रंभा ने गोबर के ढे़र में पानी का छींटा मारकर सींचा और उन्हें सानने के लिये अपने दोनों हाथ उसमें घुसेड़ दिये। घिन बर आई, पिछले कुछ वर्षों में ये सब काम करने की आदत कहाॅँ रह गई है? हिचक होती है…. अब इ सब मोटा काम करने में। स्वभाव में महीनी आ गई है। गोइठा पाथना, आंगन लीपना, घर पोतना, जाॅँत में दाल दरना, ओखली में चिउड़ा कूटना… अब इ सब रंभा से कहाँॅ सपरता है, अब तो बिजली न रहने पर, मसाला भी इनवरटर से मिक्सी चला कर पीस लेती है, उ त अम्मा पकड़ ली चोयंटा जैसे – डाॅक्टर बाबू हैं नहीं तो का खाली घर में भूत सा डोलती है, आकर हमार कुछ काम करवा दे। सो चली आयी है अम्मा का हाथ बटाने।

कुछ ही देर में वह साड़ी को जांघ में घुसेड़े, अपनी काली सुड़ौल पिडंलिया चमकाते गोबर पाथने में जुटी थी, सामने पीपल की छाया तले, चबूतरे पर गाॅँव के खलिहर, आवारा छोकरे अपनी बाजियों से निगाहें हटा उसके उधड़े अंगों को निहार रहे थे पर रंभा अपने में मगन थी। हाथ गोबर पाथने में जुटे थे और दिमाग में डाॅक्टर बाबू की चिंता थी। महीना भर हुये उनको गये। पहले तो गोरखपुर ही गये थे मेडिकल में चेक कराने अब पता चला दिल्ली गये हैं। का कहात है , यम्स में। इ मुआ बोखारों त साल भर से पीछा नाहीं छोड़त रहा…… सूख के कांटा हो गइल रहन। दलिया, सूप, जूस… ऐकरे मत्थे भला अदमियन का देह बनत ह, फिर उहौ त रहा… सूगर… जेमे मीठा नाही खा जाता।

अचानक, एक तड़पती चीखती आवाज ने उसे भीतरी दुनिया से बाहर खींच लिया उस आवाज के पीछे जैसे भीड़ का कोलाहल, कुछ चीजें, प्रत्यक्षतः सामने न होते हुये भी महसूस हो जाती है – जैसे भीड़ का आभास उसकी सुन गुन… और पास आती चीखती आवाज… हरे, रम्भवा… इ का हो गया रे… हमार डाॅक्टर बाबू। विक्षिप्तों की तरह चीखता छोटका चबूतरे पर लोट गया। गोबर लिथड़े हाथों से रंभा ने छोटे भाई को झंझोड़ दिया।. ’’का भईल बोल हरामी’’ छोटका जोर जोर से अपना माथा पीटने लगा। भीड़ में से कोई आवाज रभा के कानों से टकराई डाॅक्टर बाबू मर गइन …… पेषकार बाबू के यहाँॅ फोन आइल बा। हताठ् पूरे कहरौटी में हाहाकार मच गया। शायद हाहाकार समूचे गाॅँव में मच गया था। रभा सज्ञांषून्य सी कपार पर हाथ धरे वहीं भाई के पास बैठ गई। छाती पर मनों बोझ धरा गया हो जैसे ….. ठाकुर बखरी से आती रूदन की आवाजें छाती पर हथौड़े सी बज रही थी। कहरौटी के किसी बुजुर्ग ने उसे पुकारा है। सूखी आँॅखों में प्रश्न लेकर आ खड़ी हुई है रंभवा… ’अब का ह’? जा… बहिनी घर खोल के कुछ बइठे… उठे के इतंजाम कइ द। रात बिरात गोरखपुर देवरिया, रसड़ा बनारस से केहू न केहू अइते होई लहास त…. परसों शाम तक पहँुॅची।

आँचल में चाबी का गुच्छा टटोलती सुन्न सी रंभवा डाॅक्टर बाबू के घर की ओर चल दी है ….. जो सामने ही था … जिसके पीछे की दीवारे कहरौटी की सीमा को छूती थीं। एक के बाद एक आगे पीछे मिलाकर कुल आठ आंगनों वाली बखरी थी ठाकुरों की। डाॅक्टर बाबू का घर ठाकुर बखरी का आखरी घर था। पीला दुमंजिला मकान बगल में पतली सी एक गली और गली के उस ओर कहरौटी की चें पे

बड़े फाटक के दायी ओर काले पत्थर पर डाॅक्टर बाबू का नाम अंग्रेजी में लिखा है रंभा के सीने में मरोड़ सी उठती है आँॅसू भलभला कर बाहर आना चाहते हैं। रभा अंग्रेजी नहीं जानती है पर उसे पता है उस पत्थर पर उसके डाॅक्टर बाबू का नाम ही उकेरा है …… डाॅ आनन्द ंिसह

पट्टिदारी के आदमी औरत इक्कट्ठे होने लगे थे। बाहरी बरामदा, अहाता गाँॅव के मर्द मेहरारूअन से पट गया था। सब ओर मनई के जमावड़ा। अइसन भीड़ त नेता जी के मरलै पे जुटल रहल, यही ठाकुर बखरी के पेषकार बाबू के छोटका भाई नेताजी जाने कइसै बड़का पोखरा में डूब गइन …. तैराकी में आस-पास के गांवों में पहला नाम रहा …………। उनके………डूबले के रहस्य आज तक चर्चा के विषय रहेला।

रंभा यंत्रं चालित सी घर में इधर उधर डोल रही है। पिछले कितने ही वर्षांे से वह इ घर दुआर की एकछत्र स्वामिनी थी। गिरस्थी का सुख यहीं तो जाना। वरना उसकी अपनी गिरस्थी तो कभी बनी नहीं। अब तो वह बातें किसी दुःस्वप्न की तरह यदा कदा याद आती हैं। कितनी दूर आ गयी है वो अब।

जब बियाह हुआ, का उमर रहीं रंभवां को याद नहीं इतना याद है महीना ससुरे में भई रही। पति परमेश्वर बम्बई प्रवास से पहले जितने दिन भी साथ रहा उसके कच्चे तन को मन मुताबितक रौंदता रहा, बिलबिलाती रभा के मुंह से निकली चीखें उसके वजनी हथेली की सीमा तक जाकर घुटकर रह जातीं। सकारे से फिर घर भर के अनगिनत काम। गोरू को सानी भूसा देने से लेकर घर लीपने बुहारने, कुॅँए से दसियों बाल्टी पानी खींचने खाना बनाने चैका बासन करने का सारा जिम्मा उस छोटी सी जान पर! पता नहीं। बियाह के पहले इ घर के कार कइसै सलटत रहल।

उधर आदगी बम्बई गया… इधर रंभा के पैर भारी! तीसरे महीने गर्भ गिरा…. चैथे महीने खबर आई आदमी के सिधारने की। ‘रांड अउरत के सबही भतार!‘ का घर का बाहर….हर ओर वासना के बजबजाते आंमत्रण। क्रिया कर्म के दूसरे ही दिन रंभा माघ की हाड़ कंपाती ठडी में अपनी कोठरी में पुआल के बिस्तर पर कथरी में गुड़ी मुड़ी पड़ी थी कोठरी क्या? ओसारे को घेरघार कर एक किनारे टाट का पर्दा डला कोना भर था शरीर को गर्माने की निष्फल चेष्ठा में उनींेदी रंभवा सरसराहट से चैंक उठी। कउनो क्रीड़ा उड़ा न हो । पासे में गड़ही है।

सांप ही था, दो पैर दो हाथ और सिर वाला। गंजेड़ी ससुर दिनभर दुआर पर मरबिल्ले कुत्ता सा पड़ा सास की गालियां सुनता। पीठ और कपार खजुआता हड्डियों का ढांचा मात्र। जिसे देख घिन छूटती, आज उसी ढांचे मंे उतनी जांगर आ गई कि रंभवा को संभलने का अवसर ही नहीं मिला दिनभर सास से सटी अपने को छुपाती रही। सास की अनुभवी आंखे रात का हाल ताड़ गयीं। अचानक बहू पर ममता उमड़ पड़ी। अगली तीन रात बहू को अपनी कोठरी में अपने साथ सुलाई चैथे रोज भाई आया लिवाने। जाती हुई रंभा के कान में फुसफुसा भी दी ….. जो आपन भला चाहू ….. त फिर पलट के ए कई न अइहै… वहीं कउनों नींक मनई देख बइठ जइहै ।

तबसे रंभा इसी गाँव में हैं, मां के साथ बखरी में जाती हैं। अनाज बिनती पछोरती है। खेतों में काम करती है। टोले के रंगीन मिजाज छोकरों का सामना अपनी ततेरती आंखों से करती उसके जीवनानुभवों से अनजान कोई नहीं है। यँूॅ भी उसके टोले में सबकी अपनी अपनी कहानी हैं।

कतवारू काका की मझली बेटी सुमितरी और छोटकी शरदवा , दुनों लगभग रभवा की हमउम्र। सुमितरी का ब्याह तो रभवा के साथ हुआ था। बेचारी गवन को अगोरते बरस पे बरस बीतते गये। सुमितरी काहे को अपने अरमान इंतजार की भेंट चढ़ाये। खेलावन चाचा के छोटका लरिका से चल रही गुपचुप देखा देखी खुले आम हंसी ठिठोली में बदलने लगी …. होश तो तब आया जब पेट में अंश पलने लगा, नरेसवा तो सूखे पत्ते सा काँपने लगा, बाबू लोगों का डर… जानेंगे तो काट डालेगें। बेचारी सुमितरी , कहाॅँ तो घर संसार बसाने के सपने देख रही थीं। कहाँॅ नरेसवा का रोना-धोना और चुपचाप रातो-रात शहर भाग जाना। बम्बई अपने फुआ के यहाॅँ भाग गया दोगला, एक दिन भिनसारे कतवारू काका क झोपड़े से उठी चित्कार ने कहरौटी में सनाका छा गया। भीड़ के बीच खून से लथपथ सुमितरी की एक झलक ही देख पायी थी वो देखकर ओकाई आने लगी थी। दिनों वह विभत्स दृष्य उसकी चेतना पर हावी रहा था।

अउर उ शरदवा, ठाकुर बखरी के ओवरसियराइन अपने साथ ले गयी थीं। कतवारू काका की चारों लड़कियां बारी बारी से ओवरसियर बाबू के यहाँॅ जाकर रहीं।ं काका उनकर खेत जोतत रहें फिर ओवसियराइन रूपया पैसा से भी मदद करती रहीं । फिर कष्ट भी का रहल शहर में। अपने लइकन जइसै रखती थीं ओवसियराइन। उनकर मीठ स्वभाव के जै जै त ठाकुर बखरी की पुरनियां से लेकर कहरौटी तक में होयेला। बाकी सबके समय ओवसियराइन के अपने बच्चे छोटे थे पर शरदवा के समय सब बड़े हो गये थे। बड़की बिटिया ससुराल जा चुकी थी। दुनौ बेटे बड़ी क्लासन में पढ़ते थे, बहिन के एक ठो लइका भी साथ रहता था। ओवरसियराइन के गृहस्थी के अधिकांश काम सरदवा के जिम्में रहता। अक्सर उ शरदवा पर सब छोड़ छाड़ कभी मायके कभी ससुराल शादी जनेऊ, मुंडन निबटाती रहती, भूडोल तो ओ दिन आवा जब शरदवा दे उल्टी पर उल्टी करें लगी। बहिनी, बबुनी, कहके बुलाने वाली ओवसिराइन पे ओ दिन चण्डी सवार हो गयी। खरवास उतरते आनन-फानन में शरदवा का गौना हो गया अब तो तीन लइकन के महतारी हो गइल बा।

माई, रभवा को अपने साथ बखरी में ले जाती थी, तभी डक्टराइन बहू ने बुलवाया था उस।े डाॅक्टर साब गाॅँव से पन्द्रह कि.मी. दूर दूसरे गाँॅंव में पदस्थ थे फिर इ गाॅँव में भी उनकी डिस्पेसरी थी… जहाॅँ सुबह शाम भीड़ जुटती थीं। बड़ा बेटा पाँॅच का पूरा होने को आया। छोटा अभी तीन का हैं, दोनों गाॅँव के रंग ढ़ग में रंग गये हैं। रे ते की भाषा बोलते हैं, अब उनकी पढ़ाई के लिए गोरखपुर में ही रहना तय किया है डक्टराइन ने। अब रहने को तो डाॅक्टर साब भी गोरखपुर में रह सकते हैं। आखिर मास्टर साब के बड़का बेटा भी तो वहीं से आते जाते हैं, यहीं बगलिये के गाँॅव में पी.एस.सी. के अस्पताल के पदस्थ हंै दाब के पइसों कमा रहे हैं, अउर शहर में रहने का सुखों उठा रहे हैें।ं पर इ बाबू साहब तो गाॅँव छोड़के कहीं जाने को तैयार नहीं. अब ऐ लिए बच्चों के भविष्य से तो खेलवाड़ नहीं न किया जा सकता नूं ।

डक्टराइन बलियां जिले की हैं, बोली में बलियठहीं टोन हैं। रेघा-रेघा कर बोलती हैं। अब पीछे से डाक्टर साब के रहने सहने खाने पीने की चिन्ता भी तो है नूं। अब वो तो शनिवार इतवार ही आ पायेंगी। उनकी बखबरी में रंभा की इआ (दादी) काम करती है। पर इ सब बूढ़ा के बस का थोड़े है। अब रंभा भी आया करेगी उनके साथ। डाक्टराइन पन्द्रह दिन बाद गोरखपुर शिफ्ट होंगी। तब तक रम्भा को उनसे डाक्टर साब के खाने में नमक चीनी का अंदाज जान लेना है। डाक्टर साब को शुगर है। ब्लउ प्रेषर भी ऊपर नीचे होता रहता है।

रंम्भा हैरान है। अब तक दूर दूर से देखी है डाक्टराइन को। गदबदी लम्ब्ी काया। बियाह के आयाी थीं तो इन्हीं के लिए गांव घर की अउरतें फुसफुसाहट में एक दूसरे को कुरेंदे कहाॅंँ सुकुमार देवदूत जैसे आनन्द बाबू और कहाॅँ इ लम्ब तड़ंग भरी पूरी मेहरारू। नयी ब्याही लड़की जइसन नाज नजाकत कुछेे नही, पूरे शरीर में सुंदरता के नाम पर नाागिन जइसन लहलहात बाल भर।

कुछ समय बाद कुछ और खुस फुस। डक्टराइन का चक्क्र है अपने सगे जेठ के बड़का लडका से। माॅँ और ईआ की सरगोंशिया रंभा के कानों तक भी पहुंचती। आते जाते उस बीस बाइस साला छोकरें पर नजर भी पड़ी थी जो शायद कहीं इन्जनियरिंग की पढाई कर रहा था। और छुटिटयों में गांव आया था। लडके के वापस जाते ही ये खुसफुस दब गई थी। लोग भूलने लगे थे पर इधर फिर दबी जबान से चर्चे चल निकले थें।

उ छोकरा पढाई बीचै में छोड भाग आया है। बाप महतारी लगे न जाकर यहीं गोरखेपुर चाचा चाची के साथ रह रहा है। कुल बोरना। कहां बडकी बहन पढ़ै वास्ते विदेस गइल बा कहाॅंँ इ साहबजादे।

डक्टराइन पन्द्रह दिन बाद गोरखपुर चली गयी थी। बर्तन बिस्तर अनाज गल्ला के साथ। टीवी फ्रिज यहीं थे। वहाँॅ दूसरा खरीदा जायेगा। ससुर का बनवाया बेतियाहाता में दो मंजिला मकान है। जिसके एक हिस्से में छोटे देवर परिवार सहित रहते है। एक हिस्से में डाक्टराइन रहेंगी। बाकी दो हिस्से किराये पर उठे है।

डाक्टर बाबू के घर काम करने में रंभा को कुछ दिन बडा अटपटा लगा था। इतना लम्बा चैडा घर और रहने वाले अकेले डाक्टर बाबू। सुबहे से दुआर पर मरीजों की भीड जुट जाती। दस ग्यारह बजे तक उन्हें देखते थे। मुडी चीने झुकाये जो परस देती खा कर चले जाते। आने में कभी सांझ कभी रात हो जाती। सांझ को फिर मरीज घेर लेते। जो कहना सुनना होता ईआ ही कहती। डाक्टर साब हँॅॅू हाॅँ में जवाब देते । कभी कुछ समान खत्म होता कहने पर पेैसा थमा देते। वो पैसा इतना अधिक होता कि जरूर बच जाता। लौटाने पर ाकहते रखे रहो बाद में हिसाब करेंगे। डाक्टराइन शनिवार आती सोमवार जाती इस दौरान भी उखरी रहती। जाने कैसा नाता था आदमी से। न हफ्ते भर बाद मिलने की कोई हुलस न लगाव। बाद के दिनों में रंभा को लगने लगा डाक्टर बाबू शनिवार इतवार कुछ ज्यादा व्यस्त हो जाते है।

डक्टराइन और बच्चों के आने से दो दिन खूब रौनक रहती है। बखरी की औरतें भी मिलने मिलाने आ जाती। दो दिन बाद फिर वही बेरौनक घर। सच्ची बिना मेहरारू के घर का कोई अर्थ नहीं। मर्द चाहे कितना भी बिगरैल बिदकना हो मेहरारू के हाड मास में बसी खूशबू से बंधा देर सबेर घर की चैखट के भीतर आ ही जाता है।

डक्टराइन रंभा पर खूब मेहरबान। रहतीं जब आतीं तो उसके लिए चूड़ी बिन्दी चप्पल अपनी पहन चुकी नई सरीखी साड़िया क्रीम पाउडर लाती। रंभवा अब रोजाना साबून मल कर नहाना सीख गई है। शैम्पू से बाल धोती है साफ सुथरी गदराई देह मर्दो को आकार्षित करती ही है। रंग से क्या फर्क पड़ता है? यो भी करिया रंग चिकनाकर संवरा गया था।

अब तो अम्मा और ईया भी कभी कभार आती थी। डाक्टर साब की गिरस्थी पूरी तरह से रंभवा केे हाथों में थी। उनके कपडे लत्ते रूपया पइसा अलमारी तिजोरी सब रंभवाा देखती संभालती और ऐसे ही एक दिन डाक्टर साब को संभालना पड गया। ना कउनों नशा फशा वाली बात नहीें। डाक्टर बाबू तो कभी लवंग इलायची भी मुंह में नही डालते पूरे होस हवाश में उन्होनें रंभवा की ओर हाँथ बढ़ाया था पता नही वह बढा हाथ उस टूटे थके आदमी का था या फिर मर्द की आदिम भूख का। ये भूख भी तो अजब है। समय स्थान पात्र कुपात्र कुछ नही सूझता। कब तक अपने को भुलावा देते। कब तक देह की स्वभाविक इच्छा को दिल दिमाग की फटकार से शान्त करते। उन्होने अपने को भी रंभा के हवाले कर दिया और रंभवा ने भी उन्हे बडे जतन से संभाल लिया। आखिर वो भी तो जनम की वांचिता थी। पुरूष के सहज प्रेंम स्पर्ष से पूरी तरह वंचित डाक्टर बाबू से सम्बंध भले ही गाढे प्रेम की परिणित न हो पर उनके स्पर्ष में मानवीय गरिमा तो थी ही आनन्द बाबू ने उसकी देह की सभी दबी छुपी कामनायें जगा दी थी। शरीर अपने पूरे सच्चेपन के उपस्थित था। शाश्वत सच, मन पर भारी शरीर की संतुष्टि। फिर भीतर मन आत्मा सब पर गहरा सूकूं तारी। रंभवा इन सूकून में गहरे उब डूब, पार कैसे जाये… जाना चाहे तब न!

ऐसी बाते न कहने सूनने पर भी जाने कैसे सब तक पहुच जाती हैं। शायद आंखों होंठो शरीर की भी एक आदिम भाषा होती है जिसे हर पढा बेपढा समझ जाता है। डाक्टर बाबू और रंभवा के बीच क्या और कैसा सम्बंध आकार ले चुका है इसकी फुसफसाहटे और बतकहियाँॅ ठाकुर बखरी से लेकर कहरौटी तक में चलती है। कोई कोई रंभवा को बाातों की टंच भी देता है। रंभवा भी आंखे ततेर होंठो पर रहस्यमयी मुस्कान धर बोलने वालों को एक का चार सुनाती है।

जो बातें पूरें गांव में आपसी खुस फुस का हिस्सा थी वो तीस किमी की दूरी पर रहने वाली डक्टराइन के कानों तक न पहुची हों ऐसा लगता तो नही पर उनके बात व्यवहार से ऐसा कुछ जाहिर होता सा रंभवा को भी नही लगा। उनके गांव आने के अन्तराल बढ़ते गये। इधर तो वह तीज त्योहार में ही आतीं। रंभवा ने उनकी गांव की गृहस्थी इतनी सुघडता से संभालती थी कि उसका होना उनकी अनिवार्यता बन गयी थी।

आज दूसरा दिन है। घर रिश्तेदारों पट्टिदारों से भर गया है और अब तक लोग रो – पीट कर थक भी चुके है। चूल्हा तो पाँचो बखरी में नहीं जला है, फल , चाय , शरबत पे सभी पहाड़ सा दिन काट रहें है, ऐसी दर्दनाक खबर के बाद भी जिन्दा मनई को तो पेट की आग जलाती ही र्है। रंभवा ने अलबत्ता मुहं नहीं जुठारा है, मुह झुरा गया है। आँखे सूजकर अड़हुल के फूल सी हो गई है। घर में कही से भी रूदन का स्वर उठते ही उसकी आँखे आप से आप बरसने लगती है, रो – रोकर थक चुके लोग भी आने वालो का रूदन सुनकर समवेत स्वर में रोना शुरू कर देते है।

बड़े और छोटे भाई के परिवार के साथ डाॅक्टर साब के दोनो बेटेेे भी आ गये है, बाकी नात भी जुटे है, 13-14 साल का बड़ा बेटा भीगी आखे झपकाता छोटे भाई से सटा बैठा है। रभवा एकाएक अपने आपको इस घर – दुआर, देहरी से छिटकी पाती है। अब तक मालकिन जैसे रही आयी है, आज अचानक अपने आपको अपदस्थ पाती है।

दिन सरक रहा है, लोगो का आना जाना लगा है, सामने का अहाता जनता से भर गया । गरीब दुखिया के हमदर्द ड़ाक्टर साब आस – पास के कई गावों में लोकप्रिय थे। अन्तिम दर्शनों की चाह सभी को थी। लाश आने में अभी समय था। …..कल दोपहर बाद ही पहुचेंगे। दिल्ली से आना है, साथ में डाॅक्टराइन और अमरेन्द्र बाबू के बडा़ लइका जो एम्स में हाउसजाब कर रहें थे। ….है।

‘‘ साल भर उपरे से बुखार नहीं छोड़त रहा….केतना कहनी जा .बाहर दिखा ली बाबू पर हंस के रही जाय’’ बखरी का किसी औरत का स्वर रंभा के कान से टकराया …….सच्ची, केतना सूखा गइल रहन बाबू…कुछ खाये पीये नहीं… खाली जूस….सूप पे पहाड़ सा दिन बिता दें … हमरों बुद्धि पे पथरा पड़ गइल रहल .सोच , सोच कर रभा की आँखे बरस रही है।

मोबाइल पर सम्पर्क हो रहा था। फैजाबाद कें आगे तक पहुच गये है, पाँच छै घण्टे मेे पहुच जायेगें, रात के ढ़ाई -तीन का समय होगा ,जब लाश गाड़ी दरवाजे पर आकर रूकी। भीतरी बरामदे में बैठी -बैठी लुढ़क गई रम्भवा की शिथिल हुई देह मानों एक सिहरन के साथ उठ बैठी। गाड़ी की तेज रोशनी गलियारा पार कर बिल्कुल भीतर आ रही थी। भीतर बाहर अर्द्ध सोये अर्द्ध जागे शरीरों में चेतना आ गई। मानों थकान और नींद ने कुछ क्षणों के लिए घटना की मर्मातंक वेदना को स्थगित कर दिया था। पर अब फिर सब उसी पीड़ा में घिर गये थे। सब बाहर भागे। गांव भर में जाग पड़ गयी। एक भीड़ सी जुट गयी गाड़ी के इर्द गिर्द उसी भीड़ में सुस्त सी खड़ी रम्भवा गाड़ी का पिछला हिस्सा खुलते देखती है। सबसे पहले अमरेन्द्र बाबू का बेटा उतरता है। सहारे के लिए कुछ लोग गाड़ी में चढ़ते हैं।

स्ट्रेचर जैसी चीज पर सफेद कपड़े से ढंका शव, किसी ने कपड़ा हटा दिया है ……डाक्टर बाबू आंखे मूंदे बिल्कुल ऐसे ही तो देवदूत सरीखे दिखते थे। स्ट्रेचर के पीछे डाक्टराइन सफेद निस्तेज चेहरा ……. जो चेहरा हमशा एक देहाती सस्तेपन में लिथड़ा रहता था………वहाॅँ एक विरान सौम्यता कौंध रही थी। एक बेसहारापन। कंपकपाती कमजोर देह, सूनी आँखें, पीड़ा का एक लम्बा वक्त काट चुके व्यक्ति की भांति।

कौन बढे़ सहारा देेने कैसी अजनबियत है उनकी आंखों में सबके प्रति। उनकी नजरें रंभा पर टिकती हैं दोनांे की आंखों का पानी अपने किनारों को तोड़ देता है। रंभा चीखकर डाक्टराइन से लिपट पडती है। अगले ही पल दोनो का समवेत रूदन वहाॅँ सभी के कलेजे हिला गया। अमरेन्द्र बाबू का लडका आष्चर्य से सभी को देख रहा है। ऐसे छोटे बड़े आश्चर्य हर आंख में आंसू के साथ घुले मिले तैर रहे थे। कुछ रम्भा के लिए, कुछ डाक्टराइन के लिए। कुछ सांच कुछ झूठ।

हिंदी की चर्चित कहानीकार. हंस, कथादेश, परिकथा, कथाक्रम, सखी(जागरण), निकट, अर्यसदेंश, युगवंशिका, माटी, इन्‍द्रपस्‍थ भारती आदि देश की प्रमुख पत्रिकाओं में कहानियाँ प्रकाशित. आकशवाणी से कहानियों का निरतंर प्रसारण. संपर्क - sapnasingh21june@gmail.com

2 टिप्पणी

  1. बहुत मार्मिक कहानी। संवेदनाओं को छूती सी। सुंदर लोक भाषा का प्रयोग। उतना ही सुंदर अंत। एक महिला का दूसरी के मनःस्थिति को समझता हुआ। कथाकार ने बहुत सुंदर कहानी लिखी। मन को छू लेने वाली।

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