शिरीष बाबू रिटायर होने को थे। रह-रहकर उन्‍हें अपनी कुर्सी का ध्‍यान हो आता। इसी कुर्सी ने उन्‍हें अर्थ दिया। लोग सलाम बजाते रहे। सारे दफतर के चपरासी, क्‍लर्क, इज्‍जत की नजर से देखते रहे। उनके हुक्‍म का उन्‍हें इंतजार रहता था। अब सबकी नजरें बदल रही हैं। अभी रिटायर होने में पूरे चार दिन थे लेकिन उनके दिन ऐसे गिने जा रहे थे जैसे किसी की मृत्यु हो जाने पर उसका चौथा, दसवां, तेरहवां होता है। उन्‍होंने खुद चपरासी से सुना था वह एक बाबू से कह रहे थे आज तो शिरीष बाबू का चौथ है बस। फिर वे यहा से उठ जायेंगे। थे बहुत अच्‍छे। 
ऐं ! थे का प्रयोग अभी से? शिरीष बाबू ने स्‍वयं को टटोला-चिल्‍लाकर कहना चाहते थे – ‘’अभी तो मेरी नब्‍ज ठीक है, धड़कन बाकी है, हाथ-पांव चल रहे हैं ! अरे चार दिन भी बहुत होते हैं ! एक दिन के राज्‍य में लोग चमड़े के सिक्‍के चलाकर नाम अमर कर गये मेरे तो अभी पूरे चार दिन हैं। चाहूं तो सबके नाक में दम कर दूं, किसी को छुट्टी न सैंकशन करूं। किसी को ओवर-टाइम न दूं। सबको नाकों चने चबवा दूं…’’ अभी वे यह सोच ही रहे थे कि जैसे दांत तले कंकर आ गया। चपरासी के साथ हरीश बाबू, जो अब पद भार संभालने वाले थे, आ धमके। हरीश बाबू के चेहरे पर वही मुस्‍कान थी जो बीस साल पहले शिरीष बाबू के चेहरे पर थी। उन्‍हें लगा अपनी बाकी मुस्‍कान भी उतार कर इसे देनी होगी। वे सहसा कुर्सी से उठ खड़े हुए। कहना चाहते थे, ‘’यह कुर्सी है जिस पर बीस साल पहले मैं इसी तरोताजा मुस्‍कान के साथ बैठा था। इस पर बैठते ही मेरे पांव पंख बन गये। हर रोज देश-विदेश की यात्रा करता। टी0वी0 का तांता लगा रहता था। इस कुर्सी से मुझे मोह होने लगा। लेकिन यह कुर्सी किसी की नहीं है – आज मुझे दुलत्‍ती मार रही है, कल आपको मारेगी। यह ऐसा मोह है कि इस पर बैठते ही इसका रंग चढ़ने लगता है। तन-मन पूरी तरह इसके रंग में सराबोर हो जाता है। मैं तेरा…तू मेरी का अलख जाप करता है। इसकी ही चरण वंदना वास्‍तविक चरण वन्‍दा है। जब लोग इज्‍जत करते हैं तो इसी कुर्सी की, वरना इससे उतरते ही उसकी प्रतिष्‍ठा गायब। 
हरीश बाबू ने शिरीष जी को यों खोये-खोये देखा तो सिर झुका दिया और चले गये। शिरीष धक्‍क से रह गये। ऐं यह तो जैसे मेरी कुर्सी देखकर सिर झुकाकर, हैट उतारकर श्रद्धा के फूल चढ़ा गया। उनका जी चाहा उन्‍हें वापस बुलायें पर नजरें उठाई तो सामने का दृश्‍य देख मुंह खुला-सा रह गया। चपरासी, कर्ल्‍क सैक्‍शन आफिसर सभी उनके साथ-साथ चल रहे थे। एक-एक चीज का परिचय दे रहे थे। हरीश बाबू मुस्‍करा कर हर चीज को देखते और आगे कदम बढ़ाते। हर जगह लोग अदब से खड़े हो जाते थे। ये गए तो उन्‍हीं की चर्चा शुरू हो गई – ‘’बड़े भले लगते !”
“भले ! अरे वैसा अनुशासन है। इनके वाले दफतर में कि बस! जरा देर से आओ तो कट गई आधी छुट्टी।‘’
‘’अपने शिरीष बाबू से तो आज तक चींटी भी न डरी। सौ-सौ बार उन्‍होंने चेतावनी का नोट लिखने को बुलवाया … वह मुंह पर जवाब दे आई।‘’
‘’अरे भई, जवाब मुंह देख कर ही दिया जाता है।‘’
आवाजें ही आवाजें ! शिरीष बाबू ने देखा जैसे उन्‍हीं का मर्सिया पढ़ा जा रहा है। उन्‍हें जल्‍दी ही उठ जाने को बार-बार उत्‍तेजित किया जा रहा है। लोगों की आंख से पानी खत्‍म हो गया। सहानुभूति का पानी भी सूख गया है। हे राम सर्वत्र सूखा पड़ने लगा। वे जो चिकनी-चुपड़ी बातें थीं… उन सबको लकवा मार गया। रूखी – सूखी खाय के ठंडा पानी पी…। पानी कहां है ? उन्‍होंने प्‍यासी नजरों से सबको टटौला और फिर जैसे गले में कोई तथ्‍य अटक गया हो, उन्‍हें हिचकी आने लगी थी। तभी सैक्‍शन आफिसर ने आकर कहा – ”आप तो जा रहे हैं न ?” ऐं मैं संसार से तो नहीं जा रहा…’’ शिरीष जी ने पलटकर उत्‍तर दिया तो सेक्‍शन आफिसर हंसकर बोला – ‘’हमारे लिए तो आप संसार से ही जा रहे हैं…’’
‘’ चार्ज लेने के लिए मुझे आदेश हुआ है । आपकी आज्ञा हो तो…’’ और आज्ञा की परवाह किए बिना उसने चीजें, रिकार्ड, फाइलें टटोलनी शुरू कर दीं। एक और अधिकारी दस्‍तखत के लिए ढेरों कागज ला-लाकर कह रहा था ‘’ साहब आप तो जा ही रहे हैं न … यह दस्‍तखत रह गए तो मेरा केस खराब हो जायेगा’’ – आप आखिरी बार यहॉं दस्‍तखत … यहां-यहां-यहां केस ही केस। कागज ही कागज। कागजों पर उनके नाम पद की मोहर लगी हुई…आखिरी हस्‍ताक्षर…आखिरी दस्‍तखत, आखिरी दिन। सारी चीजें यां चेक होने लगी थी जेसे कोई चोर-उच्‍चक्का होटल के कमरे में ठहरा हो और जाते समय वहां के कंबल, गिलास, तौलि, चममच उठाकर ले जा रहा हो। उन्‍हें लग रहा था अभी तलाशी भी होगी। दोनों हाथ ऊपर उठाकर खड़े होना होगा। दांत पीस कर वे कहना चाहते थे – ‘’जेबों की तलाशी भी लो कम्‍बखतो…तभी कानों में भनक पड़ी। विदाई की पार्टी के लिए चंदा लिया जा रहा है… जैसे गोशाला के वास्‍ते गली-गली चंदा मांगा जाता था… जिस गाय का दोहन करके, उसके गोबर तक से उपले बनाकर लोग आग जलाते हैं, हाथ सेंकते हैं उसी को सूखी रोटी डालने के लिए चंदा…? 
शिरीष को लगा उनका क्रिया-कर्म करने की व्‍यवस्‍था की जा रही है। श्रद्धांजलि का कार्यक्रम होगा…हर कोई फूल चढ़ायेगा। बलि के बकरे को भी एक बार तिलक लगाकर फूल माला पहना करके ही झटका दिया जाता है। 
शिरीष बाबू अभी सोच ही रहे थे कि तभी गर्दन में दर्द-सा होने लगा था… उन्‍होंने क्‍लर्की में जिन्‍दगी आरंम्‍भ की और कड़ी मेहनत से इस पद तक पहुंचे। इस पद तक उनकी पैदल पदयात्रा थी। कितने कांटे चुभे, कितनी बार घायल हुए लेकिन उफ्फ न की। हंसते –हंसते मुसीबतें झेली। हर टेस्‍ट …हर इम्‍तहान में पहले आये। धाक का सिक्‍का जमाते और फिर शान से इस पद पर यों आये जैस किसी को शाही तख्त मिल गया हो। पदयात्रा में जितने कांटे चुभे थे सब पर त्‍यों प्‍लास्टिक सर्जरी हो गयी। उनके नाम की मुहर बन गई। साहब साहब करते लोग थकते न थे। जरा सी घंटी बजाओ तो जैसे उलाउदीन का चिराग सामने होता था। सिर्फ उनके ऊंचे पद पर पहुंचते ही पूरे कुनबे का मस्‍तक ऊंचा हो गया था। उनके हस्‍ताक्षर से लाखों के वारे-न्‍यारे होते। सब लोग तनख्‍वाह पाते। और अब कहां गई वह मुहर वह मुद्रा?  मुद्रा भी डाक टिकट की तरह होती है। जिसके नाम की चली, चलती रही…अब तो उन्‍होंने अपनी मुद्रा ठीक की। लग रहा था चेहरा कागज का सा हो गया। बार-बार मीरेड़ कर फेंक दिया गया सा कागज।‘ 
दफ्तर से लौटने लगे तो कदम भारी था। सहसा एक हंसी सी उभरने लगी। कदम भारी है या पांव। उन्‍हें अपनी पत्‍नी से पुराने दिन याद आये। फिर सहसा आंखों के आगे हरीश बाबू के बढ़ते कदम और दफ्तर के लोग की कालीन सी बिछती मुस्‍काने ध्‍यान हो आईं। उन्‍होंने स्‍वयं को झटका देकर अलग किया। तेजी से घर की ओर बढ़े। अभी घर के बरामदे तक ही पहुंचे थे कि लगा घर की हर दीवार पर सेवानिवृत पड़े सोफे पर लुढ़क गये। तभी उन्‍होंने सुना उनकी कर्कश पत्‍नी बहू से कह रही थी –
अये ! अब तो यह चार दिन में ही रिटायर हो जायेंगे। घर को तो तुम ही लोग संभालोगे। हां बहू, यह शर्ट यह पैंट तो बहुत अच्‍छी है…। अब इन्‍हें तो घर ही बैठना होगा यह पहन लेंगे। अरे हां, वह दोनों इनकी नई कमीजें भुवन को दे देना। दफ्तर से इज्‍जत दार कपड़ा पहनना चाहिए… और नये जूते वह तो…
आवाज सुनते ही शिरीष बाबू एक दम उठ खड़े हुए। दुसरे कमरे में गए तो देखा उनका बेटा भुवन उनके जूते में अपना पांव फिट करने पर लगा था। 

सरोजिनी प्रीतम की कहानी - शिरीष बाबू 3

सरोजिनी प्रीतम
ईमेल – sarojinipritam@gmail.com

2 टिप्पणी

  1. बहुत सही ढंग से रिटायर होते सहाब की मनोदशा चित्रित की है। आँखों के सामने चित्र बन गया। हार्दिक धन्यावाद इतने मनोरंजक आलेख के लिए

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