भीतर ही भीतर तोड़ रहा था। आंतरिक और बाह्य दोनों स्तरों पर एक लड़ाई लड़ रहा था वह। अंतरात्मा की आवाज़ को रोजी रोटी के सवाल के नीचे दबाना उसने सीख लिया था पर गाहे बगाहे ये आवाज़ उसे बेचैन करने चली आती थी।
वह निश्छल जरूर था पर इतना नहीं कि लोगों की दृष्टि की कलुषता उससे छिपी रह सके। आजकल उसे रास्ते चलते छेड़ने वालों में उसकी सफलता के प्रति ईर्ष्या भाव की उपस्थिति से भी वह अनभिज्ञ न था। पर इधर कुछ समय से यह कलुषता बढ़ती जा रही थी। लीला के दिनों में ‘बरसाने वाली वृषभानु कुमारी राधा रानी’ के स्वरूप के प्रति जो सम्मान था लोगों के दिलों में वह ‘दिल चीज क्या है आप मेरी जान लीजिये…’के वीडियो में ठुमके लगाने वाली इंस्टाग्राम की राधिका रानी की तड़क भड़क के चलते कब का विलुप्त हो गया था। एक ओट थी तो लिहाज था, अब तो जैसे सब उघड़ गया था।
अब वह चलता था तो पीछे से शोहदों की आवाज़ आती, ‘पतली कमरिया तेरी हाय हाय, तिरछी नज़रिया तेरी हाय हाय’। इधर उसका यही वीडियों केवल धूम मचाए हुए था बल्कि वायरल होकर ‘ट्रेंड’ भी कर रहा था। रील्स की दुनिया में ट्रेंड करने का अर्थ था अनुकरणीय, अनुसरणीय होना। जिसे देखो उसी के वीडियो जैसा रील बनाने पर उतारू था। हॉट टॉपिक बन चुका था उसका अकाउंट – राधिका रानी।
उसकी ये सफलता उसके जीवन पर किसी तड़ित की भांति गिरी थी। सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ते राधे के हाथों से छूट रहा था उसके प्रेम का सुकोमल पुष्प। उसे महसूस होने लगा था चंदा का बदलना। इन दिनों चंदा की आँखों वाले दिखाई पड़ने वाले तिरस्कार ने उसे तोड़कर रख दिया था। उसे कैसे दोष देता, आज भी उसके जीवन का विरोधाभास यूँ ही कायम था।
उसका पुरुषत्व अब नई अग्निपरीक्षा से जूझ रहा है। निजी पार्टियों और ब्याह शादी में आर्केस्ट्रा कार्यक्रम के भी खूब बुलावे आते हैं उसे। एक बार गया भी था। पर वहाँ जो हुआ उसके कारण सब छोड़कर रात में भागना पड़ा था उसे। आज भी उस रात के फ्लैशेज उसे नींद से जगा देते हैं। पसीना पसीना हो जाता है राधे जब उन चार लड़कों का उसे खींचकर कमरे में ले जाना याद आता है। जलती बुझती रोशनियों और तेज़ संगीत की ध्वनियों वाली उस चमकदार रात का देह पर रेंगते असंख्य साँपों वाली घृणित काली रात में बदलना आज भी उसका सबसे बड़ा दुःस्वप्न है।
अभी पिछले दिनों वह एक रात लौटकर घर आ रहा था तो बृजेश के घर के करीब उसे कुछ सायों ने घेर लिया था। उसकी नाजुक कलाई पकड़कर या पतली कमर में हाथ डालकर अपनी ओर खींचने वाले वे चेहरे अपरिचित नहीं थे। पर उन्हीं चिर परिचित चेहरों के इस नए परिचय ने उसे हिलाकर रख दिया था। किसी तरह उसने कलाई छुड़ाई और दौड़कर बृजेश के घर में घुस गया।
देर तक सूखे पत्ते की मानिंद थर थर काँपता रहा था वह। होश आने पर उसने देखे थे कलाई पर वे लाल निशान। चंदा का हाथ थामने की कामना से भरे उन हाथों का दर्द अधिक था या उसके घायल मन की पीड़ा अधिक थी कुछ पता नहीं था। अपनी ही देह से कैसी वितृष्णा होने लगी थी उसे।
उसे याद आता है, रासलीला के दिनों में हर मंचन के बाद उसकी और मुरारी भैया की नज़र उतारते थे परमा भगत जी कि उनके राधा कृष्ण भगवान को किसी की नज़र न लग जाए। उस समय उनकी छवि यशोदा मईया की सी हो जाती जो अपने कान्हा और किशोरी ज्यूँ पर न्योछावर हुई जाती हैं। वे दिन अब कहाँ खो गए। परमा भगत जी दुनिया भर की कलुषित निगाहों के इस बियाबान जंगल में कहाँ अकेला छोड़ गये।
जीवन एक बार फिर दो रूप लेकर सामने आया जब जिस दिन उसके सफल वीडियो की एवज में यूट्यूब से गोल्डन बटन के बाद डायमंड बटन मिला उसे, मतलब लाखों व्यूज हुए उसके वीडियो के तो उसे सम्मान मिला, ठीक उसी सुबह चंदा ने उसके प्रेम निवेदन के प्रस्ताव को ठुकरा दिया। नचनिये भांड को कौन पिता स्वीकार करता। अपनी बेटी के लिये सरकारी नौकरी वाले दामाद का सपना देखने वाले पिता की सलाह से व्यवहारिकता को चुनकर चंदा ने लौटा दिया राधे को खाली हाथ। सपनों की दुनिया से खुरदरे यथार्थ की दुनिया में बेरंग लौट आया था राधे।
आज उसके घर पर उस मीडिया से आये लोगों के चलते खासी भीड़ लगी है। मीडिया वालों के साथ कॉलोनी वाले भी इकट्ठे हो गए हैं। अकबकाई सी माँ बार बार हाथ जोड़कर सबको नमस्कार कर रही हैं। बहनें पारुल और पूनम उत्साह में भरकर सबका स्वागत कर रही हैं। खुशी के माहौल में उसका दिल वीराने का वह खंडहर हो चला है जहाँ कभी कभी कोई दीप उजाला नहीं करेगा।
कुछ दूर बने कम्युनिटी सेंटर में बारात आयी है। बारात के स्वागत गान में लॉडस्पीकर पर गाने बज रहे हैं। इधर मीडिया वाले उससे एक परफॉर्मेंस की डिमाण्ड कर रहे है। उनके कैमरे मुस्तैद हैं, भीड़ में सभी के मोबाइल भी।
भीगती आँखों और भरे दिल से थिरक रही है ‘राधिका रानी’
‘बचपन का प्यार मेरा भूल नहीं जाना रे, बचपन का प्यार…’
तालियों की गड़गड़ाहट में कुछ दरक रहा है राधे के मन में। एक कील है जो जाने कब से ठुकी जा रही उसके अंतर्मन में। आज उस पर अंतिम चोट लगी जैसे। असहनीय पीड़ा से तड़प उठा है उसका समूचा अस्तित्व। पर उसके पाँवों की गति बढ़ती जा रही है। विलंबित से मध्य हुई लय अब द्रुत हो चली है। थिरकने वाले पाँव अब बिजली की सी तेज़ी से नृत्यरत हैं। धीरे धीरे समूचा परिदृश्य जैसे पिघलकर उसमें समा रहा है। उसके भीतर किसी भी तरह एक कृष्ण को बचाए रखने की हर कामना भी। वह पूरी तरह बदल चुका राधिका जी में। सारी सृष्टि राधिकामयी हो चुकी है। वह गोल गोल चक्कर लगा रहा है। पीड़ा के इस महारास में आज वह अकेला नृत्यरत है, वही कृष्ण है वही राधिका भी।

2 टिप्पणी

  1. अंजू शर्मा जी की कहानी ‘राधिका रानी @इंस्टाग्राम डॉट कॉम’ पढ़ी l ब्रज भाषा के सुंदर प्रयोग से सजी ये कहानी लोक कलाओं के कलाकारों की पीड़ा, कोरोनाकाल की आर्थिक और सामाजिक विवशता और आधुनिक समय में पेट के लिए इंस्टाग्राम स्टार से प्रसिद्धि पाने वाले कला को समर्पित सच्चे कलाकारों की पीड़ा को भी उकेरती है l
    एकदम नए विषय पर लिखी गई इस कहानी में राधेश्याम की राधा बनने की यात्रा भी है l जहाँ अस्वीकार और स्वीकार का दवंद भी है, प्रथम प्रेम की हृदय पर अंकित सघन मूर्ति के टूट जाने का दंश है तो यौन शोषण भी l कहानी में राधा और कृष्ण के माध्यम से दर्शन का का पुट कहानी को नई ऊँचाई प्रदान करता है l
    “जो जीवन जन्म के साथ हमें मिलता है वह हमारा प्रारब्ध होता है। जीवन चुनने का अवसर हमें नहीं मिलता पर किस्मत अच्छी रही तो अभिनय में अपना किरदार हम चुन पाते हैं। पर कैसी विचित्र नियति है उसकी कि उसने न तो जीवन चुना और न ही किरदार। दोनों ने उसे चुन लिया था।“
    एक कहानी में इतने अलग- अलग बिंदुओं को साधना लेखक के लिए चुनौती होता है l पर अंजू जी ने कहानी के प्रवाह और कसाव में ढील नहीं छोड़ी है l प्रवाह के साथ बहता पाठक अंततः लोक कलाकारों के प्रति संवेदना से भर उठता है l
    एक अच्छी कहानी के लिए बहुत बधाई अंजू जी

    • बहुत बहुत शुक्रिया वन्दना जी। मेरे पास शब्द नहीं। अभिभूत हूँ आपकी टिप्पणी पढ़कर। सादर, स्नेह, आभार

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