बेटे के विवाह की धूम में बैजनाथ जी बौराए से जा रहे थे, मन ही मन स्वयं को सबसे धनी महसूस कर रहे थे | बड़े घर की बहू तो जैसे मुकुट में हीरा सी उनकी नज़र में चमक रही थी | बारातियों के मुख पर भी बैजनाथ जी का नाम जैसे किसी नामी-गिरामी बड़े आसामी का नाम  हो | आखिर अपने सॉफ्ट वेयर इंजीनियर बेटे की पूरी कीमत वसूली थी उन्होंने | 
बड़े घर की सुन्दर, पढी-लिखी बहू पाकर स्वयं को गंगा नहाए समान महसूस कर रहे थे | विवाह संपन्न हुआ और दोनों बेटे अपनी बहुओं को लेकर अमेरिका लौट जाने की तैयारी में लग गए | 
बड़ा बेटा डॉक्टर और छोटा इंजीनियर, वाह !  क्या कहने इस घराने के किन्तु न जाने क्यूँ बेटी का विवाह कच्ची उम्र में ही कर दिया, उसे भी पढ़ा-लिखा देते तो अच्छा रहता, बेटी पढी-लिखी नहीं तो दामाद भी तो उसी दर्जे का मिला, भला कौन डॉक्टर-इंजीनियर कम पढी-लिखी को स्वीकार करेगा, उस पर भी जब दान-दहेज़ की रकम के लिए बैजनाथ जी की अंटी ढीली न होती हो | 
जब-जब पूरा परिवार इकट्ठा होता है तो बेटी का परिवार मखमल में टाट के पैबंद समान दिखायी देता है | 
कभी-कभार बेटी शिकायत भी करती अपनी माँ से, तो बदले में यही सुनने को मिलता “सब किस्मत का खेल है बेटी, इश्वर सब का नसीब ऊपर से लिख कर भेजता है, हम तो बस उसके सेवक हैं, वो सब कुछ करवाता है”
खैर बेटी को बार-त्यौंहार बुला कर जब उसकी माँ विदा करती तो चार साड़ी, ऊपर से जंवाई का नेग, बच्चों के कपड़े, खिलौने सब मिला कर थैला पूरा भर जाता, छोटे शहर से आयी बेटी को उस से ज्यादा और क्या चाहिए होता | ससुराल के रोजमर्रा के जीवन से थोड़ा बाहर निकल कर माँ-पिताजी का लाड़-प्यार पा कर निहाल हो जाती |  खुशी-खुशी, भरा थैला लेकर ससुराल लौट कर आती तो वहां भी उसका रूतबा-रुआब बढ़ जाता |  
जब-जब भाई अमेरिका से छुट्टियों पर आते, वह उनसे मिलने मायके जाती, उनकी मन-पसंद का खान-पान बहिना बड़ी ही उत्सुकता के साथ बनाती | माँ भी कुछ दिन आराम करती, अपनी बिटिया के हाथ का बना खाना खाती, बहुएं तो ब्याह कर आयी और अमेरिका अपने पतियों के साथ चली गयीं | अब जब-जब भारत आतीं तो उन्हें भी अपने माता-पिता का मोह खींच लेता सो दो दिन ससुराल में रुक कर तीसरे दिन अपने मायके चली जातीं | 
बैजनाथ जी को इसमें कोई आपत्ति भी नहीं थी, क्यूंकि जब मायके से ससुराल वापिस लौटतीं तो भर-भर कर ले कर भी आतीं | बैजनाथ जी के लिए सफारी सूट, सोने की अंगूठी, उनकी पत्नी के लिए सोने की चेन, बिटिया के लिए भारी सिल्क की साड़ी,पाजेब आदि | 
सब को यह व्यवस्था खूब मन को भा रही थी | बेटी के ससुराल में उसकी खासी साख बनी हुई थी, अमेरिका से जब भाई आते, वहां से उसके लिए ब्रांडेड सामान तो लाते ही सही, भाभियों के मायके से भी उपहार स्वरुप अच्छा ही मिलता | 
बरस बीतते गए संजना की बच्चियां भी अब मामा के आने की एवं ननिहाल जाने की राह देखतीं |  नाना-नानी भी बुजुर्ग होने लगे थे सो जब ननिहाल जातीं उनकी खूब सेवा करतीं और बदले में ढेर सारा लाड़-प्यार पातीं |
किन्तु बेटे अब कभी-कभार ही अमेरिका से भारत आते, उनके बच्चों के भी स्कूल, एक्स्ट्रा क्लास होते, सो अब उन्हें भी अपने बच्चों के करियर की फ़िक्र होने लगी थी | 
संजना की माँ कभी-कभी अपने पोते-पोती से फोन पर बात करती तो अमरीकी अंग्रेजी में क्या गिट-पिट करते उन्हें समझ न आता | किन्तु जब कभी वे अपने आस-पड़ौस के लोगों से मिलतीं तो डींगें हांकने में न चूकतीं “अरे कल ही पोते से बात हुई इतनी अच्छी अंग्रेजी बोलता है पूछो ही मत, कल ही स्काइप पर देखा, इतना सुन्दर फ्लैट है बेटे का, बेटा-बहू दोनों की अपनी-अपनी गाड़ियां है …….”और तारीफों के पुल वजन से इतने भारी हो जाते कि अब टूटे और तब टूटे | पड़ौसी भी जमाहियाँ लेने लगते आखिर कितना लपेटते वे भी |   
संजना अपनी बेटियों को खूब पढ़ा रही थी, बड़ी का दाखिला इंजिनीयरिंग में हो गया था और अपने मायके के शहर जयपुर में उसने अपनी बेटी को ननिहाल भेज दिया | 
नाना-नानी को भी बढ़ती उम्र में जैसे सहारा मिल गया | अब संजना भी अक्सर अपने मायके जयपुर जाती-आती रहती | 
“बेटी तुम यहाँ रह कर पढ़ रही हो, नाना-नानी की अब उम्र हो गयी है, उनकी सेवा भी करना, हमें किसी पर बोझ नहीं बनना चाहिए” संजना अक्सर अपनी बेटी नेहा को समझाती |
हाँ माँ, मैं पूरी कोशिश करती हूँ कि सुबह का खाना बना कर जाऊं, नानी को कुछ न करना पड़े | शाम के खाने में भी नानी की मदद करती हूँ और छुट्टी के दिन जब वे कहती हैं उन्हें बाजार भी ले जाती हूँ, कभी डॉक्टर तो कभी मंदिर भी जाना होता है, नानी जहां कहें मैं कॉलेज से आने के बाद उन्हें ले जाती हूँ | 
बैजनाथ जी एवं उनकी धर्मपत्नी के तो जैसे दोनों हाथों में लड्डू थे | बेटे विदेश में कमा रहे थे और बेटी-नातिन उनकी सेवा में कमी न छोड़ते |  
बैजनाथ जी अक्सर अपनी मूछों पर ताव देते हुए कहते “इसे कहते हैं किस्मत, बेटी जब चाहे मिलने आ जाती है और बेटे अपनी-अपनी जगह व्यवस्थित रूप से रह रहे हैं | संस्कारी नातिन भी पास में ही है सो बुढापे में सेवा भी मिल जाती है और हमें ईश्वर से क्या चाहिए भला ?
उनकी बात सुन कर संजना भी प्रसन्न हो उठती, सोचती बहुत संस्कारी है उसकी बेटी, पढाई तो पढाई घर काम में भी दक्ष, अपने नाना-नानी की भी खूब सेवा करती है | 
पढाई पूरी कर संजना की बेटी दूसरे शहर नौकरी के लिए चली गयी |
“तुम बहुत याद आओगी बिटिया, अब तुम्हारे साथ रहने की आदत जो हो गयी है”  नानी ने अपनी नातिन को कहा, खैर उसे जाना था वह गयी |     
अब बैजनाथ जी एवं उनकी धर्मं-पत्नी अकेले ही रहते | कई बार अपने बेटों को फोन कर कहते “अब क्या अमेरिका को ही अपना घर बना लिया, कभी वापिस नहीं आओगे”
बेटे भी कह देते “क्या करें पिताजी अच्छी नौकरी यहीं मिलती है, बच्चे भी अब यहाँ के माहौल में ढल गए हैं, अब न जाने उनका भारत में मन लगेगा भी या नहीं”
“तो बेटा हमें वहाँ बुला लो, अब हमारी उम्र ढलने लगी है, सेवा की ज़रुरत पड़ती है” बैजनाथ जी ने तमक कर कड़े लहज़े में कहा | 
लेकिन पिताजी आप यहाँ आ कर क्या करेंगे, खामखाँ परेशान हो जायेंगे, न तो लोगों की भाषा समझेंगे, न ही यहाँ का रहन-सहन, खान-पान आपको पसंद आएगा |
“लेकिन बेटा घर तो होगा न अपना |  बहू,  पोते-पोती सबके साथ कभी-कभी रह लें तो मन लग जाता है | घर में तो खान-पान अच्छा ही होगा” 
“ऐसी बात नहीं पिताजी अब घर में खाना भी तो बच्चों की पसंद का बनता है, वे तो यहाँ के रंग-ढंग में ढल चुके हैं”  
दोनों बेटों से बैजनाथ जी बात तो अलग-अलग करते किन्तु दोनों से बातचीत का जवाब एक ही सुर में मिलता |  
एक दिन खीज कर बैजनाथ जी बोले “बेटा बहुएं हैं तो देशी ही न, गोरी मेमें तो नहीं जो  हमारे लायक खाना-पीना भी न दे पाएंगी”
बात तो आपकी ठीक है पिताजी लेकिन अब हमारे घर का अपना रूटीन है, बहुएं भी अपने हिसाब से रहती हैं, यदि आप  सोचें कि भारत की तरह तीन समय यहाँ ताजा खाना और समय-समय पर आपके लिए मिठाई-पकवान बनाना हो, तो इनसे नहीं होगा, ज्यादा अच्छा है आप वहीं रहें, संजना तो आप से मिलती-जुलती रहती ही है”
बेटों की बात सुन कर बैजनाथ जी की धर्मपत्नी ने कहा “अभी तो गए नहीं तो ठेंगा दिखा रहे हैं बेटे, एक बार यदि वहाँ चले गए तो दुर्गति ही होने वाली है, इन्हें पढ़ा-लिखा कर बड़ा किया, तो इसका ये सिला दे रहे हैं, अब तो ये कभी बुलाएं तो भी न जाऊं इनके पास”
बैजनाथ जी की पत्नी का जी भर आया था सो संजना को फ़ोन करके सब रो-रो कर बताया | संजना से भी माँ का दुःख देखा न गया, भरे मन से बोली “माँ दिल छोटा न करो, हो सकता है भाइयों को कोई परेशानी हो इसलिए तुम्हें ऐसा बोल दिया हो”
हाँ बेटी जिन माता-पिता ने पाल-पोस कर बड़ा किया, अब वे ही परेशानी हो गए | रोज सवेरे संजना की माँ उसे फोन कर देती और अपने दुखड़े सुनातीं |  एक दिन बोलीं “तुम्हारी बिटिया यहाँ थी तो कम से कम खाना तो समय पर मिलता था, घर भी साफ़-सुथरा रहता था, अब तो नौकरों के भरोसे जीवन कट रहा है, न घर में साफ़-सफाई और न ही खाने में कोई स्वाद”
संजना का भी माता-पिता के लिए जी भर आया, सो अपने पति को बोली “अपने मायके हो आती हूँ, माँ-पिताजी बहुत अकेले से हो गए हैं”
“हाँ तुम देख आओ उन्हें, यहाँ मैं संभाल लूंगा” उसके पति ने कहा | 
कुछ दिन संजना अपने माँ-पिताजी के घर रही, रोज सुबह से घर की सफाई एवं चूल्हे-चौके में लग जाती | एक हफ्ते में उसने पूरा घर चमका दिया था | उसकी माँ भी उसके हाथ का बना खाना खा कर मस्त हो कर सो जाती | 
अपनी माँ को चैन से सोते हुए देख संजना का मन प्रसन्न हो जाता, वह भी वहीं सिरहाना लेकर सो जाती, माँ का सानिध्य पा कर उसे भी बहुत चैन मिलता |   
कुछ बरस और बीत गए | संजना की बेटियाँ भी विवाह योग्य हो गयी थीं | उस के पति ने अपनी बेटियों के योग्य लड़के देख कर एक ही साथ दोनों का विवाह कर देने की योजना बनाते हुए संजना से कहा “देखो संजना हम इतने अमीर तो नहीं कि दो बेटियों को अच्छी  शिक्षित करने के बाद खूब दान-दहेज़ की व्यवस्था कर सकें और फिर आजकल शादियों में खर्च भी तो खूब होता है, दो अलग-अलग दिन और समय तय करने से ब्याह का खर्च भी तो दोगुना हो जाता है, फिर तुम्हारे  भाई भी तो अमेरिका रहते हैं कहाँ दो बार आ सकेंगे अपनी भांजियों के ब्याह में, इसलिए इनका ब्याह एक ही दिन एक ही साथ कर देने में समझदारी लगती है , वैसे भी दोनों बेटियों के योग्य लड़के मिल भी रहे हैं आगे से, कहाँ ऐसे मौके बार-बार आते हैं”
संजना को भी अपने पति की बात ठीक लगी तो विवाह का दिन तय कर भाइयों को फोन कर दिया और खूब जोर देकर कहा ब्याह में जरूर आना है | भांजियां भी कहाँ अपने दोनों मामा  के लाड़-प्यार को भूली थीं सो वाटसैप पर सन्देश दिया और बोली “मामा यदि आप न आये तो फेरे न लूंगी, आपको कैसे भी करके समय निकालना ही होगा” 
दोनों मामा ने हामी भरी, भांजिया अपने मामा से मिलने की खुशी में बल्लियों उछल रही थीं | ब्याह के दिन नज़दीक थे, संजना और उसके पति खूब भाग-दौड़ में लगे थे | मई का महीना, बाहर आग बरस रही थी और घर में काम फैला था संजना की तबियत बिगड़ गयी | बेचारी ने जैसे-तैसे ब्याह के दिन तक स्वयं को एक पैर पर खड़े रखा | 
सब मेहमान आये, खूब काम फैला और खूब हंसी ठट्ठा हुआ किन्तु जिनका खास इंतज़ार वे ही  न आये  | 
संजना ने फोन पर अपने भाइयों को खूब नाराज़गी दिखाई “भैया अब न बोलूंगी तुम से, शादी-ब्याह क्या रोज-रोज होते हैं जो दोनों के दोनों न आये, बस इतना ही रिश्ता है तुम्हारा-हमारा, ये भी न सोचा कि मेरे ससुराल वाले क्या कहेंगे खूब उलाहना मिला मुझे”  
कैसी बात करती हो संजना हमारा-तुम्हारा तो भाई-बहिन का बहुत स्नेह का रिश्ता है, पर क्या करते, बच्चे प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे हैं, सो कैसे आते ? फिर इतने बरसों में अपने देश भारत आये तो चार दिन में तो लौटा नहीं जाता न”
“हाँ भैय्या मैं समझ सकती हूँ, खैर कोई बात नहीं जब आओ समय ले कर आना” अपने भाइयों से शिकायत एवं बातचीत कर संजना का मन तो ठीक हो गया था, किन्तु तन से तबियत अभी भी ठीक नहीं थी | रात के समय शरीर का बुखार बढ़ जाता, अब दोनों बेटियाँ ब्याही गयीं तो घर का सारा काम भी तो अकेले देखना पड़ता |
तभी एक दिन संजना के पिताजी का फोन आया “बेटी तुम्हारी माँ का की तबियत ठीक नहीं, डॉक्टर को दिखाया है, कुछ ख़ास ऑपरेशन बताया है, यदि तुम आ जातीं तो अच्छा रहता, तुम्हारे भाइयों को भी फोन पर बता दिया है, देखते हैं क्या होता है, यदि दोनों में से एक भी आ जाए तो अच्छा, वरना बेटी तुम्हारा ही सहारा है, मैं तो बहुत अकेला पड़ गया हूँ”
जी पिताजी, कब है ऑपरेशन? यदि भाइयो में से कोई आये तो बहुत अच्छा, अन्यथा मैं तो यहाँ हूँ ही सही” संजना ने रुंधे से स्वर में कहा | अपनी माँ के लिए वह बहुत चिंतित हो गयी थी | 
डॉक्टर ने ऑपरेशन की तारीख तय कर दी थी, संजना ने अपने भाइयों को फोन किये, दोनों से बातचीत हुई “देखो संजना तुम वहां हो तो हमें भी थोड़ा चैन है, वरना माँ-पिताजी तो हमारी जिम्मेदारी होते हैं, हमें पूरा भरोसा है तुम पर, तुम माँ के ऑपरेशन की जिम्मेदारी संभाल लोगी | 
भाइयों ने संजना पर जिम्मेदारी डाल दी थी, वह किस मुंह से कहती कि उसकी स्वयं की ही तबियत ठीक नहीं रहती आजकल,  उसने अपने भाइयों को आश्वासन दे दिया कि वह अपनी माँ को संभाल लेगी |
दोनों भाइयों ने माँ व पिताजी को भी कह दिया था कि ऑपरेशन, अस्पताल व माँ की देखभाल संजना कर लेगी उन्होंने संजना से बात कर ली है | संजना फिर अपनी माँ के घर चली गयी थी, माँ की जी-जान से सेवा की | करीब एक महीने तक माँ के साथ रह अस्पताल जा कर दोबारा से सारे चेकअप करवा कर जब पूरी तसल्ली हो गयी कि माँ अब ठीक है, तब वह अपने घर आयी |  
इसी तरह चार बरस बीत गए, कभी माँ बीमार तो कभी पिताजी की तबियत ढीली | संजना आधे समय तो अपने मायके में रह कर उनकी सार-संभाल में ही लगी रहती |
एक रात पिताजी को अचानक से दिल का दौरा पड़ गया | माँ ने आस-पड़ौस के लोगों से मदद माँगी और संजना को व अपने बेटों को भी फोन किया | आस-पड़ौस के लोग बैजनाथ जी को अस्पताल ले गए और संजना अपने पति के साथ अगली ही बस पकड़ कर सुबह तक मायके पहुँच गयी |  डॉक्टर कह रहे थे कि बैजनाथ जी की स्थिति गंभीर है | माँ ने भी बेटों को गुस्से में कह दिया था “इस बार यदि तुम आओ तो ठीक वरना हमारा अंतिम संस्कार भी संजना ही कर देगी”
बेटे समझ गए थे कि स्थिति गम्भीर है,  वे भी फ्लाईट से अमेरिका से सपरिवार आ पहुंचे थे | बैजनाथ जी अपने पोते-पोतियों को देख कर अति प्रसन्न हुए और जल्द ही स्वस्थ भी हो गए | दोनों बेटे एक महीने की छुट्टी ले कर आये थे | संजना अपने ससुराल लौट आयी थी | 
संजना की माँ रसोई में घुसती तो बस पसीने में नहा कर ही बाहर निकलती | दोनों बहुएं सुबह देर तक कमरे से बाहर ही न निकलतीं | जब बाहर आतीं तो हाय गर्मी -हाय गर्मी करती फिर कमरे में बंद हो जातीं |
एक रात दोनों भाई पिताजी के सिरहाने बैठे अपना बचपना याद कर रहे थे, बैजनाथ जी भी  बहुत प्रसन्नचित्त नज़र आ रहे थे | छोटे बेटे ने शुरुआत की “पिताजी अब गाँव की हवेली का क्या करेंगे, किराया भी कुछ ख़ास मिलता नहीं, क्यूँ न हम उसे बेच दें, आजकल किरायेदार ही घरों पर कब्ज़ा कर लेते हैं, फिर हम तो यहाँ रहते नहीं, आप दोनों का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता, भला वह हवेली अब हमारे क्या काम आयेगी” 
माँ अपने पोते-पोतियों के मोह में पगलाई जा रही थी और चिंतित भी थी कि कल को दोनों बूढा-बूढ़ी में से एक को भी कुछ हो गया तो ? सो बैजनाथ जी से बोली “क्यूँ न जायदाद का हिस्सा कर दिया जाए, आज तो दोनों बेटे यहाँ मौजूद हैं , कल को हम न रहें कौन जाने  कोई हवेली पर कब्जा कर ले, या दोनों बेटे हिस्से के लिए आपस में लड़ें”
“ह्म्म्म बात तो तुम सही कहती हो, हमारे मरने के बाद तो इन दोनों में से कोई भी अपने देश में कदम रखने वाला भी नहीं, आज तो पोते-पोती यहाँ आये हैं, हवेली देख भी लेंगे और हिस्से की बात भी उन्हें बता देंगे, वरना हमारे मरने के बाद हमें कौन याद करने वाला है, जीते-जी तो इन्हें हमारे लिए फुर्सत नहीं” 
जैसे ही यह फैसला बेटों के समक्ष रखा गया, उन्होंने बड़ी गाड़ी का इंतजाम किया, बैजनाथ जी अपने पूरे परिवार के साथ गाँव पहुँच गए | करीब एक महीना वहां करीबी रिश्तेदारों के घर रहे, गाँव में कहाँ नए लोग आते हैं बसे-बसाए लोगों में से ऊंची साख रखने वाले एक सेठ ने हवेली के अच्छे दाम बोल दिए और खटाखट हवेली बिक गयी |   
बैजनाथ जी ने हाथ आयी रकम दोनों बेटों में बाँट दी, जिस घर में रह रहे थे वे अपने दोनों पोतों के नाम कर दिया | जो गहना पास में था उस के भी उनकी पत्नी ने हिस्से कर दिए | सोने का बड़ा हिस्सा अपनी पोती के नाम किया और यह तय हो गया कि जब तक माँ ज़िंदा हैं वे इस गहने का इस्तेमाल करेंगी और उनकी मृत्यु के बाद अपना-अपना हिस्सा आपस में बाँट लें | 
बेटे वापिस अमेरिका लौटने की तैयारी कर रहे थे सो संजना व उसकी बेटियाँ भी उनसे मिलने बैजनाथ जी के घर आ गयी थीं | 
दोनों भाई संजना के साथ कमरे में बैठे बतिया रहे थे “संजना यह तो बहुत ही अच्छा है कि तुम यहाँ हो, माँ-पिताजी की देखभाल कर लेती हो, वरना हम लोग तो नौकरियों में इतने व्यस्त हैं कि सांस लेने को भी फुर्सत नहीं, कैसे तुम्हारा धन्यवाद करें” 
दोनों भाई अपने परिवारों को लेकर अमेरिका लौट गए | कुछ समय में बैजनाथ जी की तबियत खराब हो गयी, संजना ने उनकी खूब सेवा-सुश्रुषा की, माँ भी अक्सर बीमार ही रहतीं | एक दिन माँ को दिल का दौरा पड़ा और वे चल बसीं | दोनों भाई फिर अमेरिका से  आये, क्रिया-कर्म की सब रस्में पूरी हुईं और तभी बड़े भाई ने कहा “देखो संजना अब पिताजी भी कितने दिन के मेहमान हैं, इन्हें तुम्हारे गाँव में तुम्हारे पास में ही रख लो,उनका खर्च सारा हम करेंगे तुम्हें हर माह बैंक में रुपये पहुंचा देंगे किन्तु पिताजी की सेवा हो जाए और हमें क्या चाहिए |
संजना ने भी भावुक हो कर हामी भर दी | घर खाली किया गया व पिताजी की गाँव में व्यवस्था की गयी और माँ की भारी साड़ियाँ संजना को देते हुए बड़ी भाभी ने कहा “देखिये दीदी जब जायदाद के हिस्से हुए, माँ ने कहा था कि उनकी साड़ियाँ आप को दे दी जाएँ, उनकी यादें सदा आप के साथ रहेंगी, और माँ के पहने हुए गहनों में कुछ टूट-फूट भी थी, वो भी माँ आपकी बेटियों को देने के लिए बोल कर गयी थीं, संजना ने माँ की साड़ियाँ एवं गहनों की टूट-फूट लेते हुए भाभी का धन्यवाद किया और पिताजी को लेकर गाँव को रवाना हो गयी | 
रास्ते में उसकी आँखों से रुलाई फूट पड़ी थी “मन में न जाने कितने सवाल थे, माँ ये भेदभाव क्यूँ, जायदाद के हिस्से कब हो गए मुझे खबर भी नहीं, हवेली कब बिकी कुछ पता ही नहीं,  वैसे तो पिताजी की सेवा में मुझे कोई तकलीफ नहीं पर माँ जिम्मेदारी की वारिस मैं और हवेली-जेवर के तुम्हारे बेटे, तुम्हारे घर में बेटी का जन्म लिया, मेरा क्या कसूर था माँ”  उसकी सिसकियाँ रुकने का नाम नहीं ले रही थीं, पनीली आँखों से वह चैन से सोये अपने पिता को देख रही थी | 
कविताएँ, आलेख, कहानी, दोहे, बाल कविताएँ एवं कहानियाँ देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित | 'जो रंग दे वो रंगरेज' कहानी-संग्रह प्रकाशित | चार साझा कहानी-संग्रहों में भी कहानियाँ शामिल | गांधी हिन्दुस्तानी साहित्य सभा एवं विष्णु प्रभाकर प्रतिष्ठान, दिल्ली द्वारा “काका कालेलकर सम्मान वर्ष २०१६ सहित अनेक सम्मान प्राप्त । सम्प्रति - डाइरेक्टर सुपर गॅन ट्रेडर अकॅडमी प्राइवेट लिमिटेड | संपर्क - sgtarochika@gmail.com

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.