अजब सी कशमकश रही है उम्र भर, 
जिस्म को बचाया तो रूह मर गयी।  
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जिंदगी के निर्जन रास्तों पर  मिलने वाले दोराहे चयन  का संकट पैदा कर देते हैं। अफ़रोजा भी ऐसे ही दोराहे पर रास्ता तलाशती खड़ी थी । वह समझ नहीं पा रही थी कि उसे क्या करना चाहिए।  आमिर और ज़ेबा ने उससे बहुत उम्मीद और प्यार से कहा था “आपा! अब्बू आपको याद कर रहे हैं। वे अस्पताल में भर्ती हैं। उनकी हालत अच्छी नहीं है। आप आ जाओ आपा।  आप आ जाओगी तो सब ठीक हो जाएगा”
पर वह कैसे जा सकती है? किस रिश्ते से, किस हैसियत से अब  वह जाए? 
क्या उनके बीच  कुछ भी ऐसा बचा था, जिसकी डोर पकड़ कर वह दो कदम भी चल सके?  इस रिश्ते ने उसके रूह पर ऐसी खरोंचे दी थी, जो उसके अस्तित्व को निरंतर लहूलुहान कर रही थी। 
लेकिन आमिर और ज़ेबा की उम्मीद का वह क्या करे? आफ़ताब ने जो किया, उसमें उन बच्चों का दोष है?  
एक अजीब सी  उधेड़बुन का झंझावात उसके मन में चल रहा था। वह कोई भी निर्णय नहीं ले पा रही थी। कशमकश का एक पहाड़ उसके सामने आ खडा हो रहा था, जिसे पार करने में वह लड़खड़ा कर गिर जा रही थी। एक मन कर रहा था कि उसे जाना चाहिए लेकिन अगले ही पल कटु स्मृतियों के काले घेरे आकर मन में डेरा डाल देते। 
“क्यों रुख़साना नहीं आई?” अफ़रोजा ने दिल पर पत्थर रखकर रुख़साना का नाम लेते हुए आमिर से पूछा था। 
“नहीं आपा, उनको भी खबर किया था, उन्होंने साफ मना कर दिया है कि कोरोना के समय वह मुंबई से दिल्ली नहीं आ सकती। अफ़रोजा का मन खराब हो गया। वह क्या करे, उसे समझ नहीं आ रहा था?
आफ़ताब आखिर उसे क्यों याद कर रहे हैं, किस रिश्ते से याद कर रहे हैं? आज जब वे अस्पताल में हैं  तब उन्हें  याद आई, अच्छे समय में कभी याद नहीं आई। याद भला आए ही क्यों? एक  पराया मर्द परायी स्त्री को याद भी भला क्यों करे? इस तरह के प्रश्नों की शृंखला  एक के बाद सागर की  लहरों की तरह आकर अफ़रोजा के मन से टकराती। 
लेकिन कुछ तो बात होगी, जो उस जालिम ने मुझे याद किया। ऐसे ही तो कोई किसी को याद नहीं करता। क्या पता, मुझसे  माफी माँगना चाहते हों। अपनी गलतियों पर अब पछतावा हो रहा हो। आखिर यह तो सच ही है कि रुखसाना ने उन्हें खुश नहीं रखा है। पछतावा तो होना ही था। जैसा बोया, वैसा काटा। यह सोचकर उसके मन को थोड़ी तसल्ली सी मिली। 
अफ़रोजा का मन कहीं एक जगह नहीं टिक रहा था। कभी आफ़ताब तो कभी  आमिर और  जोया का चेहरा  सामने आ जाता। उसे  आमिर की कही बात याद आती कि अब्बू उसे याद कर रहे हैं .. आप आ जाओगी तो सब ठीक हो जाएगा। 
अब्बू यानी आफताब अंजुम मूलतः पटना से थे। छह फुट ऊँचे, मजबूत काठी  के गौरवर्णी आफताब अंजुम ने अपनी प्रखर  व्यापारी बुद्धि के बल पर  पटना में बड़ा धन और नाम कमाया था, लेकिन  व्यापार संयुक्त परिवार का था, उसमें भाइयों की हिस्सेदारी थी। बाद में चलकर भाइयों से जब रोज की चख-चख होने लगी तो उन्होंने पटना छोड़ कर दिल्ली का रूख कर लिया था।  उन्हें अपनी बुद्धि और मेहनत पर भरोसा था। उन्हें विश्वास था कि वहाँ भी वे इच्छित सफलता पा लेंगे और ऐसा हुआ भी।  वहाँ भी उन्होंने समय के साथ व्यवसाय में एक अच्छा मुकाम बनाया।  लेकिन दिल्ली की जमीन पटना से कड़ी निकली थी। वहाँ  कुछ वर्ष संघर्ष के बीते और इन्हीं संघर्ष के दिनों ने उनसे एक बड़ी कुर्बानी ले ली थी।   अपनी बीवी आएशा को वे मौत के हाथों हार गए थे। इसके लिए आफताब  स्वयं को दोषी मानते रहे।  उन्हें  लगता था कि अगर वे आएशा  का पूरा ख्याल रख पाते, उसका ठीक से इलाज करवा पाते तो शायद उसकी मृत्यु नहीं होती। लेकिन संघर्ष के उन दिनों में, वे ऐसा कर नहीं पाये थे। 
आएशा  की मौत  के वक्त दोनों बच्चे आमिर और जोया महज क्रमशः चौदह और बारह वर्ष के थे। ऐसे में, आफताब  के लिए दिल्ली में व्यवसाय संभालना और बच्चों की देखभाल, दोनों एक साथ करना  बहुत मुश्किल हो रहा था।  ऐसे ही ज़िंदगी के कठिन सफर में अफ़रोजा हमसफ़र बनकर आयी थी। 
अफ़रोजा  एक संभ्रांत खानदान की लड़की थी और दिल्ली में पढ़ी लिखी थी। लेकिन हालात  कब किसके बदल जाएँ कोई नहीं जानता। पुराने बने हुए बड़े घर समय के साथ सड़क से नीचे हो जाते हैं तो उनमें सड़क का पानी भरने लगता है।  ऐसे ही बदले हुए हालात से  गुजर रहे अफ़रोजा के खानदान वालों के पास जब आफताब अंजुम  जैसे प्रतिष्ठित व्यवसायी का रिश्ता आया तो उन्होंने फौरन से पेश्तर हाँ कर दिया। 
दिल्ली के जामिया इलाके में पली बढ़ी अफ़रोजा में संस्कार और शिक्षा का बेहतर तालमेल था।  यद्यपि कि आफताब और अफ़रोजा की उम्र में काफी अंतर था। लेकिन शादी के बाद अफरोज़ा ने आफताब  एवं उनके बच्चों को दिल से अपनाया।  अफ़रोजा जवान थी और सुंदर भी। आफताब उसके हुस्न पर मर मिटे थे। अफ़रोजा ने भी आफताब के आँगन में मुहब्बत की बारिश लुटाने में कोई कमी नहीं की थी। हालांकि आमिर और जोया,  अफरोज़ा को अम्मी के रूप में नहीं अपना पाए एवं अफरोज़ा के प्रति उनका व्यवहार शुरुआती दिनों में एक अवांछित व्यक्ति का ही रहा। लेकिन कहते हैं न कि प्यार से पत्थर को भी पिघलाया जा सकता है।  अफरोज़ा ने भी अपने निःस्वार्थ प्रेम के बदौलत आमिर एवं जोया के दिल जीत लिए थे,  लेकिन उनकी अम्मी के रूप में नहीं बल्कि उनकी आपा के रूप में।  बच्चों ने अफ़रोजा को आपा मान लिया और इस नए रिश्ते से उसे कोई दिक्कत भी नहीं थी। 
डॉक्टरों ने बताया था कि अफ़रोजा कभी माँ नहीं बन सकती थी।   उसने आमिर एवं जोया में ही अपने मातृत्व की पूर्णता देखी थी। उन्हें अपने बच्चों सा ही प्यार-दुलार दिया था। अपनी कमी को ही अफ़रोजा ने अपनी मजबूती बना लिया था।  
अफ़रोजा ने घर परिवार की जिम्मेदारी बहुत सफलतापूर्वक उठा ली थी। परिवार की जिम्मेवारियों से मुक्त  आफताब पूरी तरह व्यवसाय में रम गए थे। दिल्ली के बाद उन्होंने मुंबई में भी काम शुरू कर दिया था। उनका मुंबई जाना-आना अक्सर लगा रहता था। वे मेहनती थे एवं व्यवसाय के हुनर में माहिर भी। मुंबई में उनका काम अच्छा चल निकला। अफ़रोजा अपने शौहर की  खुशी में खुश थी, उसकी तरक्की पर गौरवान्वित थी। वह अपने शौहर और परिवार की खुशी के लिए  दुआएं माँगती। उसे अपने लिए कुछ भी नहीं चाहिए था। वह ख़ुदा की  शुक्रगुजार थी कि उसे आफ़ताब का साथ मिला था। अच्छे दिन थे सो तेजी से बीते।  शादी के बाद सात साल पंख लगाकर उड़  गए थे। अब दोनों बच्चे जवानी की दहलीज पर कदम रख चुके थे। अफ़रोजा ने  कभी इस बात की शिकायत नहीं की कि उसे जितना वक्त और प्यार अपेक्षित था उतना नहीं मिला। लेकिन प्यार की यही अनपेक्षा शायद उसकी भूल साबित हुई। 
प्यार की अपेक्षा आफताब से कोई और ही कर बैठी थी। मुंबई में व्यवसाय के दौरान  उनकी मुलाकात रुख़साना से हुई थी।  रुख़साना उनके ही ऑफिस में काम करने आई थी और आफताब से दिल लगा बैठी। 
आफताब  जीवन का अर्धशतक लगा चुके थे। ऐसे में जवान देह की गंध ने उन्हें शीघ्र ही संज्ञाशून्य बना कर अपने वश में कर लिया। अब आफताब का ज्यादा वक्त और पैसा मुंबई की हवा में उड़ने लगा था।           
इश्क़ और मुश्क कब भला छुपाये छुपे हैं? शीघ्र ही अफ़रोजा को यह सब पता चल गया। वह सीधे आसमान से पथरीली जमीन पर गिरी थी। उसने ख्वाब में भी ऐसा कुछ नहीं सोचा था। वह तो अपनी दुनिया में मगन थे। रुख़साना ने कुछ छुपाने की जरूरत भी नहीं समझी बल्कि उल्टे,  उसने यह सुनिश्चित किया कि  शीघ्र  उनके रिश्ते जग जाहिर  हो जाएं। अफ़रोजा ने आफताब को  सुखी परिवार और जवान बच्चों का वास्ता दिया। लेकिन इश्क में अंधे आदमी के लिए कुछ भी विचार करना संभव  न हुआ। 
अफ़रोजा शायद सौत का दुख भी बर्दाश्त कर लेती लेकिन उसके जीवन में कुठाराघात तब हुआ जब आफताब ने कहा कि वह उसे तलाक देना चाहता है।  
अफ़रोजा के पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई । उसे लगा वह कोई सपना देख रही थी, जो आँख खुलते ही टूट गया। यह सपना ही तो था सात वर्ष लंबा सपना। और सपना टूटा था तलाक़ के हथौड़े की भारी चोट से। 
जब कुछ भी कहना सुनना आफताब पर व्यर्थ हुआ तो अफ़रोजा ने लगभग समर्पण करते हुए कहा कि आपको  तो चार शादियाँ वाजिब हैं।  आप रुख़साना से शादी कर लीजिए। मैं बच्चों के भरोसे रह लूँगी। 
लेकिन यह प्रस्ताव रुख़साना  को मंजूर न हुआ और जो रुख़साना को मंजूर न था वह प्रेम में अंधे आफताब को भला कैसे मंजूर होता ?  स्वाभिमानी अफ़रोजा इससे ज्यादा बात आगे न बढ़ा सकी। जिससे प्रेम ही नहीं उससे संबंध कैसे निभे?  आफताब ने अफ़रोजा को तलाक़  दे दिया। 
तलाक़! तलाक़ ! तलाक़ ! और अफ़रोजा का जीवन शीशे के घर की तरह चकनाचूर हो गया था। अफ़रोजा टूटे काँच के किरचे सम्हालती, बिना हील -हुज्जत किये अपने पिता के घर वापस आ गई थी। 
अफ़रोजा को छोड़कर, आफ़ताब अपनी दुनिया में  रम गए थे। उधर  अफ़रोजा  अपनी  दुनिया में अँधेरों एवं बेबसी के घने  जंगलों में भटकने लगी। वह उससे जितना ही बाहर निकलने की कोशिश करती, उसे लगता वह उतना ही उसमें गुम होती जा रही है। रोशनी का कोई कतरा भी कहीं दिखाई नहीं देता। कोई राह बाहर जाती हुई नहीं दिखती। 
अफ़रोजा ने  जिस दुनिया को  अपना बनाया था, वह उसकी रही नहीं थी। उसकी दुनिया  खुशबू की तरह थी, जिसे हवा का एक झोंका उड़ा ले गया था और वह ठगी सी देखती रह गयी थी। वह दुनिया, जिसे उसने अपना माना था, जिसे अपना सर्वस्व बिना किसी प्रतिफल की आशा से सौंप दिया था, वहीं से निकाली जा चुकी थी।  अफ़रोजा के बूढ़े पिता उसे पूरी तरह सपोर्ट कर रहे थे। लेकिन जामिया नगर के  उस छोटे से घर में अब पहली  सी ऊर्जा नहीं रही थी। अफ़रोजा समझती थी कि बूढ़े पिता के कंधे थक चुके हैं। वह खुद भी हाथ पैर मारकर कुछ न कुछ अर्जन करने की कोशिश कर रही थी लेकिन हारे हुए मन से कोई भी काम सफल होता नहीं दिखता। 
शादी के बाद रुख़साना मुंबई से  दिल्ली आने को राजी नहीं हुई थी। आफताब को शीघ्र ही  यह एहसास हो गया था कि रुख़साना ने मुहब्बत का सब्जबाग दिखाकर उनकी ज़िंदगी की दौलत लूट ली है। लेकिन अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गयी खेत? अब क्या किया जा सकता है? एक बार शादी टूटने के बाद वापसी भी तो संभव नहीं थी। 
अफ़रोजा शुरू  में  बीच-बीच में आमिर और जोया का हालचाल लेती रहती थी, उन्हीं से बीच-बीच में खबर मिलती कि रुखसाना और आफ़ताब के रिश्ते अच्छे नहीं निभ रहे। कभी-कभी अफ़रोजा का मन आफ़ताब का बचाव करने लगता। सिस्टम ही ऐसा बना है तो कोई भला क्या करे? आदमी का दिल मुहब्बत में बेबस हो जाता है। गलती सुधारने का कोई मौका भी तो नहीं है। इन सब सोच की परिणति अफ़रोजा के आंसुओं में होती, जिसका कोई साक्षी नहीं होता। जब रो लेती,  दिल को समझा लेती तो मन कुछ हल्का हो जाता। 
समय बीतता रहा अफ़रोजा कई जगह छोटी-मोटी  नौकरियां करती और छोड़ती रही। ऐसे ही समय में एक दिन उसके हाथ से उसका सबसे मजबूत सहारा छूट गया। अपने पिता के जाने के बाद वह बहुत अकेली हो गई। उसे उम्मीद थी कि उसके अब्बू के इंतकाल के बाद आफ़ताब जरूर आएंगे। लेकिन वे नहीं आए।  वफ़ा की उम्मीद का आखिरी दीया आंधियों की वजह से नहीं तेल की कमी की  वजह से बूझ गया था। 
अफ़रोजा की बड़ी बहन आतिफा राँची  में रहती थी। अफ़रोजा कुछ दिनों के लिए राँची  चली गई। उसने सोचा कि वहीं कुछ नया काम तलाशा जाए, नई जगह जाने से मन भी बदलेगा।   लेकिन इंसान जैसा सोचता है, वैसा ही होता नहीं है। इसी बीच कोरोना का संकट देश को अपने चपेट में ले रहा था। हजारों लोग असमय ही मौत के गाल में समा रहे थे। रोजगार का घनघोर संकट उत्पन्न हो गया था। नौकरियाँ छूट रही थी। लोग घरों में कैद हो गए थे। किसी तरह कोरोना  की पहली लहर बीती । अभी लोगों ने राहत की साँस ली ही थी कि दूसरी लहर ने दस्तक दे दी थी। दूसरी लहर अधिक संक्रामक एवं  जानलेवा सिद्ध हुई। महामारी की व्यापकता ऐसी थी कि अस्पतालों में बिस्तर नहीं उपलब्ध हो पा रहे थे। मरीजों को ऑक्सिजन नहीं मिल पा रहा था। लोग ऑक्सिजन के बिना छटपटा कर मर जा रहे थे। मरीज के पास जाने से भी बीमारी लग जाने का खतरा था। दवाइयों की भयानक कालाबाजारी हो रही थी।  इस दूसरी लहर ने  आतिफा को अपनी चपेट में ले लिया।  किसी तरह उसे अस्पताल में भर्ती कराया गया। अब प्रश्न था कि आतिफा के साथ अस्पताल में कौन रहेगा? आतिफा के पति मज़हर ने घर पर रहकर बेटी का ख्याल रखना चुना और अस्पताल का सारा दारोमदार अफ़रोजा के कंधे पर डाल दिया। अफ़रोजा निर्भीक होकर बहन की तीमारदारी  करने लगी। उसने अपनी जिम्मेवारी निभाने में कोई कमी नहीं छोड़ी। 
इस बीच आमिर का फोन आया था। 
“आपा आप कहाँ हो ? आप आ जाओ। अब्बू को कोरोना हो गया है। वे अस्पताल में भर्ती हैं। उनकी हालत नाजुक है। अब्बू आपको याद कर रहे हैं।   
अफ़रोजा जब कोई निर्णय नहीं ले पायी तो उसने सोचा कि अपनी बहन आतिफा से बात की जाए। शायद आतिफा सही सलाह दे पाए। 
उसने अपनी बहन से कहा कि उसे आफताब दिल्ली बुला रहे हैं। 
आफताब !! वह क्यों बुला रहा है? वह कौन है तुम्हारा? उसे क्या लगता है कि  वह अभी भी तुम्हारा शौहर है?  
“दरअसल आमिर ने फोन किया था। उनकी हालत नाजुक है, बता रहा था”। अफ़रोजा ने स्थिति स्पष्ट की। 
जिस आदमी ने तुम्हें तलाक़ दे दिया। जिसने कभी तुम्हारे दुःख-दर्द की फिक्र नहीं की। जिसने कभी यह नहीं पूछा कि जी रही हो या मार गयी।  ऐसे बेमुरव्वत आदमी से हमदर्दी कैसे हो सकती है? 
“आमिर और जोया वहाँ परेशान होंगे” अफ़रोजा ने धीमे से  कहा। 
एक गैर मर्द के लिए तुम  अपनी सगी बहन को इस हाल में छोड़ कर जाना चाहती हो तो बेशक़ चली जाओ। लेकिन फिर देखना यहाँ का दरवाजा तुम्हारे लिए बंद मिलेगा।  आतिफा ने एक तरह से अफ़रोजा को धमकाते हुए कहा। 
अफ़रोजा का मन खट्टा हो गया। अस्पताल में बहुत खतरा उठाकर  उसने बहन की  सेवा की थी। उसके शौहर मज़हर भाई तो  कभी भूले से भी उधर नहीं गए थे और आज उसकी सगी  बहन कैसी बात कर रही है? 
क्या रिश्तेदारी ही सबकुछ होती है? क्या इंसानियत कुछ नहीं होती? उसे आमिर और जोया का चेहरा बार-बार याद आने लग। कितने परेशान होंगे दोनों। अफ़रोजा का मन बहुत बेचैन होने लगा था। आमिर और जोया कैसे सब कुछ मैनेज कर रहे होंगे? कहीं उन्हें भी कोरोना का संक्रमण लग गया तो? 
आमिर और जोया के लिए अब भी उसके मन में बहुत प्यार था। अब उसका मन राँची में नहीं लग रहा था। वह बार-बार अपने मन को समझाती कि आफताब भला उनके हैं कौन, उनके लिए क्या परेशान होना? बाजी ठीक ही तो कह रही है।  लेकिन दिल के किसी कोने से एक हूक सी उठती और उसके पूरे अस्तित्व को अपने चपेट में ले लेती। अखबार और टीवी के समाचार कोरोना की भयावहता एवं  मरने वालों की बड़ी संख्या की खबरों से पटे  हुए रहते थे।  किसी तरह दो दिन बीते। आतिफा अस्पताल से घर आ गई। 
“अब तो आप घर आ गई हैं, मैं कुछ दिनों के लिए दिल्ली जाना चाहती हूँ” अफ़रोजा  ने आतिफा से कहा। 
“तुम देख रही हो कि अभी भी मेरी हालत कुछ ठीक नहीं, मेरा ऑक्सिजन लेवल कम है। मुझे चलने फिरने में दिक्कत है। ऐसे में तुम गैर आदमी के लिए मुझे छोड़कर दिल्ली जाना चाहती हो।“ आतिफा चिढ़ गई थी। 
यहाँ तो मज़हर  भाईजान हैं न आपकी देखभाल के लिए।“ 
“और वहाँ रुख़साना नहीं है, तुम्हें छोड़ कर जिससे उसने शादी कर ली थी। मुझे समझ नहीं आता है कि एक गैर मर्द के लिए तुम बार-बार कैसे जा सकती हो। यह गुनाह है..  गुनाह। एक बार पहले भी तुम उसके साथ अस्पताल में रह चुकी हो”।   आतिफा ने बुरा सा मुँह बनाकर कहा। 
अफ़रोजा चुप रही। वह बोल भी क्या सकती थी? उसे  समझ नहीं आया कि वो हैरत करे या अफसोस।  वह चूंकि आतिफा के यहाँ रह रही है, इसलिए आतिफा उसे लाचार समझकर उसके साथ ऐसा व्यवहार कर रही है।  उसे अब खुद ही कोई निर्णय लेना होगा। अफ़रोजा ने सोचा और फिर उसके मन का तूफान शांत हो गया।
अफ़रोजा ने मन कड़ा किया और निर्णय ले लिया।  उसने तय कर लिया कि  वह दिल्ली जाएगी। उसने इसकी घोषणा अपनी बहन के सामने कर दी। 
सारी ट्रेनें बंद थी। इसलिए उसने इंटरनेट से दिल्ली के लिए जहाज का टिकट कराया और एयरपोर्ट के लिए निकल गई। 
आतिफा और मज़हर ने उसके घर से निकलते ही भड़ाक से घर का दरवाजा उसके मुंह पर  बंद कर लिया । 
एयरपोर्ट पहुँच कर उसने सोचा कि आमिर को खबर कर दे कि वह दिल्ली आ रही है। वे लोग चिंता न करें। 
उसने फोन लगाया। 
फोन आमिर ने उठाया।
आमिर चिंता न करो, मैं दिल्ली आ रही है, मैं सब ठीक कर दूँगी। 
“अब आने की जरूरत नहीं है आपा, अब्बू नहीं रहे”  उधर से आमिर ने बिलखते हुए कहा। 
अफ़रोजा धम्म से वहीं बैठ गई। जाने क्या था जो  ध्वस्त हो गया हो। जैसे आजतक जिस एक अदृश्य डोर के सहारे जिंदगी टिकी थी वह सहारा भी छूट गया था।  
उधर एयरपोर्ट पर अनाउन्समेन्ट हो रही थी “दिल्ली जाने वाले यात्री गेट नंबर एक से बोर्डिंग करें”।  
अफ़रोजा ने आँखें बंद कर ली। उसे लगा उसकी फ्लाइट उड़ चुकी है, वह चिड़िया की तरह हवा में उड़कर उसे पकड़ने की कोशिश कर रही है। उसके पंख जहाज से टकराकर टूट रहे है,  जहाज उसकी पकड़ से दूर होता जा रहा है।     

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