वह आलमारी का पल्ला खोल कर हैंगर पर टंगी अपनी साड़ियों को देख रही थीं | हल्के- हल्के रंगों की सिल्क, कोटा, हैंडलूम की साड़ियाँ | कोई बार्डर की प्लेन साड़ी तो कोई प्रिंटेड और कोई पूरी प्लेन | सब पर साड़ी से मिलते ब्लाउज़ ,पेटीकोट | सब साडियों को छूती सहलाती  सोचती हैं क्या पहनूँ आज ? निवि ने तो कल ही कह दिया था कि अम्मा ! कल हमारी किटी पार्टी है | गाना और नाच भी होगा, आप भी बैठिएगा : अच्छा लगेगा आपको | और हाँ ! अच्छी सी कोई साड़ी पहनिएगा | पर कल हमने ध्यान ही नहीं दिया |
अब क्या करें ? निवि ..! रसोई में व्यस्त निवि को आवाज लगाती वह सलेटी रंग की लाल बार्डर कि लिनेन साड़ी लेकर बिस्तर पर बैठ गईं |
हाँ अम्मा ….
ये साड़ी ठीक है ?
“यस्स …आपके ऊपर तो ये और भी फबती है—-साड़ी को उनके ऊपर डालती निवि हंसी |
“पर लाल …. बार्डर …..कोई कुछ ….”
“नहीं ! कोई कुछ नहीं कहेगा | और यदि कोई कुछ कहता है तो अपने घर कहेगा | कहने दीजिए…आप इसी को पहनिए | निवि ने साड़ी अम्मा के कंधे पर सजा कर डालते बच्चों की तरह गाल थपथपा दिया | साड़ी लेकर वह अपने बड़े से बेड पर बैठ गईं | सोचने लगीं …नदी के पानी सा समय बरस – बरस करता कितनी दूर निकल आया कुछ याद ही नहीं ? खेत की घास से बने गुड़िया गुड्डा , उनका ब्याह , सौ गोट्टियों से गुट्टक खेलना सब आज , कल सा ही तो लगता है … सहेलियों की शादी , उनका ससुराल से आया गहना और मेरी शादी में कुछ न आने से मेरा दुख , मेरा गुस्सा सब तो आज भी याद में वैसे ही है ….
बस्स समय खिंच गया है ..
निवि कहती है हमारा समय अंग्रेजों का समय था | उन्हीं का राज था हमारे देश पर | पर हमें तो कुछ पता ही नहीं  ? न कभी अंग्रेज़ देखा न राज | हम तो गाँव में रहकर अपने गाँव को ही पूरा न देख पाये न जान पाए | बस ! खाना , नहाना घर में रहना और काम | यही जीवन का हिस्सा था | फिर ब्याह कर ससुराल आए तो वहां और भी बंधन …..
सारा जीवन ऐसे ही तो कटा |
कभी नहीं जाना इस जीवन में कोई हिस्सा हमारा भी है ? तो जब वही हमारा नहीं तो साड़ी … कपड़ा ….
पर एक कसक हमेशा रही कि शिवम के बाबूजी अपने मन से एक धोती लाते | लाकर पहनाते | हमें देखते …कुछ कहते …पर कभी कुछ नहीं हुआ …पूरा जीवन नैहर से मिली तीज – त्योहार , शादी – ब्याह की साड़ी में कट गया | बाद का निवि के कारण …
उम्र कितनी दूर निकल आयी अपनी पूरी क़तर – व्योंत के साथ …| आज आलमारी सजी है पर उमर कितनी दूर निकल गई ….
“अम्मा ! जल्दी नहा लीजिए …
सोच का जाल तोड़ वह साड़ी उठाकर बाथरूम में घुस गयीं | फियामा साबुन का झाग बनाती , कुछ देर सूंघती रहीं | उसका सुंदर रंग देखती रहीं फिर जरा सा जीभ पर लगा कर बाथरूम के एकान्त में हंस पड़ी | इतना सुंदर रंग – झाग है पर कितना कड़वा… “
नहा कर पूजा किया | बाल सँवारे | फिर कमरे में रखे पेठे में से एक मुंह में डालती रसोई में आ गयीं |” श्यामा पानी देना “ | 
निवि कहां गयी …..
“अम्मा जी , दीदी कपड़ा बदलने गई | अभी सब मैडम जी आ रही हैं न …श्यामा ने अपनी समझ अम्मा को दिखाई |
“आज क्या पहन रही निवि ? “बन्द दरवाजे के बाहर से आवाज लगाती वह वहीं खड़ी हो गईं “आज वन पीस पहनना है अम्मा …..
वन पीस … यह क्या है ? सोचती कमरे में चली आयीं | अपने भगवान को देखा , हाथ जोड़ा और आंखें बंद कर बेटे – बहु को आशीषों से भर दिया | बिस्तर पर लेट फिर वर्षों पीछे भटक गयीं जहां हल्के साँवले रंग की निवि उन्हें कभी अच्छी नहीं लगी न अच्छा लगा कोई गुण | और उसकी पढ़ाई का तो कोई मूल्य ही नहीं था उनके लिए | वह तो ऐसी गोरी चिट्टी लड़की चाहती थीं जो उनके घर को उजियारे से भर दे | घर खानदान में उनका घमंड ऊपर कर दे | पर सब गलत  हुआ | इसलिए न उन्हे निवि की हंसी अच्छी लगती न उसका गुण | हाँ चाह के भी वह निवि को कभी गलत नहीं कह पाती क्यूंकि हर समय निवि उनके साथ हँसती खड़ी रहती |
उनके बच्चों से कहीं अधिक | 
“कितनी गहरी चोट थी जब दरवाजे का मोटा लकड़ी का हत्था कमर पर गिरा था | असह्य दर्द था पर कोई सुनने समझने वाला नहीं | किसी ने नहीं पूछा मेरा क्या हुआ ? ये तो सीधे बोल दिए  “ औरतों को तो ऐसी चोट लगना आम बात है , काम – धाम करते रहो सब ठीक हो जाएगा | छोटा सबसे दुलारा तो बड़ा हो ही नहीं पाया ? उसे न अम्मा का दुख दिखता न चोट | शिवम बाहर ही रहता ….समझा था निवि ने !  रक्षा – बंधन के बाद माँ के घर से लौटी निवि ने चेहरा देखते ही पहचान लिया और जुट गई हमे ठीक करने में |
कैसे पहचाना इसने ? 
जिस दर्द को न बेटा समझा न आदमी उसे इसने घर में घुसते ही पहचान लिया ? न हमारी जन्मी न हम उसे पसंद करते फिर कौन सी डोरी से वह जुड़ी रही कि दूसरे दिन ही फरमान जारी कर दिया “ अम्मा को डॉक्टर के पास ले जाना है ….उस दिन बहुत अच्छा लगा , लगा हम भी कुछ हैं | कोई हमे भी सोचता है..| 
कितना अच्छा लगा था जब सरपट भागते रिक्शे के साथ खेत , नहर , बकरी – गाय सब भाग रहे थे और हमारे मुंह में कटबरी ( कैटबरी ) पिघल रही थी…धीरे – धीरे ….अम्मा की आँख में कैटबरी के भूरे रंग के साथ…पृथ्वी भागने लगी …आकाश उड़ने लगा और उड़ने लगी सलेटी रंग की लाल बार्डर वाली साड़ी | आज निवि की वर्षों से थामी उंगली हांथ से छूट गई और अम्मा एक स्वप्निल जमीन के टुकड़े पर आकर खड़ी हो गई जहां ढ़ोल – मजीरा – झांझ के साथ गीत गाया जा रहा था “ पिया फैशन करा  दो मनमानी , मैं जानी कि तुम जानी ….उम्र की सलवटें समेटे अम्मा मोटा पाजेब बांधे धीरे – धीरे महावरी पैर नाचने के लिए बाहर निकाल ही रही थीं कि आवाज़ ने चौंका दिया “ अम्मा , तैयार हो गईं ….
पाजेब के घुंघरू छन्न से बिखर गए “ हाँ बस हो ही गए |
और उस दिन किट्टी में अम्मा, निवि की सहेलियों के साथ, सच में खूब नाचीं |
गाना बजता रहा …सजनिया के मन में अभी इंकार है / जाने बलमा घोड़ी पे क्यूँ सवार है…

रेणुका अस्थाना
भिवाड़ी – राजस्थान
एक कहानी संग्रह- कालिंजर– सन 2018 में प्रकाशित जिसे 2019 का ‘अखिल भारतीय अंबिका प्रसाद दिव्य स्मृति’ प्रथम पुरस्कार मिला साथ ही 2021 में पुष्पगंधा पत्रिका द्वारा आयोजित राष्ट्रीय – अंतर्राष्ट्रीय कहानी प्रतियोगिता में “कर्स्ड आइडल “ कहानी को प्रथम पुरस्कार मिला| कादम्बिनी, नवनीत, कथा क्रम, वर्तमान साहित्य, साहित्य अमृत, दैनिक जागरण के पुनर्नवा, साक्षात्कार, निकट, मधुमती जैसी कई पत्रिकाओं में कई कहानियाँ प्रकाशित|
मोबाइल नंबर –9982448126

3 टिप्पणी

  1. आपने एक कहानी को बड़े सरल शब्दों में बड़े ही मार्मिक ढंग से लिखा है एक सच्चे लेख को एक सच्चे लेखक ने है।
    अनेक अनेक शुभकामनाएं और धन्यवाद जी।

  2. “लाल बॉर्डर वाली साड़ी” साड़ी के बहाने रेणुका जी ने गई सदी के स्त्री जीवन की निरिहता और उसके प्रति लोगों का निर्मोहिपन मार्मिकता से लिख दिया है। सुन्दर भाषा सुंदर कथ्य। बधाई लेखिका को

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