तेज बारिश और तूफ़ानी हवा । आज वातावरण कहर ढ़ा रहा था । बादल तो सुबह से छाए हुए थे लेकिन पिछले चार घंटे से लगातार गड़गड़ा रहे थे । घर मेहमानों से अटा पडा था और यह तूफानी माहौल …. काफी परेशानी हो रही थी ।
“अनुष्ठान का अंतिम सोपान … दान! सुनिए जजमान … दान का माहात्म्य।” पंडित जी ऊँचे स्वर में बोले ।
‘एक जोड़ी चप्पल, छतरी, वस्त्र, रजत पात्र, सुवर्ण, इत्यादि वस्तुओं का दान मृत आत्मा की अगली यात्रा सुगम बनाते है । इनके अतिरिक्त वैतरणी पार कराने में गोदान की तो अपनी ही महिमा है । शास्त्रों में इसका स्पष्ट विधान मिलता है । इन दान कर्मों की अनिवार्यता भी दिखलाई गई है लेकिन आज के समय में यह सब आपकी श्रद्धा पर निर्भर है । इन द्वादश दिनों में जजमान ने जिस तत्परता से अनुष्ठान किया है, उनकी माँ की आत्मा अवश्य तृप्त हुई होगी …आप सब परिवार को उनका अखंड आशीर्वाद अवश्य प्राप्त होगा ” । पंडित जी ने नाक पर झूलता अपना चश्मा उतारा और संक्षिप्त उद्बोधन समाप्त किया ।
अचानक आकाश में तेज बिजली कड़की । बादल गरजे… । आज मौसम भी इस शोक में सम्मिलित हो रहा था । क्यों न होता …..?
माँ को गुजरे बारह दिन हो गए थे । आज तेरहवीं थी । कर्म संस्कार अंतिम चरण पर पहुँच गया था । शेखर अत्यंत श्रद्धा से सब क्रियाएं संपन्न कर रहा था । हाथ और दिल खोल कर खर्च किए जा रहे थे । हाँ… परंपरा तो थी । अतिथियों की जमकर मेहमाननवाजी की जा रही थी और वे मेजबान की प्रशंसा करते न अघा रहे थे ।
“ पंडित जी आपसे एक और अनुरोध है । जरा आप इन सब के साथ-साथ ‘भूदान’ भी करा दीजिएगा”। अंदर से आवाज आई । पंडित जी ने सर उठाकर देखा । सामने गीली साडी का पल्लू ढांपे शेखर की धर्मपत्नी कामिनीदेवी खडी थी ।
सहसा तेज हवा चली । बवंडर सा उठा । कोने में जलता दीपक भक्क से बुझ गया । घर के अंदर सब कुछ उथल-पुथल होने लगा । सामने नीचे फर्श पर मेहमानों के लिए बिछी दरियाँ,कम्बल ,चद्दरें सब आंखों में धूल छोड़ती उडने लगी । । और तो और खिड़कियाँ दरवाजों के पाए हवा के दबाव से बुरी तरह टकराने लगे । कांच के शीशे सूखे पत्तों की तरह फड़्फडाने लगे । अंदर माँ के कमरे की हालत भी गड़बड़ा गई थी । हाँ…माँ का ही कमरा था वह । वह वहीं रहती थी ,जब तक थी । कमरे की उत्तरी दीवाल पर जो केलेण्डर टंगा था वह तीन वर्ष पुरानी तारीख दिखा रहा था । तीन वर्ष …हाँ लम्बा समय था । किसी ने उसे उतारा ही नहीं था । वहीं टंगा मुक्ति की प्रतीक्षा कर रहा था । मुक्ति ! हाँ …उसे भी मुक्ति चाहिए थी शायद । मैला हो गया था पर फटा नहीं था अब तक … लेकिन अब… आजाद हो जाना चाहता था । और आज हवा पर सवार वह मंजिल पा लेने की आशा में अपने ध्रुव से जुड़ा गोल-गोल चक्कर काटने लगा । उसकी रगड़ से अर्ध-चंद्राकार निशान बन रहे थे दीवार पर ..कीच-कीच की अजीबोगरीब आवाज के साथ । मिटने से पहले वह अपनी निशानी छोड़ देना चाहता था । और अंततः वह क्षण आ ही गया …। अचानक बीच से लम्बाई में फ़टा और उसके दो टुकडे अपने आधार से मुक्त खिड़की की सलाखों से लिपटते-चिपटते बाहर की ओर उड़ चले । पंख लग गए उन्हें । तेज उडे … बहुत तेज । बारिश और ऊपर से ठंडी हवा… आग और घृत का योग बना हुआ था । कामिनी भाग कर गई और आगे बढ़ कर उसने झट से सब खिडकियाँ बंद कर दी । वेग कुछ कम हुआ …थोड़ी बहुत शांति आई । वरना तो ऐसा लग रहा था आज ये हवा अपने साथ सब कुछ उड़ा ले जाएगी । तेल लाकर उसने बुझा हुआ दीपक फिर से जला दिया । हल्की सी रोशनी फैल आई।
कामिनी…शेखर की अर्धांगिनी… शास्त्रोक्त प्रकारेण उसके हर पाप-पुण्य की सह-भागीदार ।
‘हाँ पंडित जी…पता नहीं यह विधान है कि नहीं लेकिन माँ की बहुत इच्छा थी । मैं उनकी हर इच्छा पूरी करना चाहता हूँ… माँ ने कितना दिया … यह घर भी उन्हीं की ही तो सौगात है । ‘अपने घर’ में प्राण त्यागने की उनकी अंतिम इच्छा पूरी न हो सकी । इसीलिए मैं चाहता हूँ कि इस अवसर पर भूदान की औपचारिकता भी निभा दी जाए’। शेखर ने आगे आकर अपनी पत्नी का समर्थन किया ।
अचानक बाहर तेज प्रकाश हुआ …आंखों को चुंधिया देने वाला … आसमान में तीर जैसी पतली सी किरण चमकी । रोशनी तेजी से नीचे की ओर आई और पलक झपकते ही धरती के गर्भ में समा गई । फिर ऐसी गर्जना हुई मानो कानों के पर्दे कांप उठे । रूह तक थरथरा गई । पास में ही कहीं बिजली गिरी थी । भू नभ एक साथ हिल गए । सन्नाटा छा गया । अब तो इस झटके से हवा भी सहम गई । बहना भूल चुपचाप थम कर विलुप्त हो गई । गहरी निस्तब्धता ! बिजली गिरी कि बारिश तेज हो आई ।
पंडित जी को अपने कानों पर विश्वास न आया । ऐसा पुत्र रत्न वे अपने पंडिताई जीवन में पहली बार देख रहे थे । आजकल तो ऐसे कर्मों पर कोई श्रद्धा भी न दिखाता था । ऐसा तो अमूमन कोई सोचता भी न था और करने वाले तो न के बराबर । दिया ढूंढ कर देखो तो भी न मिले । इतना समर्पण ,इतनी निष्ठा ? वे कुछ क्षण टकटकी बांधे उन दोनों को देखते रहे ।
“धन्य हो वत्स ! तुम जैसे पुत्र की माँ सचमुच कितनी भाग्यवान है.. । हर माँ को तुम्हारे जैसा पुत्र रत्न प्राप्त हो । बहुत ही सुंदर निर्णय । अवश्य करवाएंगे । यह तो अभूतपूर्व दान होगा । सत्य मानिए अब तो माताजी को स्वर्ग लोक में ‘अखंड वास’ का सुख भोग भी प्राप्त होगा’ ! पंडित जी की आंखों में चमक आ गई ।
मीरा सब सुन रही थी वहीं बैठी । आँखें भीग आईं उसकी । पहले ही दिन से उसे शेखर के रंग-ढ़ंग में काफी परिवर्तन नजर आ रहा था । वह अपनी नजर उस पर से हटा न पा रही थी । संस्कार की क्रियाओं में उसका जोश उत्साह देख कर आश्चर्य हो रहा था । पंडित जी के मुंह से बात निकलने की देर ,हर चीज समय पर हाजिर । कितनी पवित्रता, कितनी श्रद्धा उस चेहरे पर ….। मन क्षुब्ध हो उठा । तन बदन में आग लग गई । पर चुप रही । मुंह सिल लिया । आने से पहले ही वह अपना इरादा पक्का कर आई थी कि यहाँ कोई फसाद नहीं करेगी । तेरह दिन अपना मुंह बंद रखेगी और औपचारिकता निभते ही चल देगी । मन तो बिलकुल न था लेकिन आना पडा । अपने लिए नहीं ,माँ के लिए ।
उसने एक बार माँ के कमरे में नजर दौड़ाई । तीन वर्ष हुए उसे यहाँ आए । माँ के इस घर से जाने के बाद उसने यहाँ पांव न रखा था । चारों ओर गहरी दृष्टि से उसने देखा । कुछ अधिक तो नहीं पर हाँ थोड़ा बहुत बदलाव अवश्य आया था । माँ की पलंग सरकाकर वहाँ लंबी सी मेज डाल दी गई थी । शायद इन तेरह दिनों के कार्यक्रमों में जगह बनाने के उद्देश्य से । कमरे की सजावट बडी लुभावनी लग रही थी । बड़ा ही मनमोहक ताम झाम था वहाँ । बडी सी मेज….उस पर बीचों बीच माँ की फ्रेम जड़ित तस्वीर , तस्वीर पर चंदन की माला, बिखरी हुई गुलाब की पंखुडियाँ जो अब पूरे कमरे में फैल चुकी थी ….मेज के चारों और फूलों का बंदनवार … तस्वीर के पास ही एक स्टूल पर रखा दीपक … धूप बत्तियाँ .. भीनी-भीनी सुगंध… करीने से रखे रजत कलश…. उनमें भरा गंगा जल ….नूतन वस्त्रों के ढेर …दान की सामग्री । अद्भुत ! उसे लगा….क्या कमी है यहाँ ? सब कुछ तो है । जाने अंजाने किए समस्त पापों के प्रक्षालन हेतु सब व्यवस्था तो यहीं मौजूद है । मन बुद्धि के अनायास दोष-मुक्त हो जाने की पूरी संभावना नजर आ रही थी ….और जब पाप ही भस्म हो जाए तो फिर पाप-बोध का अस्तित्व ही कहाँ ? है क्या?
मीरा की स्मृतियों में बीता वक्त एक बार फिर सजीव हो उठा । बीती हुई एक एक बात तीर सी भेदती आँखों के सामने आ गई । कैसे भूल सकती थी?
तीन साल हुए… हाँ…लगभग तीन साल पहले की ही तो बात है ….उस दिन माँ का फोन आया था । फोन पर माँ रो रही थी ।
“मीरा …मीरा मैं गुरु जी के आश्रम में जा रही हूँ । अब वही रहूंगी स्थाई रूप से” ।
‘क्या…$…. $…$…पर क्यों? …क्या हुआ माँ? अनिष्ट की आशंका । माँ का निर्णय उसे डरा गया । वह माँ को अच्छी तरह से जानती थी । माँ कम बोलती थी ….हमेशा चुप ही रहती थी पर अगर कुछ कहती थी तो कर के दिखाती थी ।
‘भैया भाभी ने फिर क्या कह दिया तुम्हें माँ? मेरे पास यहाँ आ जाओ…..मैं अभी हूँ न । आप दो बच्चों की माँ हो । आपकी बेटी अभी जिंदा है ’ । मीरा ने माँ को मनाने की कोशिश की थी लेकिन जानती थी माँ न मानेगी … और हुआ भी वही था …माँ….न मानी थी ।
“न … बेटा… रोज रोज अब यह ताने मैं सुन नहीं सकती । तुम्हारे भैय्या भाभी को मेरा यहाँ रहना बिल्कुल नहीं सुहा रहा । रोज रोज का अपमान …. झगड़ा न … न… । वह चाहता है कि पूरी पेंशन उसे दे दूँ। यह कैसे करूँ…तू बता ? तुम्हारे पिताजी के बाद मेरा यही सहारा है न ? सब उसे देकर उसके आगे हर छोटी जरूरत पर हाथ फैलाऊँ क्या? मेरा पैसा, मेरी इच्छा … है कि नहीं ? मैं कुछ भी करूं … वो कौन होता है कहने वाला? कितना दान पुण्य करते थे तुम्हारे बाबूजी ? हम दोनों का एक ही तो सपना था… गुरु जी के आश्रम में सौ गज ही सही, ‘भूदान’ करने का । उनके जाने के बाद मेरा दायित्व बनता है कि नही? एक दिन गलती से शेखर के सामने भूदान के बारे में क्या कहा, तो चौबीस घंटों के अंदर यह घर अपने नाम करवा लिया । कितना मजबूर किया था उस दिन’ । माँ रोते हुए बड़बड़ाए जा रही थी ।
‘माँ… जाने भी दो न । करो न करो … घर तो उसे जाएगा ही’।
‘क्यों? तुम्हारे बाबूजी की गाढी कमाई से बना घर है यह । इतनी अनपढ़ भी मैं नहीं । जाता मेरे बाद । मैं ने क्या मना किया था? पर जब तक हूँ ,तब तक तो मेरा रहता? तुम्हारा हिस्सा भी खा गया फिर भी मन न भरा । अब मेरी पेंशन पर आस लगाए बैठा है । क्या कम कमाता है? दान करना तो पाप है यहाँ । और मैं दे भी कितना रही हूँ ? वृद्धाश्रम को ही तो देती हूँ ताकि किसी अनाथ का सहारा ही हो जाए…उनकी भी गुजर बसर हो जाए,… पेंशन से ही दे रही हूँ न … उसके पैसे तो नहीं खर्च रही? आखिर मेरी भी अपनी जिंदगी है । हर वक्त हर विषय में पाबंदी …न….न । बात कुछ और ही है मीरा मैं जानती हूँ । वह बस मुझे यहाँ से निकालना चाहता है’ ।
‘माँ रुको…रुको…क्या उसने तुम्हें कहीं चले जाने को कहा है?’ मीरा की रुलाई फूट पड़ी थी।
‘क्या अब वो दिन देखना भी बाकी है? नहीं । मैं अपनी इच्छा से ही जा रही हूँ । रहे वो अपनी मर्जी में । मुझे नहीं रखना चाहता …ठीक है… ऐसा ही करें…। वहीं जा कर रहूँगी । मेरी पेंशन से मैं आराम से खा सकती हूँ … चार को खिला भी सकती हूँ । कब तक उसके हिसाब से जीऊँगी? दान पुण्य अब न करूँगी तो कब? और न होगा मुझसे…। जैसा किस्मत में होगा देखा जाएगा… रूखी सूखी कुछ भी खा लूंगी लेकिन अब यह अपमान न सहा जाएगा अब तो वहीं रहूंगी ,वहीं मरूंगी । जितने भी दिन जीऊँगी , इज्जत से जीऊँगी’ । माँ रो भी रही थी और बहुत गुस्से में भी थी । मानने को बिलकुल न तैयार।
उसी शाम माँ वृद्धाश्रम चली गई थी। बेटी दामाद के साथ रहना उन्होंने कभी पसंद न किया था । उनके अपने उसूल थे । अपनी मान्यता थी । अपने हिसाब से जीना चाहती थी । वहीं चली गई थी । मान जो मिलता था आश्रम में माँ को । बहुत इज्जत थी वहाँ । माँ बाबूजी की असीम श्रद्धा थी गुरु जी पर जिनका वह आश्रम था । और माँ दान भी तो बहुत देती थी । जैसी भी थी… जिस हाल में थी …खुश थी । जब तक जीवित थी, अपनी स्वायत्तता में रही थी माँ । आराम से जी थी बाकी की जिंदगी उसने । अंतिम समय में शांति से प्राण छोड़े थे माँ ने । मीरा पास थी मां के अंतिम समय में । मुंह में गंगा जल भी उसी ने दिया था ।
अंतिम चरण…पिण्ड दान की प्रक्रिया चल रही थी ।
“परिवार के सभी सदस्य आकर अन्न पिण्ड को नमस्कार करें। यह अन्न पिण्ड माताजी की क्षुधा को शांत कर उन्हें असीम तृप्ति देगा । बारह दिनों तक जीव सूक्ष्म रूप से पृथ्वी पर ही विराजमान होकर सभी कर्म स्वीकारता है । अब तक माताजी यहीं पर आप लोगों के आस-पास ही थी । आप भले न देख पाए हों पर वे आपको भली-भांति देख रही थी । लेकिन अब वे देव योनि ग्रहण कर स्वर्ग लोक गमन करेगी और वहीं से अत्यंत प्रसन्न होकर आप सभी की सब मनोकामनाएं पूर्ण करेगी’ ।
पंडित जी की आवाज से मीरा की तंद्रा टूटी । मुंह आंसुओं से भीगा हुआ था । आंखों को कुछ स्पष्ट दिखाई न दे रहा था । उसने आंखें मलकर देखा । अन्न पिण्ड पर लगे काले तिल उसे अचानक बडे डरावने लगने लगे । सब कुछ प्रश्नसूचक और अविश्वसनीय….।
बदन में ठंडी सी लहर रेंग आई । पिण्ड नमस्कार करने को कहा गया था । वह इस घर की बेटी थी । हर कर्म की, हर संस्कार की सह-कर्ता व सह-अधिकारी । इसीलिए नमस्कार करना आवश्यक था । सोचकर वह उठी तो, पर न जाने क्यों वहीं धरी की धरी रह गई । पांवों ने जवाब दे दिया । आगे अंधेरा सा छाने लगा । माँ आंखों के सामने आ गई । यह सब इतनी जल्दी कैसे हो गया? क्या माँ सचमुच चली गई ? आश्चर्य! अब इतने दिनों बाद भी उसका मन मानने को तैयार न हो रहा था । सब उसके सामने ही तो हुआ था । वही तो थी वहाँ । तो आज फिर यह भ्रम क्यों? शनैः शनैः अंतिम चरण तक पहुँचना अत्यंत दुखदायी लग रहा था । इस संस्कार के बाद, पंडित जी के अनुसार माँ का भूलोक से सब नाता टूट जाएगा । अब वह कभी उन्हें न देख सकेगी । कभी नहीं । नहीं …नहीं…। काश… वह माँ के साथ कुछ समय गुजार पाती… काश…माँ उसके साथ रहने को राजी हो जाती …काश! फूट पड़ी वह । माँ…माँ…माँ…! अब तक रोके रखा था । अब और रोक न सकी अपने आपको । मन यह पिण्ड दान स्वीकार न कर पाया , आंखें देख न पाईं यह दृश्य !
बाहर आकाश में भी अजब सी हलचल मची हुई थी । प्रकृति भी असहज हो उठी थी । अकारण !।बारिश की बौछारें यहाँ से वहाँ उड़ रही थी । शाम भी काली रात बन गई थी । हवा और पानी का डरावना शोर बड़ा ही विचित्र माहौल बना रहा था । कभी न देखी न सुनी,उस दिन ऐसी बरसात हो रही थी । नदी नाले भर गए । आंगन में पूरा पानी उतर आया था ।
अंदर रसोई में विशाल अन्न कुण्ड बनाया गया । ब्राह्मणों के भोग के लिए विशेष .व्यंजन पकाए जा रहे थे । शेखर दिल खोल कर वस्त्र,पात्र वगैरह दान कर रहा था । दान दक्षिणा से पंडितों की झोलियाँ भरी जा रही थी । पंडित तृप्त हुए जा रहे थे …. भर-भर आशीर्वाद दे रहे थे … ।
अचानक फिर बिजली कड़की ….बादल गरजे ।
‘जजमान, अनुष्ठान अब अपने अंतिम चरण पर पहुँच चुका है । भोजन से पूर्व आपकी और माताजी की इच्छानुसार ‘भूदान यज्ञ आरंभ होता है । आप दोनों दम्पत्ति माताजी की तस्वीर और फूल मालाएं लेकर बाहर बरामदे में चलिए । आगे का कार्यक्रम वहाँ सम्पन्न होगा’ । पंडित जी गंगा जल का पात्र हाथ में लिए अपनी धोती संभालते हुए उठ खड़े हुए । मुश्किल हुई उठने में । देर से जमीन पर बैठे थे । बुजुर्ग भी थे और बेचारे काफी थक गए थे । आंखें मलते एक बड़ी सी जम्हाई ली….आगे टेढ़े झुककर पीठ सीधी की और सीधा बरामदे में प्रस्थान । आज आखिरी दिन का अनुष्ठान लंबा चला था । थकान सबके चेहरों पर साफ नजर आ रही थी । शेखर धीमे से माँ कमरे में गया और मेज पर से माँ की तस्वीर सावधानी से उठा ली । कामिनी देवी फूल मालाओं को लेकर बाहर आंगन में पति के पीछे-पीछे हो चली ।
बाहर बरामदे में भूदान हेतु विशेष हवन कुण्ड बनाया गया । अग्नि प्रज्वलित की गई । और पंडित गण हवन के चारों ओर घेरे में बैठ गए ।
‘देखिए जजमान… आपको माताजी की तस्वीर के साथ हवन कुण्ड की तीन बार परिक्रमा करनी है तभी पंच भूतों में पृथ्वी का दान अर्थात ‘भूदान’ का फल माताजी को प्राप्त होगा । हम मंत्रोचारण करेंगे और आप परिक्रमा करते गंगा जल से धरती का संप्रोक्षण करेंगे । यह अनुष्ठान आप पुत्र होने के नाते अकेले ही करेंगे । ध्यान रहे फर्श भीगा है इसीलिए सावधानी से चलिए’ । पंडित जी ने शेखर को आगे की प्रक्रिया समझाई ।
एकादश पंडितों के मंगलाचरण से ‘भूदान यज्ञ’आरंभ हुआ । मंत्र घोष से घर की दीवारें गूँज उठी । शेखर माँ की तस्वीर हाथ में लिए गंगा जल नीचे छिड़कता धीरे -धीरे संभलते पांव रख रहा था । कपडे गीले होने के कारण बदन से चिपक गए थे और चलने में परेशानी दे रहे थे । बडी मुश्किल से उसने दो परिक्रमाएं पूर्ण की । अंतिम सोपान यानि आखिरी परिक्रमा । ‘भूदान यज्ञ’ की आहुति के समर्पण की परिक्रमा … । इसके समाप्त होते ही पूर्णाहुति और उस के बाद ‘फल प्राप्ति’ । पंडितों ने ऊँचे स्वर में स्वस्तिवाचन आरंभ कर दिया । ‘हवा’ तेज थी और बरामदे में शोर भी अधिक था । हवन कुण्ड में ‘अग्नि’ की लपटें धू-धू कर ऊपर उठ रही थी । अग्नि स्फुलिंग जुगनुओं की तरह उड-उड कर चारों ओर बिखर रहे थे । आज अग्नि में भी अनोखा तेज दिख रहा था । हवा ,अग्नि और बारिश तो जैसे एक दूसरे से होड़ कर रहे हों । और आसमान … वह तो काला डरावना अवतार ले चुका था । आंगन में पेड़ ऐसे झूल रहे थे जैसे अभी अपनी जमीन से उखड जाएंगे । चाहरदीवारी पर गेट के पाए खुल चुके थे और सब ओर भरा पानी तीव्र गति से सड़क की ओर बह रहा था । सड़क भी पानी से भर गई थी । निरंतर बारिश के कारण हर पल बहाव तेज हो रहा था और सड़क का पानी ढ़लान की ओर बहे जा रहा था ।
तभी ‘आकाश’ में जोर की बिजली चमकी । तेज रोशनी से शेखर की आंखें बंद हो गई । अभी परिक्रमा पूरी होने ही वाली थी कि अचानक आंख बंद होने से उसका ध्यान अटका और संतुलन बिगड गया । बिना देखे उसने पानी पर पांव रखा और बस फिर क्या था… सर्र् से पांव फिसला और वह चिकने फर्श पर लुड़कता हुआ दूर जा गिरा । सिर फर्श से टकराया और माँ की तस्वीर हाथ से छूटकर पलटियाँ खाती हुई दूर जा औंधी गिर गई । तस्वीर ने अपने कोनों पर इतनी जोर से पलटी मारी थी कि फ्रेम चारों ओर से उखड़ गया । अंदर का शीशा चूर-चूर हो गया और टुकड़े बरामदे में मोतियों की तरह बिखर गए । फ्रेम के खुल जाने से तस्वीर का कागज फटकर अलग हो गया । कुछ क्षण वह कागज वही औंधा पडा रहा लेकिन अगले ही पल तेज बहती हवा से फड़फड़ाता हुआ उड़ा और जा आंगन के पानी में गिरा । शेखर की चीख निकल गई । उसे कोहनी और सर पर गंभीर चोट लगी थी । वह उठ कर उसे पकड भी न सका । इससे पहले कोई कुछ करता माँ की तस्वीर का वह कागज पानी में डोलता गेट पार कर गया और देखते-देखते सब की आँखों के सामने सड़क के तेज बहाव में बह कर अदृश्य हो गया ।
‘भूदान’ की पूर्णाहुति हो गई ।