उसने पत्नी की ओर करवट ली. करवट के साथ ही पलंग से चरमराहट की आवाज आई थी. पत्नी के साथ वह भी सशंकित हुआ था. पलंग में यह आवाज कब से आने लगी? शायद शुरुआत से ही थी. जिसे वे विवाह के प्रारंभिक दिनों में, प्रेम के चरम क्षणों में डूबे होने के कारण, सुन नहीं सके थे. उसने याद करने की कोशिश की थी. वह संकुचित होकर के कोने में सिमट गई. कुछ पलों बाद उसने सुधा को अपनी ओर खींचा. उनके शरीर के स्पंदनों के साथ पलंग की चरमराहट बढ़ती गई. एक बारगी वे बेखबर होए गए थे – कम से कम वह तो जरूर. सुधा ने उसके कानों में फुसफुसाते हुए उसे सचेत करने का प्रयास किया था. बगल के कमरे में ही पिता, माँ, भाई, बहनें सभी तो थे. अभी सोए नहीं होंगे. क्या सोचेंगे सब. ? अगले दिन सुधा नजरें चुराए रही सबसे. फिर तो यह रोज का सिलसिला हो गया था. रात के एकांत में आवाज दूर-दूर तक जाती होगी, बगल के कमरे की तो बात क्या. पत्नी निस्पंद हो जाती. वह भी हतोत्साहित. रह जाती एक खीझ. उनकी शादी को हुए ही कितने दिन थे? छह माह भी तो नहीं बीते होंगे. यह पलंग उन्हें शादी में मिला था. विशाल और भव्य. ऐसे पलंग आजकल दिखाई कहाँ देते हैं? सिंहासननुमा उंचे सिरहाने, पच्चीकारी वाले कटाव और नक्काशीदार, ऊंचे पावों वाला टीक का खानदानी पलंग. निवाड़ के इसी पलंग पर उनकी पहली मधुरात्रि बीती थी.
     इसके पहले उनके यहाँ, फर्नीचर के नाम पर, दो कुर्सियां और चारपाइयों के अतिरिक्त था ही क्या? वह पिता और आने वाले मेहमानों के काम आतीं. बाकी भाई-बहनों के बिस्तर जमीन पर लगा दिए जाते जिन्हें दिन में उठा दिया जाता. 
     पिता, माँ, दो भाई और दो बहनों के परिवार में तीन कमरों वाला पैतृक मकान के विभिन्न हिस्सों के नाम उनके प्रयोग के आधार पर रखे गए थे. जैसे – सड़क की ओर वाले कमरे को बाबू जी का कमरा. जिसमें एक तखत, दो कुर्सियां और अलमारी में ज़माने पुराना मर्फी का एक रेडियो था जो अक्सर बिगड़ा रहता. इसका उपयोग बैठक, मेहमानों के कमरे और बाकी समय पिता जी के कमरे के रूप में होता. घर में उनके न होने पर बहनें, हिला-दुला कर, रेडियो बजाने की कोशिश करतीं. आवाज की   की बात छोड़ कुछ अवसरों को छोड़ उन्हें सफलता मिल ही जाती. कुछ वर्षों पहले तक बड़ी बहन बबली दरवाजा, खिड़कियाँ बंद करके संगीत की धुन पर कभी-कभी नृत्य भी किया करती थी.
     दूसरा कमरा माँ का कमरा कहा जाता. बक्से, पुराने बर्तन, दो परातें, गृहस्थी का बाकी सामान यहाँ रहता. कमरे में बंधी अरगनी में रोज के प्रयोग के कपड़े टंगे रहते. इसे पूजा वाला कमरा भी कहा जाता. यहाँ एक अलमारी में सुनहरी पन्नी चिपका कर कुछ तस्वीरें, एक पीतल के पुराने काले पड़ गए सिंहासन में एक मूर्ति और रामचरितमानस का गुटका रखे थे. माँ घर के काम निपटाने के बाद पूजा के नाम पर देर तक कुछ किया करती. इस समय वह और बूढ़ी दिखतीं. यहीं एक कोने में उनकी चारपाई थी जो दिन भर बिछी रहती. उसके पायताने की ओर पूरे परिवार के दिन में उठा दिए गए बिस्तर ढेर रहते. बीच-बीच में थक जाने पर माँ लेट भी जातीं. कुछ देर बाद एकाएक, चौंक कर अपराध भाव से भरी, उठतीं और काम में लग जातीं.
     इसके बाद एक छोटा सा आँगननुमा गलियारा, जिसके एक ओर कोने में संडास, बगल में तीन फीट ऊंची दीवार के पीछे स्नानघर था – जिसमें दरवाजे के नाम पर पुरानी धोती का पर्दा लगाया गया था. यहीं बरामदे में रसोईघर था. उसमें चूल्हा, स्टोव और बुरादे की अंगीठी – जो भी सुविधानुसार उपलब्ध होता- उपयोग में आता. 
     गलियारे में दूसरी ओर, माँ के कमरे से सटा, भैया वाला कमरा था. इसी कमरे में सुधांशु, उसका छोटा भाई और दोनों बहनें पढ़ाई करते, सोते. पारिवारिक मेहमान आने पर ठहराए जाते. उसके विवाह में मिला पलंग, ड्रेसिंग टेबल, रेडियो और टेबल फैन आदि यहीं सजाए गए थी. बाहर वालों को उसका कमरा दिखाया जाता. यहीं उनको चाय-नाश्ता दिया जाता. पलंग के उपयोग और भी होते. इसके नीचे भाई-बहनों की किताबों की पेटियां, एक पुराना पालना, पिताजी के पुराने कागजातों, पोथियों का बक्सा, अचार के चीनीमिट्टी के मर्तवान, माँ की जाने कब से जोड़ी हुई अनगढ़ गृहस्थी की सामान, जिनका उपयोग वर्षों से नहीं हुआ होगा, रहता. इसके अतिरिक्त दिन में परिवार के लोग उस पर बैठते, आराम करते, पढ़ते, ताश खेलते, पड़ोस के छोटे बच्चे उस पर कूदते. 
     पलंग के निवाड़ की बुनावट ढीली पड़ जाती. पलंग झूला बन जाता. रात में लेटते ही, बिना प्रयास खिसकते हुए, वे सट जाते. उसकी आँखों में शरारत और सुधा की आँखों में कृत्रिम झुंझलाहट होती. अगले दिन मौका निकाल वे निवाड़ की पट्टियाँ कसते. 
     उसका विवाह नौकरी लगने के कुछ समय बाद हो गया था. यह उस वक्त की शुरुआत थी जब विवाह की अर्हता के लिए नौकरी जरूरी मानी जाने लगी थी. वह इसके लिए फिलहाल तैयार नहीं था. अभावों के जिस बबूल वन में उसने आँखें खोली थीं उसके काँटों की चुभन अभी मिटी नहीं थी. उसे तो लगता कि मरुस्थल में भटकते व्यक्ति को मिली पानी की कुछ बूँदें जिस प्रकार प्यास और बढ़ा देती हैं उसी प्रकार उसकी आकांक्षाएं हो गई थीं. लेकिन पिता, पंडित दुर्गादत्त जी, की दृष्टि में उसकी नौकरी, वह भी सरकारी, ‘खुल जा सिम-सिम’ थी. एक तरह से खानदान में पहली नौकरी. उनका सोचना था कि उसकी पूरी तनख्वाह करीब-करीब बच जाएगी. घर तो किसी तरह पहले से चल ही रहा था, उनकी अनिश्चित और अनियमित आमदनी या सुधांशु की ट्यूशनों के सहारे. यद्यपि यह योजना पूरी नहीं हुई थी. अब पिता को उसके विवाह में मिले दहेज से विवाह योग्य बेटी की शादी में मदद की उम्मीद थी.
     अपेक्षाएं पूरी न होने से दुर्गादत्त कुंठित रहने लगे थे. उन्हें खर्च किया गया प्रत्येक पैसा व्यर्थ जा रहा है. यहाँ तक दो सब्जियां बन जाने पर उन्हें लगता इसकी क्या जरूरत थी? – घर में किसी मेहमान को तो आना नहीं था. वह कहते तो कुछ नहीं, भुनभुना कर रह जाते. सुधांशु के मन में पिता के प्रति किसी प्रकार की कोई शिकायत की भावना न पैदा होती. उसने तो बचपन से देखा था. अभावों से लड़ते-लड़ते उनमें एक असुरक्षा का भाव कहीं गहरे तक स्थाई रूप से बैठ गया था. 
     उसे याद आता, पहले उसकी फीस जमा होती तो दूसरे भाई की किताबें रह जातीं. बबली की पढ़ाई तो हाई स्कूल के बाद बंद हो चुकी थी. दूसरी बहन की स्कूल की फीस जो काफी कम थी – अक्सर समय पर जमा न हो पाती. घर में हमेशा खुला-फुटकर सामान आता. आधा या एक किलो वनस्पति या तेल, चीनी, सौ ग्राम चाय की पत्ती आदि. एक साबुन खत्म हो जाने पर दूसरी टिकिया आती, कभी एक-दो दिन बिना साबुन के काम चल जाता. कम से कम अब यह स्थिति तो न थी. सुधांशु की नौकरी के दूसरे महीने पहली बार घर में आधा दर्जन साबुन कि टिकियाँ, चार किलो का डालडा का डब्बा, चाय का बड़ा पैकेट, माचिस आदि सामान आया था. माँ गद्गद् हो गई थीं. जाने कब से उनके मन में इस तरह गृहस्थी चलाने की चिर अभीप्सित इच्छा छिपी रही होगी. 
     पिता चौंक गए थे, ‘यह क्या दुकान खोलनी है? जितना सामाज नजर के सामने होगा उतना ही इफ़रात से खर्च होगा!’
     सुधांशु को अब पता चला था कि दैनिक जरूरतों की छोटी-छोटी न जाने कितनी इच्छाएँ परिवार के लोगों के मन में गह्वरों में छिपी हुई थीं. शुरुआत में तनख्वाह थी ही कितनी? वेतन वाले दिन जेब में गिनी-चुनी राशि होती. वस्तुओं से भरे बाजार में शो-केसेज से सामने से गुजरते हुए उसका इच्छाओं पर लगा अंकुश बेकाबू होने लगता. बहन के लिए  घड़ी, छोटे भाई के लिए सायकिल न सही कैरम की उसकी कितनी इच्छा है, माँ के लिए साड़ी, पिता के धोती-कुरता भी कितने पुराने, पूरी तरह घिस गए हैं. उसकी आँखों से एक दृश्य हटता ही नहीं था. वह माँ के साथ बाजार से आ रहा था. साड़ी की दुकान के सामने बाहर हरे रंग की साड़ी देखकर माँ अचानक रुक गई थीं. उसने पहली बार माँ को ऐसा करते देखा था. उनके मन में जाने कब से दबी लालसा कौंधी होगी. माँ ने साड़ी पर हाथ रखकर उसके दाम पूछे थे. दुकानदार ने माँ को ऊपर से नीचे तक देखा था, फिर कहा, ‘खरीदना है या केवल दाम मालूम करना है, सुबह-सुबह बोहनी के वक्त . . .’
     बहुत पुरानी बात है लेकिन उसको हूबहू याद है. माँ अपमान से हतप्रभ रह गई थीं. वह अभी तक माँ को साड़ी खरीदकर नहीं दे सका था. वह वेतन पिता को दे देता. इसके बाद के खर्चे, वह ओवर-टाइम, एक-दो बचे ट्यूशन आदि से पूरे करता. साल में एक बार एक्सग्रेशिया, बोनस ऐसा कुछ मिल जाता. वह घर के लिए कुछ न कुछ ले आता. विवाह के पहले वह एक ने टी-सेट ले आया था. घर में अधिकांश कप चिटके, बदरंग और बेमेल थे. दुगादत्त जी ने भी सबके साथ बैठ नए कप में चाय पी थी. चाय पीते हुए साधारणतया उन्होंने टी-सेट के दाम पूछे थे. माँ के बड़े उत्साह में पचहत्तर रूपए बताने पर खिन्न हो गए. बड़बड़ाते रहे, ‘पैसा सम्हाल कर खर्च करना चाहिए. यूं लुटाने पर कुबेर का खजाना भी खाली हो जाता है.’ इसके बाद सुधांशु जो कुछ भी लाता उसकी वास्तविक कीमत से बहुत कम करदे बताता. इसके साथ ही बबली के लिए दहेज का सामान जुटाने की चर्चा भी छेड़ देता. उस दिन पिता उसकी दूरदर्शिता की तारीफ़ करते. खुश नजर आते. बबली की आँखों की चमक बढ़ जाती. परंतु कुछ दिनों बाद जब वस्तुएँ, प्रेसर कुकर हो या टेबल फैन, इस्तेमाल के लिए निकल आतीं तब पता चलता बबली वाली बात यूं हीं कही गई थी. पिता हमेशा की तरह गहरी नि:श्वास भर कर रह जाते. बबली की आँखों की अस्थायी चमक खत्म हो जाती. माँ का उत्साह अवश्य कम न होता. शायद वह उनके माध्यम से अपना जीवन फिर से जीने की कोशिश कर रही थी.
     सुधांशु को पास्कल के गोलों की तरह दो विपरीत शक्तियां अपनी ओर खींचतीं. एक ओर उसकी आकांक्षाओं के विभिन्न आयाम कितने अनजान क्षितिज छूना चाहते तो दूसरी ओर संस्कारजनित संकोच उस पर हावी रहता. विवाह के बाद तो इनका द्वंद्व और बढ़ गया था. उसे लगता कितनी छोटी बातें जीवन में कितनी महत्वपूर्ण बन जाती हैं. 
      पलंग की समस्या का समाधान न होना था न हुआ. एक दिन वह बढ़ई को, दरवाजा ठीक करने के बहाने, ले आया. उसने कीलें ठोंक दीं. परंतु कुछ दिनों बाद फिर शिकायत शुरू हो गई. इस बार चरमराहट ज्यादा ही बढ़ गई थी. पलंग पर बैठते-उठते लगता कहीं रहंटा चल रहा है. आखिर उसने सोच लिया कि इसे बदल ही दिया जाए.  हो सकता है कि उसके अवचेतन में प्रारंभ से ही यह रहा हो. उसे कुछ दिन पहले बोनस का एरियर मिला था. दफ्तर की क्रेडिट सोसायटी से ऋण भी लेना पड़ा. और उसने एक सुन्दर सा, हलका, सनमाइका के सिरहाने-पैताने वाला डबल-बेड खरीद लिया. देख तो काफी पहले रखा था. डबल-बेड के अनुरूप गद्दे, तकिए और चादर भी. पत्नी को कुछ नहीं बताया था. सरप्राइज देना चाहता था. बस उसकी हिम्मत इसे घर लाने की नहीं हो रही थी. 
     घर के सामने रिक्शे से सामान उतारते देख सभी अचंभित रह गए थे. पिता भी घर में थे. पहले उनके चेहरे पर कुछ भाव उभरे फिर वह निस्पृह हो गए थे. माँ सदा की तरह, जब भी घर में नया सामान आता, उल्लसित हो उठी थीं. 
     उसने मिनमिनाते हुए सफाई देने जैसे स्वर में कहा था, ‘यह बेड सस्ता मिल रहा था. पूरे पैसे भी अभी नहीं देने थे. सोचा कि काम आएगा. बबली की शादी के लिए भी तो . . .’ उसका स्वर धीमा होता हुआ चुक गया. बात पूरी नहीं कर सका. उसे मालूम था कि ‘बबली के लिए’ वाली बात पर किसी को यकीन नहीं आएगा. पिता को शायद शक ही होता, लेकिन पास खड़ी बबली की आँखें साफ़ कह रही थीं कि यह नितांत झूठ है. प्रेसर कुकर, सिलाई मशीन, टी-सेट सबके साथ तो ऐसा हुआ था. 
     दो-चार दिनों बाद डबल-बेड उसके कमरे में सुस्थापित हो गया था. मय फोम के गद्दों, तकिए और गुलाबी रेशमी चादर के. बेड ही नहीं कमरा भी भव्य लगने लगा था. यद्यपि इसने कमरे के अधिकांश भाग को अधिकृत कर लिया था. बेड की ऊँचाई कम होने के कारण नीचे का सामान बक्से, पेटियां, मर्तबान वगैरह रखना संभव नहीं था. यह सामान माँ और पिता वाले कमरों में चला गया था. शादी का पुराना पलंग भी निवाड़ खोल कर माँ के कमरे में एक ओर खड़ा कर दिया गया था. माँ का कमरा इन सब से अट गया था.
     रात में जाने कितने दिन बाद वह तनाव रहित था. धीमी रोशनी में कमरे का माहौल काफी रोमांटिक लग रहा था. रात गहरा गई थी. उसने मुस्करा कर पत्नी की ओर देखा. पत्नी के होठों पर लाज भरी आमंत्रित करती हंसी थी. सुधांशु कुछ सोच रहा था. वह अचानक विषाद के विलखते हुए सन्नाटे में डूब गया. उसके सामने बबली की बुझी आँखें, पिता का अविश्वास भरा चेहरा और माँ का सामान से अटा हुआ कमरा था. उसने सोचा माँ को उस कबाड़ से भरे स्टोर बन गए कमरे में कैसे नींद आएगी. सुबह जल्दी उठ कर माँ को पूजा भी करनी है.
     वह निढाल होकर फफक उठा था.
दो कहानी संग्रह (‘विवस्त्र एवं अन्य कहानियां‘ तथा ‘‘पिछली सदी की अंतिम प्रेमकथा’) प्रकाशित। हंस, वागर्थ, नया ज्ञानोदय, वर्तमान साहित्य, कथाक्रम, कथादेश, वर्तमान साहित्य, पाखी, संचेतना, लमही, उत्तर प्रदेश, जनसत्ता, दैनिक जागरण, अमार उजाला, अक्षरा, शुक्रवार, जनसत्ता, हिन्दुस्तान, नवभारत, पंजाबकेसरी जनसंदेश टाइम्स आदि में 150 से अधिक कहानियां, समीक्षाएँ, लघुकथाएं, आलेख, व्यंग्य प्रकाशित। संपर्क - dixitpratapnarain@gmail.cpm

3 टिप्पणी

  1. मध्यवर्गीय परिवार के संघर्ष और नायक की आधुनिकता के साथ चलने की इच्छा और परिस्थितिजन्य संवेदना दिखाती अच्छी कहानी।

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