“अजी ओ टिल्लू के बाबू, आप रोज जो ई वर्दी पहिन के अपने काम पे जावत हो। अब त मोबाइले से सब बात हो जावत है । सो चिट्ठी-पत्री तो अब बंदे हो गईल, तो दिन भर तुम का करत हो ? हमका त डर लागत है कि अब कहीं ई डाकिया का पोस्टे न हट जाई ।” टिफिन का डिब्बा पैक करती हुई सरला बोली ।
गोपाल दास ( डाकिया )–“अरे भाग्यवान, तुम चिंता मत करो, ये पोस्ट इतना जल्दी बंद होने वाला नहीं है । अभी भी हमारा महत्व है । हाँ ! अब बात पहले जैसी नहीं है । लेकिन तुम्हें खुश होना चाहिए कि हमलोगों को पहले जैसे बेवजह दौड़ा-भागी नहीं करनी पड़ती है । अब हमारे पास मोबाइल होता है और पता में भी फोन नम्बर रहता है । जिससे जाने से पहले ही पूछ लेते हैं कि वो व्यक्ति घर पर है या नहीं ।”—एक गहरी सांस लेते हुए एक मायूसी भरी आवाज में फिर उसने कहा –“पर एक बात से तकलीफ जरूर होती है कि पहले डाकिया को सभी पहचानते थे। मगर अब ऐसा नहीं है । अब तो कुछ लोग ही पहचानते हैं ।”