Friday, October 4, 2024
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प्रेम गुप्ता ‘मानी’ की कहानी – अंजुरी भर

दुमंजिले मकान की मुंडेर पर कच्ची धूप किसी नन्हीं सी चिड़िया की तरह धीरे-धीरे फुदक रही थी…। सामने के पार्क में घने नीम के पेड़ पर बैठी चिड़ियों का हौसला बढ़ा…। उन्होंने एक-दूसरे की आँखों में देख कर इशारा सा किया और उनमें से कुछ बहादुर चिड़ियाँ नन्हें पंख फड़फड़ाती उड़ी और धीरे से जाकर मुंडेर पर बैठ गई…। धूप का टुकड़ा अब भी फुदक रहा था और साथ में चिड़ियाएँ भी…। धूप को चारो ओर फैलने की फ़िक्र थी, तो चिड़ियों को चावल के दानों की…।
        आखिर, दोनो ने ही अपनी मंज़िल पा ली। अपनी व्हीलचेयर के साथ सरकते हुए रामदास ने जैसे ही छज्जे पर आकर महीन…सस्ते वाले चावल का मुठ्ठी भर दाना बिखेरा, सारी चिड़ियाँ चूँ-चूँ करती उस पर टूट पड़ी। एक-दूसरे से दाना छीनने व अधिक से अधिक खा लेने की होड़ में वे अक्सर एक-दूसरे से उलझ पड़ती और दानों को भूल पटका-पटकी करने लगती। उनकी इस भीषण लड़ाई का फ़ायदा वहाँ कोने में दुबकी एक गिलहरी को मिल जाता। वह दाना तो नहीं खाती थी पर इधर से उधर छलाँग ज़रूर लगा लेती थी…। वह छलाँगती तो सारी चिड़ियाँ उड़ जाती, पर जैसे ही वह हटती, वे झगड़ा भूल फिर दाने पर टूट पड़ती।
       थोड़ी देर उछल-कूद करने के बाद जब गिलहरी भी थक गई तो जाकर  कोने में काफ़ी देर से ठहरे धूप के एक टुकड़े पर पसर गई…। गिलहरी की उपस्थिति से बेख़बर चिड़ियों का झुंड अब भी कटर-कटर करने में लगा था।
       धूप अब मुंडेर से उतर कर दबे पाँव दहलीज़ तक आ गई थी। मुंडेर के पास से अब रामदास भी हट कर अपने कमरे की दहलीज़ पर आ गए। खाली जगह पाकर चिड़ियाँ अब और भी निडर हो गई थी। उनकी यही निडरता रामदास को काफ़ी सहज बनाए रखती है। उनका वश चलता तो सारी ज़िन्दगी इन चिड़ियों को आँखों के सामने रखते, पर वे जानते थे कि अगर वे चाहें, तो भी ऐसा नहीं कर सकते…।
       परिवार के अन्य सदस्यों की तरह चिड़ियों को भी सिर्फ़ चावल के दानों से मतलब था। दाने ख़त्म तो छज्जे से उनका जुड़ाव भी ख़त्म…। धूप भी कितने देर ठहरती…?
        रोज सात बजते-बजते धूप आकाश से छिटक कर छत पर टहलती, फिर थक जाने पर दूसरी मंजिल की मुंडेर पर उतर आती और धीरे-धीरे समय के साथ सरकते हुए रामदास के कमरे की दहलीज़ को स्पर्श करते उनके आधे कमरे में फैल जाती। कोने में पड़े पलंग से धूप को भी परहेज था। पता नहीं उसमें कैसी तो बदबू आती थी। कभी दवा, तो कभी लहसुन वाले सरसों के तेल की तो कभी किस्म-किस्म के मलहम की…।
       धूप अन्धेरे और सीलन भरे कोने से वैसे भी डरती थी। तभी तो पाँच बजते-बजते वह थोड़ी देर नीचे के बगीचे में तरह-तरह के फूलों की खुशबू के बीच विचरती और अन्धेरा होने से पहले फिर खुले आकाश में समा जाती…।
      अब दाना ख़त्म होने की कग़ार पर था…शायद दो-ढाई बज रहे होंगे…। थोड़ा सा दाना और बिखेरने का उन्होंने सोचा ही था कि तभी सीढ़ियों पर धप्प-धप्प की आवाज़ हुई। वे ठहर गए…। धूप मुंडेर से उतर कर पूरी ज़मीन पर और उनके कमरे की दहलीज़ से होकर भीतर घुसने की कोशिश में थी।
       नीचे रसोई के काम से खाली होकर बहुएँ अब अपने पूरे तामझाम के साथ छज्जे पर धूप सेंकने आ रही थी। धूप के टुकड़े के साथ वे भी सरकती रहती हैं…। एकदम सुबह छत पर, कभी कपड़े फैलाने के नाम पर तो कभी साफ़-सफ़ाई के लिए…। उसके बाद खाने का वक़्त हो जाता। मजबूरन उन्हें रसोई में जाना पड़ता…। दो-ढाई बजे तक खाली होती तो ऊपर की मंज़िल पर…। कभी स्वेटर बुनती…गपशप मारती या फिर लेट कर कोई महिला पत्रिका पढ़ती…। उनके लिए उस पूरे घर में जगह ही जगह थी, पर रामदास नाम के उस बूढ़े-बीमार आदमी के लिए…?
       एक-डेढ़ बजे तक उन्हें छज्जे पर आने की इजाज़त है। उसके बाद दहलीज़…। यह दहलीज़ उनकी लक्ष्मण-रेखा है। दो-ढाई के बाद इस रेखा को पार किया कि शामत आई। नौ साल पहले जब रिटायर हुए थे, तब ऐसी कोई भी रेखा उनके लिए नहीं खींची गई थी। किराए के दो कमरों वाला मकान, छोटा सा आँगन और एक कॉमन संडास…। गुसलखाने के नाम पर एक अन्धेरी सी कोठरी…। दोनो बेटों की शादी हो चुकी थी। एक-एक कमरा उन्हें दे दिया था। उस छोटे से आँगन में उन्होंने सिर्फ़ सोने और अपना थोड़ा सा सामान रखने के लिए टीन की चद्दर डलवा दी थी। उसके अलावा सारा दिन ऑफ़िस में, फिर शाम को मन्दिर के चबूतरे पर दोस्तों के साथ…। सुशीला थी तो भी, और नहीं थी तो भी, बड़े खुशनुमा दिन थे…।
        बहुएँ उनका बहुत ख्याल रखती थी। उन्हें किसी प्रकार की तक़लीफ़ न हो, इस लिए मुँह अन्धेरे ही उठ कर नहा-धो लेती। बेटे भी अपने-अपने काम पर जाने को तैयार…। रह गए चारो पोते…वे तो उनके लाडले थे और वह उनके…। सुबह उठते ही कोई दादू को मंजन-ब्रश थमा रहा है तो कोई कुल्ला करने के लिए पानी दे रहा है…। दादू जब तक नहा कर बाहर आते, वे झगड़ते रहते…दादू को पहले कपड़ा कौन देगा…? चाय-परांठा कौन देगा…? और उनकी चप्पल साफ़ करके कौन उनके पैरों में पहनाएगा…?
        बच्चे झगड़ते रहते और उनकी चालाकी पर वे मन-ही-मन हँसते। इतना काम करने के एवज में वे बच्चों को जो दो-दो रुपया रोज़ देते थे, उससे उन्हें बेहद सकून सा मिलता था और बच्चों को बेहद खुशी…।
        सकून तो उन्हें उस समय भी खूब मिलता था जब बहुएँ बड़े स्नेह से ऑफ़िस जाते वक़्त उन्हें टिफ़िन का डिब्बा पकड़ाते हुए झोला भी पकड़ाती थी, “बाबूजी, शाम को आते वक़्त अपनी पसन्द की कोई सब्ज़ी ले आइएगा…और हाँ…गोभी, मूली, टमाटर, नींबू और धनिया-पत्ती लाना न भूलिएगा…। सुबह नाश्ते में गोभी-मूली के परांठे बना देंगे…आप को बहुत पसन्द हैं न…।”
         “और दादू…बिस्कुट, टॉफ़ी भी…।”
         बच्चे उन्हें खींचते तो हँसते हुए वे स्कूटर स्टार्ट करते, “अरे भाई, दो-दो रुपए दे तो दिया…अब तो जान छोड़ो…।”
         “नहीं दादू, बिस्कुट-टॉफ़ी तो लाना ही पड़ेगा शाम को…और गरम समोसे भी…।”
         “अच्छा भाई, ला दूँगा, पर पहले जाने तो दो…।”
         पूरा दिन ऑफ़िस में कैसे बीत जाता, पता ही नही चलता, पर शाम होते ही घर लौटते तो स्कूटर के पीछे सब्जी से भरा थैला होता और आगे बिस्कुट, दालमोठ, टॉफ़ी और गरम समोसे का थैला…। बहुएँ सब्ज़ी का थैला लेकर भीतर चली जाती और बच्चे नाश्ते पर टूट पड़ते…।
         वे मुँह-हाथ धोकर, पूरी तरह फ़्रेश होकर जैसे ही अपने ठौर पर बैठते, बहुएँ गर्म चाय के साथ नाश्ता थमा देती। उन्हें अच्छा लगता…। छोटे से आँगन में लड़ते-झगड़ते बच्चे, रसोई में किसी बात पर खिल-खिल करती बहुएँ…। दोनो बेटे भी तब तक आ जाते…। वह छोटा-सा घर खुशियों से इस कदर भर जाता कि लगता जैसे सुशीला कभी थी ही नहीं इस घर में…।
        पर नहीं, ऐसा नहीं था। दस साल पहले सहसा हॉर्ट-फ़ेल हो जाने के कारण जबसे सुशीला गई है, उन्होंने एक पल के लिए भी उसकी याद को अपने से अलग नहीं किया है…अलग कर भी नहीं सकते। सुशीला, पन्द्रह बरस की उमर में जब उनकी ज़िन्दगी में आई तबसे, और जब पचास बरस की उम्र में उन्हें छोड़ कर चली गई, तब तक उसने उन्हें जो खुशी दी, भरा-पुरा परिवार दिया, संतुष्टि दी और खुद सारे कष्ट झेल कर भी उनके अन्धेरों को धूप का टुकड़ा बन कर रौशन करती रही, यह क्या भूलने की बात है?
         दोनो बेटों, आलोक और अशोक को पढ़ाने-लिखाने और उनकी नौकरी का सपना देखने में उसने अपने सारे गहने, यहाँ तक कि अपनी पैरों की पायल के साथ-साथ अपनी छोटी-छोटी खुशियाँ भी गिरवी रख दी, पर उन्हें भनक तक नहीं लगने दी।
         इन चारों पोतों ने उसी की गोद में अपनी आँखें खोली हैं…उसकी ही उँगली थाम कर चलना सीखा है और उनके मुँह से जो पहला शब्द निकला था, वह था-अम्माँ।
         ‘अम्माँ’ सुनते ही सुशीला की आँखें कैसी तो छलछला आई थी। बहुत देर तक अपने को ज़ब्त नहीं कर पाई थी और उनसे छुपाते-छुपाते रो ही तो पड़ी थी, “मैने पिछले जनम में कोई बहुत बड़ा पुण्य ही किया होगा, तभी तो इतना अच्छा पति और परिवार मुझे मिला है…। मेरे दोनो बेटे…बहुएँ और अब मेरे पोते…सभी तो कितना प्यार करते हैं मुझे…।”
        “अरे वाह! इन सबके बीच मैं कहीं नहीं हूँ? सबमें तुम ‘मैं’ ‘मैं’ कह रही हो…। अरे, इस ‘मैं’ में मैं भी तो हूँ…। क्या यह परिवार मुझे प्यार नहीं करता? क्या मुझे सम्मान नहीं देता? तुम ‘हम’ क्यों नहीं कहती…?”
        “अरे, भावना में बह कर मैं तो भूल ही गई थी कि यहाँ ‘मैं’ के लिए तो कोई जगह है ही नहीं…। जो कुछ भी है, हमारा है…अब तो खुश…?”
        और वे खिलखिला कर हँस पड़े थे। पर वह उन्मुक्त हँसी ज़्यादा दिनों तक उनके होंठॊ पर नहीं टिकी थी। जैसे सुशीला हर दुःख उनसे छिपाती थी, अपने हॉर्ट की बीमारी भी उनसे छिपा गई और एक सर्द रात अचानक उन्हें गहरे अन्धेरे में धकेल कर चली गई। उसे बचाने की उन्होंने कितनी तो कोशिश की थी, पर कॉर्डियोलॉजी तक एम्बुलेन्स पहुँचती, उससे पहले ही सुशीला ने उनकी गोद में दम तोड़ दिया…कुछ इस तरह कि आज भी अन्धेरे में वह अपनी गोद को सहलाते हुए सुशीला से सुख-दुःख की बातें करते हैं…।
        “दादू, आप कमरे के भीतर चले जाइए…ममा थोड़ी देर यहाँ बैठेंगी…।”
         चिंहुक कर उन्होंने सबसे छोटे पोते विशाल की ओर देखा। पूरे बारह बरस का होने को आया है, पर शैतानी अभी भी कम नहीं हुई है…। घर में जितनी देर भी रहेगा, धमाचौकड़ी…तोड़-फोड़ मचाए रहेगा। उसे यह भी याद नहीं रहता कि उसकी शैतानी से उसके दादू को कितनी तक़लीफ़ पहुँचती है…। जोर-जोर से गाना बजाने से उनकी नींद में कितना खलल पड़ता है और आवाज़ के धमाके किस क़दर उनके कमज़ोर हृदय हिला कर रख देते हैं।
        दबी ज़बान से कई बार उसे समझाने की कोशिश की तो तड़ाक से जवाब, “दादू, आपको क्या दिक्कत है? आप अपना कमरा बन्द कर लिया कीजिए न…। आप तो दादू…बस पागल हो गए हैं…।”
        पहली बार जब उसने यह कहा था तो वे अवाक रहे गए थे। आँखें जैसे फट सी गई थी और उन फटी आँखों में ढेर सा पानी छलछला आया था। उन्हें समझ में नहीं आया था कि क्या यह वही बच्चा है जो उनके पैरों में चप्पल डालने के लिए भाइयों से झगड़ा करता था और काम में सफ़ल हो जाने पर सिर्फ़ दो रुपया पाकर काफ़ी देर खुशी से उछलता रहता था…पर आज?
         आज न उनके पास देने के लिए पैसा है और न इसे लेने की चाह…। तो क्या बचपन में सिर्फ़ पैसे के लेन-देन के कारण प्यार था? या फिर बचपन की मासूमियत…? पर इतना बड़ा तो अब भी नहीं हुआ है कि अपने दादू से प्यार करना छोड़ दे…तब?
        “दादू, आप सुनते कम हैं क्या? मम्मा कब से तो खड़ी हैं और आप हैं कि…अरे, अपने कमरे में जाइए न…।”
        “आँ…हाँ…” जैसे वह नींद से जागे हों। आँखों के पपोटे भारी हो चले थे और व्हीलचेयर थी कि खिसक ही नहीं पा रही थी। उन्होंने बड़ी बेबसी से मुंडेर की ओर देखा, गिलहरी अब वहाँ नहीं थी…। चावल के दानों को समेट कर अब सारी चिड़ियाँ भी पेड़ पर जा बैठी थी और धूप…?
         वह तो मुँडेर से उतर कर अब ज़मीन पर फैल कर पसर गई थी। दोनो बहुओं ने उसके ऊपर चटाई डाल दी थी और फ़ोम का गुदगुदा तकिया भी…। उनका कितना-कितना तो मन हुआ कि कोई उन्हें संभाल कर धूप के टुकड़े की तरह उठाए और चटाई पर डाल दे। नर्म, गुदगुदे तकिए पर सिर रख कर वे भी थोड़ी देर धूप की  नर्म-नर्म सेंक लेना चाहते हैं, पर…?
        उन्होंने झुक कर कुर्सी के पहिए को कमरे की ओर किया तो मुँह से हल्की चीख निकल गई, पर दूसरे ही क्षण उन्होंने उसे भीतर ही घुटक लिया। पाँव पर धोखे से तेज़ हाथ लग गया था जिससे टीसन इतनी बढ़ गई कि चीख के साथ ही आँखें भी छलछला आई थी। वे तेज़ी से कमरे के भीतर आ गए। बहुओं की तरफ़ पीठ थी वरना देखते ही फुसफुसाती, “हम लोगों को देखते ही बुढ्ढा नाटक करने लगता है…।”
         “अरे बाबा, अब तो चौबीसों घण्टे का टिटिम्बा है…। पहले ऑफ़िस जाते थे तो कुछ पल के लिए चैन तो मिल जाता था, पर अब? दिन भर खाना-चाय-नाश्ता…और उससे मुक्त हो तो ये कराहट जारी…। उफ़! एक पल को भी चैन नहीं…।”
         “मैने तो तुमसे पहले ही कहा था कि अपने इन से कह कर बुढऊ के लिए छत पर एक कच्चा कमरा और लैट्रिन बनवा देते हैं…। वहाँ सारा दिन बुढ़ऊ कुछ भी करें, हमें क्या…पर कोई मेरी सुने तब न…।”
         “श्श्श, धीरे बोलो…लंगड़े हैं,पर कान के तो बहुत तेज़ हैं…” और फिर एक हल्की हँसी…।
         उन्होंने कमरे के अन्दर घुसते ही दरवाज़ा बन्द कर लिया था। दर्द पाँवों से उठ कर आत्मा में उतर गया था। उन्हें क्या पता था कि कभी वक़्त उन्हें इस तरह खून के आँसू रुलाएगा। अच्छा हुआ कि सुशीला चली गई। ज़िन्दा होती तो यह सब सह न पाती, पर वे…? वे क्या सह पा रहे हैं? शायद नहीं…पर कर भी क्या सकते हैं? दुःख के समय तो अपनी परछाई भी साथ छोड़ देती है…किससे कहें?
        करीब पन्द्रह वर्ष पहले जब उनकी पोस्टिंग गोरखपुर में हुई थी तभी से पैरों में हल्की सूजन सी रहने लगी थी। कई डक्टरों को दिखाया…किसी ने थायराइड की बीमारी बताई तो किसी ने शुगर की…। पूरा शरीर ठीक रहता पर शाम के वक़्त सिर्फ़ पाँव सूज कर इस तरह गदबदे हो जाते जैसे उनमें ढेरों पीव भर गई हो। सुशीला के ज़िद करने पर खून टेस्ट करवाया तो फाइलेरिया के लक्षण पाए गए…फाइलेरिया…?
        पहली बार नाम सुना था। डाक्टर ने बताया कि यह एक प्रकार के मच्छर के काटने से होता है और इसका टेस्ट करने का सही तरीका यह है कि जब मरीज सो जाए तो सीरिंज से उसका खून लेकर जाँच की जाए…। सही-सही बीमारी तभी पकड़ में आएगी और इलाज भी सम्भव हो पाएगा…।
        वे उठते तो रोज थे इस संकल्प के साथ कि आज सोने से पहले डाक्टर से बात करके सुशीला से कह देंगे कि वह खून का सैम्पल निकलवा ले पर रोज ही वे अपने ऑफ़िस के काम में, और सुशीला घर के काम में इतने व्यस्त हो जाते कि वह ‘रोज’ आता ही रह गया। उनकी भूलने की आदत ने वक़्त पर ही धूल चढ़ा दी और जब धूल झाड़ने का ख्याल आया तो बहुत कुछ हाथ से फिसल चुका था, साथ में सुशीला भी…नौकरी भी और वह खूबसूरत सुबह भी…।
         बाहर से आवाज़ें आनी बन्द हो गई थी। बहुएँ शायद झपकी की गिरफ़्त में थी। ठहरी हुई वह हल्की गुनगुनी धूप तन के साथ मन को भी कितना सकून देती है, इसका अहसास था उनके पास…। पहले छुट्टी के दिनों में वह यही तो करते थे। मंदिर की संगमरमरी ज़मीन पर धूप की सलवट-विहीन चादर बिछी होती और वे अपने दोस्तों के साथ उस पर पसरे तब तक बतियाते रहते, जब तक प्रकृति उसे खींच न लेती…।
          पर वे सब भी कितने ढीठ थे। चादर पीछे की ओर खिसकती जाती और वे चहलकदमी करते किसी आवारा शख़्स की तरह उसका पीछा करते चलते…। काश! उस वक़्त उस चादर को तहा कर अपने टूटे-फूटे सन्दूक में रख पाते तो इस कमरे में शाम के वक़्त इतनी ठिठुरन तो न होती…। जब चाहते, चादर को निकालते और पूरे कमरे में उसे बिछा देते…।
          सहसा उनके होंठो पर एक क्षीण सी मुस्कराहट उपज आई। वह अकेले बैठे क्या से क्या सोच जाते हैं…।
          कमरे का दरवाज़ा बन्द होने के कारण अन्धेरे के साथ ठण्ड भी बढ़ गई थी…। उन्होंने बिस्तर पर पड़े स्वेटर को उठा कर पहना, फिर गुसलखाने की ओर घूम गए…। धीरे से व्हीलचेयर को कमोड तक ले गए और बैठे-बैठे ही पेशाब से फ़ारिग हुए।
          केवल लैट्रिन जाते वक़्त ही इस कुर्सी से सरक कर कमोड पर बैठते हैं, बाकी काम-नहाना-धोना-सब इसी पर…लेकिन इन जरूरी प्रक्रियाओं के दौरान कितनी बार चीख निकलती है, कितनी बार गले में ही घुटती है, उन्हें तो इसकी गिनती भी अब याद नहीं। उस घुटन भरी चीख के बीच ही सरकते हुए पलंग पर इस तरह गिर पड़ते हैं जैसे बड़ी दूर से ऊबड़-खाबड़ रास्ता पार करके आए हों और पाँवों में ढेरों छाले पड़ गए हों…। इन छालों की तो अब कोई दवा भी नहीं…। नासूर की कोई कारगर दवा होती है क्या…?
          गुसलखाने से बाहर आए तो आँखों के आगे बहुत देर तक अंधेरा छाया रहा। पूरा पैर सूज कर कुप्पा हो गया था और बुरी तरह टीस रहा था…। उसमें मवाद कहीं दिख तो नहीं रहा था पर टीसन बहुत असहनीय थी।
          दर्द जब बर्दाश्त से बाहर हो गया तो उन्होंने जग से पानी लेकर दर्द की गोली खाई, फिर घिसटते हुए पलंग के पास उचके और फिर दूसरे ही क्षण धम्म से उसपर गिर गए।
          पलंग पर इस तरह गिरने की धसक थी या दर्द की कचोट, उन्होंने अहसास को दूर धकेलने की पूरी कोशिश की पर इस कोशिश के दौरान आँखों से तब तक पानी गिरता रहा, जब तक नींद ने उनकी आँखों को अपनी चादर से ढँक नहीं दिया।
          “दादू…चाय…” विशाल ने उन्हें झिंझोड़ा तो वे एकदम से चिंहुक पड़े। दर्द से निज़ात पाने के लिए नींद की गहरी सुरंग में उतर गए थे। उससे बाहर आने में उन्हें कुछ वक़्त लगा, पर विशाल ने पहले की तरह इन्तज़ार नहीं किया। साइड टेबिल पर चाय की प्याली पटक कर चला गया।
          शाम के शायद पाँच बजे होंगे या छः भी…अंधेरा कमरे के भीतर भी था। विशाल ने इतना भी नहीं किया कि बत्ती ही जला देता। उड़के हुए दरवाज़े से रोशनी की एक पतली सी लकीर भीतर रेंगती हुई आ रही थी…उसी का सिरा थाम कर वे धीरे से वे धीरे से उठंग हुए, फिर छड़ी से बत्ती जलाई और साइड टेबिल से चाय की प्याली उठा ली।
           सुरंग से बाहर आने में शायद काफ़ी समय लग गया था…चाय एकदम ठण्डी हो गई थी। उन्होंने उसे एक ही घूँट में सुड़क लिया, पर इस सुड़कन के दौरान आँख व नाक दोनो से पानी बहने लगा। लगा, जैसे भीतर बरसों से कोई सोता सूखा पड़ा था और अब मौका पाते ही फूट पड़ा। अंगौछा पास में ही पड़ा था पर उन्होंने उसे उठा कर पोंछा नहीं। वे उस सोते के पानी को पूरी तरह बहा देना चाहते थे। सुशीला ने जीते-जी कभी इसे बहने नहीं दिया, पर अब जब वह नहीं है तो बाँध को बचाएगा कौन?
          दोनो बेटे ऑफ़िस से आ गए थे शायद, तभी तो नीचे डाइनिंग हॉल से इतनी हँसी छन कर आ रही थी। बहुत देर तक वे उस छनी हुई हँसी को अपने कलेजे के आर-पार उतरते महसूस करते रहे, फिर बर्दाश्त नहीं हुआ तो अंगौछे से मुँह पोंछा और पलंग से सरक कर व्हीलचेयर पर बैठ गए, फिर धीरे-धीरे उसे दरवाज़े तक ले गए। हाथ के हल्के स्पर्श से ही दरवाज़ा खुल गया पर यह क्या? दरवाज़ा खुलते ही तेज़ हवा का एक झोंका उनके पूरे बदन को चीर गया।
           व्हीलचेयर पर बैठने से पहले उन्हें टोपी और सदरी पहन लेना चाहिए था। घर के ठीक सामने एक सूना और उजड़ा हुआ पार्क है जिसमें नीम, बरगद, पीपल के विशाल पेड़ के साथ जंगलॊ झाड़-झंखाड़ भी है। सारी रात झींगुरों, कीड़े-मकौड़ों की तीखी आवाज़ें सोने नहीं देती और सुबह सूरज के भय से वे सब तो चुप हो जाते हैं, पर बन्दरों का झुंड एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर छलांग लगाता जो ऊधम मचाता है कि इस मोहल्ले का सत्यानाश ही हो जाता है…। पेड़ों पर छलाँग लगाने और झूला झूलने से जब उनका मन भर जाता है तो वे किसी भी घर की मुंडेर पर जा धमकते हैं…और फिर जो हाथ लगता है, ले भागते हैं…।
           उनकी मुंडेर पर भी कई बार उत्पात मचा चुके हैं। उन्हीं के डर से बहुएँ कभी मूँग-बड़ी…पापड़…चिप्स वगैरह नहीं डालती। एक बार होली में अच्छी धूप देख कर डाला था, उसके बाद तो तौबा ही कर ली। बन्दरों ने पापड़-बड़ी का तो जो सत्यानाश करना था, किया ही था, पर उस दिन उनका भी कम सत्यानाश नहीं हुआ था। बहुओं ने जो खरी-खोटी सुनाई थी कि उससे उबरने में उन्हें हफ़्तों लग गए थे, पर छोटे बेटे अनिल ने जो कहा था, वह आज भी दिल के किसी कोने में टीसता है…।
           छोटा होने के कारण माँ का तो हमेशा से लाडला था ही, पर उन्होंने भी कम लाड़ नहीं किया था। एक बार टायफॉयड होने के बाद वह बहुत कमज़ोर हो गया था। शरीर में जैसे माँस का नाम ही नहीं था। डॉक्टरों ने कमज़ोरी दूर करने के लिए खूब फल, मेवा, दूध, दही खिलाने को कहा था। गृहस्थी के खर्च बहुत थे पर फिर भी उन्होंने उन दिनो घर को मेवे, फल-दूध से भर दिया था…इतना कि खाते-खाते अनिल ऊब गया था और उसका मोटापा तो इतना बढ़ गया था कि उसका नाम ही अनिल से ‘गोलू’ पड़ गया था।
            सहसा उनके होंठो पर हँसी की एक क्षीण सी रेखा उभरी, फिर दूसरे ही क्षण बाहर के अंधेरे में गुम हो गई। पूरा घर उसे ‘गोलू-गोलू’ कह कर पुकारता तो वह चुप रहता, पर जब वे हँस कर ‘गोलू’ पुकारते तो पता नहीं क्यों चिढ़ जाता। उसे लगता जैसे वे उसके मोटापे का मज़ाक उड़ा रहे हों, जबकि ऐसा कतई नहीं था…। पर आज वह कितना बदल गया है। वे उसे ‘गोलू’ कह कर कब पुकारें…? वह तो उनसे सीधे मुँह बात ही नहीं करता, पर बाप होने के कारण उन्हें तो अब भी उससे उतना ही प्यार है। उसी की ज़िद पर उन्होंने वह छोटा मकान होने के बावजूद यह दूसरा बड़ा मकान बनवाया और इसमें अपनी पूरी जमा-पूँजी झोंक दी, पर उन्हें क्या मिला? जेल सरीखा सिर्फ़ यह कमरा…?
           नीचे के तल पर तो सब कुछ है। चार बड़े-बड़े कमरे, डाइनिंग हॉल, संगमरमरी ज़मीन, मॉड्यूलर किचन और एक खूबसूरत बगीचा भी…। इतना होने के बाद भी नीचे उनके लिए जगह नहीं थी। रिटायर होने के बाद जो रुपया मिला, उन्हें बहला-फुसला कर ऊपर दो कमरे और छत बनवा दी और बाकी फ़िक्स कर लिए…। इसके अलावा उनकी बीमारी, डॉक्टर, दूध, दवा वगैरह के नाम पर पेन्शन भी झटक लेते हैं…। अपने पैरों के कारण वे इतने लाचार हैं कि खुद हर महीने अपनी पेन्शन लेने जा भी नहीं सकते। नित्यक्रिया से फ़ारिग हो पाना ही कितना कष्टदायक हो जाता है उनके लिए, फिर बाकी काम कैसे करें…?
           अचानक उनका हाथ अपने सीने पर गया तो वे चिंहुक पड़े…सीना पूरी तरह भीगा हुआ था। पता नहीं कब आँखों का झरना फूट पड़ा था, उन्हें याद ही नहीं…। यद्यपि ऐसा कम ही होता है पर कभी-कभी न जाने क्यों ज़िन्दगी से हारने लगते हैं।
           सीने का कपड़ा भीगा हुआ था। उन्हें हल्की सी सिहरन महसूस हुई, साथ ही चाय की तलब भी…क्या करें ? शाम को तो एकदम ठण्डी और खाली चाय ही पी थी। इस समय गर्म चाय के साथ कुछ नाश्ता मिल जाता तो…। डॉक्टर ने भारी नाश्ता मना किया था पर इसका मतलब यह तो नहीं कि एकदम खाली चाय…।
           नीचे से ठहाकों के साथ-साथ हलवा और पकौड़ी की भी खुश्बू आ रही थी। उनका मन ललचा गया। सुशीला थी तो लगभग हर दूसरे-तीसरे उसके हाथ का बना कुछ खाते ही रहते थे…कभी हलवा…कभी पोहा…तो कभी गर्म नमकपारा…।
           उनसे बर्दाश्त नहीं हुआ तो वहीं से बैठे-बैठे ही उन्होंने विशाल को खूब जोर से पुकारा। थोड़ी देर बाद विशाल तो नहीं आया, उसके बदले अनिल आया, “क्या बात है…क्यों इतनी ज़ोर से गला फाड़ रहे हैं…? अब शरीर के साथ आपका दिमाग़ भी कम चलता है क्या? सब कुछ तो रख दिया जाता है आपकी पलंग के पास…फिर क्या चाहिए ? आप को इतना तो सोचना चाहिए कि आवाज़ सड़क तक जाती है। क्या सोचेंगे लोग? यही न कि हम लोग अपने बाप की परवाह नहीं करते…?”
          “न गोलू,” कह तो गए पर दूसरे ही क्षण अचकचा गए, “नहीं बेटा…चिल्लाता नहीं…पर इतनी देर से कोई ऊपर नहीं आया न…,” फिर हकलाते हुए बोले, “थोड़ी चाय की तलब लग रही थी…उसके साथ थोड़ा नाश्ता भी मिल जाता तो…बहू ने शायद हलवा-पकौड़ी बनाई है…।”
          “धन्य हैं आप भी पिताजी…पूरा पैर सूज कर कुप्पा है…कोई चीज़ ठीक से हजम नहीं होती, पर ज़ुबान है कि अब भी चटपटी…। अरे हलवा-पकौड़ी बनी तो है, पर आपको नुकसान करेगा, इसी से नहीं दिया। डॉक्टर ने भी तो तली चीज़ें खाने से मना किया है न…।”
          अनिल के चेहरे पर ऊब और नाराज़गी साफ़ झलक रही थी पर उन्होंने ध्यान नहीं दिया, “ठीक है, तो फिर थोड़ी गर्म चाय ही भेज दो…।”
         “ठीक है…,” कहता अनिल नीचे चला गया। वे व्हीलचेयर पर बैठे इन्तज़ार करते रहे पर आठ बजे चाय की जगह प्लेट में चार रोटी व सब्जी आई…वह भी विशाल उनकी पलंग पर रख कर भाग गया।
          जी चाहा कि खाने की प्लेट उठाए और छज्जे से बाहर फेंक दें…पर उन्होंने ऐसा किया नहीं। सुबह दस बजे का खाए हैं…भूख के मारे बुरा हाल है, फिर खाली पेट दवा कैसे खाएँ…?
          सीढ़ियों पर ‘धप्प-धप्प’ की आवाज़ हुई तो वे समझ गए कि दिन डूबने के बाद की खानापूर्ति के लिए बड़ा बेटा आकाश आ रहा है। अनिल की बनिस्पत इसका स्वभाव थोड़ा नरम है, पर इससे क्या ? यह तो उनसे बोलता ही नहीं…।
          करीब साल भर से उनसे नाराज़ है…सिर्फ़ दो-चार काम की ही बात करता है। नौकरी के समय ही किराए के मकान से परेशान हो उन्होंने एल.आई.जी का एक छोटा सा मकान ब्लैक में ही किसी और से खरीद लिया था। उस समय वे, सुशीला और ये दोनो बेटे ही थे। गुजर हो जाती थी पर इनकी शादी और बड़े होते पोतों के कारण मुश्किल होने लगी थी। पोते तो उस छोटे से घर को अपना बताने में भी शर्माते थे। अच्छी परवरिश…अच्छी पढ़ाई…ऊँचे घरों के दोस्त…ज़माना बदल रहा था…।
          उन्होंने तो उस छोटे से मकान में ही रह कर सब कुछ किया था। दोनो बेटों को पढ़ा-लिखा कर लायक बनाया, उनकी शादी की और घर का पूरा खर्च भी संभाला। आकाश एक कॉलेज में प्रिंसिपल है तो अनिल बैंक में अफ़सर…। अच्छा कमाते हैं…दोनो के दो-दो बेटे…।
         आकाश के दोनो बेटे बैंगलोर में हैं, इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए और अनिल का बड़ा वाला देहरादून में…छोटा विशाल यहीं है। पढ़ाई व गृहस्थी के खर्च का काफ़ी बोझ है, सो आकाश चाहता है कि अब वे उस छोटे से घर को बेच कर पैसा आधा-आधा उन दोनो में बाँट दें, पर वे पिछले अनुभवों के कारण ऐसा करने को राज़ी नहीं…।
         नौकरी की सारी जमा-पूँजी इन दोनो के दिखावटी प्यार में आकर इस मकान में लगा दिया, यहाँ तक कि हाथ में पूरी पेन्शन भी नहीं आती। जब इतना करने पर इन दोनो का यह हाल है तो जिस दिन वह मकान बिक जाएगा, उस दिन तो यह लोग शायद उन्हें किसी वृद्धाश्रम ही पहुँचा देंगे…। अभी कम-से-कम दवा के साथ दो जून की रोटी तो नसीब है…।
         उनका अन्दाज़ा सच था, आने वाला आकाश ही था। उनके कमरे का दरवाज़ा उढ़का हुआ था। उसने खोल कर झाँका और फिर पता नहीं क्या सोच कर अन्दर आ गया, “आपने अभी तक खाना नहीं खाया? ठण्डा हो गया रखे-रखे…।”          
        “क्या फ़र्क पड़ता है…ठण्डा खाने की आदत पड़ गई है। कोई तुम्हारी माँ ज़िन्दा है क्या जो गर्म करके देगी…।” सँभलते-सँभलते भी वह बिखर ही गए…आवाज़ भी भर्रा गई।
        “आप भी न पिताजी, हम लोगों को बदनाम करने का कोई अवसर नहीं छोड़ते…। कोई सुनेगा तो यही कहेगा न कि हम लोग आपका ख़्याल नहीं रखते। अरे, दो-दो बहुएँ तो हैं न, इसमें माँ कहाँ से आ गई…?”
        “बहुएँ तुम लोगों के लिए हैं बेटा…तुम्हारी माँ हम सब के लिए थी। उसकी जगह ईश्वर मुझे उठा लेता तो ज्यादा अच्छा होता, कम-से-कम यह दिन तो न देखना पड़ता…।”
        दुःख बर्दाश्त नहीं हुआ तो भोकार मार के रो पड़े। आकाश शायद थोड़ा पसीज गया था, “अरे, इसमें रोने की क्या बात है? आपको पैर की तक़लीफ़ है, इसी से आपका अलग इंतज़ाम किया हुआ है ताकि कोई दिक्कत न हो। दवा तो खा ही रहे हैं न, यह बीमारी भी दूर हो ही जाएगी…।”
        “बीमारी क्या दूर होगी बेटा…अब तो यह मेरी मौत के साथ ही जाएगी…।”
        सामने प्लेट में पड़ी रोटियाँ अकड़ गई थी…सब्ज़ी भी छितरी हुई रखी थी। आँसुओं से डूबी आँखों ने देखा और वितृष्णा से भर गई। एक प्लेट में किस तरह बहुएँ खाना देती हैं। वह कोई पालतू कुत्ता-वुत्ता तो हैं नहीं। बहुएँ तो चलो फिर भी पराई हैं, पर ये दोनो बेटे तो अपना खून हैं। इन्हें क्या ज़रा भी दया नहीं आती अपने बूढ़े और बीमार बाप पर…?
       “बेटा, खाना ले जाओ…भूख नहीं है…।”
       “तो गर्म चाय भिजवा दूँ?”
       “अनिल से कहा तो था, पर अब कोई जरूरत नहीं।”
       “अरे, तो मुझसे कहा होता…उसका स्वभाव तो आप जानते हैं न…?”
       “पर तुम मुझसे बोलते ही कहाँ हो? आज महीने भर बाद तो इस कमरे में आए हो…।”
       सहसा आकाश सकपका गया, “समय ही नहीं मिलता…कॉलेज से आने के बाद बहुत थक जाता हूँ…।”
       आकाश ने खाने की प्लेट उठा ली थी। उनका मन हुआ कि प्लेट ले जाने से मना कर दें। भूख से अंतड़ियाँ ऐंठ रही थी पर भीतर का स्वाभिमान रोक रहा था। आकाश दरवाज़ा उढ़का कर यह कहता चला गया, “चाय भिजवा देता हूँ।”
      पर वह जानते थे कि बहू अब चाय नहीं बनाएगी और आकाश सिर्फ़ कह कर रह जाएगा। व्हीलचेयर के सहारे वे बाथरूम गए। वहाँ हाथ-मुँह धोया और फिर उसी तरह सरकते पलंग के पास आ गए। अब भूख और बढ़ गई थी। साइड टेबिल पर ग्लूकोज़ का बिस्कुट रखा था, उसी पैकेट को खोल कर भकाभक आठ-दस बिस्कुट खा गए और फिर पानी पीकर पलंग पर लुढ़क गए।
       सामने के सूने पार्क का अन्धेरा और गहरा गया था। सारा मोहल्ला जब सोने की तैयारी करता है तो सारे कीड़े-मकौड़े जैसे अपनी नींद पूरी कर के जाग उठते हैं, कुछ इस तरह जैसे वे बड़े मुस्तैद प्रहरी हों…। उनकी कर्कश आवाज़ दूर-दूर तक जाकर उन जैसे बूढ़ों की नींद ज़रूर हराम करती है, पर बाकी लोग तो चैन की नींद सोते हैं।
        बहुत देर तक उन्हें नींद नहीं आई। बिस्कुट से कहीं पेट भरता है? तिस पर सुशीला की बहुत याद आ रही थी…ज़िन्दा होती तो क्या इस तरह भूखे पेट सोने देती? उसके समय में भी अक्सर बीमार रहा करते थे पर बीमारी का अहसास तक नहीं होता था। सर्दी-जुकाम हुआ तो हर दो घण्टे पर अदरक, इलाइची, लौंग, तुलसी की चाय, काढ़ा, गर्म दूध…बिना दवा के ही बीमारी भाग जाती…। खाने को जो जी चाहा, गर्मागर्म तुरन्त तैयार…। उसके समय में रिश्तेदार भी बहुत आते थे। मज़ाल क्या जो बिना खाए-पिए लौट जाएँ, पर अब? 
         इन लोगों के व्यवहार पर बहुत कम आते हैं रिश्तेदार…। कभी साल-छः महीने पर आ गए तो बड़ी बात है, फिर उस आने वाले से उनकी मुलाक़ात भी कहाँ हो पाती है…। नीचे से ही बहाना बना कर वापस कर देते हैं। उन्हें तो कभी-कभी भनक ही नहीं लगती।
         रात के पता नहीं कितने बजे थे। कमरे में ज़ीरो पॉवर का बल्ब जल रहा था। उस मद्धिम सी रोशनी में घड़ी की सुई भी ठीक से नहीं दिख रही थी…नींद आती तो कैसे?
         बाहर सड़क पर ढेर सारे कुत्ते आपस में ही भिड़ रहे थे। उनके भौंकने और गुर्राने की आवाज़ दूर-दूर तक जा रही थी। उस आवाज़ में झींगुरों की आवाज़ दब सी गई थी। आजकल चौकीदार की सीटी भी सुनाई नहीं देती। उन्हें भय सा लगता है। बगल वाला कमरा स्टोर रूम है…हर वक़्त बन्द रहता है। बाहर छज्जे पर मरियल सा बल्ब जलता है। सब नीचे सोते हैं। उन्हें अगर कोई मार दे या वे ही मर जाएँ तो शायद सुबह तक किसी को पता भी नहीं चलेगा।
         नींद न आने से पाँवों का दर्द काफ़ी बढ़ गया था। थोड़ी देर पहले मलहम लगाया था पर दर्द कम नहीं हुआ, बल्कि बढ़ता ही जा रहा था…इतना कि रो पड़े…। क्या करें…? किसे बुलाऎँ…?
         दर्द बर्दाश्त से बाहर हो गया था। साइड टेबिल पर हीटर रखा था…। उन्हें याद आया कि गर्म, नमक वाले पानी का सेंक देने से आराम मिलता है। उन्होंने छड़ी से हीटर का स्विच ऑन किया और उस पर रखे सॉसपैन में पानी डाल दिया, गर्म होने के लिए…।
         पानी जब गर्म हो गया तो उन्होंने छड़ी से ही स्विच ऑफ़ किया और फिर पानी में कपड़ा डुबो कर पैरों को सेंक देने लगे। सेंक से जितनी राहत मिलती जा रही थी, भीतर की टीसन उतनी ही बढ़ती जा रही थी…। आज आँखें पानी उलीचने से जैसे थक ही नहीं रही थी। वे पाँवों को सेंक देते-देते बच्चों की तरह फफक रहे थे…। यह क्रिया तब तक चली जब तक पानी ठण्डा नहीं हो गया…उनके पाँवों को थोड़ा आराम नहीं मिल गया और उस आराम से उन्हें नींद नहीं आ गई।
         सुबह किसी ने दरवाज़ा खोला तो उनकी नींद भी खुल गई। सुबह के शायद आठ बजे थे। उन्होंने आँख मल कर देखा तो आकाश खड़ा था, धूप की एक हल्की सी लकीर के साथ, “उठिए पिताजी…आपने रात को कुछ नहीं खाया था…। लीजिए, चाय के साथ यह गर्म कचौड़ी खा लीजिए…।”
         सहसा उनकी आँख भर आई। बिना कुछ बोले वे सरक कर व्हीलचेयर पर बैठ गए। आकाश ने सहारा देने के लिए हाथ बढ़ाया तो उन्होंने मना कर दिया।
         थोड़ी देर बाद फ़ारिग हो कर आए तो आकाश वैसे ही बैठा था, “लीजिए…जल्दी से चाय पी लीजिए, वरना फिर ठण्डी हो जाएगी…।”
         उन्होंने जल्दी-जल्दी कौर तोड़ने की कोशिश की, पर कौर थे कि टूट ही नहीं रहे थे। आकाश ने देखा तो तोड़-तोड़ कर उनके हाथों में देने लगा, “आप चाय पीजिए…मैं कौर तोड़ कर दे रहा हूँ…। हर समय चिन्ता में डूबे रहेंगे तो यही हाल होगा न…। देखिए, इतने कमज़ोर हो गए हैं कि कौर भी नहीं तोड़ पा रहे हैं…।”
         उनका जी चाहा कि आकाश की गोद में सिर रख कर किसी बच्चे की तरह बुक्का फाड़ कर रोएँ…शायद वे ऐसा कर भी देते, पर तभी रुलाई कौर के साथ भीतर सरक गई।
       “पिताजी, आपसे एक बात कहनी थी…अगर आप नाराज़ न हों तो…।”
       “हाँ…कहो न…। तुम सब से नाराज़ होकर कहाँ जाऊँगा…। कहीं और ठौर है मेरा…?” चाय ख़त्म हो गई थी और उनके हाथ में आखिरी कौर था। 
       “दर‍असल आशू को पचास हजार रुपयों की तुरन्त ज़रूरत है…हॉस्टल के लिए…वहाँ का किराया, खाने-पीने का एडवांस जमा होता है न…।”
       उनका मुँह खुला था और कौर हाथ में ही रह गया था।
      “मैने एक आदमी से बात कि है…वह अपना एल.आई.जी वाला मकान है न, उसके वह दो लाख देने को तैयार है…। आप कहें तो मैं फ़ाइनल कर दूँ…।”
      “ऑ…।” लगा, जैसे उनके मुँह को लकवा मार गया हो।
       आकाश ने ही कहा, “यह कौर ख़त्म कर पानी पी लीजिए, पिताजी…आपकी दवा का भी वक़्त हो गया है।”
       “अच्छा।”
       “तो ठीक है पिताजी…मैं शाम को उस आदमी से आपकी बात करा दूँगा…। पिताजी…मुसीबत के समय आपसे मदद नहीं माँगूगा तो फिर किससे मागूँगा…? बताइए…आप नाराज़ तो नहीं हैं न…? आप ज़रा-ज़रा सी बात को दिल पर मत लगाया करिए…। अब हम अच्छे हैं या बुरे, हैं तो आपके ही बच्चे न…?”
       प्लेट और चाय की प्याली लेकर आकाश चला गया और वे उसी मुद्रा में बहुत देर तक बैठे रहे। छज्जे पर कब चिड़ियाँ चहचहा कर बिना दानों के ही चली गई, गिलहरी ने खेल-खिलैया के लिए उनका इंतज़ार किया या नहीं…बहुएँ कब धूप के टुकड़े पर लेटी और कब उसे समेट कर चली गई, उन्हें जैसे पता ही नहीं चला।
       पता तब चला जब शाम को आकाश और अनिल दोनो ही चाय के साथ गर्मागर्म पकौड़े लेकर आए। उन्होंने मना नहीं किया…इस ख़ातिरदारी का कारण भी नहीं पूछा…बस चुपचाप सारे पकौड़े खाकर इस तरह चाय सुड़क गए जैसे कई जन्मों से भूखे हों।
       पल भर बाद आकाश ने ही बात चलाई, “पिताजी, वह आदमी कह रहा था कि जब आप इतने बीमार हैं तो मकान की बिक्री के सम्बन्ध में बार-बार कोर्ट-कचहरी कहाँ जा पाएँगे…। तो हम लोग भी सोच रहे थे कि अगर आप हम दोनो के नाम वसीयत कर दें तो बाकी तो हम सम्हाल ही लेंगे…।”
      भीतर बड़ी देर से पसरा सन्नाटा जैसे बाहर आ ही गया था कि तभी नीचे एक अजीब सी हलचल सुनाई पड़ी। सड़क पर ज़ोर से कार का हॉर्न भी बजा था। आकाश और अनिल अचानक इतनी तेज़ी से नीचे चले गए कि बात वहीं रुक गई।
      कौन आया है? अरसे बाद घर में इतनी हलचल हुई। पता नहीं कौन है…कोई दोस्त-यार या फिर कोई खास रिश्तेदार…?
      उनके पाँव ठीक होते तो यूँ लाचार से न बैठे होते। पहले कोई भी आता था तो सबसे पहले उन्हीं से मिलता। घण्टों उससे बतियाते… समय कैसे बीत जाता, पता ही नहीं चलता, पर अब?
      उन्होंने आवाज़ लगा कर पूछना चाहा, पर फिर चुप ही रह गए। आज बरसों बाद बेटों के हाथ से, उनके साथ जो खाना नसीब हुआ है, उस सुख को वे गँवाना नहीं चाहते।
      वे दुविधाग्रस्त बैठे ही थे कि तभी सीढ़ियों पर धपाधप्प की आवाज़ आई…लगा, जैसे कोई सारी सीढ़ियाँ बड़ी बेसब्री से एक ही बार में फलाँग जाना चाहता हो…कहीं…?
     पल भर बाद उनका मुँह खुशी से खुला का खुला ही रह गया। उनका अनुमान सही था। सामने पूनम खड़ी थी। बचपन में भी वह इसी तरह सीढ़ियाँ फलाँगती हुई चढ़ती थी। चालीस की उम्र में भी वही बचपना…?
     “मौसा जी…।” खुशी से चीखती पूनम आकर उनके गले लग गई तो उनकी आँखें छलछला आई…आवाज़ जैसे गले में ही अटक सी गई थी। काफ़ी देर तक कुछ बोल ही नहीं पाए, बस दुलार से उसके सिर पर हाथ ही फेरते रह गए।
     पूनम उनके पलंग पर ही बैठ गई, “और सुनाइए मौसा जी…कैसे हैं…?”
     “कैसा हूँगा बेटा…सबने तो भुला ही दिया इस बूढ़े-बीमार आदमी को…पर तू भी…? पूरे दस साल बाद आई है…। क्या मौसी ही तेरी सब कुछ थी…? मैं कुछ नहीं…?” आगे वे बोल नहीं पाए।
     “अरे नहीं मौसा जी, ऐसी बात नहीं है…। मम्मी-पापा के जाने के बाद एक आप और मासी ही तो थे जिन्होंने हम सब को सम्हाला…। कैसे भूल जाऊँगी सब…?”
     “आप जानते हैं न कि मुम्बई से कानपुर, इतनी दूर आ पाना कितना मुश्किल है। रेशू के पापा की टूरिंग जॉब…इस समय भी ऑफ़िस के काम से अमेरिका गए हैं…। ऐसे में उनके बूढ़े माता-पिता की देखभाल…घर-गृहस्थी…रेशू की पढ़ाई…सब मेरे ऊपर है। ये सारी ज़िम्मेदारियाँ छोड़ कर निकल पाना लगभग नामुमकिन होता है…। इस समय भी अगर रेशू के लिए यहाँ का एक बढ़िया रिश्ता न होता, तो शायद अब भी न निकल पाती। कनाडा से सिर्फ़ इसी लिए छुट्टी लेकर अपने परिवार के पास आया है। रेशू के साथ पढ़ा है, अब वहाँ एक शानदार जॉब में है…। समझ लीजिए सारी बात तय ही है…मैं तो सिर्फ़ तारीख़ पक्की करने आई हूँ…” पूनम फिर चहक रही थी,” सुन लीजिए, शादी में सबको आना है…एक ही तो बेटी है मेरी…।”
       “बहुत खुशी की बात सुनाई बेटा…। ये लोग चले जाएँगे, पर मैं नहीं आ पाऊँगा…पैर में बहुत तकलीफ़ है…।” कहते-कहते उनकी आवाज़ भर्रा गई।
        अपनी खुशी और सबसे मिलने-मिलाने के चक्कर में पूनम की नज़र व्हीलचेयर और कमरे की हालत पर तो गई ही नहीं थी। उसने घूम कर उनके पैरों की ओर देखा तो एकदम सनाका खा गई, “यह क्या हुआ? किसी ने मुझे बताया क्यों नहीं…? एक फोन तो किया जा सकता था। मुम्बई में एक-से-एक बड़े डाक्टर हैं…और आप मौसा जी…?”
        पूनम भी आगे बोल नहीं पाई। मौसा की इतनी दुर्गत देख कर उसकी आँखें भर आई।
        पूरा पाँव भयानक रूप से सूज कर हाथी-पाँव बना हुआ था। जहाँ-तहाँ से मवाद झलक रहा था…। कमरे की बुरी हालत, संडास से आती बदबू, साइड टेबिल पर बेतरतीबी से रखा सामान और पास पड़ी व्हीलचेयर…सारी कहानी अपने आप बयान कर रहे थे…। आकाश, अनिल, दोनो बहुएँ…उन सब के अपराधी से चेहरे…पूनम को इन सबका स्वभाव पता था, पर अपने पिता के साथ भी ये ऐसा सलूक करेंगे, ये नहीं सोचा था।
        एकाएक पूनम ने जैसे अपना निर्णय सुना दिया, “मेरी कल शाम की फ़्लाइट है…मैं मौसा जी को भी अपने साथ ले जाऊँगी। वहाँ के किसी बड़े डाक्टर से कन्सल्ट करके इनका पूरा इलाज करवाऊँगी…। आप लोग चिन्ता न करें, ठीक होते ही वापस पहुँचा दूँगी…।”
       सुन कर आकाश झुँझला पड़ा, “यह क्या पूनम…खुद ही सोचा और खुद ही फ़ैसला भी सुना दिया। हम लोग इलाज करवा रहे हैं न…।”
       “भैया, मैने यह कब कहा कि आप लोग इनका इलाज नहीं करवा रहे? मैने सिर्फ़ इतना कहा कि मुम्बई में डाक्टर ज़्यादा सक्षम हैं…।”
       अनिल कुछ कहने चला तो पूनम ने दृढ़ता से रोक दिया, “बस्स…अब कुछ नहीं…। मेरा भी हक़ है मौसा जी पर…और अगर आप मेरे सास-ससुर की बात कर रहे तो वे अब मेरे मम्मी-पापा हैं…मौसा जी को पूरा सम्मान देंगे…मैं जानती हूँ उन्हें…।”
        बहुएँ गुस्से में पैर पटकती हुई नीचे चली गई थी और वे…? लगा, जैसे किसी रेगिस्तान की गर्म-बलूई ज़मीन पर चलते-चलते पैरों में छाले पड़ गए…प्यास से गला चटक रहा हो…। इस प्यास से वे मरते कि तभी जैसे किसी ने अंजुरी में भर कर पानी उनके मुँह में डाल दिया हो…।
        मौत के क़रीब पहुँच कर सहसा ज़िन्दगी वापस आ गई थी…। पल भर वे हकबकाए से बैठे रहे, फिर सहसा ही बुक्का फाड़ कर रो पड़े…।
प्रेम गुप्ता ‘मानी’
प्रकाशित कॄतियाँ-
अनुभूत, दस्तावेज़, मुझे आकाश दो, काथम (संपादित कथा संग्रह)
लाल सूरज ( 17 कहानियों का एकल कथा संग्रह)
अंजुरी भर ( 8 कहानियों का एकल संग्रह)
बाबूजी का चश्मा (एकल कथा संग्रह)
अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो (कविता संग्रह)
सवाल-दर-सवाल (लघुकथा संग्रह)
यह सच डराता है (संस्मरणात्मक संग्रह)

सम्मान- पं. विश्वम्भरनाथ शर्मा कौशिक स्मृति समिति द्वारा ‘विशिष्ट साहित्य सम्मान’

विशेष- 1984 में कथा-संस्था “यथार्थ” का गठन व 14 वर्षों तक लगातार
हर माह कहानी-गोष्ठी का सफ़ल आयोजन।
इस संस्था से देश के उभरते व प्रतिष्ठित लेखक पूरी शिद्दत से जुडे रहे।
सम्पर्क- ‘प्रेमांगन’
एम.आई.जी-292,कैलाश विहार,
आवास विकास योजना संख्या-एक,
कल्याणपुर, कानपुर-208017(उ.प्र)
ई-मेल- [email protected]
ब्लॉग – www.manikahashiya.blogspot.com
मोबाइल नं : 09839915525
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