1- माँ का प्रतिबिंब
डरती थी पहले, आगे की जिन्दगी से
जब शादी की बात होती थी, और
मैं अपनी माँ को देखती थी…
सुबह से शाम तक काम में खटते,
देर रात तक जगते,
जानती नहीं थी, ये कब सोती हैं,
क्या बिना सोये ही रहती हैं?
कभी उन्हें बैठे नहीं देखा,
दोस्तों के साथ हँसते भी नहीं देखा,
कपड़े धोना, प्रेस करना,
खाना बनाना, परोसना
बुहारना, समेटना, बर्तन माँजना
गेंहू फटकना, धुलना, सुखाना
(आप पढ़ कर थक गए? वो कर के नहीं थकती थीं)
ऐसे ही कामों में हर दिन बित जाता था
माँ आराम भी करती है,
कोई नहीं जानता था
पिता और हम बच्चों के सारे काम
चोट, बीमारियाँ, लड़ाई-झगड़े, इम्तिहान
पूजा-हवन, तीज-त्यौहार
रिश्ते-नाते, अतिथि-मेहमान,
टोले-मोहल्ले के कितने ही ताम-झाम
सब कर लेती थीं बिना थके…
स्वेटर बुनतीं, सिलाई, कढ़ाई करतीं,
फ़र्माइश पकवान बनातीं
चटनी, अचार-मुरब्बे बना
बरनियाँ सजाती थीं
नखरे उठाती, बिना उफ्फ़ किये….
ऐसी ज़िन्दगी मैं कैसे जियूँगी?
इन्सान हूँ, मशीन कैसे बनूँगी?
सशंकित रहती, होती थी परेशान
माँ, बीवी होना कहाँ है आसान?
देखती थी माँ को, सैकड़ों काम हैं
`पर यहाँ गृहणियाँ निकम्मेपन के लिए बदनाम हैं,ʼ
ब्याह हुआ मेरा, मैं ससुराल आयी
गृहस्थी से जुझती थी, डरी, घबराई,
घर-ससुराल, बाल-बच्चों में डूब गयी
अपनी अस्मिता अपना अक्स भी भूल गयी
मुद्दतों बाद आईना देखा
वहाँ ‘मैं’ नहीं “माँ” दिख रही थी…
मेरी तब्दीली माँ में चुपचाप हो गई थी
एक पीढ़ी जहाँ से गुजरी,
दूसरी वहीं पहुँच गयी थी
जीवन का ये पडा़व नया था,
इसे कैसे जीना है? अभी समझना था
बच्चे वयस्क हुए,
नौकरी पर निकल गये,
पति को सेवानिवृत्ति मिली
पर… मुझे चाकरी से मुक्ति नहीं मिली
`गृहणी तो अकर्मिणी होती हैʼ
मृत्यु ही उसकी मुक्ति होती है
मैं सुबह से रात तक काम करती हूँ,
अपनी माँ की तरह अब, मैं भी नहीं थकती हूँ
ऊब किसे कहते हैं, भूल रही हूँ
घर के मकड़जाल में, झूल रही हूँ,
निकम्मेपन, बेवकूफ़ी के तमगे
आज तक मिलते हैं,
माँ की कर्म रेखाओं के निशान
मेरे हाथों में दिखते हैं
2 – एक प्रश्न
माता स्वर्गापवर्गा, जन्मदात्री, धात्री, देवी
सहनशीला, त्यागमूर्ति, ममतामयी, अनूठी
सन्तानों को खिलाती है, रह कर के भूखी,
ख़ुद गीली रह कर, शिशु सूखे में रखती
स्नेह-त्याग, तपस्या, बलिदान की कसौटी
वर्षों से देख रही, परिपाटी ऐसी
साहित्य में जननियाँ, दिखती हैं ऐसी
माँ हूँ स्वयं मैं और एक माँ मेरी
उनकी भी माँ थीं, और एक मेरी बेटी,
तीन-चार पीढ़ियाँ देखीं हैं मैंने भी
कविता में मातायें दिखती हैं जैसी
वर्षों से ढूँढ रही, एक माँ ‘वैसी ही’…
पीढ़ी दर पीढ़ी की मातायें सारी
साधारण नारियाँ थीं, कोई नहीं ‘देवी’ थीं
दायित्व बच्चों का, वह पूरा करती थीं
यथाशक्ति बच्चों की, देखभाल करती थीं
थकती थीं, रोती थीं, व्याकुल भी होती थीं
तप या बलिदान की, सीमा न छूती थीं
डाँटती-डपटती थीं, हाथ भी उठाती थीं
कई बार खीझ कर, दूर बैठ जाती थीं
मेरे परिवार में माँ ऐसी ही होती थीं..
मैंने सहजता से बच्चों को पाला है
माँ का कर्तव्य बस ठीक से सम्हाला है
त्याग और तपस्या की मूरत नहीं हूँ
सिर्फ़ एक माँ हूँ, मैं देवी नहीं हूँ
माँ बन कर औरत क्यों देवी कहलाती है?
क्या है बदलता जो, दिव्य बन जाती है?
पशु और पक्षियों की मातायें होती हैं
मानव से बढ़कर के मातृत्व देती हैं
पाल-पोस बच्चे स्वतन्त्र कर देती हैं
बदले में कुछ भी अपेक्षा ना करती हैं
बच्चों को पालना दायित्व होता है
कर्तव्य है यह, अहसान नहीं होता है
कवि मण्डल माँओं की महिमा बखानते हैं
क्यों यह महान छवि उनकी बनाते हैं?
जननी है माँ यदि तो पिता भी जनक है
दायित्व उसका भी लगभग बराबर है
बच्चों का भार वह कन्धों पर लेता है
पैसे कमा करके बच्चों को पालता है
साहित्य क्यों उसको दिव्य नहीं कहता है?
पिता क्यों मनुष्य है? क्यों माँ देवता है?
सम्पर्क - shailjaa.tripathi@gmail.com

12 टिप्पणी

  1. सीधी सरल भाषा में यथार्थ, नो बकवास। अपने को बिना कारण महान समझना और दूसरे से भी वैसी ही आशा करना किसी भी मां के दुख का कारण बनता है। सही कहा आपने मां को उसके बच्चे ही उसे देवी क्या इंसान भी नहीं मानते। यह बातें सिर्फ साहित्य के लिए ही है ंं। ्

    • अच्छा लगा आपने सत्य देखा और स्वीकार किया। हार्दिक धन्यावाद, आपकी टिप्पणी बहुत मायने रखती है।

    • राजनंदन जी,
      आपसे सकारात्मक प्रतिक्रिया पाकर कितना हर्ष हुआ, बता नहीं सकती। हार्दिक धन्यावाद। आज विश्वास हुआ कि मतभेद से मनभेद नहीं होता। पुनः आभार

  2. शैली आपकी कविताएं बिलकुल यथार्थ हैं। मां भी इंसान ही है उससे देवी जैसी अपेक्षा क्यों।उसको इंसान की तरह से ही समझना चाहिए।

    • हार्दिक आभार बिन्नी जी आपके सत्य और सुलझे विचार सुन कर प्रसन्नता हुई। कोई और भी मेरी तरह सोचता है।

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