Monday, May 20, 2024
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रेनू मंडल की कहानी – आकांक्षाएं

पिछले तीन चार घंटे से मूसलाधार बारिश हो रही थी. काले घने मेघों ने आकाश को पूरी तरह से अपनी गिरफ्त में ले रखा था जिस कारण शाम से ही अंधेरा छा गया था. बालकनी में बैठी मैं न जाने कितनी देर से लॉन में गिरती बारिश को निहार रही थी. असमय हुए इस अंधकार से मेरा मन भी उदास हो उठा था. रह-रहकर ख्याल आ रहा था, आसमान में छाए ये बादल तो भोर होते ही सूरज की एक किरण से छँट जाएंगे किंतु मेरी ज़िन्दगी के आकाश में वर्षों से जो निराशा के बादल आच्छादित हैं जिन्होंने ज़िन्दगी की हर खुशी हर उमंग को अपने साए में कैद कर रखा है, उनके छँटने की कोई आस भी अब बाकी नहीं है. समय बहुत आगे सरक चुका है. कुछ भी तो नहीं बचा जीवन में. जब जब अपनी ज़िन्दगी की किताब के पन्ने पलटकर देखती हॅू, हर बर्क पर निराशा और वेदना की स्याही से इबारत लिखी दिखाई देती है.
कितनी उॅची अपेक्षाएं थीं मेरी. ज़िन्दगी में उॅचा मुकाम हासिल करना चाहती थी मैं. जब बड़े भइया को मेडिकल में प्रवेश मिला, तभी से मेरे मन में भी डाक्टर बनने की चाह पैदा हो गई थी. रात दिन खूब मेहनत से पढ़ाई करती. भइया का स्टैथस्कोप गले में डालकर स्वयं को आईने में निहारती तो अपने मुकाम को हासिल करने का निश्चय और भी दृढ़ हो उठता.
बाहरवीं क्लास में मैंने पापा से कहा, ‘‘बोर्ड की परीक्षा की तैयारी के साथ-साथ मैं मेडिकल की भी कोचिंग लेना चाहती हूँ.’’  पापा, मम्मी की ओर देखने लगे थे. मम्मी बोलीं थीं,  ‘‘अनीता, तुम तो जानती हो, तुम्हारे पापा पिछले महीने रिटायर हो गए हैं. अभी तुम्हारे भइया का भी मेडिकल पूरा होने में एक साल का समय शेष है. ऐसे में हम तुम्हें मेडिकल कैसे करवा सकते हैं?
‘‘यह आप क्या कह रही हैं, मम्मी? आप दोनों जानते हैं, बचपन से मैंने डाक्टर बनने का सपना देखा है.’’  ‘‘अनीता, मैं सोचता था, सर्विस में मुझे कुछ साल का एक्सटैंशन मिल जाएगा तो तुम्हें भी मेडिकल करवा दॅूगा. अब नहीं मिला तो मैं क्या करुॅ? तुम मेरी विवशता को समझो,’’  पापा कातर स्वर में बोले.
‘‘क्या समझूँ मैं आपकी विवशता को. भइया को तो आप खुशी खुशी डाक्टर बनाने के लिए सहमत हो गए किंतु जब मेरा वक्त आया तो आप दोनों इंकार कर रहे हैं. मैं बेटी हॅू न. मुझे डाक्टर बनाना आपके हित में नहीं रहेगा.’’
‘‘ऐसा मत कहो अनीता. तुम जानती हो हमने बेटे-बेटी में कभी फर्क नहीं किया,’’  मेरी बात ने पापा को आहत् कर दिया था.  ‘‘दुनिया में सिर्फ मेडिकल की ही लाईन नहीं बची है. कोई अन्य करियर भी तुम चुन सकती हो. बिजनेस मैनेजमेन्ट, टीचिंग या फिर बैंकिंग आदि.’’   ‘‘नहीं पापा, मैं सिर्फ और सिर्फ डाक्टर बनना चाहती हॅू.’’
मैं इतनी हताश हुई कि फिर मैंने पापा की किसी सलाह पर  ध्यान नहीं दिया. एम. एससी. करने के पश्चात् मेरा विवाह हो गया. जतिन, मेरे पति गम्भीर, शांत और सरल प्रकृति के इंसान थे. अपने माता पिता का वह बहुत ख्याल रखते थे और मुझसे भी उन्हें ऐसी ही अपेक्षा थी. जतिन को पाकर मैं बहुत खुश थी.
दो साल बाद मैंने एक सुंदर से बेटे को जन्म दिया. बेटे रजत के आने के बाद मैं अपनी गृहस्थी में बहुत व्यस्त हो गई. रजत धीरे धीरे बड़ा हो रहा था. जब वह स्कूल जाने लगा तो घर के काम के अतिरिक्त अब उसकी पढ़ाई के लिए भी समय देना आवश्यक था. अपनी व्यस्तता के चलते जतिन चाहकर भी मेरी मदद नहीं करवा पाते थे. उधर वृद्ध सास ससुर की देखभाल का दायित्व भी मुझपर था. कहने को तो समीप के शहर में मेरे देवर देवरानी भी रहते थे किंतु वे दोनों भूले से भी कभी मां पिताजी को अपने साथ चलने को नहीं कहते थे. यदाकदा एक दो दिनों के लिए उनसे मिलने आते और इसी में अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते थे तिस पर भी मां पिताजी हर आने जाने वाले से उन्हीं के गुणगान करते. मैं मन ही मन कुढ़ती. जतिन से शिकायत करती तो वह मुझे ही समझाने लगते,  ‘‘अक्सर मां बाप दूर रहने वाले बच्चों के मोह में पड़कर पास रहने वाले बच्चों को अनदेखा कर जाते हैं किंतु इसका यह अर्थ नहीं कि वह हमसे प्यार नहीं करते हैं. वह हमारे बड़े हैं. उनकी बातों पर बुरा मानने के बजाए पूरे मन से उनकी सेवा करो.’’  मैं मन मसोसकर खामोश रह जाती. अपना पूरा ध्यान मैंने रजत की पढ़ाई पर केन्द्रित कर दिया था.
मेरी अधूरी महत्वाकांक्षाएं अब सिर उठाने लगी थीं. अक्सर मैं उसे समझाती कि खेलकूद पर ध्यान न देकर उसे पढ़ाई में मन लगाना चाहिए क्योंकि उसे बड़े होकर डाक्टर बनना है. कभी कभी जतिन मेरे इस जुनून पर खीज उठते और कहते,  ‘‘अनीता, अपनी आकांक्षाओं को बच्चे पर मत थोपो. उसकी नींव मजबूत करो और उसे अपनी राह स्वयं चुनने दो.’’  किंतु जतिन की बातों का मुझपर कोई असर नहीं पड़ता था. किसी भी तरह मैं अपनी ऑखों के सपनों को उसकी आँखों में बसा देना चाहती थी. अपनी प्रखर बुद्धि और परिश्रम के बलबूते एक दिन रजत मेरे स्वप्न को साकार करेगा इसमें मुझे तनिक भी संदेह नहीं था.
शांत सागर सा मेरा जीवन एक निश्चित दिशा की ओर बह रहा था कि यकायक उसमें दुखों का सैलाब उमड़ पड़ा. मेरी खुशियों के एक एक कतरे को वेदनाओं की प्रचंड लहरें अपने साथ बहा ले गईं और मैं प्रस्तर प्रतिमा सी अपने साथ हुए नियति के इस क्रूर मजाक को देखती रह गई. एक दिन जतिन आफिस से लौट रहे थे कि अचानक उनकी कार का एक्सीडेंट हो गया. हास्पिटल भी नहीं पहुँच पाए वह. रास्ते में ही दम तोड़ दिया.
मेरी तो मानों दुनिया ही उजड़ गई थी. टूटकर बिखर गई थी मैं. जतिन के बिना जीने का अहसास ही मेरी रुह  कंपकंपा देता था. उनके साथ बिताए लम्हों को याद कर मैं अपने कमरे में पड़ी ऑसू बहाती रहती. एक दिन रजत रुऑसा होकर बोला था,  ‘‘मम्मी, आप रोया मत करो. मैं हमेशा आपका ख्याल रखॅूगा.’’  बच्चे के मुख से इतनी बड़ी बात सुन मैंने उसे कसकर हद्वय से लगा लिया. मां और पिताजी ने भी समझाया,  ‘‘अनीता, हिम्मत से काम लो. जो चला गया उसकी खातिर अपने बच्चे को अनदेखा मत करो. इस मासूम का अब तुम्हारे सिवा है ही कौन?  उनकी बात से मेरा विवेक जाग उठा. ठीक ही तो कह रहे थे वे दोनो. मैं कमजोर पड़ गई तो रजत का क्या होगा? मां के साथ  अब पिता का फर्ज़ भी मुझे ही निभाना था. रजत के सम्मुख सामान्य दिखने का भरसक प्रयास करती फिर भी मन में गहन उदासी छाई रहती थी जिससे उबरने के लिए मैं दुपहर में घर के समीप बच्चों के अनाथाश्रम में जाने लगी थी जहॉ छोटे छोटे बच्चों को पढ़ाकर, उनमें प्यार बॉटकर मेरे व्यथित हद्वय को कुछ सुकून मिल जाता था.
मां और पिताजी अब काफी बीमार रहने लगे थे. जतिन के न रहने पर भी मैंने अपने कर्तव्य का यथासम्भव पालन किया. उनकी सेवा में कोई कमी नहीं रखी फिर भी वे दोनों अपना अधिकतर पैसा अपने छोटे बेटे के नाम कर गए. क्यों होता है मेरे ही साथ ऐसा? हमेशा मैं ही लूज़र क्यों रहती हॅू? उनके पक्षपात्पूर्ण रवैये से मेरी आत्मा सदैव कलपती रही.
सोचते सोचते मैं अतीत से वर्तमान में लौट आई. बारिश थम चुकी थी. घर का गेट खोलकर मैं बाहर निकल आई और वॉक पर चल दी. आसमान में बादल अभी भी छाए हुए थे, बरसने को आतुर, बिल्कुल किसी जिद्दी बच्चे की तरह. रजत भी तो ऐसी ही जिद पर उतर आया था. बाहरवीं क्लास में था, जब स्कूल के वार्शिकमहोत्सव में मेरे मना करने के बावजूद हिस्सा ले रहा था. दो नाटक जिनमें एक्टिंग के साथ साथ उनका संचालन भी वही कर रहा था. रात दिन उन्हीं की प्रैक्टिस में व्यस्त रहता था. एक दिन देर शाम घर लौटा तो आड़े हाथों लिया मैंने उसे,  ‘‘रजत, यह सब क्या है? परीक्षा सिर पर खड़ी है और तुम नाटकों की तैयारी में जुटे हुए हो. अभी तक मेडिकल की कोचिंग भी लेनी शुरु नहीं की.’’
‘‘मम्मी, मैं मेडिकल नहीं वरन् मास कम्यूनिकेशन करना चाहता हॅू.’’
‘‘यह क्या कह रहे हो तुम? मैं तुम्हें हमेशा से कहती आई हूॅ कि तुम्हें डाक्टर बनना है. बहुत बड़ा डाक्टर. बचपन से आज तक मैंने तुम्हारे पढ़ने लिखने का तुम्हारी हर बात का इतना ख्याल रखा, क्या इसीलिए कि तुम ये फालतू की लाईन पकड़ो,’’  मैं बौखला उठी थी.
मेरी उत्तेजना को अनदेखा कर रजत शांत स्वर में बोला था,  ‘‘मम्मी, मास कम्यूनिकेशन फालतू की लाईन नहीं है. मैं तो आर्ट्स लेना चाहता था किंतु अपने मन की बात आपसे कह नहीं पाया और साइंस ले ली किंतु अब मैं समझ गया हॅू कि मैं इस क्षेत्र में आगे नहीं बढ़ पाउॅगा. अपनी रुचि के काम में ही इंसान उॅचाईयॉ छू सकता है. कुछ अद्भुत कर सकता है. मेरी हमेशा से इच्छा रही है कि मैं कोई रचनात्मक कार्य करुॅ, फिल्मों में डायरेक्शन या फिर कुछ और. मम्मी, डाक्टर बनने की इच्छा आपकी थी, मेरी नहीं. आप अपनी इच्छाओं को मुझपर जबरन थोपना चाहती हैं. अपने सपनों को मेरी ऑखों में बसाना चाहती हैं. पापा आपसे कहा करते थे कि यह गलत है किंतु आप कभी समझी ही नहीं.’’
रजत को समझाने का मैंने हर सम्भव प्रयास किया किंतु कोई फायदा नहीं हुआ. शायद इतिहास स्वयं को दोहरा रहा था, बस पात्र बदल गए थे. पात्रों के किरदार बदल गए थे. एक बार फिर खुशियॉ किसी मरीचिका की भांति मुझे छल गई थीं. रजत के मास कम्यूनिकेशन ज्वाईन करने पर मुझे हर चीज़ से एक विरक्ति सी हो गई थी. उसकी किसी बात में अब मेरी कोई रुचि नहीं थी. वह अपनी हर उपलब्धि मुझसे बॉटकर मुझे खुशी देना चाहता किंतु मैं तटस्थ रहती. अधूरे ख्वाब जब वास्तविकता का लिबास नहीं पहन पाते तो टीस बनकर मन को सालते रहते हैं.
एक दिन वह भी आया, जब कोर्स पूरा करके रजत मुंबई अपनी किस्मत आजमाने चला गया. मुझे अपने साथ ले जाने की उसकी इच्छा को मैंने सिरे से नकार दिया था जिस कारण जाते हुए वह बहुत उदास था. रजत के चले जाने से घर का खालीपन मुझे कचोटने लगा था. ममता मन पर हावी हो जाती तो मैं स्वयं से ही प्रश्न करती,  ‘‘क्या आवश्यकता थी मुझे रजत से कोई भी आशा रखने की? क्यों मैंने चाहा कि जैसा मैं चाहॅूगी, वह वैसा ही करेगा. आज के ज़माने में क्या श्रवण कुमार होते है?’’  किंतु अगले ही पल बुद्धि भावनाओं पर भारी पड़ जाती. नहीं बुद्धि नहीं यह मेरा अहं था जो मुझे समझाता,  ‘‘मैंने जो कुछ भी चाहा, उसी में उसकी भलाई थी. आखिर बच्चे ही तो पूरा करते हैं, मां बाप के अधूरे सपनों को.’’
इस समय भी ऐसे ही विचार मन को व्याकुल कर रहे थे. बारिश पड़ने से सड़क पर काफी फिसलन थी फिर भी मैं तेज गति से चल रही थी, पॉवों की गति ही शायद विचारों की गति को थाम ले. मन की आकुलता को शांत कर दे. अचानक ही पॉव को ठोकर लगी. मैंने स्वयं को सम्भालना चाहा किंतु सम्भल नहीं पाई. गिरते गिरते सड़क पर पड़े पत्थर से सिर टकराया और मैं बेहोश हो गई.
होश आने पर मैंने स्वयं को हास्पिटल में पाया. सिर में भयंकर पीड़ा महसूस हो रही थी. माथे पर हाथ लगाने को हुई तो पास खड़े डाक्टर ने रोकते हुए कहा,  ‘‘आंटी, हाथ मत लगाईये. आपके माथे में टांके आए हैं.’’  डाक्टर मुझे इंजैक्शन दे रहे थे. क्षीण स्वर में मैंने पूछा,  ‘‘डाक्टर, मैं यहॉ…..?’’
‘‘आप सड़क पर गिरकर बेहोश हो गई थीं. पत्थर से टकराने के कारण सिर में गहरी चोट आई थी. काफी खून बह गया था. वह तो भला हो इन दोनों लड़कों का जो समय से आपको हास्पिटल ले आए. देर हो जाती तो पता नहीं क्या होता?’’
मैंने गरदन घुमाई. मेरे बैड के र्दाइं ओर दो लड़के खड़े थे.  ‘‘बेटे, मैं तुम्हारी शुक्रगुज़ार हॅू, मुझ अजनबी की तुमने मदद की.’’
उनमें से एक लड़के ने मेरे हाथ को अपने हाथ में लेकर अपनत्व से कहा,  ‘‘आप हमारे लिए अजनबी नहीं हैं. आप तो हमारी मौसी हैं. आप शायद हमें पहचानी नहीं. मैं सुनील हॅू और यह करन. सड़क पर देखकर हम तुरंत आपको पहचान गए थे.’’
मेरी ऑखों में असमंजस के भाव देख वह बोला,  ‘‘मौसी, आपको याद नहीं, कई  वर्श पूर्व विवेकानंद आश्रम में आप हमें पढ़ाया करती थीं. उन दिनों हम बहुत शरारती हुआ करते थे. आपने हमें अनुशासन में रहना सिखाया. हमें शिक्षा का महत्व समझाया. आपके आशीर्वाद से आज हम दोनों अपने पैरों पर खड़े हैं.’’  करन बोला,  ‘‘मौसी, हमें पता है, आप आजकल अकेली हैं. जब तक आप ठीक नहीं हो जातीं, हम आपके साथ हैं.’’
उनकी बातें सुनकर मैंने नेत्र मूंद लिए. ह्रदय में एक अनिर्वचनीय सुख की अनुभूति हुई. बहुत समय तक मैं अनाथाश्रम के बच्चों को पढ़ाती रही थी किंतु मैंने कभी अपेक्षा भी नहीं की थी कि एक दिन मेरे मुश्किल वक्त में ये बच्चे मेरे काम आएंगे. मेरी आँखों से अविरल आंसू बहने लगे. आज मुझे समझ में आ रहा था कि जीवन में निःस्वार्थ भाव से किए गए अच्छे कर्म कभी व्यर्थ नहीं जाते और किसी भी प्रकार से फलीभूत अवश्य होते हैं.
वर्षों से मैं गीता पढ़ रही थी किंतु यह मेरी दिनचर्या मात्र थी. उसकी गहराई में मैं कभी उतर नहीं पाई थी. उसके सार को कभी आत्मसात् नहीं कर पाई थी. दरअसल गीता पढ़ने और उसे अपने जीवन में उतारने में जमीन आसमान का अंतर होता है. बिरले ही कर पाते हैं ऐसा. उम्र एक एक सीढ़ी चढ़ आगे बढ़ती रही और मैं उसके हर पड़ाव पर अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति की आस संजोए खड़ी रही और जब नाकामियां हाथ लगीं तो जीवन की उन ठोकरों से कभी कुछ सीख नहीं पाई किंतु आज…….आज शरीर पर लगी एक मामूली सी चोट ने ही मेरे अन्तर्मन में ज्ञान की रोशनी पैदा कर दी.
आज इतने वर्षों बाद मुझे समझ में आ रहा था कि मैंने अपनी महत्वाकांक्षाओं के आकाश को सीमा से अधिक विस्तार दे दिया था. जिन परिस्थितियों को मैं अपनी पीड़ा का आधार मान बैठी थी, उनमें दुख करने जैसा कुछ था ही नहीं. अपने मां बाप की विवशता को समझ मैं अपने जीवन को नए आयाम दे सकती थी और प्रसन्न रह सकती थी. व्यर्थ ही अपने सास ससुर के व्यवहार को याद कर अपने मन को दुखी करती रही. निराशा की गठरी को सिर पर लादे अंधकार में भटकती रही. क्या हासिल कर पाई इससे?
उस पल मेरी नज़रों में रजत का चेहरा कौंध रहा था और मुझे समझ में आ रहा था कि हर इंसान का अपना अलग व्यक्तित्व होता है. इच्छाएं अलग होती हैं. उसके सपने अलग होते हैं. जीवन का उद्वेश्य अच्छा इंसान बनकर कामयाबी हासिल करना है. कामयाबी जिसमें उसकी खुशियॉ निहित हों. मेरा बेटा इतना अच्छा इंसान है. मेरे प्रति इतना संवेदनशील. मात्र इस वजह से कि उसने मेरी अपेक्षानुसार अपने जीवन की राह नहीं चुनी, मैंने उसे सहारा नहीं दिया और स्वयं भी तो पुत्रसुख से वंचित रही. मेरे हद्वय में हूक सी उठी. मन में भावनाएं उमड़ने घुमड़ने लगीं. यकायक मेरा मन रजत से मिलने को व्याकुल हो उठा. कितने दिन हो गए थे, उसे देखे हुए.
तभी मेरे मोबाइल की घंटी बज उठी. सुनील ने फोन मेरे कान से लगाया.  ‘‘मम्मी, रजत बोल रहा हॅू. आज सुबह से ही आपकी बहुत याद आ रही थी. मैं कल आपको अपने साथ ले जाने आ रहा हॅू. जानती हो मां, मुझे आपकी कितनी चिन्ता लगी रहती है. अपना काम भी ठीक से नहीं कर पाता हॅूं.’’
भावुकता के क्षणों में सदैव उसके मुख से मम्मी के बदले मां निकलता था. आनंदातिरेक में मेरी ऑखें बरस पड़ीं. व्याकुल हद्वय में अलौकिक सुख की प्रतीति हो रही थी.  ‘‘मैं चलूॅगी मेरे बच्चे,’’  रुंधे कंठ से मेरे मुख से निकला.
रात्रि का अंधकार दूर होने में अभी विलम्ब था किंतु मन का अंधकार मिट चुका था. जीवन का क्षितिज सूर्य की रश्मियों से आलोकित हो उठा था.

रेनू मंडल
संपर्क – renu2712@hotmail.com
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2 टिप्पणी

  1. बहुत अच्छी कहानी..महत्वाकांक्षा जीवन में बडे तूफान भी ले आती है.यदि परिस्थितियां अनुकूल न हो और मनुष्य विवेक से काम न ले.जीवन में संघर्ष है तो आत्मबल भी ..बहुत खूब. हार्दिक बधाई

  2. बहुत अच्छी कहानी महत्वकांक्षा की मृग मरीचिका से बाहर आने की राह दिखाती। साथ ही माता-पिता को दिशा देती। हार्दिक बधाई।

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