सड़क पर बादल साथ चल रहे हों, आसपास हरियाली और उसमें भी तैरते बादल, पर्वतीय सड़क का ढलान, पास और दूर जहां भी नजर जाए वहां पर्वत, नीला आकाश, ठंडी हवा और इन सबसे मिलकर एक ऐसी आनंद की उर्जा बहती है कि कदम अपने आप इन रास्तों पर बढ़ते ही जाते हैं। जब पेडोमीटर देखो तो पता चलता है कि हम सात हजार कदम चल चुके हैं। 
ऐसा सिर्फ पर्वतीय रास्तों पर ही हो सकता है या किसी घने जंगल में, सागर के किनारे या किसी ऐसी जगह जहां सिर्फ प्रकृति और हम हों। वहां हमें ध्यान ही नहीं कि हम कितना चल चुके हैं, मगर यह चलना तो रोकना ही है। 
ऐसे में यदि फोन की घंटी बज जाए तो फिर हम पूरे के पूरे जमीन पर आकर खड़े हो जाते हैं। बादल, सड़क सब वही और वहीं होते हैं मगर अब दुनिया बदल चुकी होती है। और यह दुनिया जिसमें मैत्री की मां की आवाज और उनकी शिकायत “मैत्री, सुबह से तुम्हें फोन लगा रही हूं। अनरीचेबल आ रहा था, तो अमित को फोन लगाया उसने ही बताया कि तुम चार दिन पहले ही रामगढ़ जा चुकी हो। तुमने मुझे बताया भी नहीं!?”
“मां, हर बार बताने पर क्या होता है? आपको याद है न। फिर इस बार वही सब करने की मेरी हिम्मत नहीं थी।”
“अमित डायबिटिक है। और तुम यूं ही हर चौथे- पांचवे महीने 15- 20  दिनों के लिए घर छोड़कर निकल पड़ती हो। पचास की उम्र में यह सब अच्छा लगता है क्या?”
“मां, मुझे कोई बीमारी इसलिए नहीं है क्योंकि मेरा लाइफ स्टाइल सही है। घर की सारी जिम्मेदारियों के बाद भी मैंने बहुत रेगुलर हेल्थ और डाइट को अपनी लाइफ का हिस्सा बनाया, इसलिए मैं स्वस्थ हूं। मैं इसलिए स्वस्थ नहीं हूं कि मैं बहुत सुखी या बहुत खुश हूं। अपनी बीमारी की जिम्मेदारी इंसान खुद उठाएं तभी वह बेहतर हो सकता है। किसी और की कितनी भी केयर हो, उससे कुछ नहीं होता मां!”
“अमित ने क्या नहीं किया, अपने परिवार के लिए! तुम्हारा भी फर्ज़ है कि…?”
“मां, दिखता तो यही है कि उसने घर के लिए बहुत कुछ किया, पर यह अधूरा सच ही है और फिर फर्ज़ क्या एक तरफा होता है? मेरे दुःख और बीमारी में मुझे क्या मिला, आप जानती हो!”
“हर औरत अपना घर चलाने के लिए बहुत कुछ सहती है। तुम अमित के साथ भी तो घूमने जा सकती हो!”
“मैं जितना कर सकती हूं करती ही हूं। अमित और मेरी पसंद ही नहीं मिलती है। जब मन न मिले तो क्या कुछ समय अपने ढंग से नहीं बिताया जा सकता है? उसे भीड़ वाली जगह, होटल का खाना चाहिए और मैं शांति ढूंढती हूं। मुझे खाने की तो कोई चिंता ही नहीं है। जो बना सकूं वही…”
“पसंद क्या होती है, यह मैं तो नहीं जानती हूं। मैं सिर्फ परिवार की जरूरत और जिम्मेदारी को समझती हूं।”
“जिम्मेदारी अपने मन के लिए भी होती है न मां! उसे कौन उठायेगा? औरत एक इंसान है, कोई मशीन नहीं है। उसके भी अरमान हो सकते हैं। अब बच्चे अपनी नौकरी में व्यस्त हैं तो मैं अपने मन की…”
“मैंने भी अपनी पूरी जिंदगी परिवार के नाम कर दी। अब मुझे नहीं सुननी है तुम्हारे मन की बात…!”
“मेरे मन की बात न सही, आपके मन की बात तो कर सकते हैं न! पहले पापा और अब भैया- भाभी ही आपकी जरुरतों के निर्णय लेते हैं। कल पापा की तनख्वाह और अब उनकी पेंशन मिलने के बाद भी, न पहले और न ही अब आप अपने मन की कर सकीं। एक बार अपनी मंदिर की सहेलियों को जो नाश्ता भी न करा सके, क्या ऐसी एकतरफा जिम्मेदारी ठीक लगती है?” 
शब्द तो मुंह से निकल गए थे और फोन ने उन्हें मां के कानों तक पहुंचा भी दिया था। डर के मारे मैत्री ने अपना हाथ अपने मुंह पर रख लिया। हे भगवान, मेरे मुंह से यह क्या निकल गया? मैं कितना गलत कह गई! मां को कितना दुख होगा!  
फोन हाथ में लिए खड़ी मां- बेटियां एक गहरे सन्नाटे में डूब गईं थीं।  फोन बंद करने का ख्याल भी दोनों को नहीं आया। मैत्री को तो ऐसा लगा जैसे उसने मुंह पर हाथ रखकर ही फोन बंद कर लिया है। कुछ पलों के बाद मां ने ही फोन काटा।  
दो तरफा बराबरी से हुई बमबारी करने के बाद मां का हाल क्या हुआ होगा? यह जानने की कोई इच्छाशक्ति अब उसमें नहीं बची थी। उसने बहुत तीखी बात कह दी थी।  
मैत्री की मां, वह अपनी बेटी को उसी ढांचे में देखना चाहती हैं, जैसी वे खुद हैं या उनके पीछे भी जैसा होता आ रहा था। औरत घर की हर जिम्मेदारी पूरी करे मगर अपने मन की कभी ना सुने! औरतों ने इस आधुनिक युग में जो पाया है, वो यह है कि वह पढ़ाई और कमाई कर ले, घर- बाहर के सारे काम कर, बच्चों को संभाल ले। अधिकतर पति आज भी लापरवाह हैं। उनकी लापरवाही का खामियाजा पत्नी उठा ही लेगी क्योंकि वह दुर्गा स्वरूपा जो है। आज वही दुर्गा यदि अपने मन का कुछ करना चाहती है, तो उससे सवाल किए जाते हैं। 
अपने मन की बात, यह मैत्री कहां जानती थी? एक बार ज्योति उसकी बचपन की सहेली ने उसे ऑल इंडिया रेडियो में बुलाया था। वह प्रोग्राम डायरेक्टर है। महिलाओं की सोच पर एक टॉक था। कार्यक्रम का नाम – मन सुमन! आप अपने मन को ताजगी देने के लिए क्या करती हैं?  
ज्योति ने जब उससे पूछा कि “वह अपने मन की खुशी के लिए क्या करती है?”  यही उसे बताना है तो उसका दिमाग ही सुन्न हो गया था। अपने मन के लिए क्या..? घर का काम, बच्चों की देखभाल, उनकी पढ़ाई, बाहर के कई काम, पति की देखभाल, रिश्तेदारी और सबसे बड़ी बात आठ घंटे की स्कूल की नौकरी के बाद, मन सुमन के लिए समय बचता ही कहां है? औरत के पास मन- सुमन जैसा कुछ होता है क्या? वह अपनेआप से ही सवाल कर उठी थी।
जब दूसरी महिलाओं ने अपने- अपने मन की बात कही तो उन्हें सुनकर मैत्री ने कहा – “मेरे मन- सुमन के लिए मैं यात्राओं पर जाना चाहती हूं। हरे – भरे मैदानों,  जंगल, रेगिस्तान में, पर्वतों, बर्फ के पहाड़ों पर, सागर, नदी या झील के किनारे घंटों बैठना और प्रकृति को जीना चाहती हूं। यही मेरे मन सुमन को महका सकता है।”
इस रेडियो टॉक के बाद मैत्री का मन कहीं अटक गया था। उसने सोचा,  उसे अब यात्राएं जरूर करना है। दोनों बच्चों की नौकरी के बाद उसने वीआरएस ले लिया और निकल पड़ी घूमने के लिए। आज से तीन साल पहले जब पहली बार घर से बाहर निकली थी तो उसे बच्चों और पति का बहुत विरोध सहना पड़ा था। मां तो जैसे सदमे में ही आ गईं थीं। 
उसने सबका डटकर सामना किया और अपने मन की बात सुनती रही। अब वह  खाली समय में बच्चों की ट्यूशन लेने लगी थी। अपनी सीमित बचत के बाद भी वह यात्राओं का आनंद लेती थी। मां को याद करते हुए, अपने बुझे मन से वह ए, बी एंड सी के बाहर आकर खड़ी हो गई। आज उसका मन नहीं था, यहां रुकने का। मगर भीतर से आई आवाज़ ने उसे बुला ही लिया। 
“हाई, मैत्री प्लीज कम इन!”
“हाई श्री!”
कहकर वह अंदर चली ही गई। रोजाना मैत्री यहां से गुजरती थी। एबीसी का बोर्ड उसे लुभावना लगा। दुकान का नाम ऐसा कि समझ ही नहीं आया, यहां क्या मिलता है? जब कुछ पल रुक कर देखा तो लगा यह तो अपने ढंग की एक अलग ही जगह है। एक धनुष जैसा बोर्ड उस पर तीर की नोक पर ए लिखा था और नीचे बी फॉर बुक एंड सी फॉर कॉफी। किताबें और कॉफी के साथ कुछ लोग बैठे, दोनों का आनंद ले रहे थे। एक टेबल के साथ सिर्फ एक कुर्सी,  टेबल और कुर्सी का डिज़ाइन, जो किताब और कॉफी की थीम पर ही बने थे। बहुत आकर्षक लग रहे थे। जो इस कॉन्सेप्ट को स्पोर्ट करते और एक गहरा प्रभाव भी छोड रहे थे। 
“नाइस कांसेप्ट!” ए स्टैंड फॉर ऐम?! पहली बार इतना ही कह पाई थी वह। यहां ज्यादा बोल कर किसी के आनंद में खलल कैसे डाल सकती थी। 
“येssस,  थैंक यू!” के साथ उस महिला ने मैत्री का स्वागत किया था। फिर तो नियम ही बन गया था कि वह यहां से कोई किताब ले जाती और आराम से पढ़ती थी। श्री नाम है, इस शॉप की मालकिन का। 
इस शॉप में अनेक हिंदी, अंग्रेजी, मराठी और फ्रेंच भाषा की किताबें हैं। किताबों का लेनदेन भी बड़ा अच्छा है। लोग अपनी कोई किताब यहां छोड़ जाते हैं और नई किताब ले लेते हैं। जिससे इस लाइब्रेरी को हर दिन ताज़गी मिलती रहती है। क्यू आर एंड बारकोड स्कैन करके मेन्यू देखकर तो मैत्री को आश्चर्य हुआ था कि कोई अपनी किताबों के लिए कितना संजीदा हो सकता है। कॉफी की वेरायटी और रेट के साथ किताबों के नाम थे। किताब को कितने दिन रखने पर कितने पैसे देने होंगे, साथ ही किताबों को सहेज कर रखने से जुड़े नियम और प्रोत्साहन पढ़कर तो मैत्री खिलखिला उठी थी। 
तब श्री ने उससे पूछा था “व्हाट हैपेंड?”
“नथिंग, यॉर मेन्यू इज फैंटास्टिक!”
“ओह, रियली?!”
“या!”
आज मैत्री ने कॉफी ऑर्डर की और बाहर आकाश को देखने लगी। जिस कुर्सी पर वह बैठी थी, वहां से बर्फ से ढके पर्वत बहुत सुंदर लग रहे थे। मां की बात को याद करके मैत्री की आंखों में आँसू आ गए। टेबल पर कॉफी रखते हुए श्री ने उन्हें देख लिया। मैत्री के कंधे पर हाथ रखकर उसने पूछा  “क्या हुआ?”
“आज मैंने मेरी माँ को बहुत कड़वी बात कह दी!”
“क्यों, ऐसा क्या हो गया था?” 
“मेरे पति डायबिटिक हैं। बच्चे नौकरी कर रहे हैं। मेरे परिवार और मेरी मां को मेरे इस तरह यहां रहने से बहुत तकलीफ़ होती है। बस वही सब… श्री, तुम मुझे बता सकती हो कि तुम यहां क्यों रह रही हो?”
“मैं रहना चाहती हूं इसलिए… सिंपल!” कहते हुए श्री ने एक कुर्सी खींची और वह मैत्री के पास बैठ गई।
“मेरा मतलब तुम्हारा परिवार, जिम्मेदारी… वो सब क्या सोचते हैं?”
“ओह, तो उसका जवाब तो यह है कि मैं एक ग्राफिक डिजाइनर हूं। मेरे पति एक एमएनसी में काम करते हैं। हमारी अरेंज मैरेज हुई है। कोई बच्चा नहीं है। बच्चा नहीं हुआ तो हमने किसी भी टेक्नोलॉजी का सहारा लेना पसंद नहीं किया, हम दोनों अपने जीवन में खुश रहे। मैंने रामगढ़ में अपनी शॉप खोलकर रहना पसंद किया। अपनी तीन सौ किताबों के साथ मैंने यह शॉप खोला था। अब कितनी किताबें हैं यह तो तुम जानती ही हो! प्रशांत भी कभी-कभी यहां आ जाते हैं। मेरा यही एक ख्वाब था- मेरी एक दुकान हो जिसमें किताबें पढ़ने के शौकीन लोगों का आना- जाना हो, तो मैंने यह काम शुरू किया। पिछले तीन सालों से, आसपास के कई लोग यहां आने लगे। यहां कब तक रहूंगी, आगे क्या करूंगी, कुछ पता नहीं है! पर अभी तो यहां रहना अच्छा लग रहा है। इसी खुशी को, इसी आनंद को जी रही हूं।”
“जीवन में सफलता को किसी नियम से बांध नहीं सकते हैं। मेरी लव मैरिज हुई है। वह भी बचपन का प्यार… और रिज़ल्ट तो देखो कैसे हैं? अरेंज मैरिज के बाद भी कितनी स्मूद लाइफ है तुम्हारी!” 
“श्री, लाइफ स्मूद हो जरूरी नहीं, कई बार उसे बनाना भी पड़ता है। आईएम नॉट बोर्न विथ सिल्वर स्पून इन माउथ! मुझे फर्म रहना प्रशांत ने सिखलाया है। मैंने बहुत स्ट्रगल किया है।”
“तुमने रामगढ़ को ही क्यों चुना, मुंबई के पास भी कई हिल स्टेशन हैं?”
“मेरा यहां रामगढ़ में आने का एक बहुत बड़ा कारण है।”
“वह क्या है?”
“मुझे यहां महादेवी वर्मा की खुशबू महसूस होती है। उन्नीस सौ की शुरुआत में  जिनकी शादी नौ साल की उम्र में हुई थी। उन्होंने अपने ससुराल में इतनी धूम मचाई कि वह वहां रही ही नहीं, वापस आ गई। उनका लक्ष्य शिक्षा था। वह तो बौद्ध भिक्षु बनना चाहती थी मगर गांधीजी के संपर्क में आकर वह स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ीं। एक बच्ची में कैसे यह मजबूत इरादा आया कि उन्हें वैवाहिक जिंदगी नहीं चाहिए। उन्हें पढ़ना है। उन्हें सन्यासी की तरह रहना है, जो सफेद साड़ी पहनती थी। वे यहां रामगढ़ में आईं,  मीरा घर उन्होंने बनवाया और यहां गांव के लोगों के उत्थान के लिए उन्होंने काम किया। उनके पति से भी उनके संबंध दोस्ताना रहे। कैसे उनके पति ने उनका साथ दिया होगा? पहला मजबूत पैर तो महादेवी का ही था। इसके बाद उनके पति ने उनको जीवन भर अपनी सखी समझा। दूसरी शादी भी नहीं की। उस दौर में जब पढ़ना- लिखना एक बहुत बड़ी बात थी। अगर तब वह अपना पैर जमीन पर जमा सकती थीं तो हम आज अपना पैर जमीन पर क्यों नहीं जमा सकते हैं? उस दौर में उनके मायके और ससुराल वाले कुछ लोग उनके भी विरोधी रहे होंगे!  हमें तो सिर्फ अपने आपको यह बताना है कि मैं क्या चाहती हूं!  हमारे आसपास वैसा वातावरण बनने लगेगा। जितनी बुलंदी हमारे विचारों और व्यक्तित्व में होगी उतनी सफलता हमें अपने आप मिल जाएगी।”
“बहुत सुंदर, तभी यहां दीवारों पर महादेवी की कविता की पंक्तियाँ लिखीं हैं। तुमने तो इस जगह को उनके रंग में रंग दिया है। श्री,  मैं जो चाहती हूं कर लेती हूं मगर आज मां का दिल दुखा, यह गलत हो गया।”
“अब जब तुम कह चुकी हो तो इंतजार करो, वे इसको कैसे समझतीं हैं। हो सकता है वे इस कड़वाहट के पीछे छुपे सच से रूबरू हो जाएं।”
“हां, इंतजार ही करना होगा! मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गई!”
“मैं समझ सकती हूं एक पारंपरिक परिवार में औरत के स्वतंत्र व्यक्तित्व को स्वीकृति नहीं मिल सकती है। उसे गहना, कपड़ा सब मिल सकता है लेकिन आजादी इन सबसे बहुत भारी होती है। उसे हासिल करना आसान नहीं है।”
“हां, श्री यही बात है। ऐसा लगता है जैसे मैं कोई गुनाह कर रही हूं। सब अपने ढंग से जी सकते हैं लेकिन मैं नहीं! श्री, मैं अब घर जाती हूं, मन ठीक नहीं है।”
“अपना ख्याल रखना!” श्री ने मैत्री को छूते हुए कहा।
आज मैत्री को श्री से एक नई किताब लेनी थी, वह बाहर निकली तो श्री ने बोला “योर बुक!”
“नॉट टुडे श्री!” कहते हुए मैत्री बाहर निकल गई। वह दुकान से ही बाहर निकल पाई अपने संताप से बाहर निकलने का कोई रास्ता उसे नहीं दिख रहा था। मां बहुत बेबस है और एक कमज़ोर इंसान पर इस तरह से हमला करना ठीक नहीं है। बचपन की अनगिनत यादें – जब उसने अपनी मां को झुकते, टूटते और निभाते हुए देखा था। 
वह कभी भी अपने मन कर ना कर पाईं। यह उनकी कमजोरी थी। इसके आगे उन्होंने कभी सोचा भी नहीं कि वह क्या चाहती हैं? इसके आगे वह कभी जा ही नहीं पाई थीं। मैत्री भी कहां जा पाई थी?! उस दिन यदि ज्योति उससे वह सवाल नहीं करती, उसके पहले तो उसका जीवन भी लगभग उसकी मां जैसा ही था। तो फिर मां को यदि उससे शिकायत है तो इसमें क्या गलत है?  
जिसने ऊंचाई का स्वाद न चखा हो, वह तो ऊंचाई से घबरा ही जाएगा!  उन्हें तो बहुत अजीब लगेगा, एक औरत का इस तरह से अपनी गृहस्थी को छोड़ देना। मां ने तो कभी एक बार भी पापा को गरम रोटी देने में गलती नहीं की और जब गलती हुई तो घर में बर्तन ही फेंके गए। मां उस डर से कभी बाहर ही नहीं निकली तो आज बेटी का इस तरह से घूमना वह कैसे बर्दाश्त कर पाएंगी?! 
मैत्री को लगा किसी को मैंने गड्ढे में फेंक कर यह दिखा दिया कि वह क्या है?! जबकि वह तो मुझे समझा रही थी कि मैं ऊंचाई पर ना जाऊं क्योंकि वह ऊंचाई से डरती हैं, जो कि स्वाभाविक है। मां को याद करते हुए मैत्री के तीन दिन बहुत कष्ट में बीते।  
आज तीसरा दिन था। शाम के समय उसके फोन की घंटी बजी। मैत्री ने भागकर फोन देखा, वह मां का था। झट से उसने फोन उठाया।
“मां!” सिर्फ इतना ही कह पाई थी वह।
“इतनी उदास आवाज में क्यों बात कर रही है?” मां ने बड़े अधिकार से बोला।
“कुछ नहीं मां, आप कैसे हो?”
“मैं बहुत अच्छी हूं! जब बच्चे वह दिखा दें जो हम देख कर भी नहीं देख पाते हैं तो आंखें तो खुलनी ही हैं। और जब आंखें खुलती हैं, तो दिखाई देता है। देखना तो अंधेपन से बेहतर ही होगा ना बेटा!”
“मां, मुझे माफ करो!”
“पहले मेरी बात सुन, जो मैं कहना चाहती हूं। तूने मुझे उस दिन यह तो कह दिया कि तेरे पापा और भाई मेरा एक अरमान भी पूरा ना कर सके। मगर तूने यह नहीं कहा कि वही अरमान तूने पूरा किया था। तूने ही तो होटल में मेरी सब सहेलियों को बुलाया था और मेरे लिए पार्टी अरेंज की थी। उस दिन मैं समझ नहीं पाई थी, तेरी समझ, तेरी ताकत, अपना पैसा और आत्मनिर्भरता! आज समझ में आया, जब तूने मुझे एक धक्का ही दे दिया। सुनकर तो ऐसा लगा था कि बच्चे क्या मां को इस तरह नीचा दिखा सकते हैं? दो रातें तो रोते-रोते ही बीत गईं थीं। मगर उसके बाद लगा कि तुमने नीचा तो दिखाया मगर वह सच भी तो था। तो क्या जो जीवन मैंने जिया वही मेरी बेटी जिए? क्या यह गलती मुझे करनी चाहिए?!”
“आई लव यू मां!”
“पागल, तूने बहुत अच्छा काम किया। इस बहादुरी की हम सबकी जिंदगी में जरूरत है। जब कभी किसी को कोई सहारा और साथ मिल जाए तो शायद वह कदम उठा सकता है।”
“मेरे पास आओगी?”
“हां बेटा, पर कैसे?”
“तुम काठगोदाम तक ट्रेन से आओ! मैं तुम्हें लेने नीचे आ जाऊंगी!”
“मैं तो कभी अकेली ट्रेन में बैठी नहीं!”
“तुम्हें कुछ नहीं करना है। मैं तुम्हारा टिकट करवा रही हूं। अपनी बर्थ पर जाकर बैठ जाना। ट्रेन अपने आप तुम्हें यहां ले आएगी। आ जाओ ना मां! मुझे बहुत अच्छा लगेगा!”
“ठीक है बेटा, पर मेरी टिकट मैं खुद ही करवाऊंगी! अपनी कॉलोनी के बाहर रेलवे टिकट वाले के पास जाती हूं और टिकट करवाती हूं। फिर तुम मुझे लेने नीचे आ जाना।”
मैत्री को लगा,  श्री सच ही कहती है -यहां की हवा में महादेवी की खुशबू बसी है। वही खुशुब आज उसकी मां तक भी पहुंच गई।
(यह कहानी कथा समवेत द्वारा आयोजित कहानी प्रतियोगिता में प्रथम स्थान पर रही है|)

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