होम कहानी नीरजा हेमेन्द्र की कहानी – पीले दरख़्त कहानी नीरजा हेमेन्द्र की कहानी – पीले दरख़्त द्वारा नीरजा हेमेन्द्र - March 19, 2023 78 0 फेसबुक पर शेयर करें ट्विटर पर ट्वीट करें tweet बचपन में गुरुजनों से सुना था कि जीवन के सबसे अच्छे दिन बचपन के होते हैं। उस समय उनकी कही गयी इस बात को उतनी गम्भीरता से नही लेता था जीवन की यात्रा तय करते–करते अब जब कि बचपन को कहीं बहुत पीछे छोड़ कर यहाँ आ गया हूँ तो गुरूजनों की उस बात की गम्भीरता को समझ पाया हूँ। बचपन के उन दिनों में यदि कभी हमें बालसाहित्य की पुस्तकें पढ़ने को मिल जाती थीं तो क्या कहनें? बाल साहित्य की कहानियाँ पढ़ कर बालसुलभ मन कहानियों के साहसी, बु़िद्धमान पात्रों में स्वंय को ढाल कर उनके संग–संग जीने लगता था। उन दिनों मेरे पास बाल कहानियों की पुस्तकों का अच्छा–खासा संग्रह था। बाल कहानियाँ एक अलग ही विस्तृत कल्पनालोक का सृजन करतीं और उनमें मैं विचरण करता रहता। उन दिनों मेरे प्रिय लेखक थे श्याम सुन्दर ’ शलभ ’। बाल कहानियों के अद्भुत सृजनकत्र्ता। शलभ जी की कहानियाँ अत्यन्त सजीव और सुन्दर होती। मुझमें बाल साहित्य पढ़ने में रूचि जागृत करने वाली शलभ जी की कहानियाँ ही थीं। उनकी कहानियाँ पढ़ते–पढ़ते ही मेरे बचपन के दिन व्यतीत हुए थे। कहानियों की पुस्तकों पर उनकी फोटो देखता तो मन में यही इच्छा होती कि काश! शलभ जी सामने आ जायें और मैं उने चरणों में नतमस्तक हो जाऊँं। उनके लेखन की भाँति ही आकर्षक व्यक्तित्व था उनका। होठों पर एक मधुर स्मित रहती। शलभ जी की कहानियाँ पढ़ते–पढ़ते मैं उनका प्रशंसक कम, उपासक अधिक बनता चला गया। उनके लिखे नये उपन्यासों व कहानियों की प्रतीक्षा रहती मुझे। बुक स्टाल पर जाकर उनकी लिखी नयी पुस्तकें ढूँढा करता। समय अपनी गति से आगे बढ़ता रहा। समय के साथ–साथ मैं भी बड़ा होता जा रहा था। साहित्य पढ़ने की रूचि तो सम्भवतः शलभ जी को पढ़ते–पढ़ते उत्पन्न हुई थी मुझमें, अब मैं बाल साहित्य के साथ अन्य साहित्यक पत्रिकाओं को पढ़ने में भी रूचि लेता। एक दिन किसी पत्रिका के पन्ने पलटते–पलटते मेरी दृष्टि एक पृष्ठ पर ठहर गयी। आँखों में उत्सुकता और हृदय में प्रसन्नता की लहरें तरंगित होने लगीं। पत्रिका के उस पृष्ठ पर मेरे प्रिय लेखक शलभ जी का साक्षात्कार छपा था। उस दिन मुझे उनके विषय में और जानने का सुअवसर मिला कि शलभ जी उच्च शिक्षित तो थे ही, साथ ही यह भी कि उनका बचपन अभावों में बीता था। अल्प वेतन में उन्हांेने अपने पाँच बच्चों का पालन–पोषण करने के साथ उन्हें उच्च शिक्षा दिलायी। अपने परिवार की अन्य आवश्यकताओं में कटौती कर वे बच्चों की फीस व पुस्तकों का प्रबन्ध करते थे। माह के अधिकांश दिनों में उनके घर में खिचड़ी व दाल–रोटी बनती। उनके संघर्षों का यथार्थ मैं पढ़ता जा रहा था तथा मेरे नेत्र सजल होते जा रहे थे। मैं सोचता जा रहा था कि बचपन के इन्ही संघर्षों ने उन्हें बाल मनोविज्ञान को समझने में उनकी सहायता की होगी। तभी तो वे बच्चों की छोटी–छोटी क्रियाकलापों से उनकी भावनाओं को बखूबी समझ लेते थे। शलभ जी बड़े हुए और शिक्षा पूर्ण होने पर उन्होंने जीविकोपार्जन हेतु एक निजी कम्पनी में मैनेजर के पद पर नियुक्त हो गये। उनकी नौकरी लग जाने से घर में सभी प्रसन्न थे। उनकी दोनों बहनों का विवाह भी हो गया। बेटियों के विवाह हेतु उनके पिता ने अपने मालिक से ऋण लिया था। शलभ जी के तीनों भाइयों ने निश्चय किया कि सब मिलकर पिताजी का ऋण उतारेंगे। ….. मैं शलभ जी का साक्षात्कार पढ़ता जा रहा था और सोचता जा रहा था कि शलभ जी की बाल कहानियों में चित्रित सुखद कल्पनालोक के विपरीत कितना पीडा़दायक है उनका जीवन? उनका लेखन मुझे एक तपस्वी की साधना–सा प्रतीत होने लगा, जो शरीर को तप में तपाते हुए भी मन में एक अलौकिक सुख का सृजन व अनुभूति करता है। कैसी पीड़ा की अनुभूति हुई होगी उन्हें उन घटनाओं का चित्रण करने में जो उनके यथार्थ जीवन से दूर थीं? पूरा साक्षात्कार पढ़ते–पढ़ते मेरा चेहरा अश्रुओं में भीग गया। मुझे शलभ जी की रचनाएँ विश्व की महानतम बाल रचनाएँ लगने लगीं। उम्र ने युवावस्था में शनैः–शनैः प्रवेश किया। मैं जीवन पथ पर आगे बढ़ता गया। विवाहोपरान्त होने वाले अपने उत्तरदायित्वों को वहन करने में व्यस्त था। मैं जब भी अपने दोनों बच्चों को अपने बचपन की स्मृतियों से जोड़ने का प्रयास करता तो उस प्रयास का एक सरल माध्यम बन जातीं शलभ जी द्वारा लिखी बाल साहित्य क पुस्तकें। आधुनिक समय के इण्टरनेट युग में जहाँ बच्चों की शिक्षा का एक महत्वपूर्ण माध्यम इण्टरनेट की आभासी दुनिया थी। किन्तु मेरे बच्चे भी शलभ जी की पुस्तकों में भी रूचि रखते थे। उनके भी प्रिय लेखक, बाल साहित्यकार शलभ जी थे। शनैः–शनैैः मेरे बच्चे किशोरवय कर ओर बढ़ने लगे और मैं प्रौढ़वय की ओर। समय परिवर्तित हुआ। रहन–सहन, वेश–भूषा, नये तौर–तरीकों के साथ ही गाँवों–शहरों में विकास, पढ़ने लिखने की नयी तकनीक में इंटरनेट की दुनिया शिक्षा को नयी ऊँचाईयों पर ले तो गयी, किन्तु उसमें से मिट्टी की सोंधी खुशबू कहीं विलुप्त थी। नयी पीढ़ी की रूचियों में भी परिवर्तन हो रहा था। उनके पास टेलीविजन पर सहज उपलब्ध कार्टून चैनल थे जो बाल साहित्य पढ़ने में उनकी रूचि को और भी समाप्त कर रहे थे। विद्यालयी शिक्षा उन्हें व्यवहारिक ज्ञान से दूर कर उन्हें विषय के कोर्स तक सीमित कर रही थी। इंटरनेट की दुनिया में एक अच्छी बात थी कि बच्चे नयी जानकारी, नये ज्ञान व विकास के नये आयामों से परिचित हो रहे थे। किन्तु वे कहीं न कहीं हमारी प्राचीन धरोहर पंचतंत्र की कहानियाँ राम, कृष्ण, या अन्य अमर पात्रों जैसे अकबर–बीरबल, चाचा चैधरी के अतिरिक्त ऋषियों–मुनियों के बाल्यावस्था के प्रेरक प्रसंगों की कहानियों से जो नैतिकता, मानवता व प्रेम की शिक्षा देने में सक्षम थीं, उनसे वंचित हो रहे थे। बाल साहित्य की पुस्तकें सीमित होती जा रही थीं। मेरी बुक शेल्फ में मेरे बचपन की स्मृतियाँ शलभ जी के पुस्तकों के रूप में विद्यमान थीं। आज मेरे छोटे बेटे का परीक्षा परिणाम निकला। वह भी इण्टरमीडिएट की परीक्षा में अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हो गया। जैसे ही परीक्षा परिणाम घोषित हुआ तुरन्त उसने नेट पर अपना रिजल्ट देख कर हमें सूचित कर दिया। ये हम लोगों का वो वाला समय तो है नही कि जिस दिन हमारा परीक्षा परिणाम निकलने वाला होता था उस दिन अखबार में से परीक्षा परिणाम का पेेज प्राप्त कर उसमें अपना अनुक्रमांक ढूँढ लेना टेढ़ी खीर होती थी। आज सोच कर मुस्करा पड़ता हूँ कि उस दिन कैसे हम किसी चैराहे पर होटल या चाय–पान की दुकान पर से अखबार मंे अपना परीक्षा परिणाम देख कर एक–दो घंटे के पश्चात् घर लौटते। क्यों कि तब परीक्षा परिणाम कुछ ही अखबारों में निकलते। उन अखबारों में परीक्षा परिणाम देखने के लिए परीक्षार्थियों की भीड़ उमड़ पड़ती। इस बीच घर वाले उहापोह की स्थिति में होते कि बच्चा उत्तीर्ण हो गया या नही? किन्तु आज जब मेरे बेटे ने इन्टरनेट से परीक्षा परिणाम के साथ ही साथ एक–एक विषयों के अंक व प्रदेश में अपनी रैकिंग घर बैठे ही बता दी तो यह परिवर्तन मुझे अच्छा लगा। मेरा बड़ा बेटा अपनी रूचि के अनुसार व्यवसायिक कोर्स में दाखिला ले कर आगे की पढ़ाई कर रहा है। छोटे बेटे के लिए थोड़ी–सी चिन्ता थी। वह इण्टरमीडियट करने के पश्चात् मेडिकल की तैयारी करना चाह रहा है। हम प्रसन्न हैं उसकी यह इच्छा जान कर। आज नेट से परीक्षा परिणाम देखने के पश्चात् उसने अपनी माँ से मन्दिर जाने की इच्छा प्रकट की है। उसकी इच्छा जानकर मुझे भी बड़ा अच्छा लगा। दूसरे दिन प्रातः मैं भी मन्दिर जाने के लिए तैयार हो गया। मेरा बेटा लक्ष्य प्रसन्न हो गया यह जान कर कि उसके व उसकी माँ के साथ मैं भी मन्दिर चल रहा हूँ। क्यों कि ऐसे अवसरों पर अधिकतर मेरी पत्नी ही बच्चों के साथ जाती हैं। मन प्रफुल्लित था। मन्दिर के भव्य प्रांगण से अन्दर जाते हुए मुझे दिव्य अनुभूति हो रही थी। मन्दिर कुछ ऊँचाई पर था। वहाँ पहुँचने के लिए सीढियाँ बनी थीं। सीढ़ियों के दोनों ओर कुछ वृद्ध, बच्चे व महिलायें बैठीं थीं। मन्दिर में आने वाले श्रद्धालु उनके भिक्षा पात्र में कुछ न कुछ प्रसाद, पैसे इत्यादि डाल दे रहे थे। हम भी मन्दिर में दर्शन कर सीढ़ियों से नीचे उतर रहे थे। मेरी पत्नी ने भी सीढ़ियों पर बैठे हुए लोगों को दान स्वरूप पैसे, प्रसाद इत्यादि बाँटने प्रारम्भ कर दिये। हम धीरे–धीरे सीढ़ियाँ उतर रहे थे। बेटे को प्रसन्न देख मैं भी प्रसन्न था। मेरी पत्नी एक वृद्ध भिखारी को प्रसाद व पैसे दे रही थी। उसने लेने के लिए हाथ बढ़ाते हुए उसने अपना चेहरा ऊपर की ओर उठाया। मुझे उस भिखारी का चेहरा कुछ जाना–पहचाना लगा। कुछ क्षण के लिए मेरे पग ठिठक गये। स्मरण करने के लिए मस्तिष्क पर थोड़ा जोर डाला किन्तु समझ में नही आया। यह सोच कर आागे बढ़ गया कि यह कोई भिखारी ही है। जिसे कभी मैंने किसी अन्य चैराहे, सड़क या मन्दिर में देखा हो, इसीलिए इसका चेहरा जाना पहचाना लग रहा है। मैं आगे बढ़ गया। सीढ़ियों से नीचे उतरने लगा। मन न जाने क्यों उस भिखारी के चेहरे में ही उलझ रहा था। अन्तिम सीढ़ी तक पहुँचते– पहुँचते सहसा स्मरण आ गया कि उस व्यक्ति को कहाँ देखा है? उस व्यक्ति की पहचान सोच कर हृदय में अकुलाहट भरती जा रही थी। काश! मेरी सोच व पहचान ग़लत सिद्ध हो जाये…….उस व्यक्ति का चेहरा मुझे शलभ जी की भाँति प्रतीत हुआ। पुस्तकों पर छपी शलभ जी की तस्वीर अभी तक मेरे जेहन में स्पष्ट है। हाँ…. ये शलभ जी ही हैं। मै तीव्र गति से वापस पलट कर सीढ़ियों से ऊपर की ओर भागा। वह व्यक्ति उसी प्रकार सिर झुकायें बैठा अगले आने वाले दर्शनार्थी की प्रतीक्षा कर रहा था। मैं सीधे जाकर उस भिखारी के समक्ष खडा़ हो कर उसे ध्यान से देखने लगा। मुझे सामने खड़ा देख उसने अपनी गर्दन ऊपर की ओर उठाई। मैं काँप गया। आँखें आश्चर्य व वेदना से भर गयीं। इतने समीप आ कर ध्यान से देखने के पश्चात् अब मेरे मन में कोई संशय नही था कि ये शलभ जी नही हैं। मन्दिर की सीढ़ियों पर बैठ कर भिक्षा मांगने वाला वो दुर्बल–सा बूढ़ा व्यक्ति शलभ जी ही थे, विश्वास नही हो पा रहा था। मैं सकते में था। वे मुझे नही जानते। उनके लिए तो मैं उनका एक अज्ञात–सा प्रशंसक था। भला वो मुझे कैसे पहचानते? किन्तु वो मेरे लिए मेरे प्रिय रचनाकार….. मेरे आदर्श पुरूष थे। मैं आश्चर्य चकित–सा उन्हें देखता जा रहा था जब कि वो सामान्य थे। ’’शलभ जी….आप…? ’’ मेरे मुँह से कम्पन के साथ निकल रहे शब्दों को सुन कर अब शलभ जी के विस्मित् होने की बारी थी। ’’ न…..न….नही… ।’’ बुदबुदाते हुए वह व्यक्ति वहाँ से उठने लगा। मैं प्रथम बार शलभ जी से मिल रहा था। इतनी शीघ्र उन्हें जाने देने वाला नही था। ’’शलभ जी! मैं आपका प्रशंसक। ’’ मेरी बात को अनसुना करते हुए वह व्यक्ति सीढ़ियों से नीचे उतरने को तत्पर हुआ और मैं उसके पीछे–पीछे चलने को। ’’मैंने आपकी लगभग सभी पुस्तकें पढ़ी हैं। परियों के देश में, जादुई नीलकमल, ईमानदार बालक, परिश्रम का फल, बीर बालक, सच्चाई का मार्ग आदि। ’’ शीघ्रता में मैं शलभ जी द्वारा लिखी कुछ पुस्तकों के नाम लेकर उनसे ही उनका परिचय कराने लगा। मेरी पत्नी व बेटा नीचे उतर कर मन्दिर के प्रांगण में पीपल के नीचे बने चबूतरे पर बैठ कर मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे। उनकी आँखों में कौतूहल के भाव स्पष्ट थे। मैंने उनको हाथ से वहीं बैठ कर मेरी प्रतीक्षा करने का संकेत कर दिया। मैं शलभ जी से उनके अतीत के बारे में जानाना चाहता था। सुप्रसिद्ध बाल कथा लेखक के साथ ऐसा क्या हुआ होगा कि आज वह मन्दिर की सीढ़ियों पर बैठ कर लोगों की दया पर दिन व्यतीत करने को विवश हुए। मन में उनका दुख जानने की उत्कंठा थी। मैं भी उनके साथ–साथ चलने लगा। ’’ क्या बात हो गयी शलभ जी? बताइये तो? मैं आपका प्रशंसक…..आपके साहित्य का पाठक। मेरा नाम प्रतीश है। आप मुझे नही जानते हैं किन्तु मैं आपकी लेखनी के माध्यम से आपसे भलीभाँति परिचित हूँ। ’’ शलभ जी आगे बढ़ते जा रहे थे। वे धीरे–धीरे सीढियाँ उतरने का प्रयत्न कर रहे थे। मैंने अनुमान लगाया कि वे ठीक से चल नही पा रहे थे। कदाचित् वे बैठ कर ही सीढ़ियों पर चढ़ पाते हों। ’’ आप अस्वस्थ लग रहे हैं। क्या हो गया? आप ऐसे……..? ’’ मैं प्रश्न करता जा रहा था किन्तु शलभ जी अपनी खामोशी तोड़ने को तैयार नही थे। मुझे इस प्रकार अपने साथ साथ चलता देख कर कदाचित् मुझसे पीछा छुड़ने की मंशा से उन्होंने अपनी चुप्पी तोड़ी। ’’ सब समय का फेर है बेटा! ऊपर वाले की यही इच्छा है तो मुझे स्वीकार है। ’’ उनकी आवाज की जादुई खनक व चेहरे की सौम्यता से मैं भर उठा। ’’ आप मेरे साथ चिकित्सक के पास चलिये। अस्वस्थ लग रहे हैं आप। ’’ मैंने आग्रह करते हुए कहा। मन में संकोच भी था कि इतने बड़े लेखक के सम्मान को मेरी किसी बात से चोट न पहुँचे। ’’ नही मुझे किसी चीज की आवश्यकता नही है बेटा! मैं बिलकुल ठीक हूूँ। आप मेरी फिक्र न करें। आपका बहुत–बहुत धन्यवाद। ’’ कुछ रूक कर शलभ जी ने कहा। ’’ नही सर! आप अस्वस्थ लग रहे हैं। आपको मेरे साथ चिकित्सक के पास चलना ही होगा। ’’ मैंने विनम्रता से आग्रह पूर्वक कहा। मुझे इस प्रकार शलभ जी से बातें करते देख आसपास के लोग मुड़–मुड़ कर हमें देखने लगे। विशेषकर आसपास बैठे भिखारियों के नेत्रों में विस्मय के भाव देखने योग्य थे। उन्हें इस बात का आभास तक न होगा कि उनके बीच एक विद्वान–चिन्तक व्यक्ति बैठा है। मेरे साथ चिकित्सक के पास चलने के लिए शलभ जी किसी भी प्रकार तैयार न हुए। मैं विवश था। उनकी आर्थिक सहायता करने हेतु मैंने अपनी जेब में हाथ डाला। इस समय मेरे पास अधिक पैसे न थे। फिर भी जितना कुछ मेरे पास था मैंने शलभ जी को देने के लिए जेब से निकाल लिए। शलभ जी ने पैसे लेने से भी मना कर दिया। अत्यन्त आग्रह के बाद किसी प्रकार मैं शलभ जी को पैसे दे पाया। मन में यह निश्चय कर मैं घर वापस आया कि कल मैं पुनः मन्दिर आऊँगा तथा शलभ जी की कुछ और आर्थिक सहायता करूँगा। कम से कम प्रति माह इस प्रकार से उनकी आर्थिक सहायता करूँगा कि उन्हें मन्दिर की सीढ़ियों पर बैठ कर भिक्षाटन न करना पड़े। मन में यह दृढ़ निश्चय कर मैं घर की ओर अपनी गाड़ी बढा़ने लगा। गाड़ी चलाते समय उनकी अर्थिक मदद के बारे में सोच कर मेरे हृदय की पीड़ा कुछ कम हो रही थी। मैं सन्तुष्टि का अनुभव कर रहा था। दूसरे दिन ठीक उसी समय मैं मन्दिर पहुँच गया जिस समय कल शलभ जी मुझे मिले थे। मैं मन्दिर की सीढ़ियाँ चढ़ता जा रहा था, तथा दोनों ओर बैठे भिखारियों में शलभ जी को ढूँढता जा रहा था। ये क्या? मैं मन्दिर के छोर की अन्तिम सीढ़ी पर पहुँच गया, किन्तु शलभ जी नही मिले। मैं पुनः हड़बड़ाहट में नीचे की ओर भागा। प्रत्येक भिखारी के चेहरे को ध्यान से देख–देख कर शलभ जी को ढूँढने का प्रयत्न करते हुए नीचे उतरने लगा। मेरे अन्दर व्याकुलता भरने लगी। मैं स्वंय को हताश व अत्यन्त थका हुआ अनुभव करने लगा तथा पीपल के नीचे चबूतरे पर जा कर बैठ गया। ’’ अब क्या करूँ? कैसे ढूँढू उन्हें? मुझे उनके रहने के ठिकाने का पता तक ज्ञात नही। वो कहाँ रहते हैं? आज क्यों नही आये? कहीं शलभ जी अस्वस्थ तो नही होे गये…..? ’’ मन में अनेक प्रश्न, अनेक शंकाये जन्म लेने लगीं। उनके स्वास्थ्य को ले कर चिन्ता उत्पन्न होने लगी। मैं चबूतरे से उठ कर पुनः मन्दिर की सीढ़ियाँ चढ़ने लगा। पुनः उसी स्थान पर पहुँच गया जहाँ कल शलभ जी मिले थे। वहाँ रूक कर मैंने एक अधेड़ उम्र के भिखारी से पूछा, ’’ भईया, कल यहाँ जो आपके साथ बैठे थे, उनके बारे में क्या आप बता सकते हैं कि वो आज क्यों नही आये? ’’ ’’ कौन..? कौन कल बैठा था यहाँ..? यहाँ बैठने वालों का कोई निश्चित ठौर होता है क्या? आज यहाँ कल कहीं और….। ’’ बड़े ही दार्शनिक अन्दाज में बोला वो भिखारी। ’’ हाँ…..हाँ….आप की बात सही है। फिर भी एक वृद्ध व्यक्ति कल यहाँ बैठे थे। वो कुछ अस्वस्थ भी थे, आज यहाँ नही दिख रहे हैं। ’’ उसकी बात को अन्यथा न लेते हुए मैंने पुनः पूछा। सहसा उसे कुछ याद आया। उसने मस्तिष्क पर ज़ोर डालते हुए कहा, ’’ हाँ…..वो..? वो तो प्रतिदिन इसी मन्दिर की सीढ़ियों पर बैठते हैं। कहीं और नही जाते। अधिक चल फिर नही सकते न? ’’ उसने इधर–उधर दृष्टि दौड़ाते हुए कहा, ’’ यहीं कहीं होंगे। ’’ ’’ साहब! वो आज नही आये हैं। ’’ आशा भरी दृष्टि से मुझे अपनी ओर देखते हुए पा कर उसने कहा। ’’ वो कहाँ रहते हैं कुछ बता सकेगे आप? ’’ मैंने उससे कहा। ’’ आपके सगे–सम्बन्धी लगते हैं क्या? ’’ मेरी व्याकुलता देखकर वह बोल पड़ा। ’’ नही…..उससे भी बढ़कर। ’’ उसकी बातें सुन कर मैं सकपका गया था। स्वंय को संयत करते हुए मैंने कहा। ’’ उनके बारे में अधिक तो नही जानता, किन्तु इतना जानता हूँ कि एक रिक्शे वाला प्रतिदिन उन्हें मन्दिर की सीढ़ियों तक छोड़ कर चला जाता था। शाम का धुँधलका गहराते ही वही रिक्शे वाला उन्हें लेने आ जाता था। उनकी बातों से लगता था कि वो रिक्शे वाले के साथ ही कहीं रहते हैं। ’’ कह कर वो चुप हो गया। मैं निराश हो कर चारों ओर यूँ ही देखता रहा। तत्पश्चात् वहाँ से चला आया। मार्ग में गाड़ी चलाते–चलाते मेरे नेत्र बरबस नम हो जा रहे थे। उस दिन के बाद भी शलभ जी की तलाश मुझे कई बार मन्दिर तक लायी, किन्तु शलभ जी नही मिले। उनके बारे में मैं बस इतना ही पता कर पाया कि वो एक रिक्शे वाले के साथ किसी झुग्गी में रहते थे। उनके साथ क्या हुआ…..? जीवन ने किस प्रकार और कब अपना रूप बदला कि उन्हें इस स्थिति में आना पड़ा? कौन–सी घटनायें थीं……? उनकी इस दशा का उत्तरदायी कौन है….?……आदि अनेक प्रश्न मन में अब भी उठते हैं। अन्तिम बार मन्दिर की सीढ़ियों पर दिखे मेरे सर्वप्रिय लेखक की स्मृतियाँ गाहे–बगाहे मेरे नेत्रों को नम कर देती हैं। सुप्रसिद्ध लेखक….विचारक….विद्वान शलभ जी की विवशताएँ क्या रही होंगी…? प्रश्न आज भी अनुत्तरित हैं। संबंधित लेखलेखक की और रचनाएं नीरजा हेमेन्द्र की कहानी – नीले फूलों वाले दिन रजनी मोरवाल की कहानी – तेरे नाम के बाद प्रेम गुप्ता ‘मानी’ की कहानी – अंजुरी भर कोई जवाब दें जवाब कैंसिल करें कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें! कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें आपने एक गलत ईमेल पता दर्ज किया है! कृपया अपना ईमेल पता यहाँ दर्ज करें Save my name, email, and website in this browser for the next time I comment. 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