बड़े शहर में रहने का स्वप्न मेरी आँखों में कब से पल रहा था……कुछ याद नही। कदाचित् बचपन से। जब से होश सम्हाला और अपने गाँव के स्कूल में पढ़ने जाने लगा तब से ही शहर को सपनो में देखने लगा था। उसी समय यह विचार मेरे मन आया कि गाँवदेहात की अपेक्षा शहर अवश्य अच्छा होता होगा। शहर में क्या अच्छा होता होगा? वो गाँवों से भिन्न कैसे होता होगा? इतनी समझ तो थी मुझमें। किन्तु लोगों से सुना था कि शहर में क्या नही होता है? चैड़ी साफसुथरी सड़कें, उन पर दौड़ती चमचमाती गाड़ियाँ, बड़ीबड़ी बिल्डिंगें, अच्छेअच्छे पक्के मकान सब कुछ तो होता है शहरों में। हमारे गाँव की भाँति थोड़े ही कि कच्ची सड़कें….पगडंडियाँ, छप्परखपरैल….इक्केदुक्के पक्के मकान और रोजमर्रा की आवश्यकतायें पूरी करने हेतु छोटीछोटी कुछ दुकाने। यही तो था मेरा छोटासा गाँव। बस….उसी समय से शहर में रहने का स्वप्न मेरी आँखों में पलने लगा था। 
     मेरे सपने की उड़ान को गति दिया गाँव के हमारे सरकारी विद्यालय में पढ़ाई जाने वालीहमारे महान व्यक्तित्वकी पुस्तक ने जिसमे अनेक वैज्ञानिकों, लेखकों, खिलाड़ियों, नेताओं, अभिनेताओं की जीवनियों ने। उनके संघर्ष करने लक्ष्य प्राप्त कर प्रसिद्धि प्राप्त करने में शहर की महत्वपूर्ण भूमिका मुझे प्रभावित करती। 
     मैं भी ऐसा ही कुछ करना चहता था। मेरे सपनांे को पूरा करने के लिए शहर आवश्यक था। मेरे इस छोटे से गाँव में तो बड़े स्कूलकाॅलेज हैं, बड़ी संस्थाएँ, ही बड़े प्रतिष्ठानजिसमें स्वंय को सिद्ध किया जा सके। यही कुछ वजहे थीं कि गाँव से विरक्ति शहर से मेरी आसक्ति बढ़ती जा रही थी। 
     प्रारम्भिक शिक्षा गाँव से पूरी कर मैं शहर में रहने वाले अपने रिश्तेदार के घर आकर आगे की पढ़ाई करने लगा। गाँव की खेतीबारी से मेरे पिता किस प्रकार मेरी पढ़ाई के खर्चे निकालते होंगे, उसका मुझे उस उम्र में कतई भान था। बाद में मुझे ज्ञात हुआ कि मात्र मेरे रिश्तेदार के घर रहने से पिता मेरे उत्तरदायित्व से मुक्त नही हो गये थे जैसा कि मैं उस समय समझ रहा था। बल्कि वो मेरे रहने, खानेपीने, पढ़ाईलिखाई  आदि के खर्चे मेरे उस रिश्तेदार के पास भेजते थे। 
       अपने पिता के परिश्रम का मूल्य मैंने समझा और मन लगाकर पढ़ने लगा। परिणाम स्वरूप मैंने दसवीं की परीक्षा अच्छे अंकों में उत्तीर्ण की। ग्रीष्मावकाश में मैं गाँव चला गया। 
      ’’छोटका बाबू गये का शहर से..? ’’ पड़ोस के जमुना अंकल ने मेरे आने की बात जानकर बाबूजी से पूछा। 
    ’’ हाँ.. गये। परसों आये हैं। ’’ बाबू जी ने कहा।
    ’’ बाबू ठीकठाक हैं? ’’ जमुना अंकल ने मेरा हाल पूछा। 
     ’’ हँ..ठीक है। ’’ बाबूजी ने संक्षिप्त उत्तर दिया। 
     ’’ अब काहे चिन्ता कर रहे हैं। अब तो छोटका बाबू इहैं रहिहैं। ’’ जमुना अंकल ने बाबू जी से कहा। 
    ’’ नही जमुना, पन्द्रह दिन की छुट्टी में घर आया है छोटका। छुट्टी खतम होते ही शहर चला जायेगा। ’’ बाबूजी ने जमुना से कहा और उदास मन से भीतर गए।
     जमुना अंकल और बाबूजी की बात सुनकर भी अनसुना करते हुए मैं अपने काम में लग गया। बस, दो हफ्ते और गाँव में रह कर शहर चला जाऊँगा। 
     ’’ बेटा, हम सब चाहते है कि तुम अब यहीं रहो और खेतीबारी के काम में बड़े भाई का हाथ बँटाओ। ’’ दिन भर के बाद शाम को बाबूजी खेतों की ओर से लौट कर आये और मुझसे कहा। बाबूजी की बात सुनकर ऐसा प्रतीत हुआ जैसे किसी ने मेरे सपनों को छिन्न भिन्न कर दिया।
      ’’ बाबूजी, अभी तो मैंने पढ़ाई शुरू की है। मैं आगे और पढ़ना चाहता हूँ। ’’ मैंने बाबूजी से कहा। 
         ’’ क्या करोगे पैसे बरबाद करके? शहर से लौटकर खेतीबारी ही करोगे? ’’ दो टूक शब्दों में बाबूजी ने कहा।
       ’’ बाबूजी, मेरी पढ़ाई पर ज्यादा पैसे कहाँ खर्च होते हैं? मात्र फीस और किताब कापियों के ही तो पैसे खर्च होते हैं। ’’ मेरे मुँह से सहसा निकल गया। मुझे इस बात का एहसास था कि मुझे बाबूजी से इस तरह, ऐसी बात नही करनी चाहिए थी। मैं इतना बड़ा तो नही हो गया कि बाबूजी से ऐसी बात कह सकूँ
    ’’ क्या बोला? बस, काॅपीकिताब और फीस के पैसे लगते हैं..? ’’ हमेशा धीमा और मीठा बालने वाले बाबूजी की आवाज़ सख़्त हो उठी थी। 
      ’’ तुम्हें पता हैतुम्हारे वो सगे रिश्तेदार जिनके घर में तुम रहते हो, वे तुम्हारे खानेपीने, रहने के साथ साबुनतेल, बिजलीबत्ती तथा उस प्रत्येक चीज के पैसे लेते हैं, जिनका प्रयोग तुम करते हो। वहाँ समीप के मुन्ना पी0सी00 वाले के फोन से उनका संदेश मिलते ही मैं तुरन्त पैसों की व्यवस्था कर भेज देता हूँ। इतने पैसों में तुम कहीं और भी कमरा लेकर रह सकते हो। रिश्तेदारों के घर रखने का उद्देश्य मात्र यह है कि मुझे और तुम्हारी माई को तुम्हारी चिन्ता में रातभर जागना पड़े। ’’ तेज बोलतेबोलते बाबूजी की आवाज़ धीमी पड़ने लगी थी। वो थक गये थे। 
      आत्मग्लानि के कारण दृष्टि नीची किए मैं चुपचाप खड़ा था। बाबूजी बाहर ओसारे में जाकर चारपाई पर बैठ गये। मैं दीवार से टेक लगाए अभी तक वहीं खड़ा था। रसोई से बर्तन उठानेरखने की आवाजें रही थीं। माई रसोई में काम कर रही थी। वह बाहर निकल कर देखने तक नही आयी। बाबूजी से ऐसी बात करने के कारण कदाचित् माई मुझसे नाराज थी। अन्यथा ऐसा पारिवारिक समस्याओं से सम्बन्धित बातों पर माई हम लोगों के साथ खड़ी रहती है। 
         मैंने वहीं खिड़की से झाँक कर बाहर बरामदे में देखा। बाबूजी अभी तक ओसारे में चारपाई पर बैठे थे तथा अंगोछे से बारबार माथे पर छलक आयी पसीने की बूँदों को पोछ रहे थे। आत्मग्लानि के कारण मैं देर तक वहीं खड़ा रहा। आज मुझे अपनी पढ़ाई पर हो रहे वास्तविक खर्चों के बारे में ज्ञात हुआ था। मैं तो अब तक यही समझ रहा था कि बाबूजी मात्र किताबकाॅपी और फीस के पैसे देते हैं। शेष सब कुछ रिश्तेदार के घर रहने से हो जाता है। आज मुझे पहली बार रिश्तेदारी का अर्थ और उसकी सीमाओं का यथार्थ पता चला था। यद्यपि रिश्तों और रिश्तेदारी के यथार्थ को और ठीक से समझने के लिए अभी मैं छोटा था। 
             मुझे पढ़ना था। शहर में रहना था। भले ही किसी रिश्तेदार के यहाँ सही, मैं कहीं और रह लूँगा। कोई छात्रावास देख लूँगा। मैंने बाबूजी के भेजे पैसे और हाॅस्टल के खर्चे का हिसाब जोड़ा और अनुमान लगाया कि जितने पैसे बाबूजी भेजते हैं उससे कम पैसों में मैं छात्रावास में रह सकता हूँ। माईबाबू जी को समझा लूँगा कि चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नही है। बहुत से बच्चे ऐसे रहते हैं। माई को किसी प्रकार समझा लिया मैंने। 
       मैं छात्रावास में रहकर पढ़ने लगा। अब पहले की अपेक्षा कम पैसे खर्च होते। देखतेदेखते दो वर्ष व्यतीत हो गये। मेरा इण्टरमीडिएट पूरा हो गया। मैं ग्रेजुएशन की तैयारी करने लगा। 
      ’’ बाबूसंदीप, अब बस करो। घर जाओ, खेती बारी का काम सम्हालो। ’’ एक दिन बाबूजी का फोन आया। बाबूजी जानते थे कि जितनी बड़ी पढ़ाई होगी उतना ही अधिक पैसा खर्च होगा। 
     ’’ बाबूजी, अभी मैं ग्रेजुएशन की तैयारी कर रहा हूँ। पैसे के लिए आप चिन्तित होईए। मैं यहाँ एकदो ट्यूशन कर कुछ पैसों की व्यवस्था कर लूँगा। ’’ इस प्रकार अपनी आगे की पढ़ाई के लिए मैं बाबूजी को मना पाया।
प्रयत्न कर मैं दो बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने का काम पा गया। अब मेरी दिनचर्या थोड़ी परिवर्तित व्यस्त हो गयी थी। प्रातः शीघ्र उठकर अपने लिए भोजन के नाम पर कुछ बना लेना। तैयार हो कर नौ बजे तक काॅलेज पहुँच जाना। शाम के चार बजे आने के पश्चात् कुछ देर शाम के भोजन आदि की तैयारी कर, थोड़ा आराम कर घर से पुनः निकल पड़ना। क्यों कि छः बजे मेरे पहले ट्यूशन का समय निर्धरित था। घंटे सवा घंटे पढ़ाने के पश्चात् मुझे दूसरे ट्यूशन पर जाना रहता था। इस प्रकार दोनों ट्यूशन पढ़ा कर नौ बजे तक कमरे पर जाता। 
       यदि सुबह कुछ अधिक भोजन बनाकर गया होता तो वही खा लेता। अन्यथा तो शाम को भोजन बनाने का काम भी करना पड़ना पड़ता। क्यों कि सीमित बजट में होटल में खाना सम्भव नही था। बाबूजी भी तो समझाया करते थे कि होटल का भोजन स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है। इतना कुछ कर के इस समय तक मैं थक जाता। मानसिक शारीरिक दोनो रूपों में। 
          अब मुझे पढ़ाई पर भी थोड़ा समय देना था। जो कि मेरे लिए अति अवश्यक था। पढ़ने के लिए ही तो मैं ये सब कर रहा था। किन्तु कभी मैं पढ़ पाता और कभी थक जाने के कारण यूँ ही सो जाता। पुस्तकें सिरहाने रखी रह जातीं। कुछ बनने…..कुछ करने की लगन थी मेरे अन्दर अतः पढ़ने के लिए किसी किसी प्रकार थोड़ा समय निकालने का प्रयत्न करता। 
    मेरा ग्रेजुएशन पूरा हो गया। सैलानियों की भाँति छात्रावास का जीवन जीतेजीते मैं पारिवारिक जीवन के लिए तरस गया था। पारिवारिक जीवन से तात्पर्य यह कतई नही कि मैं विवाह करना चाहता था, बल्कि माईबाबूजी, भईया तथा गाँव के नाते रिश्तेदारों के स्नेह की छाँव में रहने की इच्छा होने लगी थी। 
    जो स्नेह, जो अपनापन, बातों की जो मिठास मुझे गाँवों में दिखाई देती, वो शहर में नही दिखती। यद्यपि शहर में मेरा अपना कोई नातेरिश्तेदार तो था। कुछ परिचितकुछ मित्र अवश्य बन गये थे। मैं जानता था कि ये शहरी हवा से प्रभावित नकली मुखौटे ओढ़े हुए चेहरे हैं, जो आवश्यकता पड़ने पर मेरे काम नही आयेंगे। 
     ’’ संदीप भईया तो व्याह लायक हो गये हैं। व्याह करने का मन नही है क्या अब भी? ’’ छुट्टियों में जब भी मैं घर जाता पासपड़ोस के लोग माईबाबूजी से कहते। 
      ’’ हम सब की तो इच्छा है। किन्तु संदीप भईया माने तब ? ’’ बाबू जी कह देते। 
     मुझसे दो वर्ष बड़े भईया की तीन वर्ष की एक बिटिया थी। भईया दूसरी बार पुनः पिता बनने वाले थे। भईया को देखकर प्रतीत होता जैसे वो अपने जीवन से संतुष्ट थे। खूब खुश रहते। बाबूजी के साथ खेतीबारी में हाथ बँटाते। छोटी बच्ची के साथ खेलते। भाभी भी खुश रहती। 
     इस बार गर्मी की छुट्टियों में मैं दस दिनों तक गाँव में रूका रहा। मिट्टी से लिपे घर से उठती मिट्टी की सांेधी महक, जेठ माह की तीव्र धूप को परास्त करती पेड़ों की शीतल छाँव, महुए की मादक गंध, आम के बागों से उठती मंजरियों के सौरभ तथा छोटे टिकोरों से भरी लहराती आम की हरीभरी डालियाँशाम होते ही गाँव के सीवान पर फैली बँसवारियों में चहचहाती चिड़ियों का संगीत….रात्रि के अन्तिम प्रहर में जुगनूओं की जगमग से झिलमिलाते शान्त खड़े वृक्ष….नन्हेंनन्हें तारों से सजा स्वच्छ नीला आकाश….सब कुछ मुझे अच्छा लगा। 
     इन दस दिनों में मानों पहली बार मैंने गाँव के सौन्दर्य को महसूस किया और गाँव को जिया। बचपन गाँव में व्यतीत हुआ किन्तु कभी इस ओर ध्यान दिया। शहर में रह कर गाँव के प्राकृतिक सौन्दर्य का मूल्य समझ में रहा था। इन सबके बीच शहर में बसने, रहने तथा कुछ करने की अदम्य इच्छा सर्वोपरि रही। मैं गाँव से वापस शहर आया। गाँव का अपना सुकून था..साथ ही परिवार के लिए दो समय की रोटी के लिए संतुष्टि भरा संघर्ष था, तो दूसरी ओर शहर सपनों, असीमित इच्छाओं, रोटीरोजगार, छत, साथ ही अपनी पहचान स्थापित करने के जद्दोजहद से भरा था। जब गाँव सुकून की नींद सोता, तब भी शहर भागता रहता। इन सबको अनदेखा कर मैं अपने लक्ष्य की ओर देख रहा था, जिसे पाने के लिए मैं शहर में आया था। 
     मेरी ग्रेजुएशन पूरी हो गयी थी। अब यदि मैं आगे और पढ़ाई नही करूँगा तो मुझे यह छात्रावास छोड़ना पड़ेगा। इस स्थिति में यहाँ रहने के लिए मुझे किराये पर कमरा लेना पड़ेगा। जिसके लिए पैसों की व्यवस्था करना मेरे लिए थोड़ा कठिन था। बाबूजी के भेजे पैसे और कुछ ट्यूशन के पैसे मिलाकर भी मैं यह नही कर सकता था। अतः मैंने तय किया कि अभी छात्रावास नही छोड़ूँगा। स्नातकोत्तर की कक्षा में मैंने प्रवेश ले लिया। 
       छात्रावास में रहते हुए मैं अध्ययन कम और नौकरी की तलाश में अधिक रहने लगा। मेरा अधिकांश समय नौकरी की तलाश और उसकी तैयारी में व्यतीत होने लगा। समय व्यतीत होता जा रहा था। अभी तक मेरे हाथ में कुछ भी सकारात्मक नही आया था। 
       देखतेदेखते लगभग डेढ़ वर्ष व्यतीत हो गये। नौकरी की फाईल आवेदन पत्रों, अखबारों की कतरनों, अनेक फार्मों, बैंक 
की रसीदों से मोटी होती जा रही थी। गाँव से बाबूजी से पैसे मंगवाने में मुझे शर्म आने लगी थी। विवशता थी। आय का अन्य 
कोई साधन था। शहर में आकर कुछ बनना, कुछ बड़ा करना तो दूर अभी तक मैं अपनी रोजीरोटी का प्रबन्ध तक कर पाया। 
         मात्र छः महीने रह गये थे। उसके पश्चात् मुझे छात्रावास छोड़ना ही पड़ेगा। उसके बाद मैं क्या करूँगा….कहाँ जाऊँगा…?कुछ समझ में नही रहा था। मैं निराश होने लगा था कि एक दिन सहसा मेरे नाम का एक लिफाफा आया। यूँ तो अक्सर नैकरियों के लिए परीक्षाओं की सूचनायें आया ही करती हैं लिफाफों में। किन्तु ये कुछ अलग था। ये लिफाफा मेरे लिए खुशियाँ लेकर आया था। इसमें मेरे लिए नौकरी का नियुक्ति पत्र था। यद्यपि यह नौकरी मेरे सपनों के अनुरूप बड़ी थी। किन्तु ऐसी थी कि इससे मैं शहर में रहते हुए अपने खर्चे सम्हाल सकता था। 
       मैंने यह निर्णय लिया कि अभी ये नौकरी ज्वाईन कर लूँगा ताकि छात्रावास छोड़ने के बाद मेरा खर्च चलता रहे, बाबूजी से मुझे पैसे मंगवाने पड़े। इस नौकरी के लिए मुझे यह शहर भी छोड़ना पड़ा। जिस दूसरे शहर में नौकरी लगी थी, वो इससे भी बड़ा शहर था। महानगर था। मैंने नौकरी ज्वाईन कर ली। 
     उस महानगर में, जहाँ अब मैं रह रहा हूँ…..कम पैसों में एक साधारणसा कमरा लेकर रहने लगा। यह कमरा मुझ अकेले को रहने के लिए ठीक ही था। कमरे के एक कोने में बनी आलमारी में अपनी पुस्तकें, प्रतियोगी परीक्षाओं से सम्बन्धित नोट्स इत्यादि सम्हाल कर रख दिया ताकि इत्मीनान से पढ़ता रहूँगा और अपनीे सपनों को सच करूँगा। 
     नौकरी का पहला वेतन इतना था कि इस घर का किराया और मेरा खानापीना आॅफिस आनेजाने का खर्च, बिजली का बिल आदि के खर्च पूरे कर इतना भी नही बचा कि गाँव में मैं बाबूजी के लिए कुछ भेज सकूँ। यद्यपि बाबूजी ने मुझसे कभी कुछ भी नही मांगा। फिर भी मैं सोचता कि काश! मैं बाबूजी के पास अपनी कमाई के दो पैसे भेज पाता तो उन्हें कितनी खुशी मिलती कि उनका बेटा शहर में जाकर इस योग्य हो गया है कि पिता के पास दो पैसे भेज सकता है। इस बात से उन्हें कितनी संतुष्टि और गर्व की अनुभूति होती। मैं अभी इतनीसी संतुष्टि भी उन्हें नही दे पाया। 
     नौकरी करते हुए मुझे छः माह हो गए। अब मेरे विवाह के लिए माई और बाबूजी का दबाव मुझ पर पड़ने लगा। मैं अभी विवाह नही करना चाहता था। बड़े और महंगे शहर में पारिवारिक जीवन का खर्च चलाना थोड़ा मुश्किल था। 
      ’’ बिटवा, अब नोकरी भी लाग गयी। अब का बाकी है? ’’ माई जब फोन करती मुझसे कहती।
   ’’ माई, नौकरी का कुछ और इम्तहान दे लें, तब व्याह के लिए सोचेंगे। ’’ मैं कहता।
     ’’ नाही, अब देरी करब। पहिलै पढ़ाई खातिर कहत रहौ। फिर नोकरी की बात रही। उहौ हो गई। अब बताव, अब काहै देरी करत हव..? ’’ माई कह पड़ती। 
      इस प्रकार की बातें सुनकर तथा माई बाबूजी की इच्छा जानकर अब मुझे अपने विवाह में विलम्ब करने का कोई औचित्य नज़र नही रहा था। मातापिता के इस सपने को पूरा करने का उत्तरदायित्व भी मेरा ही था। मेरे सपनों को पूरा करने का उत्तरदायित्व उन्होंने भरपूर निभाया है। अब मेरा उत्तरदायित्व है। 
        ’’ माई, हम विवाह करेंगे। आप सब लड़की तलाश लो। ’’ एक दिन फोन कर मैंने माई से कह दिया।  
    मेरे लिए लड़की तलाश ली गयी। आने वाली वैवाहिक लगन में मेरा विवाह हो गया। दो माह के पश्चात् मुझे मेरी पत्नी अनीता को लेकर शहर आना था। मुझे अपने इस छोटेसे किराए के घर में अपनी पूरी गृहस्थी बसानी थी। मैं अपने इस उत्तरदायित्व को पूरा करने में जुट गया। गैस सिलिण्डर, चूल्हा, थोड़ेथोड़े खाद्य पदार्थ आदि खरीदने में मेरी तनख्वाह खत्म हो गई। अनीता गयी थी और थोड़े में घर चलाने लगी। मेरी तनख्वाह से पूरे महीने घर चलाने की जद्दोजहद में दिन व्यतीत होते रहे। 
       ’’ सुनिए, मेरी तबीयत ठीक नही लग रही है। लग रहा है डाॅक्टर को दिखाना पड़ेगा। ’’ तीन माह पश्चात् एक दिन अनीता ने मुझसे कहा। मैं अनीता को लेकर डाॅक्टर दिखाने गया।
       ’’ आप पिता बनने वाले हैं। अब इनको पौष्टिक आहार और थोड़े आराम की आवश्यकता है। ’’ डाॅक्टर का बात से मैं प्रसन्न कम हुआ….नये उत्तरदायित्व के बोध से दबा हुआ अधिक महसूस करने लगा। अनीता को लेकर मैं घर गया। 
    ’’ अनीता, ये तो खुशी की बात है। लेकिन मैं बड़ी नौकरी की तलाश में यहाँ आया हूँ। कुछ बड़ा करके नाम कमाना चाहता हूँ।….तुम समझ रही हो कि मैं क्या करना चाहता हूँ। ’’ घर आकर मैंने अनीता की ओर देखते हुए उसे समझाने का प्रयत्न करते हुए कहा। 
      ’’ हाँ, मैं आपका आशय समझ गयी। आप अपना लक्ष्य प्राप्त करने के लिए और पढनालिखना चाहते हैं। जिसके लिए आपको समय चाहिए। मैं अपनी ओर से आपको घर गृहस्थी के झंझटों से दूर रखूँ। जिससे आप अपना पूरा ध्यान पढ़ाई और अपना लक्ष्य प्राप्त करने में लगा सकें। यही चाहते हैं आप..? ’’ अनीता की बातें सुनकर उसके कंधे पर हाथ रखकर मैं मुस्करा पड़ा।
   नौकरी के साथसाथ थोड़े बहुत बचे हुए समय में मैं अखबारों में रिक्तियाँ प्रतियोगी परीक्षाओं की पुस्तकें उठाकर देखता। समय ही कितना मिल पाता, जिसमें मैं ठीक से पढ़ाई कर पाता? थोड़ेथोड़े अन्तराल के पश्चात् अनीता को लेकर डाॅक्टर के पास भी जाना रहता। इन सभी व्यस्तताओं में समय तीव्र गति से व्यतीत होता जा रहा था। 
      शनैशनै व्यस्ततायें इतनी बढ़ी कि पढ़ाई और बड़ी नौकरी का विचार कहीं पीछे छूटता गया। घरगृहस्थी चलाने के साथ नवजात के पालनपोषण का उत्तरदायित्व भी मेरे कंधांे पर था। परिस्थितियों वश और मकान मालिक के परेशान करने के कारण यह घर मुझे छोड़ना पड़ा। इतने ही बजट में दूसरा घर मुझे लेना था। जो कि मिला किन्तु उससे छोटा। समय के साथ उतने बड़े घर का किराया महंगा हो चुका था। मेरा वेतन वहीं रूका था और महंगाई बढ़ती जा रही थी। मैं वहीं रूका थासमय आगे बढ़ता जा रहा था। मैं दो बच्चों का पिता बन गया। 
     ’’ सुनिए ’’ आज अनीता कुछ कहना चाह रही थी किन्तु झिझक रही थी।
    ’’ हाँहाँ रूक क्यों गयी? कहो क्या बात है..? ’’ अनीता को झिझकते हुए देखकर मैंने उससे कहा।  
    ’’ शहर में मेरा दम घुटता है। मन नही लगता है। ’’  झिझकते हुए अनीता ने अपने मन की बात मुझसे कह ही दी।  
     उसकी बातें सुनकर उस समय तो मैं खामोश रह गया। उस दिन आॅफिस में बैठ कर मंै सोचता रहा कि क्या अनीता ग़लत कह रही है? शहर में रह कर क्या मैं उन्मुक्त जीवन जी पाया? गाँव के खुले प्राकृतिक परिवेश में, बाल सखाओं के साथ खेलते हुए जो बचपन मैंने गाँव में व्यतीत किया है, क्या वो बचपन मैं अपने बच्चों कोे दे पाऊँगा
       एक छोटे से कमरे में रह रहा मेरा बेटा मेरे बाहर जानेआने या किसी काम से कमरे का दरवाजा खुलने पर बाहर की गली में कौतूहल से देखता है। दो वर्ष का हो गया है। मैं ही जब कोई सामान लेने गली के नुक्कड़ की दुकान की ओर जाता तो उसे अपने साथ में ले लेता हूँ। वो भी तब जब अनीता कहती है कि बाबू दिनभर घर में अकेले खेलता है। उसे बाहर नुक्कड़ तक साथ ले लो। मेरे साथ कुछ देर बाहर निकलकर बाबू कितना खुश हो जाता है। 
          आज कार्यालय में बाबूजी का फोन आया -’’ बेटा, जब से शहर गये होहम नही जानते कि तुम कैसे और कहाँ पर शहर में रहते हो। हम और तुम्हारी माई शहर में आकर तुम्हे देखना चाहते हैं। तुम्हारी माई की बड़ी इच्छा है कि बेटा शहर में नौकरी करता है। उसे बड़ा गर्व है इस बात पर। तुम फोन कर बता देना कि हम कब आवैं। ’’ बाबूजी की बात सुनकर मैं सोच में पड़ गया। मैं यही सोच रहा था कि माईबाबूजी आयेंगे तो कहीं मेरे कारण शहर का प्रभाव उन पर ग़लत पड़े। अतः मैंने अनीता ने उनके रहने, खानेपीने का अच्छा प्रबन्ध कर लिया। तत्पश्चात् बाबूजी को आने के लिए फोन कर दिया। 
          बाबूजी को लेने मैं स्टेशन गया। माईबाबूजी ट्रेन से उतरे। वे अत्यन्त खुश थे। वे कौतूहल से स्टेशन की चकाचैंध देख रहे थे। आॅटो में बैठ कर मैं उनके साथ घर की ओर चल पड़ा। सड़क के दोनों ओर व्यवस्थित ढंग से बनी बड़ीबड़ी बिल्डिगें तथा बड़ीबड़ी कम्पनियों के जगमगाते शो रूम देखकर बाबूजी का चेहरा गर्व से दपदपा रहा था, माथे तक गिरे घूँघट की ओट से अपने चारों ओर देखकर माई हक्की बक्की थी। मुख्य सड़क से उतर कर आॅटो तंग गलियों वाले मुहल्ले में मुड़कर कर कुछ मिनटों में मेरे घर के आगे रूक गया। 
            मैं आॅटो से उतर गया। माईबाबूजी अब भी आॅटो में बैठे थे। वे समझ नही पाये थे कि मैं चैड़ीचैड़ी सड़कें, बड़ीबड़ी बिल्डिंगे छोड़कर….सँकरी गली में, छोटेसे पुराने घर के सामने आॅटो क्यों रूक गया…? मैं क्यों उतर रहा हूँ?  
   ’’ आइए, बाबूजी। ’’ मैंने कहा।
      ’’ क्या..? अब उतरना है..? यहीं.? ’’ कहकर बाबूजी आॅटो से उतर गये। उनके पीछे माई भी उतर गयी।
        बाबूजी की आँखें अब भी इधरउधर कोई बड़ा घर ढूँढ़ रही थी। इतनी देर में अनीता ने घर का दरवाजा खोल दिया था। माईबाबू जी ने मेरे शहर के घर के इकलौते कमरे में प्रवेश किया। वे कमरे की दीवार से सटाकर बिछी चैकी पर बैठ गये। कमरे में पंख चल रहा था फिर भी गर्मी बहुत थी। बाबूजी अंगोछे से पसीना पांेछ रहे थे। स्टेशन से घर तक आने के बीच का दोनों का दीप्त चेहरा अब तक मुरझा चुका था। 
   अनीता माईबाबूजी का पैर छूकर रसोई में कुछ बनाने चली गयी थी। कदाचित् शर्बत। कुछ ही देर में अनीता दो गिलासों में शर्बत लेकर गयी। 
         ’’ तुम नही पियोगे बेटा? ’’ बाबू जी ने पूछा। माई मेरे दोनों बच्चों के साथ बातचीत करने में लगी थी।
    ’’ नही बाबूजी, बस अभी थोड़ी देर में सब लोग भोजन करेंगे। ’’ मैंने कहा। माई बाबूजी ने शर्बत पिया और आराम से बैठ गये थे। 
     माई का मन मेरे बच्चों में लग गया था। कुछ देर में अनीता ने सबका भोजन लगा दिया। बाबूजी ने दरवाजे के बाहर रखी बाल्टी के पानी से हाथमुँह धोया। अनीता माई को छोटेसे बाथरूम में लेकर गयी और वहीं हाथपैर धुलाया।  सबने भोजन किया। बाबूजी तखत पर लेट गये शेष सबके आराम के लिए मैंने कमरे के फर्श पर चटाई और चादर बिछा दी।  मैं जानता था कि अनीता रसोई के एक कोने में कुछ बिछाकर लेट गयी होगी। 
  गर्मी की दोपहर सबने आराम किया। शाम को रसोई में बर्तनों के उठानेरखने की आवाज से मेरी नींद खुल गयी। बाबूजी तखत पर सो रहे थे। चटाई पर माई बच्चों के साथ सो रही थी। मैं बिना आवाज किए धीरे से उठा ताकि किसी की नींद में खलल पड़े। किन्तु माईबाबूजी जग गये। 
   ’’ सांझ हो गई का बेटा..? ’’ बाबूजी उठकर बैठ गए थे।  
   ’’ हाँ बाबूजी, चाय बन गयी है। ’’ बाबूजी उठे और इस बार छोटे बाथरूम में ही जाकर हाथ मुँह धोया। क्यों कि बाहर गर्मी बहुत थी। बाथरूम से आकर बाबूजी पुनः तखत पर बैठ गये। माई भी उठकर हाथमुँह धोकर गयी। 
     ’’ बेटा, हम सोचे थे कि शहर में तुम्हारे पास हफ्तेदस दिन रहेंगे किन्तु अब लगता है कि हम एक दिन भी नही रह पायेंगे। कल ही हम गाँव चले जायेंगे। ’’ बाबूजी ने कहा। उनके चेहरे पर निराशा के भाव स्पष्ट थे। 
    ’’ क्या हुआ बाबूजी..? हम लोगों से कोई ग़लती हो गयी क्या? यदि कोई ग़लती हो गई हो तो क्षमा करें बाबूजी। ’’ मैंने माई बाबूजी की ओर देखते हुए कहा। 
      ’’ नही बेटा! बहुत बड़ी ग़लती तो हम लोगों से हो गई है। ’’ मैं हकबक बाबूजी का मुँह देख रहा था। 
    ’’ हम उसी समय नही चेत पाये, जब तुम बड़े शहर में जाकर बड़ा आदमी बनने का सपना देख रहे थे। काश! उस समय हम तुम्हें चेताते, समझाते तथा तुम्हारी इच्छाओं के बेलगाम उड़ान को रोक पाते। ’’ बाबूजी ने अपनी बात पूरी करते हुए कहा। 
      ’’ नही बाबूजी! मैं अभी और नौकरियों के फार्म भर रहा हूँ तथा उनके लिए तैयारी पढ़ाई कर रहा हूँ। ’’ मैंने बाबूजी को समझाते हुए कहा। 
         ’’ अब बालबच्चों घर गृहस्थी की साजसम्हार में लग जाओगे तो क्या पढ़ोगे और क्या फार्म भरोगे। ’’ बाबूजी ने कहा।
          ’’ बाबूजी कोशिश….. ’’ मेरी बात पूरी नही हो पाई थी। 
   ’’ बेटा, हम गाँव देहात में जरूर रहते हैं, पर शहर की हवा उधर भी आती है। शहरों में नौकरी मिलती नही है। पढ़ेलिखे बेरोजगारों की संख्या बढ़ती जा रही है। शहर की मृगमरीचिका में रहते हुए तुमने इतने वर्ष व्यर्थ कर दिए। शहर के जिस घर में तुम रह रहे हो उससे अच्छे और बड़े घर में हम लोगों की गोरूबकरी रहती है। तुम्हारा बड़ा भाई भले ही अधिक पढ़ालिखा नही है….उसने अपनी खेतीकिसानी, बागवानी से इतना कमा लिया है कि हाल ही में उसने अपना एक और खेत खरीद लिया है। बच्चों के भविष्य के लिए भी कुछ जोड़ ले रहा है। गाँव के स्कूल में उसके बच्चे पढ़ रहे हैं। बड़े होकर शहर में पढ़ना चाहेंगे तो भी वह उन्हें पढा़एगा। ’’ मेरी बात पूरी होने से पहले ही बाबू जी ने बोलना शुरू कर दिया। सिर झुकाये बाबूजी की कठोर किन्तु सच्ची बात को मैं सुन रहा था।
    ’’ एक बात औरअब मैं तुम्हारे बड़े भाई के बच्चों को समझाऊँगा कि वे शहर में जाकर पढ़ेलिखें अवश्य किन्तु वहाँ की मृगमरीचिका में भटकें। गाँव की अपनी जड़ों, अपनी खेतीकिसानी से जुड़े रहें। आगे जैसी ईश्वर इच्छा। ’’ बाबूजी ने एक लम्बी साँस लेकर कहा। बाबूजी चुप हो गए। वो आगे और कुछ भी बोलना नही चाहते है थे। 
      ’’ बेटा, आज हमें दिन वाली ट्रेन पकड़ा देना। आठनौ बजे शाम तक घर पहुँच जायेंगे। ’’ दूसरे दिन सुबह वाली चाय पीने के पश्चात् बाबूजी ने मुझसे कहा। 
      ’’ एकदो दिन और रूकिए बाबूजी। बड़ा मन है हमारा। ’’ मैंने बाबूजी से कहा। 
      ’’ हम लोग पेड़पौधे, खेतखरिहान के बीच रहने वाले लोग। यहाँ ईंटपत्थरों, इंसानों की भीड़ और गाड़ियों के शोर मंे कहाँ मन लगेगा। हमें जाने दो बेटाआज या एकदो दिन और में क्या रखा है? जीवन तो वहीं कटना है, गाँव में। ’’ बाबूजी ने कहा। 
    माईबाबूजी को ट्रेन में बैठाकर मैं स्टेशन से बाहर आया। बाहर आकर मैंने इस भागते शहर को आज भरपूर दृष्टि से देखा। इस शहर की भागती ज़िन्दगी, भागते लोग, गाड़ियाँ, ये बड़ी बिल्ंिडगें इनमें से किसी को भी तो मैं नही पहचानता। सब कुछ मेरे लिए अनजानाअनचीन्हा है। आॅटो में बैठकर इस अजनबी शहर में मैं घुसता चला जा रहा था। बाबूजी की ट्रेन जा चुकी थी कब की….मेरे गाँव की ओर।

1 टिप्पणी

  1. समझ में नहीं आया कि शहर आने का फैसला गलत था या शादी करके 3 महीने में बच्चे पैदा करने का। शादी और बच्चे सुख के लिए किये जाते हैं या दुःख उठाने के लिए? मुझे भारतीय समाज की शादी और बच्चे की जल्दी और फिर खर्च और काम के बोझ को सम्मानित करतीं या कठिनाईयों का ज़िक्र करके चरित्रों को हीरो या कर्मठ दिखाती रचनाओं का औचित्य समझ में नहीं आता…

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