Friday, October 4, 2024
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शिक्षक से संवाद : नई शिक्षा नीति से देश में देशज ज्ञान की प्रतिष्ठा होगी – प्रो. चंदन कुमार

प्रो. चंदन कुमार

पुरवाई की ‘शिक्षक से संवाद’ साक्षात्कार शृंखला की पाँचवी कड़ी में आज दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में आचार्य प्रो. चंदन कुमार से हमारे प्रतिनिधि पीयूष कुमार दुबे ने बातचीत की है। चंदनजी दिल्ली विश्वविद्यालय के उत्तरी एवं दक्षिणी परिसर में उपअधिष्ठाता, छात्र कल्याण के दायित्व का निर्वहन कर चुके हैं। साथ ही, आप दिल्ली विश्वविद्यालय के सुप्रतिष्ठित सत्यवती महाविद्यालय में प्राचार्य भी रहे हैं। इसके अतिरिक्त विश्वविद्यालय की अनेक समितियों में भी आप महत्वपूर्ण पदों पर रहे हैं। आपकी अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। आपकी सद्यः प्रकाशित पुस्तकें ‘श्रीमंत शंकरदेव: जीवन और दर्शन’ और ‘सिख दर्शन : सनातन का सातत्य’ खूब चर्चा में रही हैं। इस बातचीत में चंदनजी ने दिल्ली विश्वविद्यालय को लेकर अपने अनुभवों, हिंदी नाट्य लेखन, नई शिक्षा नीति, मार्क्सवादी विचारधारा, पूर्वोत्तर में बदलाव आदि विविध विषयों पर खुलकर बात की है। प्रस्तुत है

प्रश्न – नमस्कार सर, पुरवाई से बातचीत में आपका स्वागत है। मेरा पहला प्रश्न है कि अपनी अबतक की जीवन-यात्रा को आप कैसे देखते हैं ?
प्रो. चंदन कुमार – मूलतः मैं बिहार के भोजपुरी क्षेत्र का रहने वाला हूँ। लेकिन मेरी शिक्षा-दीक्षा पूर्व बिहार, जो अब झारखंड भी है, के विभिन्न शहरों में हुई। मेरे पिता बिहार सरकार में अधिकारी थे, तो जहां-जहां उनकी पदस्थापना होती थी, वहीं हमारी शिक्षा भी होती थी। लेकिन दसवीं के बाद पटना में पढ़ाई हुई। पटना कॉलेज से इंटरमीडिएट यानी बारहवीं की पढ़ाई हुई। फिर यहाँ दिल्ली विश्वविद्यालय के किरोड़ीमल कॉलेज से स्नातक, स्नातकोत्तर किया तथा दिल्ली विश्वविद्यालय से ही एम.फिल. और पीएच.डी. भी हुई। कुल यात्रा यही रही है।    
प्रश्न – मेरी जानकारी के अनुसार, आपने 1996 में एम.फिल. पूरा किया और इसी वर्ष ज़ाकिर हुसैन महाविद्यालय में सह-आचार्य के रूप में अध्यापन करने लगे।  क्रमशः बढ़ते हुए आज आप आचार्य हैं। 1996 से अबतक के इस दौर में आपने दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्ययन-अध्यापन को लेकर किस तरह के बदलावों का अनुभव किया है ?
प्रो. चंदन कुमार – जब मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाना शुरू किया उस समय मेरी उम्र साढ़े बाईस साल के आसपास थी। एम.फिल. करने के दौरान ही मुझे दिल्ली विश्वविद्यालय के ज़ाकिर हुसैन महाविद्यालय में सह-आचार्य के रूप में सेवा का अवसर मिल गया था। ज़ाकिर हुसैन महाविद्यालय की सांध्य पाली में मैं कक्षा लेता था। वहाँ उन दिनों स्नातकोत्तर की भी पढ़ाई होती थी। राजनीति विज्ञान, दर्शनशास्त्र और हिंदी, इन तीन विषयों में नामांकन होता था और कक्षाएं चलती थीं। नामांकन की शर्त यह थी कि आप सरकारी नौकरी में हों। मैं वहाँ कक्षा लेता था और मुझसे दुगुनी उम्र के लोग पढ़ने आते थे। अपना अनुभव कहूं, तो उस महाविद्यालय में काम करते हुए सीखने का मौका तो मिलता ही था, एक दबाव भी रहता था कि तैयारी करके जाना है, क्योंकि उम्रदराज और पढ़े-लिखे लोग कक्षाओं में आ रहे हैं। ऐसे लोगों के बीच आप कोई ऐसी बात नहीं कह सकते जिसकी तथ्यात्मकता प्रश्नांकित हो। उस प्रक्रिया में मैंने अध्यापन तो किया ही, अध्ययन भी किया। इसके पश्चात् मैं दिल्ली विश्वविद्यालय में उप-अधिष्ठाता, उत्तरी परिसर की भूमिका में आया। फिर उप-अधिष्ठाता, दक्षिणी परिसर की भूमिका में भी रहा। तत्पश्चात सत्यवती कॉलेज में प्राचार्य हुआ। फिर दिल्ली विश्वविद्यालय के कला संकाय में आचार्य की भूमिका में आया। 
अब जहां तक बदलावों की बात है, तो हर वर्ष नए-नए विद्यार्थी आते हैं और इस पेशे में रहने का एक लाभ यह है कि जो विद्यार्थी आते हैं, वे कई बार हमसे बेहतर ढंग से सूचनाओं से सुसज्जित होते हैं। हाँ, तब स्मार्टफोन और इंटरनेट का दौर नहीं था, इसलिए विद्यार्थियों के पास कम सूचनाएं होती थीं और इस कम सूचना व मोबाइल के न होने का एक तरह से लाभ यह था कि उनमें बहुत भटकाव नहीं होता था। अपनी एक चिंतन-प्रणाली होती थी। जब वे कक्षा में होते थे, तो कक्षा में ही होते थे। आज की तरह रील बनाने, ह्वाट्स एप चलाने आदि का आकर्षण न होने के कारण तब के विद्यार्थियों में एक स्थिरता भी थी। यूं तो पुस्तकों का महत्त्व हर समय में रहा है, लेकिन तब ज्ञान का एकमात्र माध्यम पुस्तक ही थी, इसलिए पुस्तकालयों में विद्यार्थी दिखते थे। अब बहुत सारा ज्ञान इंटरनेट के माध्यम से ऑनलाइन उपलब्ध है, तो विद्यार्थी कम से कम पुस्तकालय में जाते हैं। यह एक बदलाव आया है। दूसरा, जब मैं दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ने आया तो मेरी उम्र सोलह-सत्रह साल के करीब थी। उस उम्र से अभी तक अपना जीवन दिल्ली-केंद्रित और विश्वविद्यालय-केंद्रित रहा है। इस दौरान विश्वविद्यालयों में कई तरह के बदलाव देखने को मिले हैं। विचारधारा को लेकर बदलाव देखने को मिले; जैसे कि अब विचारधारा करियर है, तब एक चिंतन-प्रणाली का हिस्सा थी। विद्यार्थियों में भी एक अगंभीरता तो आई ही है। फिर भी कुछ विद्यार्थी जरूर पढ़ने-लिखने वाले हैं, हर समय में रहे हैं; लेकिन यह भी सच है कि हर पुराने समय को नए समय से अपने किस्म की शिकायतें भी रहती हैं। कुल मिलाकर यही सब बदलाव दिखते हैं। 

प्रश्न – दिल्ली विश्वविद्यालय एक ऐसा शिक्षण संस्थान है, जहां पढ़ने वाला छात्र यहाँ से जाने पर भी विश्वविद्यालय का कुछ हिस्सा अपने भीतर लेकर जाता है। दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रति उसके  वर्तमान और पूर्व, सभी छात्रों में एक अलग ही जुड़ाव दिखाई देता है। आपने भी अपनी पूरी उच्च शिक्षा दिल्ली विश्वविद्यालय में ही ग्रहण की है तथा लगभग ढाई दशकों से यहीं अध्यापन भी कर रहे हैं।  सो हम आपसे समझना चाहेंगे कि वो क्या चीज है जो इस विश्वविद्यालय का इसके छात्रों संग एक अनूठा और अटूट संबंध जोड़ती है ?
प्रो. चंदन कुमार – मुझे लगभग सत्ताईस वर्ष हो गए इस विश्वविद्यालय में पढ़ाते हुए और जिन शिक्षकों से हमने शिक्षा ग्रहण की वो बड़े नैतिक किस्म के और जुझारू लोग थे। वे बहुधंधी लोग नहीं थे। मैं कुछ लोगों को याद करना चाहूँगा। डॉ. सत्यपाल चुघ हम लोगों को पढ़ाया करते थे। तब मेट्रोपोलिटन काउंसिल हुआ करती थी और वे दो बार मेट्रोपोलिटन काउंसलर रहे थे यानी आज के शब्दों में कहूं तो वे दो बार विधायक रहे थे। लेकिन समय पर कॉलेज आना, कक्षा लेने के प्रति गंभीर रहना, विद्यार्थियों के साथ संवाद करना ये सब उनकी विशेषता थी। मेरे एक और शिक्षक थे – डॉ. महेंद्र कुमार जी। वे हम लोगों को मध्यकाल पढ़ाया करते थे। पूरी जिंदगी हमने उनको स्कूटर पर चलते देखा। जब वो किसी से खुश होते तो स्कूटर पर पीछे बिठा लेते। विद्यार्थियों से ढंग की बातचीत किया करते थे। कहने का आशय यह है कि तब लोग राजनीति में सक्रिय रहते हुए भी, बहुत ज्यादा राजनीतिक नहीं होते थे और विद्यार्थियों के प्रति क्षेत्र-जाति-वर्ग आदि को लेकर कोई आग्रह-दुराग्रह नहीं रखते थे। मैं तो कहूंगा कि जिन लोगों से हमने पढ़ा वो अपनी विधा में देश के सर्वोत्तम शिक्षक थे। चीजों के बदलने के बाद, जो एक ख़ास किस्म की राजनीति हिंदी क्षेत्र में सक्रिय हुई, उसका दुष्परिणाम विश्वविद्यालयों पर भी पड़ा। अब विद्यार्थियों के अंदर भी और विद्यार्थियों में से जो शिक्षक निकले उनके अंदर भी कई तरह के आग्रह-दुराग्रह पनपे हैं। पढ़ने-लिखने के प्रति रुचि विद्यार्थियों में भी कम हुई है और आचार्यों में भी। लेकिन इन सबके बावजूद एक चीज ऐसी है, जो दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ने वाला हर विद्यार्थी महसूस करता है और वह है आचार्यों से संवाद की सहजता। यहाँ संवाद के जितने अवसर आपको मिलते हैं, अन्यत्र शायद ही मिलेंगे। आप देश में कहीं भी जाते हैं, यह चीज आपके व्यक्तित्व का हिस्सा बनकर साथ जाती है। आपके लिए वह (शिक्षक) एक मानक और मानदंड भी होते हैं कि हमें उनके जैसा ही बनना है। इसके अतिरिक्त यह भी दिल्ली विश्वविद्यालय को खास बनाता है कि यहाँ आपको एक्सपोजर बहुत मिलता है। देश के विभिन्न प्रांतों, विभिन्न भाषाओं के लोग अपनी-अपनी स्थानीयता को छोड़कर यहाँ आते हैं और ‘एक भारत’ आपको दिखता है। इससे भाषा के स्तर पर, भोजन के स्तर पर, पहनावे के स्तर पर, सांस्कृतिक संवाद के स्तर पर आपके व्यक्तित्व में कुछ ऐसी चीजें जुड़ जाती हैं कि आप जो यहाँ आने से पहले थे, वो आने के बाद नहीं रहते। आपके कई आग्रह-दुराग्रह खत्म होते हैं। देश के विभिन्न हिस्सों से आपका परिचय और प्रेम बढ़ता है। दिल्ली विश्वविद्यालय इस रूप में आपके व्यक्तित्व-निर्माण की एक प्रयोगशाला के रूप में स्थापित है।            
प्रश्न – हिंदी नाटकों पर आपने विशेष रूप से काम किया है।  भारत में नाट्य लेखन और मंचन की समृद्ध परंपरा रही है।  लेकिन क्या ऐसा नहीं लगता कि आज कहानी-कविता और उपन्यास की भीड़ में साहित्य-सृजन से लेकर अध्ययन-अध्यापन तक ‘नाटक’ जैसी सक्षम विधा हाशिये पर चली गई है ? यदि ऐसा है, तो इसका कारण क्या है ?
प्रो. चंदन कुमार – हिंदी क्षेत्र में नाट्य लेखन की परंपरा आपको भारतेंदु से मिलती है। यह जानना बड़ा रोचक है कि हिंदी में नवजागरण की शुरुआत काशी और नाटक की केंद्रीयता में होती है। काशी उसका प्रमाण क्षेत्र बनता है। खुद भारतेंदु नाटक लिखते हैं और खेलते भी हैं। जयशंकर प्रसाद की परंपरा आती है। उसके बाद हिंदी में लक्ष्मीनारायण लाल से लेकर जगदीशचंद्र माथुर तक की एक लंबी परंपरा है। साठ के दशक तक नाटक दिखते हैं। इसके बाद अचानक से लगता है कि हिंदी क्षेत्र से नाटक खत्म हो गए। 
नाटक और अन्य साहित्यिक विधाओं में एक अंतर है। अन्य साहित्यिक विधाएं पाठ्य हैं, नाटक दृश्य है और इसकी दृश्यता इसकी प्रभाव-क्षमता को समृद्ध करती है। हिंदी क्षेत्र का दुर्भाग्य रहा कि साठ के बाद साहित्य, कला, संस्कृति दिल्ली की केंद्रीयता में विकसित होने शुरू हो गए और हिंदी का अपना सांस्कृतिक रंगमंच अवांतर कारणों से राजनीतिक रंगमंच हो गया। इस दौरान इप्टा, जो सीपीआई का ऑर्गनाइजेशन था, एक बहुत बड़े रंगमंचीय आंदोलन के रूप में सक्रिय रहा, जिसके प्रभाव में दिल्ली की रंगमंचीयता एक विचारधारा की रंगमंचीयता हो गई और उस विचारधारा ने सत्ता संस्थानों द्वारा पोषित मूल्यों को बढ़ावा दिया। इसका उन्हें लाभ भी मिला। सरकारी अनुदान मिले और सरकारी संस्थाओं में उनकी दखल रही। लेकिन इसका घाटा एक विधा के रूप में नाटक को हो गया। जिस विधा को भारतीय समाज की विधा होना था, वो एक राजनीतिक विचार की विधा हो गई। नए लोग निकलकर नहीं आए और हिंदी में नाट्य लेखन कालांतर में एक कमजोर विधा के रूप में देखने को मिला। साठ के दशक के बाद यदि आप देखें तो दया प्रकाश सिन्हा जैसे एक-दो नाटककारों का ही नाम सुनने में आता है। नाटक के कमजोर होने का एक अन्य कारण भी रहा वो ये कि हिंदी क्षेत्र में रंगमंचीय सुविधाएं उपलब्ध नहीं थीं। मैं बहुत स्पष्ट ढंग से कहूं तो हुमायूँ कबीर जब शिक्षा मंत्री थे, तब उन्होंने रवीन्द्र रंगालय करके जगह-जगह जो संस्थाएं बनाईं, उसके बाद आने वाली अधिकांश सरकारों के एजेंडे में रंगमंच के लिए सुविधाएं उपलब्ध कराना नहीं रहा। जब आप रंगमंच के लिए सुविधा नहीं देंगे, नाटककार को एक खास विचारधारा या राजनीतिक संगठनों में शामिल होने पर ही उन्नति की आशा रहेगी, तो अंततः समाज में विधा के रूप में उसकी स्वीकार्यता कम ही होगी और कम लोग निकलकर आएंगे। यही हुआ भी। हालांकि इस दौरान कुछ अच्छे लोग भी निकलकर आए, जिन्हें या तो उस रंगमंच ने या सत्ता संस्थानों ने पोषित किया था। 
बहरहाल, मुझे लगता है कि हिंदी क्षेत्र की अपनी जो रंगमंचीय परंपरा है, जैसे कि रामलीला, रासलीला, पांडवानी, नाचा, बिदेसिया आदि, उसका भी संरक्षण होना चाहिए था और साथ ही साथ उसकी प्रतिच्छवियां हिंदी रचनात्मकता में दिखनी चाहिए थीं। दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ। लेकिन समय बदला है, तो ऐसा मान सकते हैं कि अब इस दिशा में भी कुछ अच्छी चीजें होंगी।                   
प्रश्न – बात नाटकों की हो रही है, तो साहित्येतिहास के एक बहुचर्चित विषय पर चर्चा करना उचित लगता है कि महान लेखक जयशंकर प्रसाद के नाटक पाठ की दृष्टि से जितने श्रेष्ठ माने गए, मंचन की दृष्टि से उनपर आलोचकों ने उतने ही प्रश्न भी खड़े किए हैं। मंचन के लिहाज से उन्हें दुरूह माना जाता रहा है। आपके विचार से क्या आलोचकों की यह धारणा वास्तव में उचित है अथवा इसके पीछे कुछ और कारण रहे हैं ? 

प्रो. चंदन कुमार – देखिये, प्रसाद जी के नाटकों को लेकर कई तरह के तर्क चले। एक तो यह कहा गया कि उनके नाटक रंगमंच के अनुकूल नहीं हैं, क्योंकि उनका वितान बहुत बड़ा और ऐतिहासिक है। लेकिन अब तकनीकी ने इस समस्या का समाधान कर दिया है। 
प्रसाद जी की अपनी धारणा रही। उन्होंने कहा – “मैं अपने नाटकों के अनुरूप दर्शकों का संस्कार चाहता हूँ, दर्शकों के अनुसार अपना नाटक नहीं बनाना चाहता।” प्रसाद जी जिस समय और कालखण्ड में लिख रहे थे उस समय और कालखण्ड का एक सपना था – भारत-भाव की प्रतिष्ठा। प्रसाद जी के नाटक अमूमन उस भारत-भाव की निर्मिति का माध्यम हैं। 
जो ये कहा गया कि प्रसाद जी के नाटक मंच के लिए कठिन हैं, वो कई बार हमारे निर्देशकों की अपनी क्षमता को भी प्रतिबिंबित करता है। प्रसादजी के नाटक खूब मंचित हुए हैं और समय-समय पर उनके नाटकों की लोकप्रियता का अपना आयाम भी बना है। यह कहना कि प्रसाद जी के नाटक मंचन के लिए कठिनाई उत्पन्न करते हैं, एक किस्म का सरलीकरण है। मैं ऐसा मानता हूँ कि प्रसाद जी के नाटक हिंदी रंगमंच की सीमा और संभावना दोनों के प्रतीक हैं।   
प्रश्न – हिंदी के क्षेत्र में लेखन से लेकर अध्ययन-अध्यापन तक पर एक समय के बाद से मार्क्सवादी विचारधारा का खासा प्रभाव रहा है।  विचारधारा पर आधारित साहित्य लिखा गया और उसीपर आधारित आलोचना भी हुई।  इस स्थिति ने हिंदी भाषा-साहित्य को किस रूप में प्रभावित किया ? और क्या अब इसमें कुछ बदलाव आया है ?
प्रो. चंदन कुमार – पीयूष जी, साठ से नब्बे तक विश्वविद्यालयों में मार्क्सवाद एक करियर के रूप में था। समझदार आदमी बेहतर संभावनाओं की ओर जाता है, तो अपने समय के प्रतिभाशाली लोग इस विचार में दीक्षित भी हो गए। बहुत स्पष्ट रूप से कहूं, तो कांग्रेस ने राजनीतिक मैदान अपने लिए रखा और विश्वविद्यालयों का मैदान वामपंथियों के लिए छोड़ दिया। यह तो स्थिति थी। अतः जब कुछ प्रतिभाशाली लोग मार्क्सवाद की ओर आए तो भले ही उनकी आस्था इस विचारधारा में नहीं रही हो, लेकिन उन्होंने अपने अध्ययन से इस विचारधारा को भी समृद्ध किया। 
खैर! चीजें बदली हैं, पर एक पेंच है। राजनीतिक सत्ताएँ कुछ वर्षों के लिए होती हैं, लेकिन ज्ञान की सत्ता की उम्र बहुत बड़ी होती है। वैचारिकी समाज विज्ञान, मानविकी या कला चाहें जहां ज्ञान के रूप में स्थापित हो, वो एक गहन बौद्धिक अभ्यास की मांग करती है। मैं बहुत स्पष्ट तरीके से कहूँगा कि दुर्भाग्यवश उस विचार (मार्क्सवाद) के विकल्प के रूप में जो लोग आए हैं, वे लोग अपनी एक नई वैचारिकी या उस विचार का एक प्रतिपक्ष बनाने में अभी सफल नहीं दिखते। संभव है कि समय निकले, कुछ नए लोग आएं और एक नए किस्म की वैचारिकी निर्मित हो, जो देश की अपनी जमीन से उपजी हुई हो। 
मार्क्सवाद का एक दुर्भाग्य यह रहा कि उसने अपनी घृणा के कुछ चिन्ह विकसित कर लिए और विश्वविद्यालयों में इस घृणा के कुछ प्राथमिक चिन्ह थे – धर्म यानी पुरोहित, वैद्य यानी भारतीय चिकित्सा पद्धति और गुरु। इन तीनों की एक सामाजिक प्रतिष्ठा थी, लेकिन मार्क्सवादियों द्वारा इन्हें घृणा का केंद्र बनाकर एक ज्ञान की निर्मिति की गई और उसे चयनित तथ्यों के आधार पर न्यायोचित ठहराया गया। यह एक बहुत बड़ा बौद्धिक षड्यंत्र था। देखते ही देखते विश्वविद्यालयों से राष्ट्र, संस्कृति और धर्म के बारे में सोचने वाली पीढ़ी, पी. वी. काणे की पीढ़ी, धर्मपाल की पीढ़ी, आचार्य रामचंद्र शुक्ल की पीढ़ी,  गायब हो गई। इसके स्थान पर जो पीढ़ी स्थापित हुई, वो इस देश की ‘फॉल्ट लाइन्स’ को पढ़ती थी और उसे ही ज्ञान बताती थी। समग्रतः यह एक बहुत बड़ा वैश्विक षड्यंत्र है, जिसकी समझ के लिए जो  बौद्धिक विवेक चाहिए, उस बौद्धिक विवेक को अर्जित करने के लिए अब आ रहे नए लोगों को बहुत मेहनत करने की आवश्यकता है।                
प्रश्न – पूर्वोत्तर के साहित्य और संस्कृति पर भी आपने काफी काम किया है। स्वतंत्रता के पश्चात् लंबे समय तक शासन में इस क्षेत्र के प्रति एक उपेक्षा का भाव रहा है।  आपके विचार से इसका क्या कारण था ? और वर्तमान सरकार के आने के बाद इस स्थिति में क्या कुछ बदलाव आया है ? 
प्रो. चंदन कुमार – पूर्वोत्तर का एक बहुत बड़ा दुर्भाग्य रहा कि भारतीय विश्वविद्यालयों की सरणी ब्रह्मपुत्र को पार नहीं कर पाई जबकि सांस्कृतिक रूप से ऐसा नहीं था। अहोम शासन में तो लगभग छः सौ वर्ष संस्कृत उनकी आधिकारिक भाषा रही है। और तो और, अपने गोरखनाथ जी ने साबरमंत्र की दीक्षा कामाख्या पीठ पर ली थी। श्रीमंत शंकरदेव जी ने पूरे देश का भ्रमण किया और वे मूलतः कन्नौज क्षेत्र से ही पूर्वोत्तर में गए थे। चाहें मणिपुर हो, त्रिपुरा हो, असम हो या मिजोरम हो, इस पूरे क्षेत्र का देश से सांस्कृतिक रूप से जुड़ाव रहा है। मैं बताना चाहूँगा कि असम में एक लोकनाट्य पद्धति चलती है – ओझापाली। ओझापाली संस्कृत में है। इसमें जो मुख्य वक्ता होता है, वो ओझा कहलाता है। श्रीमंत शंकरदेव जी और माधवदेव जी भारत की बात करते हैं। यह सभी तथ्य सांस्कृतिक जुड़ाव को ही दर्शाते हैं। लेकिन विडंबना है कि पचास से नब्बे के दशक में विश्वविद्यालयों में चाहें वो मानविकी के संकाय हों, कला के संकाय हों या समाज विज्ञान के संकाय हों, कोई भी पूर्वोत्तर को पार नहीं कर पाए। 
पूर्वोत्तर में दो तरह के लोग गए। अंग्रेजों के साथ ईसाई मिशनरीज गए और कालांतर में जब वहाँ दिक्कत होने लगी तो इंदिरा जी ने नानाजी देशमुख को बुलाकर कहा कि – मैं चाहती हूँ कि पूर्वोत्तर में हिंदू मिशनरियां सक्रिय हों। बाद में नानाजी देशमुख सहित और भी अनेक लोगों के प्रयास से असम में, अरुणाचल में (अरुणाचल तब नेफा हुआ करता था) विवेकानंद केंद्र की स्थापना हुई और आज भी अरुणाचल के दो सौ गाँवों में विवेकानंद केंद्र के विद्यालय चलते हैं। जो इधर सरस्वती शिशु मंदिर है, वो असम में शंकरदेव शिशु निकेतन के नाम से चलता है। संघ और उसकी आनुषांगिक संस्थाएं वहाँ गईं, बड़े पैमाने प्रचारक गए और उन्होंने देश जोड़ने का काम किया। आज भी आप यदि पूर्वोत्तर के सुदूर इलाके में चले जाएं तो या तो वहाँ सत्र मिलेंगे या ईसाई मिशनरीज मिलेंगे या फिर संघ मिलेगा। पूर्वोत्तर में इन्हीं तीन संस्थाओं की उपस्थिति जहां व्यवस्था नहीं है, वहाँ भी है।  
2014 में वर्तमान सरकार के आगमन के उपरांत पूर्वोत्तर का राजनीतिक परिदृश्य बदला है। 2015 में असम में सर्बानंद जी की सरकार आई। असम पूर्वोत्तर का द्वार है। असम की राजनीतिक संस्कृति का वहाँ के बाकी राज्य भी अनुसरण करते हैं। पिछले सात-आठ वर्षों में, चाहें वो मणिपुर हो या अरुणाचल हो, नागालैंड हो या त्रिपुरा हो, सभी जगहों पर इस देश को जोड़ने की बात करने वाले लोग, इस देश के सांस्कृतिक राग की बात करने वाले लोग, राजनीतिक रूप से सक्षम हुए हैं। अपवाद भी हैं, पर कुल मिलाकर पूर्वोत्तर के लोगों को लगने लगा है कि विकास की, शिक्षा की, समन्वय की और संवाद की कोशिश दिल्ली से भी चल रही है। वो भी बदलना चाहते हैं। वहाँ के कई उग्रवादी संगठनों ने हथियार डाल दिए हैं। वहाँ का आम जनजीवन जो पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी को एक किस्म से बाधित ही रहता था, अब पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी मनाने लगा है। इधर के लोग उधर जा रहे हैं और वहाँ के लोग भी इधर आकर पढ़ाई-लिखाई कर रहे हैं। कुल मिलाकर एक संवाद की प्रक्रिया तो चली ही है। मैं इसे इस सरकार की लुक ईस्ट पॉलिसी से ज्यादा एक्ट ईस्ट पॉलिसी कहूंगा। 2014 के बाद बदलाव हुआ है और वो बदलाव धरातल पर दिख भी रहा है।

प्रश्न – लगभग साढ़े तीन दशक बाद देश को नई शिक्षा नीति मिली है।  इससे आप देश के शिक्षातंत्र में किस तरह के बदलावों की संभावना देखते हैं ? 
प्रो. चंदन कुमार – देखिये, सबसे बड़ा बदलाव तो ये है कि यह शिक्षा नीति सिर्फ पुस्तकीय ज्ञान को ज्ञान मानने की अवधारणा के इतर भी बात करती है। दूसरा, इस शिक्षा नीति में मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा की बात है। भारतीय भाषाओं में सहकार और समन्वय की बात है। भारतीय भाषाएँ सिर्फ कविता-कहानी करने की भाषा नहीं हैं, अपितु वे गणित की, विज्ञान की, समाज विज्ञान की और मानविकी की भी भाषाएँ हैं। ऐसा करने का प्रयास इस शिक्षा नीति में है और इससे देश में देशज ज्ञान की प्रतिष्ठा होगी। सिर्फ अंग्रेजी न जानने के कारण विकास की प्रक्रिया में पीछे छूट गए लोगों को अवसर मिलेगा। भारतीय भाषाओं के बीच एक ज्ञानात्मक संवाद की प्रक्रिया चलेगी। कुल मिलाकर भारत का अपना भाषाई वैभव और भारतीय ज्ञान, दोनों में एक सहकार और समन्वय की बात चलेगी ऐसी अपनी कामना है और यह राष्ट्रीय शिक्षा नीति ऐसा ही प्रस्तावित करती है। इसमें तकनीकी ज्ञान की बात तो है ही, मूल्य-आधारित शिक्षा की भी बात है। देश के विद्यार्थियों का एक राष्ट्रीय चरित्र विकसित हो तथा व्यक्ति सफल बनने के साथ-साथ एक अच्छा मनुष्य भी बने; ऐसी धारणा विकसित करने की दिशा में यह शिक्षा नीति सोचती है और नीतिगत रूप से इस  दिशा में कार्य करने को प्रोत्साहित भी करती है।   
प्रश्न – हाल के दिनों में इतिहास के पाठ्यक्रम में परिवर्तन का मुद्दा चर्चा में रहा है।  भारत के इतिहास के विकृतिकरण की बात कहते हुए अक्सर उसके पुनर्लेखन की चर्चा देश में होती रहती है। इस पूरे प्रसंग को लेकर आपकी क्या राय है ? 
प्रो. चंदन कुमार – देखिये, मुझे लगता है कि जिस समाज का इतिहास नहीं होता, उस समाज का कोई भविष्य भी नहीं होता है। मेरा मानना है कि इतिहास में यदि कुछ ऐसी चीजें हुई हैं जो एक समाज के रूप में हमें जाननी चाहिए, तो तात्कालिक रूप से भले वो हमें कष्ट ही दें, फिर भी विद्यार्थियों को उन्हें जानना चाहिए। दूसरा, अगर कोई आक्रांता है तो आक्रांता है, उसे नायक बनाने की क्या जरूरत है ? आक्रांता को नायक बनाकर आप बौद्धिक बेईमानी कर रहे हैं। यह एक बौद्धिक अपराध है। तीसरी चीज, अगर कोई देश अपने राष्ट्र-नायकों की प्रतिष्ठा स्वयं नहीं करेगा तो क्या अपने विरोधी देशों से अपेक्षा करेगा कि वे उसके राष्ट्र-नायकों की प्रतिष्ठा करें ? 
मैं स्पष्ट रूप से कहना चाहूँगा कि इस्लाम दुनिया में जहाँ भी गया, उसने वहाँ की स्थानीय संस्कृतियों को नष्ट किया। पर यदि हम बचे रह गए तो उसके कुछ कारण तो रहे होंगे। मैं एक उदाहरण देता हूँ। बख्तियार खिलजी नालंदा को लूटने के बाद किधर गया ? इतिहास इसपर इतना ही कहता है कि बंगाल चला गया, वहाँ से तिब्बत चला गया, वहीं कहीं मारपीट हो गई और मर गया। जबकि ऐसी बात नहीं है। अभी हम असम में काम कर रहे थे, तो ज्ञात हुआ कि उत्तरी गुवाहाटी में राजपुरद्वार एक जगह है, जहां पृथु नाम के एक बोडो राजा हुए। तिब्बत से लौटते हुए बख्तियार खिलजी को पृथु के नेतृत्व में बोडो लोगों ने घेरकर मार दिया। हम लोगों ने अभी राजपुरद्वार में पृथु की जयंती भी मनाई है। आखिर इतिहास में ये तथ्य पता चलना चाहिए या नहीं ? लचित बरफुकन तीन वर्ष तक गुवाहाटी में मुगलों की सेना से लड़े और औरंगजेब की सेना को ब्रह्मपुत्र पार नहीं करने दिया। लोगों को यह पता चलना चाहिए या नहीं ? ये हमारे भारतीय शौर्य के नायक हैं कि नहीं हैं ? मुगलों में अकबर, शाहजहाँ आदि की अगर कुछ अच्छी बातें हैं, तो उसे पढ़ाए जाने से मुझे कोई आपत्ति नहीं है। परंतु, अगर कुछ ऐसी बात है, जो आपकी (मार्क्सवादियों की) राजनीतिक विचारधारा में फिट नहीं बैठती है, तो आप पांच-दस या पंद्रह साल के कोमल मस्तिष्क पर अपने राजनीतिक विचार को क्यों थोपना चाहते हैं ? अगर इतिहास में किसी ने हमारे देश के साथ अन्याय किया है, तो वो अन्याय प्रकट होना चाहिए। यह स्पष्ट रूप से बताया जाना चाहिए कि गोरी, गजनी या बाबर कौन थे और यहाँ किस लिए आए थे ? यदि ये इतने ही महान थे, तो जहाँ से ये आए थे, वहाँ इन्होंने क्यों नहीं ताजमहल बनाया ? अगर मुग़ल स्थापत्य इतना ही समृद्ध था, तो बाबर जहां से आए थे, वहीं लाल किले जैसी एक ईमारत बनवा दिए होते। लेकिन वहाँ कुछ नहीं बना। हमारे देश के कारीगरों और मजदूरों की प्रतिभा थी, जिसने लालकिला और ताजमहल जैसी चीज बनाई। इसमें हमारे पूर्वजों का खून है और इसलिए हम कहेंगे कि ये हमारा है। इतिहास को इस दृष्टि से पढ़ाया जाना चाहिए। 
प्रश्न – यह अक्सर कहा जाता है कि हिंदी में रोजगार नहीं हैं, वहीं कुछ लोग इसके विपरीत राय भी रखते हैं। आपके विचार से इस विषय में वस्तुस्थिति क्या है ? 
प्रो. चंदन कुमार – हिंदी में बहुत रोजगार हैं। देश और दुनिया की बड़ी कम्पनियाँ हिंदी में विज्ञापन लिख रही हैं, तो ये हिंदी क्षेत्र की जनता की बड़ी ताकत का ही प्रमाण है। पर, हिंदी के विभागों को बदलना पड़ेगा। हिंदी के विभाग सिर्फ कविता-कहानी के विभाग बनकर न रहें। हमारा दुर्भाग्य है कि न केवल हिंदी अपितु भाषाओं के जो भी विभाग हैं, वो कुल मिलाकर इश्क करने के विभाग हैं। उन्हें भाषा, लिपि, रंगमंच, विज्ञापन, पत्रकारिता, पटकथा लेखन और अनुवाद के विभाग में बदलना होगा। कविता-कहानी के विभाग वे रहें, इससे किसी को कोई आपत्ति नहीं है; लेकिन इसके साथ-साथ उन्हें पत्रकारिता, पटकथा, रंगमंच, अनुवाद आदि का जो साम्राज्य है, उस साम्राज्य के साथ भी संवाद करना होगा। हिंदी को बदलना होगा। हिंदी बदले हुए देश की भाषा है। आज जितने अहिंदीभाषी क्षेत्र हैं, सभी हिंदी सीख रहे हैं। वो केवल कविता-कहानी के प्रति प्रेम से नहीं सीख रहे हैं। इसका कारण यह है कि आज हिंदी यहाँ से लेकर योरोप और मध्यपूर्व तक बोली-समझी जाने वाली भाषा है। मैं तो सुदूर पूर्वोत्तर के इलाकों में जनजातीय लोगों के बीच सक्रिय रहता हूँ, उन सुदूर इलाकों में भी हिंदी बोलने और समझने वाले लोग हैं। 
हिंदी के कई रंग व रूप हैं और हिंदी अपने हर रंग-रूप में इस देश की ‘Aspirational Language’ बन रही है। मैं बहुत समझदारी के साथ यह बात कह रहा हूँ। माली के बच्चे, चौकीदारों के बच्चे, आड़े-तिरछे स्कूलों में बोरा बिछाकर पढ़ने वाली लड़कियां – ये सब इस भाषा में सपने देख रहे हैं और यह भाषा उनके सपनों को पूरा कर रही है। यह आर्थिक सशक्तता की भाषा है और इस सशक्तता को यहाँ की पूँजी ने समर्थन दिया है। 
आप देखिये न, इस देश का नेतृत्व (प्रधानमंत्री) मूलतः गुजराती बोलने वाला है, लेकिन वे (नरेंद्र मोदी) बहुत अच्छी हिंदी बोलते हैं। यहाँ की राष्ट्रपति महोदया की भाषा उड़िया है, लेकिन वे भी बहुत अच्छी हिंदी बोलती हैं। यहाँ के गृहमंत्री मूलतः गुजराती बोलने वाले हैं, लेकिन बहुत अच्छी हिंदी बोलते हैं और हिंदी के लिए काम कर रहे हैं। यह हिंदी का सौभाग्य है कि उसने पूरे देश को एक साथ जोड़कर अपने को स्थापित किया है।             
प्रश्न – हिंदी में शोध की गुणवत्ता को लेकर अक्सर प्रश्न खड़े किए जाते रहते हैं। इस विषय में आपकी क्या राय है ? 
प्रो. चंदन कुमार – यह विषय ऐसा नहीं है, जिसमें बहुत सरलीकृत रूप से कोई वक्तव्य दिया जा सकता है। दरअसल हुआ ये है कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी के जो संकाय हैं, वहाँ कई विश्वस्तरीय मानक लागू हो जाते हैं। अब हिंदी तो अभी उतनी प्रौद्योगिकी-मित्र के रूप में विकसित नहीं हुई है। सो, ये दिक्कत केवल हिंदी के साथ नहीं है, अपितु उर्दू, संस्कृत आदि भाषाओं तथा इतिहास और राजनीति विज्ञान के साथ भी ऐसी दिक्कते हैं। शोध की गुणवत्ता पर जो प्रश्न खड़े होते हैं, उसके लिए हिंदी के विभागों को सोचना होगा। मात्रात्मक शोध के बजाय गुणात्मक शोध पर जोर देना होगा। साथ ही, सरकार की विभिन्न संस्थाओं को भी इस बात पर ध्यान देना होगा और वो दे भी रही हैं। अब जैसे कि प्लेगरिज्म टेस्ट हो रहे हैं और तकनीकी के जरिये चीजें बेहतर करने की कोशिश हो रही है। धीरे-धीरे चीजें बदलेंगीं भी। लेकिन मुझे लगता है कि इस दिशा में थोड़े और कठिन मानक और मापदंड होने चाहिए जिससे कि गुणवत्ता में सुधार आए। इसके अलावा, जो गुणवत्तापरक शोध हो, उसे पुरस्कृत करने की भी एक प्रणाली विकसित होनी चाहिए क्योंकि जबतक दंड और पुरस्कार के नियम नहीं लागू होते हैं, तबतक गुणवत्ता आने में कठिनाई होती है। अतः मानक शोध के मापदंड पर जो शोध-प्रबंध खरे उतर रहे हों, उनका मूल्यांकन अलग ढंग से हो और उनसे जुड़े लोगों के करियर ग्राफ को आगे बढ़ाने में मदद मिले, इसके लिए प्रयास किया जा सकता है। सरकार इस दिशा में कुछ-कुछ कर भी रही है।             
प्रश्न – हिंदी के विद्यार्थियों एवं शोधार्थियों के लिए कोई संदेश देना चाहेंगे ?   
प्रो. चंदन कुमार – पीयूष जी, मैं इतना ही कहूंगा कि विद्यार्थी और शोधार्थी जब इस क्षेत्र में आएं तो बहुधंधी होकर न आएं। जीवन छोटा है और एक जीवन में, अगर आप गुणवत्तापूर्ण ढंग से करना चाहें, तो बस एक ही काम हो सकता है। अपना विषय, अपना क्षेत्र बना लें और यह निर्णीत कर लें कि बीस साल बाद अपने आपको किस रूप में देखना चाहते हैं। उस बीस साल की तैयारी आज से शुरू कर दें। ज्ञान की सत्ता बनने में समय लगता है, लेकिन बन जाने के बाद बिखरने में उससे ज्यादा समय लगता है। सत्ताएँ बहुत छोटी उम्र लेकर आती हैं, ज्ञान की उम्र बहुत बड़ी होती है। अतः मैं विद्यार्थियों और शोधार्थियों से यही कहूंगा कि लोग राजनीति के नायक बनते हैं, वे ज्ञान के नायक बनें। 
पीयूष – हमसे बातचीत के लिए समय देने हेतु बहुत बहुत धन्यवाद, सर। 
प्रो. चंदन कुमार – धन्यवाद।
पीयूष कुमार दुबे
पीयूष कुमार दुबे
उत्तर प्रदेश के देवरिया जिला स्थित ग्राम सजांव में जन्मे पीयूष कुमार दुबे हिंदी के युवा लेखक एवं समीक्षक हैं। दैनिक जागरण, जनसत्ता, राष्ट्रीय सहारा, अमर उजाला, नवभारत टाइम्स, पाञ्चजन्य, योजना, नया ज्ञानोदय आदि देश के प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में समसामयिक व साहित्यिक विषयों पर इनके पांच सौ से अधिक आलेख और पचास से अधिक पुस्तक समीक्षाएं प्रकाशित हो चुकी हैं। पुरवाई ई-पत्रिका से संपादक मंडल सदस्य के रूप में जुड़े हुए हैं। सम्मान : हिंदी की अग्रणी वेबसाइट प्रवक्ता डॉट कॉम द्वारा 'अटल पत्रकारिता सम्मान' तथा भारतीय राष्ट्रीय साहित्य उत्थान समिति द्वारा श्रेष्ठ लेखन के लिए 'शंखनाद सम्मान' से सम्मानित। संप्रति - शोधार्थी, दिल्ली विश्वविद्यालय। ईमेल एवं मोबाइल - [email protected] एवं 8750960603
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