नाम-शाश्वत। उम्र- जब गुमशुदा हुआ था तब 25 थी। रंग गेहुंआ था और लंबाई मेरे जितनी 5 फुट 9 इंच। आखें मेरी तरह हल्की काली-भूरी। गले पर एक मस्सा है ये देखिए एकदम मेरे जैसा। नाक भी मेरी तरह उठी हुई थी उसकी। आप ये मान लीजिए कि वो मेरी तरह दिखता था। मैं हूं लेकिन वो तो खो गया है कहीं। उसी को तलाशने के लिए मैं आपके पास, गुमशुदा केंद्र आया हूं। वो मिल तो जाएगा ना? अरे, चश्मे के पीछे से यूं घूर कर न देखिए मैं शक़ नहीं कर रहा आप पर। बस, ज़रा सी तसल्ली चाहता हूं। मुझे आपकी क़ाबीलियत पर पूरा भरोसा है। तभी तो यहां आया हूं। वर्ना गैल-बटोह में उसका नाम पुकारते हुए न घूमता। “शाश्वत तुम कहां हो” चिल्लाते हुए न घूमता। उसे तलाशने की कोशिश न करता। वाह! शुक्रिया, कि आप मुस्कराए तो। अब जा कर बेचैनी ज़रा कम हुई। मैं तो डर ही गया था कि कहीं आप मेरी शिकायत को हल्के में न ले लें।
अच्छा मैं उठकर वो सामने की दीवार वाला पीला बल्ब बंद कर दूं? उसकी रोशनी सीधी आंखों में चुभ रही है। हां, अब ठीक है। आपका चेहरा भी साफ़ दिखाई दे रहा है। मैं किसी से बात करता हूं, या किसी को कुछ बताता हूं तो मेरे लिए ज़रूरी हो जाता है कि उसका चेहरा देखूं। आप कब रुचि ले रहे हैं, कब नहीं, ये बात मुझे पता चलती रहनी चाहिए। है ना?
हां, तो शाश्वत के बारे में क्या जानना चाहते हैं आप? सब कुछ? बताता हूं। वो बहुत अच्छा बच्चा था। मां–पापा का कहना मानने वाला। उसे डांस करना पसंद था। ख़ासकर बॉलीवुड के गानों पर थिरकना मूवी के फेवरेट डायलॉग बोलना। पहले उसके पापा के दोस्त आते तो वो सबको डायलॉग सुनाता। सब ख़ूब ख़ुश होते। हंसते। उसे बहुत अच्छा लगता। एक बार उसके पापा के दोस्त ने कह दिया, “यार तेरा बेटा तुझ पर गया है। नौटंकी बढ़िया करता है।” उस रोज़ सबके जाने के बाद उसके पापा ने उसे डांट लगाई। मना किया कि आज के बाद ये सब बंद। “लेकिन क्यों पापा?” उसने पूछा तो पापा गुर्राए, कहा कि आइंदा ये सब करते देखा तो खाल खींच लेंगे। वो डर गया। उसने सोफ़े की ओट में बैठकर रोते हुए सारे वो सारे डायलॉग्स, वो सारे डांस स्टेप भुलाए थे। उस रोज़ पहली दफ़ा उसे लगा कि याद करने से ज़्यादा कठिन भुलाना है। सच में, ऐसा वाकई में है। जीवन में हम जो कुछ भी भुलाना चाहते हैं वो उतनी ही तेज़ी से आता है। जैसे समंदर की कोई विशाल लहर हमें अपने चपेट में लेने के लिए दौड़ी आ रही हो। वो लहर आती है। हम घुटनों में अपना मुंह दुबका लेते हैं और वो हमें भिगो जाती है। हम उन स्मृतियों से तरबतर हो जाते हैं।
“कहा था न कि ये सब बंद हो जाना चाहिए।” उस रोज़ वो पापा के सामने ही ग़लती से एक डायलॉग बोल गया तो पापा ने तमाचा जड़ते हुए यही कहा था। वो आख़िरी दिन था जब उसकी ज़बान पर कोई फ़िल्मी जुमला आया होगा। हां उस उम्र का वो आख़िरी दिन था जब पहली दफ़ा खोया था शाश्वत।
उसे पता भी नहीं चला कि वो टुकड़ाभर खो चुका है। ‘गुड बॉय’ की तारीफ़ ने यूं घेरा कि वो नहीं जान पाया अपना ही ग़ुम होना। काश कि जान पाता तो मैं आज यूं उसकी गुमशुदगी की ख़बर न लिखवा रहा होता। वो दसवीं के रिज़ल्ट वाला दिन था।
कोई 15 साल का होगा वो। कुल नंबर अच्छे आए थे। पापा नाराज़ थे कि अंग्रेज़ी और हिंदी में ज़्यादा लेकिन गणित और विज्ञान में कम थे। उसे पसंद ही नहीं थे ये दोनों विषय लेकिन पापा को पसंद थे। “लड़के हो कर आर्ट साइड लोगे? चुपचाप साइंस लो।” पापा के फ़रमान के आगे वो बुदबुदा भी नहीं पाया कि नहीं समझ में आती पापा ये साइंस। मुझे तो लिटरेचर पढ़ना है। कविताएं, कहानियां लिखनी हैं। मुझे खून देखते ही उल्टी आती है डॉक्टर कैसे बनूंगा। साहित्य के पन्ने पलटने का मन है मैं मशीनों के पुर्जे कैसे कस पाउंगा? इंजीनियर नहीं बनना पापा। हिम्मत जुटा कर उसने मां की पीठ से लग कर कहा था। मां ने समझाया कि बच्चे हो। बाद में समझ आएगा कि पापा का फ़ैसला सही था। वो किसी मुरझाए पत्ते सा मां की पीठ से सरक गया। पता नहीं मां उसका मुरझाना महसूस कर पाईं थीं या नहीं? मां ने हाथ से अपना कंधा टटोला था लेकिन उसकी बढ़ती कलाई नहीं थाम पाईं। पलट कर देखा तो वो कमरे से उठकर जा चुका था। खामोशी के किसी जंगल में जहां उसे कोई ढूंढ न सके। किताबों के उस पहाड़ के पीछे जहां कोई पार करके ना पहुंच सके। ज़िंदगी की मशीन में किसी ज़बरदस्ती ठूंसे गए पुर्जे सा कस गया था वो। बस वही उसके खोने की दूसरी किश्त थी।
वो शायद सोचता था कि क्यों वो पुराने जैसा नहीं रहा। किसी उदास शाम में आईने के सामने खड़ा हो कर वो अपने आप को निहारता था। शरीर देखता था। जीव विज्ञान कहता है कि इंसानी शरीर सत्तर फ़ीसदी पानी का बना है लेकिन ये कोई विज्ञान नहीं कहता कि उसी शरीर में एक नन्हा सा मन रहता है, जो तममा सपनों, ख़्वाहिशों से बना है। जब सपने टूटते हैं तो उसी मन में जा धंसते हैं। ख़्वाहिशें घायल होती हैं तो उनमें पस पड़ने लगता है। मन को हम कभी प्यार से नहीं सहलाते। काबू करो। मन पर लगाम कसो। यही कहते रहते हैं। ख़ुद को बदलो। ये दोहराते हुए बदलते रहते हैं ख़ुद को। शाश्वत भी बदल रहा था।
इंजीनियरिंग की, एमबीए किया और एक अच्छी कंपनी में नौकरी पाने लायक ख़ुद को बदल लिया। लायक बना लिया। दुनिया भर की नज़रों में क़ाबिल बनने के लिए हमें एक कीमत चुकानी पड़ती है। ख़ुद को खोने की। ये खोना जल्द नज़र नहीं आता। उसे भी नहीं आया था। लोगों की तरह वो हंसता था, बोलता था, ख़ुश दिखता था और कभी-कभी अकेले में दुखी भी हो लेता। लेकिन ज़्यादा देर नहीं। क्योंकि दुनियावी तौर पर कामयाब हुए इंसान ज़्यादा देर दुखी नहीं रहते। उन्हें इजाज़त नहीं है रोने की। चियर अप मैन! क्या बच्चों की तरह रोता है! बी ब्रेव! ये कहकर लोग रोने से रोक देते हैं। चुप नहीं कराते। बस रोक देते हैं जैसे किसी बहते पानी के आगे कोई मिट्टी की ढेरी लगा कर मेंड बना दी हो। आंसू भरते रहते हैं। मन ही मन झील बनती रहती है। मेंड ऊंची होती जाती है। इतनी कि कभी-कभी हम ख़ुद भी उसके पीछे झांक कर देख नहीं पाते।
उसने भी नहीं देखा बहुत दिनों तक। पहले कामयाबी पर ध्यान लगाए रखा और फिर नीति पर। नीति उसका प्यार। प्यार? हां, प्यार।
आप सुन रहे हैं ना? हां, ऐसे मूर्ति बन मत सुनिए। कुछ हरकत करते रहिए। यूं खामोश रहेंगे तो मैं कैसे जान पाउंगा कि आप सुन रहे हैं। हां तो मैं कहां था। याद आया, नीति पर। ऑफ़िस में नई लड़की आई थी। बेहद प्यारी। नपी तुली सी ख़ूबसूरती और उस जैसा ही प्यार। मुलाक़ात के तयशुदा घंटे, तारीखों पर तोहफ़ों की रस्म, जेंटलमैन की तरह रहना और उसके मन मुताबिक चलना। “प्यार अच्छे-अच्छों को बदल देता है” वो कहती और वो बदलता जाता। वो सोचता कि शायद अब वो अपने खोये हुए टुकड़ों को दोबारा जोड़ सकता है। पुराने कोनों से तलाश कर वो लाता कभी-कभार अपना बचपन ढूंढ कर तो वो हंसते हुए कहती,“कितना बचपना है तुममे। पहले तो ऐसे नहीं थे।आई लाइक दैट शाश्वत।” ये सुनकर वो सहमता और उन टुकड़ों को वापस दुबका आता। बन जाता पहले जैसा।
पहले जैसा। ज़िंदगी हमें इतनी दफ़ा, इतनी किश्तों में बदलती है कि ये तय करना मुश्किल होता है कि हम पहले कैसे थे। आप पहले कैसे थे? याद है आपको? लोगों को लगता है कि वो अपनी तस्वीरें रख कर भविष्य में ये याद सकते हैं कि वो पहले कैसे थे। जबकि वो सिर्फ़ ये याद कर पाते हैं कि वो कैसे दिखते थे। उनके डील डौल में क्या बदलाव आया वो महज़ इतना ही देख सकते हैं, लेकिन दिखने और होने में अंतर होता है। है ना? आप सहमत हैं मेरी बात से?
शाश्वत के खो जाने का दुख शायद किसी को न हो। शायद उसकी तलाश में कभी कोई यूं भटके नहीं। शायद किसी को मालूम ही न हो कि वो खो गया है, सिवाय मेरे। मैंने उसे देखा है उम्र के हर मोड़ पर गुमशुदा होते हुए। बंद कमरों में मैंने उसे आवाज़ भी लगाई है। पुकारा है, शाश्वत-शाश्वत। लेकिन वो आया नहीं। बस एक आवाज़, श्श्श्श….आती है। मुझे चुप कराती है और मैं होंठ सी लेता हूं।
शायद खोए हुए कुछ लोग नहीं चाहते हैं कि उन्हें तलाशा जाए। वो डरते हैं कि जिस दुनिया से वो चले गए थे, वापसी पर वही उन्हें स्वीकार करेगी कि नहीं? फ़र्ज कीजिए कि अगर वो लौट आए और फिर से फ़िल्मी डायलॉग बोले, डांस करे तो पिताजी का कोई दोस्त उसे नौटंकी तो नहीं कहेगा ना? वो पिता जी से कहे कि मुझे साइंस नहीं लेनी तो पिताजी उंगली पकड़कर उसका एडमिशन आर्ट के लिए करा आएंगे? वो टिप-टॉप रहने वाले, नपा-तुला बोलने वाले प्रोफ़ेशनल इंसान की जगह बेफ़िक्री भरा व्यवहार करे तो दफ़्तर में खिल्ली तो नहीं उड़ाई जाएगी? नीति अगर उसकी बचकानी हरकतें देखे तो प्यार में स्वीकर लेगी?
मैंने भी ये सवाल इतने अचानक में पूछे कि क्या कहूं। ऐसे प्रश्नों के उत्तर में समय लगता है। मुझे ही बहुत वक़्त बाद जा कर इसका जवाब सूझा। बताऊं? अगर कभी शाश्वत वापस लौटने का मन बनाए तो मैं उससे पूछूंगा कि क्या वो ख़ुद को ऐसे स्वीकार पाएगा? उसे फ़र्क नहीं पड़ेगा कि लोग उसे कैसा देखना चाहते हैं? अगर उसका जवाब हां हुआ तो उसे वापस खींच लाउंगा। समझाउंगा कि उसे नहीं होना चाहिए इतना कमज़ोर, इतना भुलक्कड़। अगर उसके खोने में ये दुनिया ज़िम्मेदार है, तो वो ख़ुद भी है। जब पापा ने रोका, जब मास्टर ने टोका, जब अधिकारी ने बंदिश लगाई और प्रेमिका ने उसे बांधा तब उसे सहेजना चाहिए था ख़ुद को। उन्हें बताना चाहिए था। कौन जाने वो उसे गुर सिखाते कि कैसे ख़ुद को बदलते हुए भी, बचाया जा सकता है?
ख़ैर, फिलहाल का सच ये हैं कि वो कहीं ग़ायब है। बस। उसके बारे में इतनी ही जानकारी है। काफ़ी है ना? अरे, यूं शकभरी नज़रों से क्यों देख रहे हैं। मैंने ग़ायब नहीं किया है उसे। वो तो खो गया है। दुनिया के लाखों-करोड़ों शाश्वत खो गए हैं और खोते रहेंगे। ये दुनिया गायब हो चुके लोगों से भरती और खाली होती रहेगी। मेरी तरह कोई पागल आएगा और उसकी गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखवाएगा। ऐसे ही एक आदमकद आईने के सामने कुर्सी डाल कर बैठेगा। ख़ुद से बातें करेगा। सवाल-जवाब करेगा। उम्मीद भरी नज़रों से देखेगा। पूछेगा कि कैसे तलाशे ख़ुद को? ज़िंदगी की सीधी पगडंडी पर चलते हुए भी जो वो खो गया है कैसे ढूंढे ख़ुद को? कौन सी डायरेक्ट्री के पन्ने पलटे? कौन से विभाग के चक्कर काटे? कहां से पता करे वो तलाश केंद्र जो उसको ढूंढ दे?
ये मिसिंग रिपोर्ट में शिकायतकर्ता का नाम लिखा जाता है ना? मेरा नाम है- शाश्वत। और मैं ख़ुद को तलाश रहा हूं इस उम्मीद के साथ कि किस्तों में ही सही, एक रोज़ मैं ख़ुद को ढूंढ लूंगा।
Bahut sundar aur aaj ki aur bahut prhly se chali a rahi sacchai ko behad khubsurati se likha hai . Adbhut .